Tuesday, July 21, 2009

क्या बोनसाई रखना भारतीय दृष्टि में उचित है?

बोनसाई वाले लेखों पर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं, जो कुछ-कुछ इस प्रकार की है –

जानकारी तो बहुत अच्छी प्रदान की आपने। किंतु मन में एक शंका है कि कहीं बोनसाई बनाने के चक्कर में हम लोग वृक्ष के विकास को बाधित करके कुछ गलत तो नहीं करते। मेरे विचार से तो यह वृक्ष और प्रकृति दोनों के साथ ही अन्याय होगा। क्यों कि प्रकृति ने तो सबको फलने फूलने एवं विकास का एक समान अधिकार दिया है। इस विषय में आपके क्या विचार हैं?

पं. डी.के शर्मा वत्स


अन्य लोगों ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं (गिरिजेश जी और ज्ञानदत्त जी)।

बात ठीक भी लगती है। किसी जीवित वस्तु को तोड़-मरोड़कर अपना मन बहलाना उचित नहीं लगता।

पर क्या हम हर वक्त ऐसा नहीं करते? बाग-बगीचों के पौधों को कहां कुदरती रूप से बढ़ने दिया जाता है? सड़क किनारे लगे पेड़ों और शहरी परिवेश में उग रहे अधिकांश पेड़ों का भी हम नियमित रूप से अंग-भंग करते रहते हैं। उनकी डालियों को काटकर हम अपनी धारणा के अनुसार उन्हें सुंदर बनाने की कोशिश करते हैं।

ऐसा हम पौधों के साथ ही नहीं, जिन जानवरों को हमने पालतू बनाया है, उनके साथ भी करते हैं। कुत्तों की जो इतनी नस्लें हमने विकसित की हैं, वह इसका उदाहरण है।

भारतीय दृष्टि से देखा जाए, तो हर जीवधारी में आत्मा होती है। इसलिए बोनसाई में भी होगी। पर आत्मा के संबंध में यह भी कहा गया है कि उसे न आग जला सकती है न पानी डुबो सकता है न अस्त्र घायल कर सकते हैं। यदि ऐसा हो, तो पीपल आदि को बोनसाई में विरूपित करके हम उसकी आत्मा को कोई नुकसान नहीं पहुचा रहे होते हैं।

हां यह जरूर है कि पीपल या किसी भी बोनसाई पौधे की यही इच्छा होगी (यदि पौधों में भी हमारी जैसी इच्छाएं होती हों) कि वह खुले वातावरण में जंगल में उन्मुक्त रूप से उग सके।

पर क्या पौधों में इस तरह की विचारणा प्रक्रिया होती है? सोचने के लिए मस्तिष्क की आवश्यकता होती है, और दर्द महसूस करने के लिए शिरा-तंत्र की। ये दोनों पौधों में नदारद होते हैं। कुदरती व्यवस्था में पौधे प्राथमिक उत्पादक की श्रेणी में आते हैं, यानी केवल ये अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, और बाकी तमाम जीवधारी पौधों को खाकर ही जिंदा रह सकते हैं। इसलिए पौधों के लिए यह आम बात है कि दूसरे जीव उन्हें चरें, उन्हें खाएं। इसके बावजूद अपनी वजूद बनाए रखने की उनमें क्षमता होती है। कई पौधों में कांटे होते हैं, कई विषैले होते हैं, कई उनकी डालियां, पत्ते आदि के काटे जाने पर भी नई डालियां, पत्ते आदि विकसित कर लेते हैं।

पौधों की एक अन्य क्षमता यह होती है कि वे लाखों की संख्या में बीज पैदा करते हैं, इनमें से अधिकांश नष्ट हो जाते हैं या जानवरों द्वारा खा लिए जाते हैं, पर एक-आध बचे रहते हैं और नए पौधों में उगते हैं।

इसलिए यद्यपि बोनसाई जैसी कला में पौधे की कुदरती बाढ़ को अवरुद्ध अवश्य किया जाता है, पर यह कहना कि इससे पौधों को उसी तरह का कष्ट होता है जिस तरह किसी मनुष्य की बाढ़ को रोकने से उसे होगा, मैं समझता हूं सही नहीं है। पौधों में इस तरह की संवेदना नहीं होती।

इसी कारण हम शाकाहार को मांसाहार से बेहतर समझते हैं। जीवित रहने के लिए हमें आहार तो ग्रहण करना ही होता है। इसलिए ऐसे स्रोतों से आहार ग्रहण करना बेहतर माना गया है जिनसे जीवधारियों को कम कष्ट हो। नहीं तो हमारे रसोईघरों में बैंगन, भिंडी, मूंग, राजमा आदि जीवित पदार्थों के साथ कितना बेरहम बर्ताव होता है - चाकू से काटा जाना, खौलते पानी में उबालना, नमक-मिर्च मिलाना, मिक्सर में पीसाना, इत्यादि। यदि हम मानें कि इससे उन्हें पीड़ा होती है, तो हमें तो भूखा ही रह जाना पड़े।

