हमारे मोहल्ले के लगभग सभी घरों में एक ही कामवाली चौका-बर्तन, झाड़ू-पोंछा, कपड़े की धुलाई आदि कर जाती थी। किसी एक घर में उसका दुपहर का खाना भी बंधा था। हर घर से उसे कुछ न कुछ चाय-नाश्ता भी मिल जाता था। काम उसका ठीक-ठीक ही था, पर चूंकि मोहल्ले में उसका एक प्रकार से इजारा था और वह दिन का भोजन भी वहीं से पाती थी, इसलिए वह कभी नागा नहीं करती थी। गृहणियों को उसकी यही आदत सबसे अधिक पसंद थी।
कुछ दिनों तक तो सब यों ठीक-ठाक चलता रहा। नवंबर का महीना आया और दीवाली निकट आती गई। एक दिन कामवाली ने सोसाइटी पर ऐटम बम गिरा दिया। उसने घोषणा की कि वह कुछ दिनों के लिए अपने गांव जाएगी। सब जानते थे कि वह एक बार गई तो फिर आने का नाम नहीं लेगी। उसकी जगह दूसरी कोई कामवाली मिलना भी आसान नहीं था। इसलिए उसे बहुत समझाया गया, बहुत प्रलोभन दिए गए, पर वह मनाई न जा सकी। घर वह जाएगी ही, दीवाली है, जाना अनिवार्य है।
दीवाली आई और गृहणियों के लिए वह बिना किसी खुशियों के ही निकल गई। मोहल्ले की अधिक उद्यमशील महिलाओं ने आस-पड़ोस के मोहल्लों में जाकर वहां की कामवालियों को नक्की करने की कोशिश की, पर किसी को सफलता हाथ नहीं लगी।
मेरी पड़ोसिन प्रभा का बड़ा परिवार है। कामवाली के चले जाने से उस पर कहर टूट पड़ी थी। पर एक दिन हम सबको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह बड़े इत्मिनान से अपने मुन्ने को टहलाने मोहल्ले की सड़कों में निकल आई है। उसने एक परिचित महिला को थोड़े अभिमान से पुकार कर कहा, "अरि ओ कमला, जरा बाहर तो आ, धूप कितनी नरम-गरम, गुनगुनी है।"
दो बड़ी-बड़ी बाल्टियों में भरे कप़ड़ों की ओर झुकी कमला अपनी पड़ोसिन की यह बात सुनकर कमर सीधी करके खड़ी हुई और उंगलियों से माथे का पसीना पोंछती हुई तुनककर बोली, "क्या मजाक कर रही है प्रभा, यह काम समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता। तेरे क्या सब काम पूरे हो गए, जो तू यहां टहल रही है?"
"अरे उसकी चिंता करने की अब मुझे जरूरत नहीं है", प्रभा ने कहा।
"क्यों, काम में हाथ बंटाने शौहर को मना लिया है क्या?" कमला ने उसे छेड़ा।
"अजी उन्हें क्यों परेशान करूं? केमजी सब संभाल लेता है।"
"केमजी? वह कौन है?" कमला ने तनिक संदेह से पूछा।
"अरे वही मेरा नया कामवाला।" प्रभा ने विजयी मुस्कान के साथ कहा, और कमला के चेहरे पर ईर्ष्या एवं अविश्वास का भाव पढ़कर मन ही मन झूम उठी।
प्रभा की इस महत्वपूर्ण उपलब्धि की खबर मिनटों में मोहल्ले भर में फैल गई। उसके घर में उसकी सहेलियों-पड़ोसिनों का तांता लग गया। उनकी बातचीत का केंद्र केमजी ही था।
"बेहनजी इस केमजी का कामकाज कैसा है?" कोई प्रभा से पूछती।
"वह भरोसे का आदमी तो है न?" दूसरी कहती।
"देखने में तो वह शरीफ नहीं लगता। उम्र भी उसकी कुछ ज्यादा लगती है।" कोई केमजी पर शंका प्रकट करती।
प्रभा गर्व से फूली हुई केमजी की तारीफ के पुल बांधने लगी। आश्चर्य नहीं कि कुछ ही दिनों में केमजी मोहल्ले के लगभग सभी घरों में आने जाने लगा, हमारे घर में भी।
