Thursday, January 08, 2009

अंतरजाल बनाएगा हिंदी अनुवादकों को लखपति - 1



परिचय

क्या आप हिंदी के अनुवादक हैं, और आपके पास कंप्यूटर और अंतरजाल (इंटरनेट) से जुड़ने की सुविधा है? यदि हां, तो ऐसे कई जाल स्थल (वेब साइट) हैं जिनमें अपने आपको पंजीकृत करके आप घर बैठे ही दुनिया भर से अनुवाद का काम प्राप्त कर सकते हैं और लखपति बन सकते हैं। इन कामों के बदले आपको जो पैसा मिलेगा वह अंतर्राष्ट्रीय दरों पर होगा, यानी डालरों में। उदाहरण के लिए, भारत में हिंदी में अनुवाद करने के लिए अच्छे से अच्छे अनुवादक को भी एक शब्द के लिए 75 पैसे, ज्यादा से ज्यादा 1 रुपया, मिलता है। किंतु इन जाल स्थलों के जरिए आप अपने अंतर्राष्ट्रीय ग्राहकों से 0.08 से लेकर 0.2 डालर प्रति शब्द तक प्राप्त कर सकते हैं, अर्थात 3.50 रुपए से 10 रुपए प्रति शब्द, जो भारतीय दरों से 5 से 15 गुना अधिक है। हां, आपका काम भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर का होना चाहिए।

आमतौर पर एक अच्छा अनुवादक एक दिन में 3,000 से 4,000 शब्दों का अनुवाद कर सकता है। इस हिसाब से एक दिन में ही 250 – 800 डालर, अर्थात, 12 से 35 हजार रुपए कमाए जा सकते हैं। इतना तो अखबारों, प्रकाशन गृहों आदि में काम कर रहे कई अनुवादकों का मासिक वेतन भी नहीं होता। हां यह जरूर है कि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि हर दिन आपको इतना काम मिलेगा ही। लेकिन यदि आप एक अच्छे और मेहनती अनुवादक हैं, तो काम मिलना कोई मुश्किल बात नहीं है।

इस लेख-माला में बताने की कोशिश करूंगा कि आप अपना अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद व्यवसाय कैसे स्थापित कर सकते हैं और लखपति बन सकते हैं।

अंतरजाल बनाएगा हिंदी अनुवादकों को लखपति - 2

अनुवादकों का कार्यस्थल - प्रोज.कोम

आइए अनुवादकों के इन जाल स्थलों के बारे में आपको परिचित कराएं। इन जाल स्थलों में सबसे अग्रणी है, प्रोज.कोम। इसके हजारों की संख्या में अनुवादक सदस्य हैं। इसकी साधारण सदस्यता निश्शुल्क है। सभी सदस्यों को यह जाल स्थल अपना आत्म परिचय अपने वेब सर्वर में रखने देता है। इस आत्म परिचय में अनुवादक अपना नाम, पता, ईमेल आईडी, शैक्षणिक अर्हताएं, अनुवाद के अनुभव, अनुवाद दर आदि सूचनाएं दर्शा सकता है। इस आत्म परिचय को भावी ग्राहक देख सकते हैं और यदि उन्हें विवरण पसंद आए, तो वे उस अनुवादक से संपर्क करेंगे। इसके अलावा ग्राहक अपने कामों को इस जाल स्थल में प्रकाशित भी करते हैं और यदि कोई काम आपके अनुकूल का निकला, तो यह जाल स्थल आपको ईमेल द्वारा सूचित करेगा कि आपके लायक काम प्रकाशित हुआ है और यदि आप चाहें तो उसके लिए अर्जी भेजें। तब आप इस जाल स्थल में लोग-इन करके इस काम के लिए अपनी दर आदि की जानकारी काम प्रकाशित करने वाले को भेज सकते हैं। यदि उसे वह पसंद आ जाए, तो वह आपको काम दे देगा।