जैन धर्म में, जो अहिंसा पर आधारित है, प्राणियों को उनमें मौजूद इंद्रियों के अनुसार एकेंद्रिय, द्विइंद्रिय, पंचेंद्रिय आदि में बांटा गया है। उत्तरोत्तर अधिक इंद्रियों वाले जीवों में पीड़ा महसूस करने की अधिक क्षमता होती है और उन्हें मारने पर अधिक पाप बताया गया है। पौधे सबसे निचले स्तर में रखे गए हैं।

अब बोनसाई पर क्रूरता वाले दृष्टिकोण से हटकर एक अन्य दृष्टिकोण से विचार करते हैं। बोनसाई के साथ व्यक्ति का ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जाता है कि वह उसका अजीज लगने लगता है। बोनसाई-पीपल को देख-देखकर उस व्यक्ति में समस्त पीपल जीति के साथ और समस्त वृक्ष जाति के साथ या समस्त वनस्पति जाति के साथ सहानुभूति पैदा हो सकती है और वह उनके रक्षण के प्रति अधिक संवेदनशील बन सकता है। इसलिए बोनसाई, बाग-बगीचे, पालतू जानवर आदि हमारी संवेदनाओं का परिष्कार कर सकते हैं।

इसके विपरीत उस व्यक्ति पर विचार करें जिसने पौधे नहीं रखे हैं। उसके लिए पेड़-पौधे, वनस्पति, वन आदि विस्मृत रहते हैं, उतने परिचित नहीं रहते जितने बोनसाई पालक के लिए, और इसलिए वृक्षों का काटा जाना, पर्यावरण को दूषित करना आदि उसके लिए उतने व्यक्तिगत मामले नहीं होंगे, जितने बोनसाई पालक के लिए।

पीपल आदि वृक्ष इतनी विशाल संख्या में बीज उत्पादन करते हैं कि यदि उनमें से एक दो बीजों से बोनसाई बना लिया जाए, तो इससे पीपल जाति का कोई खास नुकसान नहीं होता। ये बीज तो वैसे भी मरने ही वाले हैं। पौधों की संतान-वृद्धि का तरीका ही इस तरह का होता है। उनमें कई बीजों में से कुछ बीज जीवित रहकर नस्ल को आगे बढ़ाते हैं।

इसलिए एक बीज से बने बोनसाई आपके बैठक में विराजमान रहकर आपको, आपके परिवार जनों को और मित्रों को विशाल पीपल जाति की, उन वनों की जहां वह कुदरती रूप से उगता है, तथा उन पारिस्थितिकीय सेवाओं की जो यह वृक्ष हमें प्रदान करता है, यदि निरंतर याद दिलाता रहे, और हममें वृक्षों, वनस्पतियों और वनों के प्रति जागरूकता लाता रहे, तो उसके जीवन को और उसके द्वारा सहे गए कष्टों को सार्थक माना जा सकता है।

उस पीपल-बोनसाई को हम समस्त वनस्पति-वर्ग और वनों का दधीचि ऋषि मान सकते हैं, जो स्वयं कष्ट सहकर अपनी जात वालों को (यानी समस्त वनों को और प्रकृति को) हमारे हाथों नष्ट-भ्रष्ट किए जाने से बचाता है।

Sunday, July 19, 2009

बोनसाई बनाने की विधि


बोनसाई पर पिछले पोस्ट के पाठकों ने बोनसाई बनाने की विधि के बारे में जानना चाहा है। इसलिए इस पोस्ट में इसके बारे में कुछ सामान्य जानकारी दे रहा हूं।

बोनसाई, अर्थात बौने आकार के वृक्ष, उगाने का शौक आपका और आपके परिवार का कई पीढ़ियों तक मन बहला सकता है, जी हां, कई पीढ़ियों तक, क्योंकि ठीक से देखभाल किए जाने पर बोनसाई आराम से सौ सवा सौ साल तक जीवित रह सकते हैं।

पर बोनसाई का शौक तभी पालें जब आपमें द्रुत परिणाम की आकांक्षा न हो और आपके पास खूब सारा समय हो।

बोनसाई बनाने के दो तरीके हैं, पौधशाला से उपयुक्त वृक्ष-शिशु खरीद लाना, और बीज से ही शुरू करना। इनमें से पहला जल्दी परिणाम देगा, पर यदि आप पौधे के विकास को शुरू से ही नियंत्रित करना चाहें, तो बीज से उगाने का कोई विकल्प नहीं है, पर इसमें बोनसाई बनने में बहुत समय लग सकता है।