केमजी वैसे अन्य नौकरों से कुछ भिन्न था। कहने का मतलब है कि वह "प्रोफेशनल" नहीं था। हमारे मोहल्ले के पास एक प्लोट पर मकान अभी पूरा बना नहीं था। दीवार से प्लोट को घेर कर मकान की केवल नींव डाली गई थी। एक अस्थायी शेड में सीमेंट, रेत, लोहे की सलाखें आदि मकान बांधने के सामान रखे हुए थे। इनकी रखवाली के लिए एक चौकीदार नियुक्त किया गया था। वही केमजी था। चूंकि मकान का काम अभी ठीक प्रकार से शुरू नहीं हुआ था, इसलिए केमजी दिन भर एक नीम के पेड़ के नीचे चारपाई बिछाकर पड़ा रहता। मेरी पड़ोसिन प्रभा को उसका इस प्रकार समय गवारा करना अन्यायपूर्ण लगा, जबकि स्वयं उसे चौका-बर्तन और कपड़ा-लत्ता धोने-सुखाने में ऐड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ रहा था। एक दिन वह केमजी से पूछ ही बैठी कि क्या वह कुछ अतिरिक्त पैसा कमाना चाहेगा। कार्य सिद्धि की प्रभा की अद्भुत क्षमता की दाद देनी पड़ेगी। आराम की रोटी तोड़ रहे उस सुखी मनुष्य को उसने घर-घर में झूठे बर्तन मांजने और मैले कपड़े धोने के काम में दिन भर कोल्हू के बैल के समान जोत ही डाला।
केमजी की उम्र पचास के आसपास होगी। वह गंभीर स्वभाव का कुछ-कुछ बेवकूफ किस्म का आदमी था। बेवकूफ न होता तो इस प्रकार फंसता कैसे। महिलाएं उसको लेकर हमेशा कोई-न-कोई शिकायत लिए ही रहती थीं। सबसे मुश्किल बात यह थी कि उसे कोई भी काम समझाना आसान नहीं था। उससे कुछ कहा जाए तो वह "हां बेहजनजी", "ठीक बेहनजी", "ऐसा ही होगा बेहनजी" आदि-आदि कहता पर करता वही जो उसकी मर्जी में आए। समय के मामले में तो उसका अंदाज ही कुछ निराला था। जब उसका मन किया वह आ जाता था। महिलाएं सस्पेन्स के मारे दुबली होती रहती थीं कि वह आएगा कि नहीं, काम स्वयं करें कि नहीं। पर सब लाचार थीं क्योंकि केमजी के सिवा और कोई काम करनेवाला मिलना भी मुश्किल था।
केमजी को लेकर महिलाओं की राय जो भी रही हो, बच्चों में वह बहुत लोकप्रिय था। मेरी चार साल की लड़की पहले तो उसकी पुलिसवालों जैसी वर्दी देखकर कुछ-कुछ डरी-डरी रहती थी। इसके लिए हम भी जिम्मेदार थे, क्योंकि उसे काबू में रखने के लिए हम उसे डराते रहते थे कि, "तूफान न कर बेटी, नहीं तो पुलिसवाला तुझे पकड़ ले जाएगा।" पर केमजी ने उसे बहुत जल्दी पटा लिया। वह बड़ों से तो बहुत कम बोलता था, परंतु बच्चों से उसे आत्मीयता थी। उसकी आदत थी कि घर में आते ही वह मेरी बेटी को हर कमरे में जाकर खोजता और कुछ न कुछ कहकर उसे छेड़ता। मेरी बेटी उसके आते ही किसी दरवाजे के पीछे या गुसलखाने में जाकर छिप जाती, शुरू में असली डर से और बाद में उसके लिए यह एक प्रकार का खेल हो गया। केमजी उसे ढूंढ़ निकालता तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ती।
मुन्नी की एक अन्य आदत यह थी कि जब केमजी कमरे में झाड़ू लगाने लगता तो वह कमरे में आकर खड़ी हो जाती और हमारे हजार डांटने पर भी हटती नहीं। केमजी भी उसे तरह-तरह से धमकाता-डराता पर वह टस-से मस न होती। तब केमजी झाड़ू के रेशों से उसके कोमल टांगों को थोड़ा सा गुदगुदाता और वह हंसते हुए हट जाती।
काम करते करते केमजी कुछ गुनगुनाया करता था। यह मेरी लड़की के लिए एक पहेली सी थी। वह पूछती, "केमजी तुम किससे बात कर रहे हो?"
