Tuesday, August 18, 2009

हिंदी का पहला उपन्यास

हिंदी का पहला उपन्यास होने का गौरव लाला श्रीनिवास दास (1850-1907) द्वारा लिखा गया और 25 नवंबर 1885 को प्रकाशित परीक्षा गुरु नामक उपन्यास को प्राप्त है। लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटकार थे। नाटक लेखन में वे भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे मथुरा के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। उनके नाटकों में शामिल हैं, प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर और प्रेम मोहिनी, और संयोगिता स्वयंवर।

लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। मदनमोहन एक समृद्ध वैश्व परिवार में पैदा होता है, पर बचपन में अच्छी शिक्षा और उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण और युवावस्था में गलत संगति में पड़कर अपनी सारी दौलत खो बैठता है। न ही उसे आदमी की ही परख है। वह अपने सच्चे हितैषी ब्रजकिशोर को अपने से दूर करके चुन्नीलाल, शंभूदयाल, बैजनाथ और पुरुषोत्तम दास जैसे कपटी, लालची, मौका परस्त, खुशामदी "दोस्तों" से अपने आपको घिरा रखता है। बहुत जल्द इनकी गलत सलाहों के चक्कर में मदनमोहन भारी कर्ज में भी डूब जाता है और कर्ज समय पर अदा न कर पाने से उसे अल्प समय के लिए कारावास भी हो जाता है।

इस कठिन स्थिति में उसका सच्चा मित्र ब्रजकिशोर, जो एक वकील है, उसकी मदद करता है, और उसकी खोई हुई संपत्ति उसे वापस दिलाता है। इतना ही नहीं, मदनमोहन को सही उपदेश देकर उसे अपनी गलतियों का एहसास भी कराता है।

उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेजी से आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रज भाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। काव्य के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रज भाषा चुना है।

उपन्यास की भाषा हिंदी के प्रारंभिक गद्य का अच्छा नमूना है। उसमें संस्कृत और फारसी के कठिन शब्दों से यथा संभव बचा गया है। सरल, बोलचाल की (दिल्ली के आस-पास की) भाषा में कथा सुनाई गई है। इसके बावजूद पुस्तक की भाषा गरिमायुक्त और अभिव्यंजनापूर्ण है। वर्तनी के मामले में लेखक ने बोलचाल की पद्धति अपनाई है। कई शब्दों को अनुनासिक बनाकर या मिलाकर लिखा है, जैसे, रोनें, करनें, पढ़नें, आदि, तथा, उस्समय, कित्ने, उन्की, आदि। “में” के लिए “मैं”, “से” के लिए “सैं”, जैसे प्रयोग भी इसमें मिलते हैं। कुछ अन्य वर्तनी दोष भी देखे जा सकते हैं, जैसे, समझदार के लिए समझवार, विवश के लिए बिबश। पर यह देखते हुए कि यह उपन्यास उस समय का है जब हिंदी गद्य स्थिर हो ही रहा था, उपन्यास की भाषा काफी सशक्त ही मानी जाएगी।

इस उपन्यास की भाषा का एक बानगी नीचे दे रहा हूं –

“सुख-दुःख तो बहुधा आदमी की मानसिक वृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन है। एक बात सै एक मनुष्य को अत्यन्त दःख और क्लेश होता है वही दूसरे को खेल तमाशे की-सी लगती है इसलिए सुख-दुःख होनें का कोई नियम मालूम होता” मुंशी चुन्नीलाल नें कहा।

“मेरे जान तो मनुष्य जिस बात को मन सै चाहता है उस्का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा।

“तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख में फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्का क्या कराण? असल बात यह है कि जिस्समय मनुष्य के मन मैं जो वृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशीकी सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछताबा करता है और न्याय वृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्हने अपनी भूल का अंगीकार करकै उस्के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्म सै आत्मग्लानि और उचित कर्म्म सै आत्मप्रसाद हुए बिना सर्वथा नहीं रहता” लाला ब्रजकिशोर बोले।

(सुख-दुःख, प्रकरण से)