इसके अलावा इस जाल स्थल में अनेक चर्चा-मंच भी हैं जिनमें सदस्य अनुवादक एक-दूसरे से अपने पेशे से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा करते हैं और अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं। इन मंचों से नए अनुवादकों को अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद बाजार के कार्य करने की रीति, अनुवाद की अद्यतन दरें, अनुवाद के नए-नए सोफ्टवेयर, आदि अनेक महत्वपूर्ण बातों की बहुमूल्य जानकारी मिलती रहती है। नए अनुवादक अपनी समस्याएं भी इन मंचों में रख सकते हैं और अनुभवी अनुवादक उन्हें उपयोगी परामर्श देते हैं। अनुवादक अपनी बात किसी भी भाषा में रख सकता है। हिंदी, अंग्रेजी, चीनी, स्पेनी, फ्रेंच, जिस भी भाषा की उसे अधिक जानकारी हो, उसमें वह इन मंचों में भाग ले सकता है। प्रोज.कोम में सभी भाषाओं के अनुवादक हैं। उदाहरण के लिए उसमें हिंदी के अनुवादकों की संख्या 1200 से भी अधिक है।

कई बार अनुवाद करते समय अनुवादकों को किसी कठिन शब्द का पर्याय नहीं मिलता है या स्रोत दस्तावेज की किसी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ आता है। इस तरह की परिस्थितियों में फंसे अनुवादकों की मदद करने के लिए प्रोज.कोम में एक बहुत ही उपयोगी स्तंभ है जिसका नाम है कुडोज नेटवर्क। इसमें अनुवादक अपनी समस्या के शब्द या पद को संदर्भ सहित कुडोज नेटवर्क में रख सकता है, और अन्य अनुभवी अनुवादक उसके समाधान सुझाएंगे। कई बार नए गढ़े शब्दों का अर्थ शब्दकोशों में नहीं मिलता है। इस तरह के शब्दों के स्पष्टीकरण के लिए कुडोज नेटवर्क काफी उपयोगी है।

अनुवादकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जो उत्तर आते हैं, उनका अन्य अनुवादक परीक्षण करते हैं और उन पर टिप्पणी करते हैं। इससे इन प्रश्नों के लिए उच्च कोटि के उत्तर प्राप्त होते हैं। पूछे गए कठिन से कठिन प्रश्नों के लिए भी मिनटों में पांच-छह उत्तर आ जाना सामान्य बात है। इनमें से सबसे अच्छे उत्तर को प्रश्न पूछनेवाला अनुवादक चुनता है और इससे उत्तर देनेवाले अनुवादक को 4 कुडोज अंक मिलते हैं। ये अंक उत्तर देनेवाले अनुवादक के खाते में जमा होते रहते हैं। ये कुडोज अंक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये प्रोज.कोम में अनुवादकों का वरीयता क्रम निश्चित करते हैं। प्रोज.कोम अनुवादकों की भाषावार सूची रखता है और इस सूची में सबसे आगे उन अनुवादकों के नाम रहते हैं जिनके सर्वाधिक कुडोज अंक हों। अनुवाद का काम देनेवाले व्यक्ति और संगठन इन सूचियों को देख सकते हैं और आमतौर पर उनकी नजर सबसे आगे दिए गए अनुवादकों के नामों पर जाती है और वे उनसे ही पहले संपर्क करते हैं। उपर्युक्त सुविधाओं के अलावा अनेक अन्य सुविधाएं भी प्रोज.कोम अपने उपयोगकर्ताओं को देता है। लेकिन अधिकांश सुविधाएं चंदा चुकाकर बकायदा सदस्य बननेवाले अनुवादकों को ही उपलब्ध हैं। चंदे की वार्षिक रकम 120 डालर है, जो प्रथम दृष्टि में कुछ ज्यादा लग सकती है, लेकिन सदस्यता के फायदों को देखकर यह कुछ भी ज्यादा नहीं है। अधिकांश अनुवादक अपनी सदस्यता के कुछ ही दिनों में इससे दुगना-तिगुना कमा लेते हैं।

