Friday, March 20, 2009

राज ठाकरे - उत्तर भारतीयों के हितैषी

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) अध्यक्ष राज ठाकरे के बयानों के फलस्वरूप मुंबई, नासिक व महाराष्ट्र के अन्य शहरों में उत्तर भारतीयों पर जो हमले हो रहे हैं वे आजकल सभी मीडिया चैनलों की सुर्खियों पर छाए हुए हैं। अमर सिंह, लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार आदि उत्तर भारत के नेता भी अखाड़े में कूद पड़े हैं और राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। कोई राज ठाकरे को बच्चा कह रहा है, कोई शैतान। गनीमत यही है कि स्वयं अमिताभ बच्चन ने, जिन पर राज ठाकरे के आक्षेपों से सारे कांड की शुरुआत हुई थी, बुद्धिमानीपूर्वक कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई है और इस तरह मामले को तूल देने में अपनी ओर से कोई योगदान नहीं किया है, यद्यपि जया बच्चन अपने कुछ बयानों से इस कसर को काफी हद तक पूरी कर चुकी हैं। अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों को भी इस मामले में खूब मजा आ रहा है क्योंकि कहीं भी हिंदी या हिंदी भाषियों का अहित होते देखकर उनकी बांछें खिल जाती हैं। पर जरा गहराई से विचार किया जाए तो राज ठाकरे हिंदी क्षेत्र का हितैषी ठहरते हैं।

अमिताभ बच्चन जैसे हिंदी भाषियों के प्रतीक-चिह्नों पर, स्वयं हिंदी भाषियों पर तथा उनके आर्थिक हितों पर किए गए हमलों से हिंदी भाषियों को अपनी जातीय एकता का एहसास होता है। देश के सभी अन्य भाषा-जातियों की तुलना में हिंदी भाषा में इस तरह की जातीय भावना की सर्वाधिक कमी है। यहां जाति शब्द ब्राह्मण, कुम्हार, मोची, चमार, बनिया आदि संकीर्ण अर्थ में व्यवहार नहीं किया गया है, वरन अंग्रेजी शब्द नेशनैलिटी के हिंदी पर्याय के रूप में किया गया है। भारत की राष्ट्रीय चेतना अनेक भाषा-जातियों की चेतना का सम्मिलित रूप है। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी कई किताबों में इस बात को काफी मेहनत से और काफी विस्तार से समझाया है। देखिए उनकी भाषा और समाज, हिंदी भाषा की समस्याएं, आदि किताबें (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली)। जातीय भावना के अभाव में हिंदी भाषी उसी तरह संगठित तरीके से अपना हित नहीं साध पाते हैं जिस तरह तमिल, मराठी या बंगाली। हिंदी भाषी अनेक राज्यों, दलों और संप्रदायों में बंटे रहकर अपनी शक्ति गंवा बैठे हैं। हालांकि हिंदी भाषी संख्या में और भौगोलिक विस्तार में भारत का सबसे विशाल जातीय समूह हैं और उनकी भाषा का विश्व में चीनी और अंग्रेजी के बाद तीसरा स्थान है, फिर भी इस देश में उन की एक नहीं चलती – असम जैसे राज्यों में उनका कत्लेआम होता है, तथा मुंबई जैसी महानगरी में वे खुलेआम पिटते हैं। इसका मुख्य कारण हिंदी भाषियों में संगठन की कमी है, जो उनमें जातीय भावना की कमी का ही परिणाम है।

इस जातीय भावना की कमी के कारण हिंदी क्षेत्र के नेता बिना सोचे-समझे अपनी ही भाषा-जाति का अहित कर बैठते हैं। हिंदी क्षेत्र दिन पर दिन अधिकाधिक नए राज्यों में बंटकर अपनी शक्ति खोता जा रहा है। अब उत्तर प्रदेश की दलित मुख्य मंत्रि मायावती पहले से ही टूटे हुए उत्तर प्रदेश को और चार टुकड़ों में बांटने की बात कर रही हैं। इसके विपरीत डा. रामविलास शर्मा ने संपूर्ण उत्तर भारत को, यानी संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र को, एक राजनीतिक इकाई बनाने की सिफारिश की थी, उसी तरह जैसे आज संपूर्ण मराठी भाषी क्षेत्र महाराष्ट्र के अंतर्गत या संपूर्ण तमिल क्षेत्र तमिलनाड के अंतर्गत संगठित किया गया है। रामविलास जी ने इस बात पर खूब खेद प्रकट किया है कि जहां भारत के बाकी हिस्सों में तो भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की नीति अपनाई गई, लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र में नहीं। इससे हिंदी भाषियों के जातीय विकास में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न हुई है।