केमजी कहता, "बिटिया मैं बात नहीं कर रहा, गा रहा हूं।"
"हट, ऐसे थोड़े ही गाया जाता है," वह कहती।
"तो तू ही गाकर दिखा।" केमजी कहता।
मेरी बेटी हंपटी डंपटी, या मेरी हैड ए लिटिल लैंप या ऐसी ही कोई नर्सरी राइम गा देती और गर्व से कहती, "मैं अच्छी गाती हूं न! चलो तुम अब ऐसे ही गाकर दिखाओ।"
केमजी विस्मय से उसकी ओर देखकर कहता, "बिटिया तू तो बड़ी अच्छी अंगरेजी बोलती है। लेकिन मैं अनपढ़ हूं। मैं अंगरेजी-वंगरेजी नहीं बोल सकता।"
मेरी बेटी भी एक घाघ है। "तो इसमें क्या मुश्किल है, मैं तुम्हें सिखाऊंगी," वह कहती और अपनी ए बी सी डी वाली किताब लेकर आती और उसे दिखाने लगती।
केमजी ने लगभग एक महीना काम किया। फिर एक दिन मेरी अर्धांगिनी ने मेरे अखबार पढ़ने में खलल डालते हुए फरमाया, "अजी सुनते हो, केमजी डेढ़ सौ रुपए एड्वांस मांगता है।"
अखबार पर नजरें गढ़ाए रखते हुए मैंने कहा, "मांगता है तो दे दो न?"
"अरे दे कैसे दूं, देकर लौटाए बगैर चला गया तो," उसने मेरी अक्ल पर तरस खाते हुए उलाहना दी।
"तब मना कर दो", मैंने सुझाया।
"मना कैसे करूं। बुरा मानकर वह काम छोड़ देगा तो तुम तो मदद करने से रहे।"
समस्या टेढ़ी थी। इसलिए मैंने कहा "अब देखो भागवान, यह समस्या तुम्हारी है, तुम्हीं सुलझाओ, मुझे अखबार पढ़ने दो।"
"हां, हां, तुम्हें तो अपने अखबार से ही मतलब है। दुनिया इधर से उधर हो जाएगी, तुम अखबार ही पढ़ते रह जाओगे।"
मैंने जरा हंसकर मनाने के लहजे में कहा, "अरे, तुम तो बुरा मान गईं। दुनिया कहां इधर से उधर हुई जा रही है। डेढ़ सौ की ही तो बात है, चले भी गए तो क्या फर्क पड़ता है।"
"इन बातों की तुम्हें क्या समझ है। आज उसने डेढ़ सौ मांगा है। कल दो सौ भी मांगेगा। एक बार दिया तो वह बारबार मांगेगा। कब तक हम देते रहेंगे?" मेरी पत्नी ने मुझे इन दुनियावी बातों से अवगत कराया।
पर इसका कोई समाधान मेरे पास नहीं था, लिहाजा सिर हिलाकर मैं अखबार में खो गया।
अगले दिन भागवान ने मुझे सूचित किया, "अजी सुनते हो, मैंने केमजी को वह रकम दे ही दी।"
"अच्छा किया," मैंने कहा।
"प्रभा से उसने तीन-सौ रुपए मांगे थे।"
"उसने दिए कि नहीं?"