कुल मिलाकर यह एक सफल उपन्यास है जो उपन्यास विधा की सभी विशेषताओं को दर्शाता है।

माना जाता है कि दुनिया का सबसे पहला उपन्यास जापानी भाषा में 1007 ई. में लिखा गया था। यह था “जेन्जी की कहानी” नामक उपन्यास। इसे मुरासाकी शिकिबु नामक एक महिला ने लिखा था। इसमें 54 अध्याय और करीब 1000 पृष्ठ हैं। इसमें प्रेम और विवेक की खोज में निकले एक राजकुमार की कहानी है।

यूरोप का प्रथम उपन्यास सेर्वैन्टिस का “डोन क्विक्सोट” माना जाता है जो स्पेनी भाषा का उपन्यास है। इसे 1605 में लिखा गया था।

अंग्रेजी का प्रथम उपन्यास होने के दावेदार कई हैं। बहुत से विद्वान 1678 में जोन बुन्यान द्वारा लिखे गए “द पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस” को पहला अंग्रेजी उपन्यास मानते हैं।

भारतीय भाषाओं में लिखे गए प्रथम उपन्यासों का ब्योरा इस प्रकार है -

मलयालम
इंदुलेखा। रचनाकाल, 1889, लेखक चंदु मेनोन।

तमिल
प्रताप मुदलियार। रचनाकाल 1879, लेखक, मयूरम वेदनायगम पिल्लै।

बंगाली
दुर्गेशनंदिनी। रचनाकाल, 1865, लेखक, बंकिम चंद्र चैटर्जी।

मराठी
यमुना पर्यटन। रचनाकाल, 1857, लेखक, बाबा पद्मजी। इसे भारतीय भाषाओं में लिखा गया प्रथम उपन्यास माना जाता है।

इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत की लगभग सभी भाषाओं में उपन्यास विधा का उद्भव लगभग एक ही समय दस-बीस वर्षों के अंतराल में हुआ।

Saturday, July 11, 2009

साहित्य का मूल्य

क्यों इस पचड़े में पड़ें कि साहित्य क्या है? और ब्लोग क्या है.. क्या साहित्य की कोई परिभाषा हो सकती है या क्या इसे परिभाषा में बांधा जा सकता है... कतई नहीं जो आपके लिए साहित्य है वह मेरे लिए कुड़ा हो सकता है और जो आपके लिए कुड़ा हो वह मेरे लिए साहित्य.. किसी को साहित्य कहने न कहने का कोई सर्वमान्य आधार नहीं.. क्यों हम छड़ी लेकर नापते हैं और किसी को तय खानों में फिट करने की कोशिश करते हैं.. जो है वो है.. जो जैसा है उसे वैसा रहने दें..

रंजन

रंजन जी की उपर्युक्त टिप्पणी से जो विचार आए, उन्हें नीचे दे रहा हूं।

साहित्य किसी जाति की स्मृति, आकांक्षा और अभिरुचि का आधान है। यहां मैं जाति शब्द को नेशनैलिटी के अर्थ में प्रयुक्त कर रहा हूं। उस जाति की उन्नति होती है जिसका साहित्य स्पष्ट हो, लोकतांत्रिक हो और समावेशी हो। साहित्य में क्रांतिकारी ताकत होती है। वह लोकतंत्र और न्याय का पोषण कर सकता है। वह मानव जाति को ऊंचाइयों की ओर ले जा सकता है।

साहित्य क्या है यह अधिकांश लोगों को मोटे तौर पर पता होगा, उसमें कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि शामिल हैं। इन सबमें क्या लिखा गया है, किस नजरिए से लिखा गया है और क्यों लिखा गया है, यह साहित्य का अहम हिस्सा है।

साहित्य की इस मौलिक एवं असीम ताकत को समझकर समाज के सुधारवादी, यथास्थितिवादी और शोषक उसे अपने पक्ष में परिवर्तित करने की कोशिश करते रहते हैं। हमारे यहां के अधिकांश पुराने साहित्यिक कृतियों में सुधारवादियों ने कुछ-कुछ अंश जोड़कर इन कृतियों की मूल प्रवृत्ति को अपनी विचारधारा के अनुकूल बनाने की कोशिश की है। वाल्मीकि रामायण, महाभारत, रामचरितमानस, आदि अनेक रचनाएं इस तरह विरूपित हुई हैं। यहां तक कहा जाता है कि महाभारत में गीता भी बाद में जोड़ी गई है और खास मकसद से। इस पर और कभी चर्चा करेंगे। इस प्रवृत्ति से सतर्क होने की बहुत जरूरत है, अन्यथा साहित्य दूषित हो सकता है, और किसी वर्ग विशेष का होकर रह सकता है, और उसका क्रांतिकारित्व नष्ट हो सकता है। हमारे कई साहित्यिक कृतियों के साथ ऐसा हुआ है।