दिलचस्प बात यह है कि जहां हिंदी भाषी स्वयं अपनी जातीय पहचान से बेखबर हैं, अन्य भाषा बोलनेवाले हिंदी जाति के अस्तित्व से भली-भांति परिचित हैं और उससे कुछ-कुछ आतंकित भी रहते हैं। राज ठाकरे के बयान इसका नवीनतम प्रमाण हैं। हिंदी क्षेत्र के बाहर के नेता इसलिए परेशान हैं कि अन्य सभी भाषाओं की तुलना में हिंदी बोलनेवाले संख्या में तथा भौगोलिक विस्तार में बहुत ही बड़े लगते हैं। इससे उन्हें लगता है कि कहीं हिंदी उन पर हावी न हो जाए। पर यह मात्र एक हौवा है। असली डर है अंग्रेजी द्वारा सभी अन्य भाषाओं का हक मारा जाना। इस बात को ठीक तरह से न समझने के कारण ही ये नेता हिंदी के विरुद्ध आंदोलन करते रहते हैं और अंग्रेजी के विरुद्ध कभी कुछ नहीं बोलते। इससे अंग्रेजी को चुपके से उनके क्षेत्र में पांव फैलाकर उनकी भाषाओं को कमजोर करने का मौका मिल जाता है। यह कुछ-कुछ उसी तरह हो रहा है जैसे औपनिवेशिक काल में भारतीय राजा असली दुश्मन अंग्रेजों से न लड़कर आपस में लड़ते रहे थे और अंग्रेज चुपके से एक-एक करके उन्हें हराते हुए पूरे देश की छाती पर चढ़ बैठने में सफल हो गए थे। इसी तरह आज अंग्रेजी ने सभी भारतीय भाषाओं को दोयम स्तर पर उतार दिया है। किसी भी राज्य में, चाहे वह तिमलनाड हो या बंगाल या महाराष्ट्र प्रशासन, उच्च शिक्षा, व्यवसाय, न्यायालय आदि में वहां की भाषा का प्रयोग नहीं होता है। सभी जगह अंग्रेजी ही विराजमान है। रामविलास जी ने इस कटु सत्य की ओर भी अपनी पुस्तकों में इंगित किया है। उनकी सलाह है कि सभी भाषाओं को संगठित होकर अंग्रेजी के विरुद्ध मोर्चा चलाना चाहिए, तभी इस देश में अंग्रेजी का प्रभाव कम होगा।

रामविलास जी हिंदी क्षेत्र के ही नहीं समूचे भारत के इस शताब्दी के सर्वोच्च विचारक हैं। उन्हें प्राचीन काल के महान ऋषियों की परंपरा में रखना चाहिए। अट्ठासी वर्ष के दीर्घ जीवनकाल में उन्होंने निरंतर चिंतन-मनन करते हुए एक के बाद एक उत्कृष्ठ ग्रंथ रचे हैं जिनमें उन्होंने आधुनिक भारत की सभी प्रमुख समस्याओं पर गहराई से विचार करके अत्यंत व्यवहारिक और सर्वहितकारी समाधान सुझाए हैं। उनकी अचूक कसौटी रही है मार्क्सवादी दर्शन, जिसके आधार पर ही वे सभी समस्याओं को परखते हैं। मार्क्सवादी दर्शन में उनकी पैठ इतनी गहरी है कि वे स्वयं मार्क्स और ऐंजेल्स की गलतियों, खामियों और असंगतताओं पर खुलकर चर्चा करने का साहस रखते हैं। पर मार्क्स के प्रति उनकी अनन्य भक्ति है क्योंकि मार्क्स का दर्शन शक्तिहीनों को शक्ति देता है और मानव समाज की असमानताओं को दूर करता है, यही रामविलास जी के संपूर्ण जीवन का भी ध्येय रहा है।

