Friday, September 04, 2009

ज्ञानेश्वरी

ज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा रची गई श्रीमदभगवतगीता की अद्वितीय टीका है। यह ग्रंथ ज्ञानेश्वर की सबसे महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है। इसमें ज्ञानेश्वर के व्यक्तित्व और उनके दर्शन की झांकी मिलती है। ज्ञानेश्वरी एक अत्यंत लोकप्रिय कृति है। इस कृति में ऐसे तत्व विद्यमान हैं जिनसे प्रेरणा प्राप्त करके मराठी भाषा में एक नवीन काव्य परंपरा का सूत्रपात्र हुआ।

संत ज्ञानेश्वर 13वीं शताब्दी में हुए थे। उस समय हिंदू समाज में जाति के आधार पर कट्टरता व्यापक पैमाने में मौजूद थी और सामाजिक बुराइयों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों, बलि प्रथा, यज्ञ और तंत्र-मंत्र का बोलबाला था। इस पृष्ठभूमि में संत ज्ञानेस्वर ने लोक भाषा में श्रीमदभगवदगीता की व्याख्या की। ज्ञानेश्वर ने अपनी कृति के माध्यम से भ्रष्ट रीतियों का उन्मूलन करके नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की। उन्होंने नए सिरे से भक्ति मार्ग की व्याख्या की और जाति प्रथा को समाप्त करने का आग्रह करके समाज सुधार पर बल दिया। चिदविलासवाद अथवा स्फूर्तिवाद का प्रवर्तन करके उन्होंने महाराष्ट्र की दार्शनिक परंपरा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इस सिद्धांत के अनुसार समस्त सृष्टि परमेश्वर के प्रकाश से दीप्त है और स्वयं अपने हाथों से किया गया काम ही पूजा है। इस प्रकार उन्होंने दलितों और नीची जाति के लोगों का उत्थान किया। संत ज्ञानेश्वर का जीवन धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध विजयी संघर्ष की सजीव गाथा है।

सात सौ वर्ष पूर्व रचा गया यह महान आध्यात्मिक काव्य आज भी प्रासंगिक है। ज्ञानेश्वरी ने लोगों की धार्मिक आस्थाओं की व्याख्या उनकी सामाजिक आवश्यकताओं के संदर्भ में की। उसने लौकिक और पारलौकिक संसार में अंतर दूर करके अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया । भक्तगणों ने ज्ञानेश्वरी की पूजा उसे मां मानकर की तथा उसकी स्तुति में जगह-जगह गीत गाए जाने लगे। आध्यात्मिक उत्थान में जाति या लिंग बंधन नहीं रहा। महाराष्ट्र में ज्ञानेस्वरी प्रत्येक वर्ग में पूजा की वस्तु बन गई।

संत ज्ञानेश्वर ने कुछ अन्य कृतियों की भी रचना की, जैसे अमृतानुभव, चांगदेवप्रशस्ति, हरिपथ और अभंग। इन सब कृतियों में भी ज्ञानेश्वरी भक्ति की दार्शनिकता की छाप है।

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