फिर भी काफी कुछ साहित्य अब भी बचा हुआ है जो दूषण-मुक्त है और हमारे लिए बेशकीमती है।

साहित्य को दूषित करने की प्रवृत्ति हर समाज में पाई जाती है और उसे बड़े ही सूक्ष्म और संगठित तरीके से किया जाता है। कई बार तो स्वयं साहित्यकार को पता नहीं होता है कि जो वह लिख रहा है, वह किसी वर्ग विशेष का हित साधक है, और संपूर्ण समाज का नहीं। मैंने अपने पहले लेख क्या ब्लोग साहित्य है? में इसके उदाहरण स्वरूप रुड्यार्ड किपलिंग और राहुल सांकृत्यायन का नाम लिया था।

कई बार जन-हितकारी साहित्य को जानबूझकर हानिकारक, पुराना या अप्रासंगिक बता दिया जाता है, ताकि लोग उनके क्रांतिकारी स्वरूप को न पहचान सकें, यथा रामचरितमानस। इसका उल्टा भी देखने में आता है, किसी वर्ग विशेष के साहित्य को सर्वहितकारी करार दिया जा सकता है। अंग्रेजों के जमाने में लोड मकोले ने एक बार कहा था अलमारी भर यूरोपीय साहित्य शताब्दियों के समूचे पूर्वी साहित्य से श्रेष्ठ है!

इसलिए हर समाज को अपने साहित्य की रक्षा करनी होती है। उसके उन अंशों को पहचानना होता है जो सर्वहितकारी हो, क्रांतिकारी हो, और उन अंशों को त्यागना होता है, जो अनिष्टकारी हो, प्रोपेगैंडा हो। इसे स्पष्ट करने के लिए हम भारतेंदु युग पर विचार कर सकते हैं। भारतेंदु युग से पहले हिंदी साहित्य पर रीतिकालीन (शृंगारिक) रचनाएं हावी हो गई थीं। पर एक परतंत्र राष्ट्र के लिए जो गुलामी से लड़ रहा हो और जिसके लोग घोर गरीबी में जी रहे हों, ये विलासिता के काव्य अप्रासंगिक ही नहीं, क्रूरता और मजाक के भी परिचायक थे। इसलिए उसे बदलने की आवश्यकता थी। इसे भारतेंदु तथा उनके सहयगियों ने किया। उन्होंने साहित्य के कथ्य को ही नहीं भाषा को भी बदल दिया। रीति काव्य ब्रज भाषा में लिखे जाते थे, उन्होंने नए साहित्य के लिए खड़ी बोली को चुना।

लोकतंत्र को पुष्पित-पल्लवित करने में साहित्य की एक अहम भूमिका होती है। वह संसद, न्याय-तंत्र, नौकरशाही, अखबार आदि के समान समाज का एक शक्ति-केंद्र है। उसकी खासियत यह है कि उसे किसी वर्ग विशेष के समर्थन के लिए भ्रष्ट करना उतना आसान नहीं होता है। सांसदों को खरीदा जा सकता है, न्याय को मखौल बनाया जा सकता है या अमीरों के हाथों का खिलौना, नौकरशाही तंत्र को व्यवसाय की चेरी बनाया जा सकता है, अखबारों को स्वयं व्यवसाय में बदला जा सकता है, पर इसी तरह साहित्य को खोखला करना आसान नहीं होता। कारण यह है कि साहित्य अन्य सभी तंत्रों की तुलना में अधिक दीर्घजीवी है। उसमें मिलावट करना कठिन ही नहीं होता, किया गया मिलावट तुरंत पकड़ में भी आ जाता है। साहित्य जनता का स्पष्ट पक्षधर होता है। वह उस पक्ष में खड़ा होता है जहां अधिकतम या सभी का हित सधता हो।

इसलिए साहित्य बेशकीमती है। उसे प्रोपगेंडा से बचाए रखना बहुत जरूरी है। साहित्यकारों की भी बड़ी जिम्मेदारी है कि वे साहित्य की पावनता में दाग न लगने दें और सभी मनुष्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए साहित्य रचें।