रामविलास जी के लेखन का एक सकारात्मक पहलू यह है कि हालांकि वे समाज की बड़ी-बड़ी और असाध्य सी लगनेवाली समस्याओं पर विचार करते हैं, फिर भी कहीं भी आशाहीनता, आत्मघात, प्रतिशोध, आदि नकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा नहीं देते। सदा आशावादी रहते हुए वे व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने लगभग 80 बड़े-बड़े ग्रंथ रचे हैं जिनमें उन्होंने सांप्रदायवाद, हिंदी की जातीय अस्मिता, हिंदी उर्दू का मसला, हिंदी साहित्य, हिंदी साहित्यकारों का सही मूल्यांकन, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा नस्लवाद से प्रेरित होकर फैलाए गए अनेक भ्रांत धारणाओं का खंडन जैसे विषय लिए हैं।

पाश्चात्य विद्वानों ने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के लिए नैतिक आधार तैयार करने की दृष्टि से तथा नस्लवादी विचारधारा से अंधे होकर भारत, भारत की भाषाएं, भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में अनेक भ्रांत धारणाएं फैलाई थीं। ये धारणाएं आज भी हमारे चिंतन, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों तथा विचारकों को गुमराह कर रही हैं। इन भ्रांत धारणाओं से छुटकारा पाकर नए सिरे से हमारी भाषाओं, सभ्यता, संस्कृति आदि पर विचार करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। रामविलास जी पिछले 60-70 वर्षों से यही करते आ रहे थे।

हमारे देश में आज भी बच्चे स्कूलों में ऐसी भ्रांत धारणाएं सीखते हैं, जैसे, आर्य बाहर से भारत में आए, आर्यों ने द्रविड़ों को जीतकर उन्हें गुलाम बनाया, दक्षिण और उत्तर भारत में नस्लीय वैमनस्य है, हिंदी आदि भाषाएं संस्कृत की पुत्रियां हैं, संस्कृत लैटिन, ग्रीक आदि यूरोपीय भाषाओं से प्रभावित हुई है, ऋग्वेद भारत के बाहर कहीं लिखा गया था, आर्यों का मूल स्थान कहीं मध्य एशिया में था, इत्यादि। रामविलास जी ने इन सब तथा इस तरह की अनेक अन्य धारणाओं को भ्रांत, नस्लवाद-प्रेरित और भारतीय सभ्यता के समुचित विकास के लिए हानिकारक सिद्ध किया है।

उदाहरण के लिए, रामविलास जी ने अनेक अकाट्य तर्कों से प्रमाणित किया है कि आर्य लोग कहीं और से भारत नहीं आए हैं, बल्कि भारत के ही मूल निवासी हैं। रामविलास जी ने अंतिम दस वर्ष भाषा-विज्ञान पर गहन अध्ययन करते हुए बिताया। उन्होंने भाषा-विज्ञान को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त करके पाणिनी, किशोरीदास वाजपेयी जैसे भारतीय विद्वानों द्वारा प्रशस्त किए गए देशी मार्गों की ओर पुनः मोड़ने का भरसक प्रयास किया है। रामविलास जी मानते हैं कि ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि समेत अनेक यूरोपीय भाषाएं संस्कृत, हिंदी, तमिल आदि भारतीय भाषाओं से खूब प्रभावित हुई हैं। जर्मन की तुलना में रूसी तथा अन्य स्लाव भाषाएं संस्कृत और भारत की अन्य भाषाओं के अधिक निकट हैं। उनके अनुसार यह धारणा गलत है कि भारत की आधुनिक भाषाएं संस्कृत की पुत्रियां हैं। इसके विपरीत रामविलास जी कहते हैं कि संस्कृत तथा सभी भारतीय भाषाएं एक ही स्तर की भाषाएं हैं, यानी अन्य भारतीय भाषाएं भी संस्कृत जितनी ही पुरानी हैं। जिस तरह हिंदी क्षेत्र की अनेक बोलियों (ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, अवधी, आदि) में से निकलकर हिंदी समस्त हिंदी क्षेत्र की संपर्क भाषा बन गई है, उसी तरह संस्कृत भी उत्तर भारत की अनेक बोलियों में से एक थी जो समस्त क्षेत्र की प्रमुख भाषा बन गई है। इसी तरह आधुनिक यूरोपीय भाषाएं लैटिन की पुत्रियां न होकर स्वतंत्र भाषाएं हैं जिनका अस्तित्व उतना ही पुराना है जितना लैटिन का है।