"देती कैसे नहीं, सबने जो दे दिए हैं।"
"तो क्या उसने सबसे मांगा है?
"हां। कहता था कि उसकी बेटी का जनमदिन है। दो रोज के लिए घर जाएगा।"
मैंने सिर पीट लिया। "मैं तो तुम्हें समझदार मानता था। फिर तुम कैसे इस केमजी के झांसे में आ गईं। देख लेना, केमजी अब नहीं लौटने वाला।"
श्रीमतीजी ने कहा, "ऐसा वह कभी नहीं करेगा। हम सबने काफी सोच-विचार कर ही उसे पैसा दिया है। प्रभा बेहन के यहां उसने अपना सामान भी रख छोड़ा है। यदि लौटना न होता तो वह ऐसा क्यों करता? फिर चौकीदारी की उसकी नौकरी भी तो है, उसे छोड़कर वह कैसे जा सकता है?"
पर मेरा मन कुछ और ही कहता था। उस आलस-प्रिय आदमी को घर के झमेलेदार कामों में अधिक दिन फंसाए रखना मेरी दृष्टि में संभव नहीं था। मुझे आश्चर्य इस बात का था कि वह पहले ही क्यों नहीं चंपत हुआ। पर थोड़ा सोचने पर मुझे लगा कि वह उतना बेवकूफ नहीं था जितना कि देखने में लगता था। उसने पहले सब महिलाओं का विश्वास जीत लिया, फिर सबसे वेतन से ऊपर पैसे उधार लेकर चलता बना।
हफ्ते भर के ऊपर होने पर भी केमजी के आने का कोई संकेत नहीं मिला। उधर सभी महिलाओं की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। घर के काम का बोझ तो था ही, ऊपर से केमजी द्वारा उन सबको चकमा देने का अपमान भी था।
आखिर प्रभा के घर में रखे केमजी के पोटले को खोलकर देखा ही गया और उससे इसका पक्का सबूत मिल गया कि केमजी अब लौटने वाला नहीं है। उसमें उसके कुछ पैंट-कमीज के चिथड़े थे और कंघी, शीशा आदि कुछ निजी सामान। इन सबकी कीमत इतनी नहीं थी कि उन्हें लेने केमजी के आने की आशा बंध सके।
अब तो कोई केमजी का नाम भी नहीं लेता है। उसकी जगह किसी ने दूसरी काववाली\वाला को रखा भी नहीं है। किसी की हिम्मत ही नहीं होती। महिलाएं अपने शौहरों की अनियमित मदद से काम चला रही हैं। हां मेरी मुन्नी जरूर केमजी को याद करती है और पूछती है, "पप्पा, केमजी कब आएगा? मैं उसे अंगरेजी सिखाऊंगी।" सच कहूं तो मैं भी कभी-कभी चुपके से केमजी को याद कर लिया करता हूं, खासकरके तब जब मैं रसोई के बर्तन मांज रहा होता हूं या श्रीमती जी के निर्देशन में घर के मैले कपड़ों को साबुन के पानी में खंगाल रहा होता हूं। ऐसे मौकों पर मन ही मन मैं यही सोचा करता हूं कि यदि केमजी होता तो मैं इस समय आरामकुर्सी पर पसरे अखबार पढ़ रहा होता या टीवी पर फिलम देख रहा होता।
Monday, June 01, 2009
कहानी : केमजी
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: कहानी
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4 Comments:
Kamwalon ke killat ki maoujooda sthiti par bahut badhiya vyangy katha likhi hai aapne...
अरे भाई ऐसे पोल खोलते रहेंगें तो काम वाली या वाला कोई नहीं मिलेगा |
सच्ची में ऐसा हुआ क्या?
सुन्दर व्यंग. आभार
गिरिजेश राव: बहुत पहले लिखी गई कहानी है। अब याद नहीं आ रहा कि इसे क्यों लिखा था। शायद आपके द्वारा इंगित बात ही मूल प्रेरणा रही हो।
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