ब्लोग में लोग जो चाहे लिखते हैं, पर वह सब साहित्य नहीं बन सकता। लोग साहित्य बनाने के इरादे से ब्लोग लिखते भी नहीं हैं। पर ब्लोग एक लचीला माध्यम है, उसमें साहित्य भी लिखा जा सकता है। यह ब्लोगर के ऊपर है कि वह साहित्य लिखना चाहता है या साधारण चीज।

और समालोचक का काम यह है कि वह ब्लोगों में लिखे गए हजारों लेखों में से उन मोतियों को चुनकर प्रकाश में लाए जो श्रेष्ठ हो। जहां तक मैं जानता हूं, कोई भी समालोचक या ब्लोगर यह काम नहीं कर रहा है। पर आगे चलकर इसकी भी आवश्यकता होगी। समालोचक के काम को आसान बनाने के लिए ब्लोग विधा के कुछ सामान्य लक्षणों को पहचाना जाना चाहिए और उस पर सहमति लानी चाहिए। कहानी, एकांकी, संस्मरण आदि के समान ब्लोग पोस्ट भी लेखन की एक विधा है। इस पर काफी विचार हुआ है कि कहानी मतलब क्या, या उपन्यास मतलब क्या या संस्मरण मतलब क्या। लेकिन इस पर न के बराबर विचार हुआ है कि एक ब्लोग पोस्ट मने क्या। यदि समालोचक अच्छे ब्लोग पोस्टों का अध्ययन करके यह बता सकें कि वे क्या चीजें हैं जो किसी ब्लोग पोस्ट को अच्छा बनाती हैं, तो ब्लोग लेखकों को ही नहीं, पाठकों को भी सुविधा होगी, हजारों पोस्टों में से उन उपयोगी पोस्टों को छांटने में जो स्थायी महत्व के हैं।

इसी तरह अखबारों और पुस्तक प्रकाशकों का भी ब्लोगों के स्थायी महत्व के अंशों को पहचानने और उन्हें प्रचारित करने में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। हमारे देश में साधनों के असमान वितरण के कारण सर्वसाधारण तक ब्लोगों की पहुंच नहीं है। वे केवल उन लोगों तक पहुंचते हैं जिनके पास घर है, घर में बिजली है और इंटरनेट तक पहुंच है, और कंप्यूटर है। इन सब आवश्यकताओं को पूरा करने वाले पूरी आबादी का 1 -2 प्रतिशत ही होंगे। ऐसे में ब्लोगों में रची जा रही श्रेष्ठ सामग्री को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ब्लोगों को अन्य माध्यमों के साथ नाथना होगा, विशेषकर अखबारों के साथ और पुस्तकों के साथ।

अखबार पहले ही यह काम कर रहे हैं। अधिकांश हिंदी अखबार अब ब्लोगों की भी चर्चा करते हैं। पर इसे अधिक व्यवस्थित तरीके से और सूझबूझ के साथ करने की आवश्यकता है। अभी तो बस खानापूरी ही हो रहा है। ब्लोगों के जो पोस्ट अखबारी लेखनों के निकट के हैं, उन्हें ही अखबारों में स्थान मिल रहा है। जो लंबे पोस्ट हैं या जो अधिक जटिल पोस्ट हैं उन्हें अखबार नजरंदाज कर रहे हैं। उन्हें अलग रीति से अखबारों में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, पर अखबार अभी इतनी मेहनत नहीं कर रहे हैं।

इसी तरह पुस्तक प्रकाशकों को भी ब्लोगों की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। ब्लोगों में स्थायी महत्व की जो चीजें लिखी गई हैं, उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित करने के लिए सामने आना चाहिए।

मैं एक उदाहरण दूंगा। जब मुंबई नरसंहार हुआ था, तो ब्लोग जगत में इस विषय पर लिखे गए पोस्टों की बाढ़ सी आई थी। लगभग सभी ब्लोगरों ने एक दो पोस्ट इस विषय पर लिखा। इनमें से कई बड़े ही मार्मिक, सुंदर और स्थायी महत्व के हैं। ब्लोगों के जरिए वे बहुत कम लोगों तक पहुंचे। यदि कोई प्रकाशक इन पोस्टों को संकलित करता और पुस्तक रूप में प्रकाशित करता, तो वह पुस्तक मुंबई नरसंहार का एक संग्रहणीय ऐतिहासिक अभिलेख बन जाता। पर जहां तक मैं जानता हूं, किसी भी हिंदी प्रकाशक ने इस ओर कोई कदम नहीं उठाया।