ऋग्वेद के संबंध में भी रामविलास जी की अपनी धारणाएं हैं। वे उसे आध्यात्मिक कम और सामाजिक दस्तावेज अधिक मानते हैं। उसमें उन्हें आदिम समाजवाद के स्पष्ट लक्षण मिलते हैं। ऋग्वेद के ऋषि शारीरिक मेहनत से परहेज न करते थे, और उनमें जातिभेद न था। वे कुम्हार, कृषक, लुहार, बढ़ई आदि सभी पेशे में संल्गन रहते हुए ऋचाएं रचते हैं। स्वयं ऋषि शब्द की रामविलास जी ने बहुत ही रोचक व्युत्पत्ति बताई है। उनके अनुसार यह कृष धातु से बना है जिसका मतलब होता है, खींचना, अर्थात खेत में हल खींचना। जो यह काम करता है वह हुआ ऋषि, अर्थात, ऋषि का मतलब है किसान! ऋग्वेद के सर्वहारापन का इससे बढ़कर क्या प्रमाण हो सकता है!

आजकल के संकीर्णदृष्टिवाले नेता देश को धर्म, संप्रदाय, भाषा, जाति आदि के नाम पर बांटने पर तुले हैं। रामविलास जी ने सही दिशा दिखाई है कि देश के विभिन्न धर्मों, भाषाओं, संप्रदायों और जातियों को एक करके मजबूत राष्ट्र का निर्माण करने का एकमात्र तरीका भाषा-जातियों के आधार पर समुदायों को संगठित करना है। धर्म, संप्रदाय, जाति आदि संकीर्ण दायरों को लांघकर भाषा लोगों को जोड़ती है। उदाहरण के लिए, हिंदी बोलनेवालों में हिंदू भी हैं, मुसलमान भी, सिक्ख भी, इसाई भी, किसान भी उद्योगपति भी, महिलाएं भी पुरुष भी, अमीर भी गरीब भी। इस तरह हिंदी के मंच पर इन सबको संगठित किया जा सकता है। यही एकमात्र शक्ति है जो आजकल की राजनीतिक दलों द्वारा फैलाए जा रहे सांप्रदायिक विष को निरस्त कर सकती है।

तमिल, बंगला आदि भाषाओं ने भाषा के आधार पर अपनी जाति का संगठन भली-भांति कर लिया है। पीछे रह गया है सिर्फ हिंदी जाति का क्षेत्र, जो अज्ञान, फूट, अशिक्षा, कुस्वास्थ आदि के कुहरे तले तड़प रहा है। उसे ऊपर उठाने के लिए सभी हिंदी भाषियों में जातीय चेतना जगाना बहुत जरूरी है। आज हिंदी भाषियों को बिहारी, हरियाणवी, उत्तर प्रदेशी, झारखंडी आदि अनेक खेमों में बांटकर उनको कमजोर करने की साजिश रची जा रही है। जरूरत है सभी हिंदी भाषियों को एक करने की। यदि पचास करोड़ हिंदी भाषी एक हो जाएं, तो दुनिया की कोई भी ताकत भारत को कमजोर नहीं कर पाएगी।

राज ठाकरे ने हिंदी भाषियों की जातीय चेतना जगाकर उन्हें एक करने में योगदान किया है। इसके लिए हमें उनके प्रति आभार प्रकट करना चाहिए।

Sunday, March 08, 2009

बैंगलूर की स्त्री नुमाइश और स्त्री उन्नति

पिछले कई दिनों से अमिताभ बच्चन भारतीय संस्कृति के राजदूत की नई छवि में अपने-आपको देखने लगे हैं, हालांकि भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने से उनका तात्पर्य है कुछ फूहड़ और बेसिरपैर के गीतों का वीडियो चित्रांकन करना, भारतीय फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करना और देश-विदेश की सुंदरियों की बैंगलूर में नुमाइश करवाना।