पीपल, बरगद, गूलर, अंजीर, नीम, बांस, महुआ, गुलाब, बोगेनविला, देवदार, चीड़, आदि के अच्छे बोनसाई बन सकते हैं।

बोनसाई बनाने से पहले बाग-बगीचों, जंगलों आदि में जाकर इन वृक्षों को देख आएं और अनेक कोणों से उनके फोटो निकाल लें, ताकि आपको अंदाजा हो जाए कि एक पूर्ण विकसित वृक्ष किस आकृति का होता है। इससे आपको बोनसाई को सही रूप देने में मदद मिलेगी। वही बोनसाई सफल माना जाता है जिसकी आकृति मूल वृक्ष जैसी ही हो।

उसके बाद मूल पात्र और मिट्टी में पौधे को रहने देते हुए (यदि आप पौधशाला से लाए गए वृक्ष-शिशु से शुरू कर रहे हों तो) उसकी शाखाओं, टहनियों और पत्तों को बड़ी सावधानी से पौधा काटने की कैंची से इस तरह से काटें कि पौधा विकसित वृक्ष की आकृति का दिखे। काटते वक्त इस बात का ध्यान रखें कि एक बार काट देने के बाद पौधे के उस अंग को वापस पौधे में जोड़ा नहीं जा सकता है। हर बोनसाई का एक सामने का भाग होता है, जहां से उसे दिखाया जाता है, और जहां से देखने पर वह मूल वृक्ष जैसा लगता है। काटते वक्त इस बात पर विचार कर लें कि बोनसाई का सामनेवाला भाग कौन सा रहेगा। इस ओर से दर्शक की तरफ कोई शाखा निकली हुई नहीं होनी चाहिए, ताकि पूरा बोनसाई दिखे। इस ओर के पीछे की तरफ और दोनों बगलों से शाखाएं सही अनुपात में निकली हुई होनी चाहिए ताकि बोनसाई देखने में असली वृक्ष की आकृति का लगे।

अब पौधे को बड़ी सावधानी से मिट्टी से अलग करें और उसे पानी से भरी बाल्टी में रखकर जड़ों से लगी मिट्टी हटाएं और कैंची से जड़ों को उनकी मूल लंबाई के लगभग दो तिहाई तक कतर दें, या उतना कतर दें जितने से पौधे को बोनसाई रखने के गमले में रखा जा सके। तने के ठीक नीचे आपको जड़ों का एक गुच्छा मिलेगा। जड़ों को लगभग इस गुच्छे तक कतर देना चाहिए। लेकिन काटते वक्त गमले के व्यास का भी ध्यान रखें। गमले में पौधे को रखते समय गमले के किनारे से लगभग एक दो इंच की मिट्टी जड़ों से मुक्त होनी चाहिए।

बोनसई के लिए गमला सावधानी से चुनें। वह मजबूत और सुंदर होना चाहिए और बहुत गहरा नहीं होना चाहिए। उसके पेंदे में अनेक छोटे छेद होने चाहिए ताकि अतिरिक्त पानी उनसे बह निकल सके और जड़ों को हवा मिल सके। इन छेदों के ऊपर महीन नेटिंग (चाय की छानी जितनी महीन) लगाएं ताकि मिट्टी अतिरिक्त पानी के साथ बह न जाए और चींटियां आदि गमले के अंदर घुस न सकें। अब इस जाली के ऊपर मिट्टी फैलाएं। मिट्टी पौष्टिक एवं मजबूत होनी चाहिए ताकि बोनसाई उसमें आसानी से जम सके। मिट्टी की परत जब दो-तीन इंच मोटी हो जाए, तो ऊपर बताई गई विधि से तैयार किए गए पौधे को उसमें रखें और जड़ों के चारों ओर मिट्टी फैलाकर धीमे से दबा दें। अब मिट्टी के ऊपर बजरी और कंकरी फैलाएं ताकि सब कुछ साफ-सुथरा लगे।

बोनसाई के संबंध में एक गलत धारणा यह है कि उसे कम भोजन देना चाहिए ताकि उसका विकास अवरुद्ध रहे। दरअसल बोनसाई को खूब पोष्टिक भोजन बारबार देते रहना चाहिए, और पौधे के आकार को काट-छांट करके छोटा रखना चाहिए।


कुछ दिनों में जब पौधा गमले में जम जाए, उसकी टहनियों पर धातु के तार लपेटकर उसे मूल वृक्ष के जैसी आकृति दें। कुछ लोग टहनियों को नीचे की ओर झुकाने के लिए उनके साथ वजन भी बांधते हैं।