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प्रोज.कोम जैसे कुछ अन्य जाल स्थल
यद्यपि प्रोज.कोम इस तरह का सबसे प्रमुख जाल स्थल है, लेकिन इसी की जैसी सुविधाएं प्रदान करनेवाले कुछ अन्य स्थल भी हैं:-

ट्रान्सलेटर्सकफे.कोम
ट्राड्यूगाइड.कोम
गोट्रान्सलेटर्स.कोम
एक्वेरिस.कोम
ट्रान्सलेशनबूथ.कोम
लिग्विस्टफाइंडर.कोम

इन सभी जाल स्थलों में हिंदी अनुवादकों को अपना आत्म परिचय रख छोड़ना चाहिए। ये सभी कमोबेश प्रोज.कोम के जैसे ही काम करते हैं। यद्यपि इन सभी जाल स्थलों का चंदा भरकर ग्राहक बनना अधिकांश अनुवादकों के लिए संभव नहीं हो सकेगा, लेकिन इनमें से एक दो का तो बनना ही चाहिए, और बाकी में अपना आत्म परिचय रखना चाहिए।

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आवशयक साधन और कुशलताएं

इन जाल स्थलों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुवाद कार्य करने के लिए अनुवादकों के पास कुछ मूलभूत औजार होने चाहिए। चूंकि अधिकांश काम अंतरजाल के माध्यम से ईमेल के जरिए आता है, अनुवादकों के पास एक अच्छा कंप्यूटर और अंतरजाल के साथ जुड़ने का एक अच्छा माध्यम होना चाहिए। यदि ब्रोडबैंड कनेक्शन हो, तो सबसे अच्छा। इन सबको लगाने में जो खर्चा आएगा, उसे निवेश समझना चाहिए। कुछ ही महीनों में उसकी भरपाई हो जाती है।

अधिकांश विदेशी अनुवाद काम कंपनियों के जाल स्थलों के अनुवाद से जुड़ा होता है। चूंकि अनूदित सामग्री को अंतरजाल के माध्यम से प्रदर्शित करना होता है, इसलिए ग्राहक यूनीकोड की मांग करते हैं। अतः अनुवादकों को यूनीकोड का उपयोग करना आना चाहिए। विंडोस एक्सपी यूनीकोड का पूर्ण समर्थन करता है और आपको अपने कंप्यूटर पर विंडोस एक्सपी ही लगवाना चाहिए। इसे बड़ी आसानी से यूनीकोड के लिए सेट किया जा सकता है। एमएस वर्ड या हिंदी ओफिस जैसे शब्द संसाधक में हिंदी में यूनीकोड में काम किया जा सकता है। यदि आप लीप ओफिस या आईलीप में इनस्क्रिप्ट कुंजीपटल पर हिंदी टाइप करना जानते हों, तो आप यूनीकोड में भी टाइप कर सकते हैं क्योंकि यूनीकोड में हिंदी कुंजीपटल इनस्क्रिप्ट जैसा ही है। यदि आप कृतिदेव, सुशा, फोनेटिक आदि हिंदी फोंटों का उपयोग करते हों, तो आपको यूनीकोड में काम करने में तकलीफ हो सकती है। आपको इन पुराने फोंटों को छोड़कर यूनीकोड अपना लेना चाहिए क्योंकि सारी दुनिया इसी ओर झुक रही है। यूनीकोड के बिना आपका अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद व्यवसाय उठ नहीं सकेगा।

इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको स्रोत और लक्ष्य भाषा का उम्दा ज्ञान होना चाहिए और आपको अनुवाद कला में निपुण होना चाहिए। अधिकांश विदेशी ग्राहक हिंदी नहीं जानते और वे आपके द्वारा दिए गए अनुवाद का दूसरे हिंदी विशेषज्ञों से पुनरीक्षण करवाते हैं। यदि उन्हें पुनरीक्षकों से आपके अनुवाद के बारे में खराब रिपोर्ट मिले तो वे आपको दुबारा काम नहीं देंगे। वर्तनी, व्यावकरण आदि के मामले में भी आपको बहुत ही सजग रहना चाहिए। हिंदी के मानकीकृत रूप से आपका अच्छा परिचय होना चाहिए, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यही मान्य है। जैसे, लिए-लिये, लताएं-लतायें, गई-गयी आदि हिंदी के द्विरूपी शब्दों में प्रथम का उपयोग, यानी ए-ई वाले रूपों का उपयोग, पंचमवर्ण के स्थान पर अनुस्वार का उपयोग (संबंध न कि सम्बन्ध, गंगा न कि गङ्गा, डंडा न कि डण्डा, इत्यादि), अंकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय अंकों का उपयोग (1, 2, 3, न कि १, २, ३), इत्यादि, अनिवार्य है।

किसी एक विषय को चुनकर उसमें विशेषज्ञता प्राप्त करना भी उपयोगी होता है। उदाहरण के लिए कानून, व्यावसाय, अभियांत्रिकी, कंप्यूटर, चिकित्सा आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें काफी अनुवाद काम होता है। किसी भी अनुवादक के लिए इन सभी विषयों की शब्दावली से परिचित होना संभव नहीं हो सकता, इसलिए किसी एक विषय को चुनकर उसके हर पहलू पर जानकारी हासिल कर लेना उसके लिए उपयोगी रहेगा।

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हिंदी के बढ़ते कदमों के साथ बढ़ें समृद्धि की ओर

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था के चमक उठने से बहुत सी विदेशी कंपनियां भारत में कारोबार शुरू कर रही हैं। इन्हें हिंदी में अपने जाल स्थल, प्रचार सामग्री आदि अनूदित करवाने की जरूरत पड़ती है।

इसके साथ ही अब भारतीय मूल के लोग अमरीका, यूके, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों में इतनी संख्या में पहुंच गए हैं कि वहां की सरकारें अपनी विज्ञप्तियां, कानून, नोटिस, जाल स्थल आदि को हिंदी में भी जारी करने लगी हैं। इन सब कारणों से अब हिंदी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में उभर गई है। बोलनेवालों की संख्या की दृष्टि से भी हिंदी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है, चीनी और अंग्रेजी के बाद।

हिंदी के अनुवादक इस परिस्थिति से खूब लाभ उठा सकते हैं और अपनी आय को दुगना-तिगुना बढ़ा सकते हैं।

Wednesday, January 07, 2009

ओलिंपिक में भारत का निराशाजनक प्रदर्शन

सौ करोड़ की आबादी और दिखाने के लिए केवल एक रजत पदक। यह है भारत के खेल प्रदर्शन की सचाई। पर ऐसा क्यों है?

पिछले एक हजार सालों में आजादी के बाद के पचास एक वर्षों को छोड़कर भारत विदेशी शासन के अधीन रहा है। इन विदेशियों के हाथों भारतीयों की दुर्दशा हुई है, आर्थिक ही नहीं, सामाजिक, धार्मिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी। पिछली शताब्दी के प्रारंभिक दिनों में बंगाल, बिहार आदि में जो भयंकर अकाल पड़ा और जिसमें लाखों भारतीय भुखमरी से मरे, वे इसका प्रमाण है। आज भी यत्र-तत्र उड़ीसा, बिहार, आंध्र प्रदेश आदि देश के गरीब इलाकों से भुखमरी के समाचार मिलते हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि इस देश में अन्न का संकट है और आबादी के एक बहुत बड़े भाग को भरपेट खाना नसीब नहीं हो पाता। जो देश अपने नागरिकों को भोजन जैसी मूलभूत जरूरत तक न मुहैया कर सकता हो, वह ओलिंपिक में पदक क्या जीतेगा।