इसी तरह ब्लोग जगत में महिला उन्नति पर बहुत ही अच्छे पोस्ट आ रहे हैं, उनका भी एक संकलन बन सकता है। पर प्रकाशक इस ओर उदासीन हैं।

आशा की जानी चाहिए कि आनेवाले दिनों में इन दोनों दिशाओं में सुधार देखने को मिलेगा।

इस तरह के प्रयासों से ब्लोगों में जो स्थायी महत्व की चीजें आ रही हैं, उन्हें पहचाना जा सकेगा और ये ही आगे चलकर साहित्य भी बनेंगे।

Friday, July 10, 2009

क्या ब्लोग साहित्य है?

आजकल ब्लोगजगत में एक बहस खूब उफान ला रहा है - क्या ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है?

कुछ लोग साहित्य और ब्लोग की तुलना को हंस और कौए को एक पांत में बिठाना कह रहे हैं, तो कोई पलटवार करके साहित्य को ही कागज में छपा बासी ब्लोग बता रहे हैं।

ब्लोगजगत को यह विषय इतना गंभीर लग रहा है कि उस पर एक बकायदा संगोष्ठि ही की जा रही है आज रायपुर में। अध्यक्ष हैं, छींटें और बौछारें के सुपरिचित ब्लोगर श्री रविशंकर श्रीवास्तव (रविरतलामी)।

तो सच क्या है, ब्लोग साहित्य है या नहीं? जानिए जयहिंदी का दृष्टिकोण।

साहित्य वह चीज है जिसमें किसी जाति (जाति शब्द को अंग्रेजी के नेशनैलिटी के समतुल्य के रूप में यहां प्रयोग किया गया है) के लोग अपनी आकांक्षाओं, सपनों, इच्छाओं, भावों और आहों की झलक पाते हैं। उसका लिखित होना जरूरी नहीं है, वेद सहित अधिकांश साहित्य मौखिक ही रहे हैं, और यही स्थिति अब भी बनी हुई है, लोक साहित्य को देखिए।

साहित्य जनता की आवाज होता है। वह जनता को प्रेरणा देता है, सही दिशा दिखाता है, सांत्वना देता है, उसका उत्साह बढ़ाता है, उसका मनोरंजन करता है और उसकी अभिरुचियों का परिष्कार करता है। थोड़े शब्दों में कहें, तो साहित्य जन-कल्याणकारी होता है। स्वांतः सुखाय जो लिखा जाता है वह अधिकांश में श्रेष्ठ साहित्य की कोटि में नहीं आता। इसी तरह जो किसी छिपे एजेंडा को लेकर लिखा जाता है, वह प्रोपेगैंडा है, साहित्य नहीं, और उसका उद्देश्य किसी खास वर्ग के हितों को बढ़ावा देना होता है, न कि समस्त जन-समूह का। इसके उदाहरण के स्वरूप हम रुड्यार्ड किप्लिंग को ले सकते हैं। उन्होंने खूब लिखा है और वे अंग्रेजी के प्रख्यात साहित्याकार भी माने जाते हैं। उन्हें नोबल पुरस्कार भी मिला है। पर उनका सारा साहित्य अंग्रेजों के साम्राज्यवाद को सही ठहराने के उद्देश्य से लिखा गया है, और वह उपनिवेशी समुदायों को दोयम दर्जे का सिद्ध करने का प्रयास मात्र है।

रुड्यार्ड किप्लिंग का उदाहरण महत्वपूर्ण है। उनके समय में उन्हें एक बहुत भारी साहित्यकार माना जाता था, पर जब बाद में उनके लिखे का बारीक विश्लेषण किया गया, तो उनमें निहित द्वेषात्मक अंश बाहर आने लगे और अब वे पूर्णतः डिसक्रेडिट हो चुके हैं।