उनके इस पिछले प्रयास को लेकर देश के महिला संगठनों ने खूब हंगामा किया है और कहा है कि इससे भारतीय संस्कृति की जड़ें खोखली हो रही हैं। इस नुमाइश को वित्तीय समर्थन देनेवाले एक औद्योगिक घराने के शोरूम में घुसकर कुछ महिलाओं ने वहां तोड़-फोड़ की और नुमाइश का विरोध करते हुए चेन्नै (मद्रास) में एक युवक ने अपने आपको जला डाला।

महिला आंदोलन के भी अनेक स्तर हैं और यह कहना उचित न होगा कि सभी ने इस नुमाइश का विरोध किया है। पश्चिमी विचारधाराओं से प्रेरित उच्च मध्यम वर्ग की महिलाओं ने इस नुमाइश का स्वागत किया है। वैसे भी यह वर्ग अब दो-एक पीढ़ियों से भारतीय संस्कृति से दूर हट चुका है और इसके आदर्श, मूल्य, नैतिकता एवं रहन-सहन काफी पश्चिमीकृत हो चुका है। सती-सावित्री का आदर्श इस वर्ग की महिलाओं को उत्साहित नहीं करता। इसके विपरीत ये महिलाएं इस तरह के आदर्शों से सख्त नफरत करती हैं और चाहती हैं कि ये आदर्श देश के मानस से जितनी जल्दी मिट जाएं उतना ही अच्छा क्योंकि ये ही आदर्श महिला-उन्नति के मार्ग का सबसे विकट रोड़ा है। जब तक ये आदर्श बने रहेंगे तब तक भारतीय महिलाएं पश्चिमी महिलाओं के समान स्वतंत्र एवं शक्तिशाली नहीं बन सकेंगी।

समृद्ध पश्चिमीकृत महिलाएं जानती हैं कि अमिताभ बच्चन द्वारा आयोजित स्त्री नुमाइश महिलाओं की स्वतंत्र छवि को उभारने में और परंपरागत आदर्शों को कमजोर करने में सहायक होगी। इसके साथ-साथ इस वर्ग की महिलाओं के लिए इस नुमाइश का आर्थिक पहलू भी महत्वपूर्ण है। आजकल मोडेलिंग एक अत्यंत मुनाफेदार पेशा बन गया है। स्त्री नुमाइश इस पेशे को काफी प्रोत्साहन देता है। स्त्री नुमाइश में भाग लेनेवाली भारतीय नारियां पश्चिमीकृत उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों की ही होती हैं। इन्हें बाद में फिल्मों में तथा मोडेलिंग पेशे में स्थान मिलने की काफी उम्मीद रहती है। बैंगलूर की नुमाइश के बाद अन्य औद्योगिक घराने भी इस तरह की नुमाइशें देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में आयोजित करेंगे, जिससे मोडेलिंग के पेशे को काफी प्रोत्साहन मिलेगा। इन नुमाइशों का आयोजन करनेवाला एक बहुत बड़ा वर्ग भी पैदा हो जाएगा, जो धीरे-धीरे एक फलते-फूलते उद्योग में बदल जाएगा। ब्राजील आदि दक्षिण अमरीकी देशों में ऐसा पहले ही हो चुका है।

देश की आर्थिक-राजनीतिक क्षितिज में बैंगलूर एक नए शक्ति केंद्र के रूप में उभर रहा है, खास करके तब से जबसे कर्णाटक राज्य, जिसकी बैंगलूर राजधानी है, का एक व्यक्ति देश का प्रधान मंत्री बन गया है। अतः बैंगलूर शहर के आर्थिक तंत्र में जिन लोगों का निहित स्वार्थ है, वे भी इस अंतरराष्ट्रीय नुमाइश को काफी तरजीह दे रहे हैं क्योंकि इससे बैंगलूर शहर को मुफ्त में अंतरराष्ट्रीय पब्लिसिटी मिलेगी, जिससे वहां नए उद्योग और विदेशी पूंजीपति आएंगे। मौजूदा उद्योगों को भी भारी फायदा होगा।

इस तरह इस नुमाइश का विरोध पश्चिमीकृत महिला संगठनों या उद्योगों से नहीं हो रहा। इसका विरोध कर रहे हैं, कुछ राजनीतिक संगठनों से जुड़े महिला संगठन। दक्षिण में हिंदुत्व पार्टियां अब तक जम नहीं पाई हैं, यद्यपि कर्णाटक में उनकी स्थिति अन्य दक्षिणी राज्यों से कुछ बेहतर है। इसलिए ये पार्टियां हमेशा ऐसे किसी मुद्दे की तलाश में रहती हैं जिसके इर्दगिर्द कोई जोरदार जन आंदोलन शुरू किया जा सके। इन आंदोलनों के जरिए ये चुनावों में अपनी पार्टी के लिए मत बटोरने की आशा रखती हैं। इन पार्टियों के लिए बैंगलूर की स्त्री नुमाइश एक अच्छा मुद्दा है क्योंकि यह बहुत से रूढ़िग्रस्त लोगों के लिए एक बहुत ही संवेदनशील विषय है।

इस प्रकार नुमाइश के सामाजिक नफे-नुक्सान की समीक्षा इसका समर्थन करनेवालों अथवा विरोध करनेवालों के दृष्टिकोणों से करना उचित न होगा, क्योंकि इन दोनों वर्गों के निहित स्वार्थ इस नुमाइश से ऐसे घुलमिल गए हैं कि उनसे निष्पक्षता की आशा नहीं की जा सकती। अतः देखना यह है कि इस नुमाइश का देश की महिलाओं की स्थिति को सुधारने में क्या प्रभाव पड़ेगा। यहां महिलाओं से तात्पर्य संपन्नवर्ग की पश्चिमीकृत महिलाएं ही नहीं, वरन देश के सभी वर्गों की महिलाएं हैं, जैसे मध्यम वर्ग की रूढ़िग्रस्त हिंदू महिलाएं, अल्पसंख्यक वर्गों की महिलाएं, गरीब तबकों की महिलाएं, ग्रामीण महिलाएं आदि।

भारतीय महिलाओं की मुख्य समस्या सामाजिक एवं आर्थिक है। जब तक महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता का रास्ता नहीं खुल जाता, तब तक उनकी व्यक्तिगत विकास एवं आजादी की बात करना बेकार है। यह आर्थिक स्वतंत्रता तभी आ सकती है जब स्त्रियां पढ़-लिखकर नौकरियां संभालेंगी या स्वतंत्र धंधों में लगेंगी। ऐसा तभी होगा जब लड़कियों एवं महिलाओं के प्रति परिवारों का दृष्टिकोण बदलेगा और वे लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की ओर ध्यान देंगे तथा बहनों, बेटियों और बीवियों को नौकरी पर जाने देंगे। दूसरी ओर पर्याप्त आर्थिक विकास का होना भी आवश्यक है, अन्यथा पर्याप्त संख्या में विद्यालय खोलना और रोजगार के नए अवसर पैदा करना संभव न होगा। इस प्रकार महिलाओं की समस्या बहुत कुछ महिलाओं के बारे में समाज की वर्तमान मान्यताओं को बदलने और देश के आर्थिक विकास से जुड़ी है। सामाजिक मान्यताओं को बदलने में बैंगलूर में आयोजित स्त्री नुमाइस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है क्योंकि इस प्रकार की घटनाएं वर्तमान विश्वासों को झकझोरने की क्षमता रखती हैं और इससे लोग अपनी मान्यताओं को अधिक निकट से देखने पर मजबूर होते हैं और इन मान्यताओं की असंगतता लोगों के लिए स्पष्ट हो जाती है।

महिलाओं के बारे में लोगों की वर्तमान मान्यताओं ने महिलाओं का कोई भला नहीं किया है। अतः इन मान्यताओं को बदलना आवश्यक है। इसमें संदेह नहीं कि बैंगलूर की स्त्री नुमाइश महिलाओं के बारे में पश्चिमी मान्यताओं को उजागर करती है, लेकिन महिलाओं के प्रति पश्चिम की मान्यताओं के बारे में भी लोगों को अवगत होना आवश्यक है। यह जानकारी महिलाओं के प्रति स्वस्थ मानसिकता विकसित करने में सहायक रहेगी। पश्चिमी महिलाओं की स्थिति भी निर्दोष नहीं है। उन्हें आर्थिक आजादी जरूर है, परंतु वे पुरुष के नियंत्रण से पूर्णरूप से मुक्त नहीं हैं। वहां भी महिलाएं पण्य वस्तु के रूप में ही देखी जाती हैं। इन सबसे छुटकारा पाने के लिए वहां की महिलाएं भी संघर्षरत हैं। कहने का मतलब यह है कि पश्चिमी महिलाओं की स्थिति भारतीय महिलाओं के लिए कोई अंतिम आदर्श नहीं है। वह केवल एक नए दृष्टिकोण की ओर इशारा करती है।