यह अन्न संकट और गरीबी इस देश में कई पीढ़ियों से विद्यमान है, जिसका अर्थ है कि भारत का आम नागरिक अपनी कई पीढ़ियों से गरीबी और कुपोषण के शिकार रहा है। इसका उसकी शारीरिक क्षमता पर अवश्य ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अध्ययनों से इसके अनेक प्रमाण भी मिलते हैं। जहां समृद्ध देशों में मनुष्य की आयु 75 वर्ष या उससे अधिक है, भारत में मनुष्य की औसत आयु 58 वर्ष ही है। जहां विश्व के सभी समृद्ध देशों में महिलाएं पुरुषों से अधिक समय के लिए जीती हैं, भारत में इससे ठीक उल्टी स्थिति पाई जाती है, यानी यहां महिलाओं की औसत आयु पुरुषों की औसत आयु से कम है। यह तथ्य महिलाओं के स्वास्थ्य के संबंध में कितनी गहरी टिप्पणी करता है। ये महिलाएं जो कुपोषण, खून की कमी, शोषण, अशिक्षा और बीमारी के जुए तले जीने को मजबूर हैं, क्या ओलिंपिक चैंपियनों को पैदा कर सकती हैं? जब तक भारत में महिलाओं की स्थित नहीं सुधरेगी, ओंलिंपिक ही नहीं अन्य सभी अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भी भारत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकेगा।

इसी प्रकार के कुछ अन्य चिंताजनक आंकड़े भी गिनाए जा सकते हैं, जो सब आम भारतीय नागरिक के स्वास्थ्य की बुरी हालत को स्पष्ट करते हैं। ऊंची बाल मृत्युदर, जन्म के समय बच्चों का कम वजन, स्त्री और पुरुषों की संख्या में भारी असंतुलन (पंजाब और हरियाणा में तो प्रति हजार पुरुषों के पीछे मात्र 785 महिलाएं ही हैं), समाज में फैली विषमताएं आदि कुछ ऐसी वस्तुस्थितियां हैं जिनके रहते भारत ओलिंपिक जैसी प्रतियोगिताओं में विजय नहीं पा सकता।

भारत का एक औसत नागरिक कम वजनवाला (विश्व के अन्य मनुष्यों की तुलना में), कम शिक्षित, अत्यंत गरीब और हीन मानसिकता वाला होता है। वह कैसे विश्व के उन्नत देशों के नागरिकों का मुकाबला कर सकता है?

यह समस्या का एक पक्ष है। कहा गया है कि जहां चाह है वहां राह है और इन सब बाधाओं के होते हुए भी प्रतिभाशाली खिलाड़ी इस देश में भी पैदा हुए हैं और ईश्वर की कृपा से या अन्य अनुकूल संयोगों से उच्च क्षमता की संभावना प्रदर्शित किया है। क्या हमने ओलिंपिक के प्रारंभिक वर्षों में लगभग 30 सालों तक हाकी का स्वर्ण पदक लगातार नहीं जीता है? क्या हमारे देश में भी पी टी उषा, लिएंडर पिएस और अब राठौर जैसे विजेता खिलाड़ी नहीं हुए हैं। पर इन्हें भी देश की भ्रष्ट एवं सत्तालोलुप खेल प्रणाली मात दे देती है। इन खिलाड़ियों को इस प्रणाली से पहले भिड़ना पड़ता है और उनकी सारी शक्ति इस प्रणाली को हराने में ही खर्च हो जाती है।

जिस देश में खेल मंत्री का पद एक 75 वर्ष के बूढ़े फिल्म अभिनेता के जिम्मे हो जिसने शायद ही कभी अपनी जिंदगी में किसी खेल प्रतियोगिता में भाग लिया हो, वहां विश्व स्तर के खिलाड़ी कैसे पैदा हो सकते हैं? यही हाल खेल विद्यालयों, प्रशिक्षण संस्थाओं और चयन करने वाली समितियों की है। वहां सब राजनीति का बोलबाला है और वे सब सत्ता की उठा-पटक के अखाड़े हैं। वहां सब एक अलग ही प्रकार का खेल चलता है।

इन संस्थाओं से हम कैसे आशा कर सकते हैं कि वे सही खिलाड़ियों का चुनाव करेंगे और चुने गए खिलाड़ियों के समुचित विकास का प्रबंध करेंगे?