बोनसाई को खाद युक्त पानी बारबार देते रहना चाहिए। उसे ऐसी जगह रखें जहां उसे पर्याप्त धूप मिले।

कुछ साल बाद आपको गमले की मिट्टी बदलनी चाहिए क्योंकि उसमें पौष्टिकता कम हो गई होगी। इस अवसर का लाभ उठाकर आपको जड़ों के अनावश्यक फैलाव को भी कतरकर कम कर देना चाहिए।

जैसे-जैसे बोनसाई में आपकी रुचि बढ़ती जाएगी आप इस शौक के अन्य दीवानों के साथ भी मिलना-जुलना चाहेंगे और अपने बोनसाई को उन्हें दिखाकर वाहवाही लूटना चाहेंगे। इसलिए आपको इंडियन बोनसाई एसोसिएशन, दिल्ली का समदस्य बन जाना चाहिए। यहां से आपको बोनसाई के संबंध में उपयोगी जानकारी और सलाह भी मिल सकती है।

बोनसाई -- दोने में दरख्त

बोनसाई बौने वृक्ष उगाने की प्राचीन कला का नाम है। उसका उद्भव सैंकड़ों वर्ष पहले भारत में हुआ था। उसके उद्भव की कहानी काफी रोचक है। आयुर्वेद में अनेक प्रकार की औषधियों का उपयोग होता है। वैद्य लोग अधिक उपोयगी औषधियों को अपने बगीचे में उगाते थे। इन औषधियों से बार-बार पत्ते, टहनी, फूल आदि तोड़े जाने से उनकी वृद्धि कुंठित हो जाती थी और वे बौनी ही रह जाती थीं। बाद में इन बौने पेड़-पौधों के मनोहर स्वरूप को देखते हुए उन्हें केवल सजावटी उद्देश्यों के लिए भी उगाया जाने लगा। जब बौद्ध भिक्षू-भिक्षुणियां बौद्ध धर्म का प्रचार करने चीन गए, तो वे इस कला को भी अपने साथ चीन ले गए। वहां से यह कला जापान पहुंची। जापान में ही इस कला ने सर्वाधिक उन्नति की।

जापान में पारंपरिक रूप से बौने वृक्ष प्रकृति से ही प्राप्त किए जाते थे। बर्फीली चट्टानों पर या बड़े वृक्षों की घनी छाया तले उग रहे वृक्षों का विकास कई बार कुंठित हो जाता है और वे बौने रह जाते हैं। ऐसे बौने पेड़ों को सावधानीपूर्वक उखाड़कर गमलों में पुनः रोपा जाता था। आज बहुत कम बोनसाई इस तरह तैयार किए जाते हैं। बोनसाई अब बीजों से अथवा बड़े पेड़ों की कलमों से उगाए जाते हैं और उसे काट-छांटकर मूल पेड़ का सा रूप दिया जाता है।

बोनसाई जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है "दोने में दरख्त"। बोनसाई उगाने के लिए जो गमला उपयोग किया जाता है, वह थाली जैसा उथला होता है। उसके पैर होते हैं, ताकि उसका पेंदा जमीन से उठा रहे। इससे पानी गमले से रिस जाता है और जड़ों तक हवा आसानी से पहुंचती रहती है। गमले में बहुत थोड़ी ही मिट्टी रहती है।

जापानी परंपरा में बोनसाई पैतृक संपत्ति माना जाता है। परिवार की सबसे बड़ी संतान बोनसाई की देखभाल करती है। बोनसाई को घर के बाहर ही रखा जाता है। केवल खास-खास अवसरों पर, जैसे किसी के जन्मदिन पर, उसे भीतर लाया जाता है, ताकि सब उसे देखकर आनंदित हो सकें। बोनसाई परिवार की एक मूल्यवान संपत्ति मानी जाती है और उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है।

बोनसाई तीन आकार में आता है। सबसे छोटे आकार के बोनसाई को एक हाथ से उठाया जा सकता है। मझले आकार के बोनसाई को दो हाथों से उठाया जा सकता है। बड़े आकार के बोनसाई को दो व्यक्ति मिलकर ही उठा सकते हैं।

सफल बोनसाई की कसौटी यह है कि उसे हर बात में एक बड़े पेड़ जैसा दिखना चाहिए, केवल आकार में वह छोटा होता है। बड़े पेड़ के ही समान तना, शाखाएं, पत्ते, फल-फूल आदि उसमें होने चाहिए।

वास्तव में बोनसाई बनाकर एक जीती-जागती कलाकृति को रूप दिया जाता है। आज विश्व भर में यह अद्भुत कला लोकप्रिय होती जा रही है।

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