दूसरी आवश्यकता आर्थिक विकास है। महिलाओं की बहुत सी समस्याएं गरीबी और आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ी हैं। परिवार में केवल लड़के को पढ़ाना, लड़कियों के स्वास्थ्य की ओर कम ध्यान दिया जाना आदि के पीछे मुख्य कारण आर्थिक तंगी है। अधिकांश परिवारों के पास केवल एक संतान को पढ़ाने-लिखाने की आर्थिक सामर्थ्य होती है और उन्हें चुनना पड़ता है कि लड़के को पढ़ाएं या लड़की को। शादी के बाद लड़कियां उनके पति के घर चली जाती हैं, इसलिए सामान्यतः लड़कों के पक्ष में ही अधिकांश परिवार निर्णय लेते हैं। एक दूसरा कारण यह है कि देश में वृद्ध जनों की देखभाल न तो समाज करता है न सरकार। यह जिम्मा भी परिवार पर ही आता है। इसलिए भी परिवार लड़कों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देते हैं, क्योंकि बुढ़ापे में ये ही परिवारजनों की देखभाल करेंगे और इन्हें आर्थिक दृष्टि से संपन्न बनाने में ही परिवार का हित है।

यदि आर्थिक विकास के फलस्वरूप देश में खुशहाली आती है, तो परिवारों के लिए सभी बच्चों की पर्याप्त देखभाल करना संभव हो सकेगा। दूसरी बात यह है कि देशभर में छोटे परिवारों की ओर रुझान बढ़ रहा है। इससे प्रत्येक परिवार में बच्चों की परवरिश पर खर्च कम होने लगा है। दक्षिण भारत में, खास तौर से केरल और तमिलनाड में, इस तरह का सामाजिक परिवर्तन आरंभ हो चुका है और शतप्रतिशत साक्षरता की ओर वहां का समाज बढ़ रहा है। इसका सबसे अच्छा प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ा है। वे अधिक पढ़ी-लिखी, स्वस्थ एवं लंबी आयुवाली हो रही हैं।

आर्थिक विकास से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे और महिलाओं को स्वतंत्र आमदनी प्राप्त हो सकेगी। इससे पुरुषों और परिवारों पर उनकी निर्भरता कम होगी और वे अपने जीवन पर अधिक नियंत्रण पा सकेंगी।

इस प्रकार बैंगलूर की स्त्री नुमाइश को भारतीय नारी की सभी समस्याओं के समाधान के रूप में अथवा भारतीय संस्कृति को जमीनदोस्त करनेवाली विकराल राक्षसी के रूप में देखकर बात का बतंगड़ बनाने में कोई तुक नहीं है। किसी भी प्रौढ़ एवं लोकतांत्रिक समाज में इस प्रकार की विरोधी विचारों को झेलने की क्षमता होती है। हिंदुत्ववादी पार्टियां इस नुमाइश का हिंसक विरोध करके समाज की इस क्षमता पर अनुचित शंका कर रही हैं। ये पार्टियां भारतीय संस्कृति की बात-बात पर दुहाई देती हैं और उसे विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति सिद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं रखतीं। इसे देखते हुए समाज की नैसर्गिक शक्तियों के प्रति इनका यह अविश्वास जरा अटपटा लगता है। इस नुमाइश की उपयोगिता इसी में है कि यह महिलाओं के प्रति समाज की मान्यताओं पर नए सिरे से विचार करने के लिए सभी को मजबूर करती है। यह विचार-मंथन उपयोगी हो सकता है और समाज में परिवर्तन की शीतल बयार उड़ा सकता है।

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