एक अन्य समस्या अर्थाभाव की है। भारत अब भी एक निर्धन देश है और उसके सामने खेल के सिवा अनेक अन्य प्राथमिकताएं भी हैं। ऐसे में खिलाड़ियों के पर्वरिश के लिए वह अधिक धन व्यय नहीं कर सकता । आजकल खेल एक फलता-फूलता व्यवसाय हो गया है। हमारे ही देश में क्रिकेट का ही उदाहरण ले लीजिए। आज क्रिकेट के साथ इतना पैसा जुड़ गया है कि एक सफल खिलाड़ी एक-दो साल में ही करोड़पति हो जाता है। ऐसे में खेल में सफल होने के लिए विश्व के उन्नत राष्ट्र पैसा पानी की तरह बहा देते हैं। वहां के खिलाड़ियों को आधुनिकतम से आधुनिकतम सुविधाएं, प्रशिक्षण, अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने का भरपूर अवसर आदि आसानी से मिल जाते हैं। चीन, रूस आदि देशों में तो प्रतिभा संपन्न खिलाड़ियों को छोटी उम्र में ही पहचान लिया जाता है और उन्हें अलग प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है। भारत के लिए यह सब करना संभव नहीं है।

उपर्युक्त सभी कारणों से ही भारत का ओलिंपिक्स में प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। पर ऐसा क्या किया जाना चाहिए कि कम से कम आगामी ओलिंपिक्सों में भारत का प्रदर्शन बेहतर रहे? ओलिंपिक्स एक प्रकार से विश्व के देशों की भीतरी स्थिति, उनके नागरिकों के स्वास्थ्य, समृद्धि एवं शारिरिक क्षमता की स्पर्धा है। जो देश अधिक उन्नत होगा, जिसके नागरिक अधिक स्वस्थ, शिक्षित एवं ताकतवर होंगे, वे ही विजयी बनेंगे। इसलिए भारत को ओलिंपिक्स में अधिक पदक जीतने के लिए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं समृद्धि की ओर अधिक ध्यान देना होगा। तभी भारत में विश्वविजयी खिलाड़ी जन्म लेंगे। एक दूसरे स्तर पर खेल महकमे को भी सुधारना होगा। उसे नेताओं और सत्ता के दलालों से मुक्त करके पेशेवरीय खेल प्रबंधकों, प्रशिक्षकों और स्वयं खिलाड़ियों के हवाले करना होगा। खिलाड़ियों की पहचान कम उम्र में ही कर लेनी चाहिए और उन्हें उचित प्रशिक्षण, खान-पान और सभी आवश्यक सुविधाएं मुहैया कराई जानी चाहिए। खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने का अवसर मिलना चाहिए। आजकल क्रिकेट को छोड़कर बाकी सभी खेलों के खिलाड़ियों को ऐसे अवसर बहुत कम मिल पाते हैं। देश को खिलाड़ियों का समुचित सम्मान करना चाहिए और उनके भरण-पोषण की पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए। आखिर वे देश के एक प्रकार के हीरो हैं, उसी प्रकार के जैसे स्वतंत्रता सेनानी। उन्होंने भी देश का नाम ऊंचा करने के कार्य में सर्वस्व लुटा दिया है।

जब देश का हर नागरिक स्वस्थ, शिक्षित तथा अपनी पूर्ण क्षमता तक विकसित होने लगेगा, तब भारत भी चीन, अमरीका, रूस आदि देशों के समान ओलिंपिक्स में पदकें जीतने लगेगा।

(यह लेख 2004 के ओलिंपिक्स के बाद लिखा गया था। उस समय सुनील दत्त खेल मंत्री थे। आप देखेंगे कि 2008 में भी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है।)

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