यदि हींदी का ही उदाहरण लेना हो, तो हम राहुल सांकृत्यायन को ले सकते हैं। रुड्यार्ड किप्लिंग के ही समान उन्होंने भी खूब लिखा है, और उन्हें अपने समय में एक बहुत बड़ा साहित्यकार माना जाता था। पर बाद में जब उनके साहित्य का विश्लेषण किया गया, तो पाया गया कि उसके कई अंश घोर नस्लवादी हैं। उनमें गलत और अहितकारी जानकारी की भरमार है - उदाहरण के लिए, वे यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि आर्य यूरोप से भारत आए थे, बौद्ध धर्म सबसे श्रेष्ठ धर्म है, बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद मार्क्सवाद ही है, इत्यादि। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास दर्शन’ में राहुल सांकृत्यायन की संपूर्ण रचनावली का सूक्ष्म विश्लेषण करके दिखाया है कि इस लेखक की मान्यताएं भारतीय राष्ट्र की उन्नति के लिए कितनी घातक साबित हो सकती हैं।

इससे एक महत्वपूर्ण सीख हमें मिलती है। कोई लेखन श्रेष्ठ साहित्य तभी बनता है, जब उसमें जन-कल्याणकारी प्रवृत्ति हो, और जो समय की कसौटी पर खरा उतरे। रुड्यार्ड किप्लिंग या राहुल सांकृत्यायन की रचनाएं दोनों कसौटियों पर फेल हो जाती हैं।

इससे एक और बात स्पष्ट होती है। सब सुंदर लेखन श्रेष्ठ साहित्य हो, यह जरूरी नहीं है। रुड्यार्ड किप्लिंग या राहुल सांस्कृत्यायन की रचनाएं बहुत सुंदर कला कृतियां हैं, पर मात्र इससे वे श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाएं नहीं बन जातीं, क्योंकि उनमें सौदर्य के साथ-साथ अकल्याणकारी विष की बूंदें भी मौजूद हैं। हां, यह जरूर है कि सब श्रेष्ठ साहित्य सुंदर भी होता ही है, रामचरितमानस को ही ले लीजिए। सुंदर होना साहित्य का आवश्यक गुण है, पर वह पर्याप्त नहीं है। श्रेष्ठ साहित्य होने के लिए किसी रचना को सुंदर होने के साथ-साथ जन-कल्याणकारी भी होना चाहिए। इसे हम आचार्य रामचंद्र शुल्क के शब्दों में यों कह सकते हैं, श्रेष्ठ साहित्य वह है जिससे लोक-मंगल की साधना हो।

इस कठिन कसौटी पर कसा जाए, तो बहुत कुछ जो लिखा जा रहा है, चाहे वह ब्लोगों में हो, या पुस्तकों में या पत्र-पत्रिकाओं में, अंग्रेजी में, या हिंदी में, वह श्रेष्ठ साहित्य कहलाने के लायक नहीं है।

बात शुरू हुई थी, इस सवाल से कि क्या ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है?

यदि ऊपर के विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह सवाल जरा प्रिमेचर लगता है। आखिर हिंदी ब्लोग हैं ही कितने पुराने, यही चार-छह साल। इतने कम समय में उनमें कोई स्थायी महत्व की सामग्री आई भी है यह कहना मुश्किल है। यदि आज ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह बीस-पच्चीस साल बाद भी पढ़ा जाता रहे, तब इस पर विचार किया जा सकता है कि वह साहित्य कहलाने लायक है या नहीं। और तब भी कसौटी वही रहेगी, क्या वह लेखन जन कल्याणकारी है? क्या उसमें लोक-मंगल की साधना है? क्या उसमें प्रोपेगैंडा या किसी विशेष वर्ग के हित-साधन का प्रयास तो नहीं है? क्या वह स्वांतः सुखाय लिखा गया है?

इसलिए ब्लोग में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है या नहीं, इसकी चिंता अभी न करके, ब्लोगों में श्रेष्ठ सामग्री भरने की ओर हमें ध्यान देना चाहिए। साहित्य बहुत ऊंची चीज है, और हर ठेले हुए लेखन को उसके स्तर पर उठाया नहीं जा सकता। पर हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि हम अच्छा लिखें, सुंदर लिखें, कल्याणकारी चीजें लिखें। ऐसे लेखन के साहित्य के स्तर के बनने की संभावना अधिक है। और यह ब्लोगों पर ही नहीं, अन्य प्रकार के लेखनों पर भी समान रूप से लागू होता है।

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट