नई सरकार के बनने से यह विषय भी अब चर्चा में आ गया है। लोग पूछ रहे हैं कि क्या नई सरकार आरक्षण की नीति पर पुनर्विचार करेगी? क्या निजी क्षेत्रों में आरक्षण आएगा?
आजादी के वक्त देश के नेताओं ने आरक्षण को समाजाकि अन्याय के निवारण हेतु एक अस्थायी उपाय के रूप में सामने रखा था, पर आज वह हमारे देश की राजनीति में गहरी जड़ें जमा चुका है।
आरक्षण की नीति लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध जाती है। लोकतंत्र में किसी के भी प्रति पक्षपात दिखाना अनुचित माना जाता है, जबकि आरक्षण में समाज के एक वर्ग को स्पष्ट रूप से आगे बढ़ाया जाता है। इससे राष्ट्र में वैमनस्य और कटुता को पनपने का मौका मिलता है, जो राष्ट्र को अंततः खोखला कर डालेगा।
इसलिए आरक्षण पर जरूर पुनर्विचार होना चाहिए। हां, यह जरूर है कि जब तक स्थायी समाधान नहीं कर लिया जाता (जिसकी चर्चा नीचे की गई है) निजी क्षेत्र में भी आरक्षण ले आना चाहिए। यह इसलिए क्योंकि अब सरकारी नौकरियां सिमटने लगी हैं और सरकार भी व्यवसाय, बैंकिंग, बीमा, अनुसंधान, परिवहन, आदि तमाम क्षेत्रों से पीछे हट रही है और इन सभी क्षेत्रों में निजी पूंजी को फैलने का अवसर दिया जा रहा है। इसलिए नौकरियां भी निजी क्षेत्र में ही अधिक हैं, और बेहतर हैं। यदि आरक्षण के तर्क को माना जाए तो निजी क्षेत्र में भी अब आरक्षण होना ही चाहिए।
पर यदि आरक्षण को ही समाप्त करना हो, सरकारी क्षेत्र से भी और निजी क्षेत्र से भी, तो हमें पहले सर्वशिक्षा और सर्वपोषण (भूख उन्मूलन) की व्यवस्था करनी होगी। इसके साथ हमारे देश की दुहरी शिक्षण व्यवस्था को भी समाप्त करना होगा।
यहां अमीरों के लिए अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल हैं, और गरीबों के लिए सरकारी हिंदी माध्यम के स्कूल। सरकारी स्कूलों में दलित वर्ग के लोग ज्यादा पढ़ते हैं। सभी नौकरियां अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के बच्चों को ही मिलती हैं। यह भी एक तरह का आरक्षण ही है, जो आरक्षण पर चर्चा करते समय सबकी आंखों से ओझल रहता है। यह अमीरों के लिए आरक्षण है, और इसका इस देश में अंग्रेजी के बने रहने के साथ गहरा संबंध है। इस परोक्ष आरक्षण के कारण आरक्षण की नीति से दलितों को कोई खास फायदा नहीं हो रहा है। उन्हें असली फायदा तब होगा जब देश से अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल बंद करा दिए जाएंगे, और सभी के लिए देश की भाषाओं में समान शिक्षा की व्यवस्था होगी। लोकतंत्र भी इसी की मांग करता है। विशेषाधिकार का उसमें कोई स्थान नहीं है।
तब आईआईटी, आईआईएम, यूपीएससी आदि के दरवाजे हमारे दलितों के लिए खुलेंगे, और आरक्षण के बल पर नहीं, बल्कि अच्छी शिक्षा के बल पर। इससे उनका और देश का असली कल्याण होगा। इसी तरह केवल अंग्रेजी ज्ञान के बल पर जो इन सब दरवाजों से आसानी से पार पा जाते हैं, उनके लिए ये दरवाजे बंद हो जाएंगे। इस तरह प्रतिस्पर्धा अधिक निष्पक्ष हो जाएगी, और केवल श्रेष्ठ बुद्धि वाले बच्चे ही इन संस्थाओं में प्रवेश कर पाएंगे, इससे हमारे देश में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन, प्रशासन, व्यवसाय, उद्योग आदि तमाम क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात हो जाएगा।
अभी हाल में इन्फोसिस के पूर्व प्रमुख नारायणमूर्ति एक टीवी इंटर्व्यू में उनके द्वारा किए गए एक सामाजिक प्रयोग के बारे में बता रहे थे। उनकी एक एनजीओ (गैरसरकारी संगठन) ने दलित वर्ग के कुछ बच्चों को अपनाकर उनके लिए शुरू से ही श्रेष्ठ शिक्षा, पोषक भोजन आदि की व्यवस्था की और उनकी प्रगति पर नजर रखता रहा। देखा गया कि 90 प्रतिशत दलित बच्चों का स्कूल में निष्पादन सामान्य वर्ग के बच्चों के समकक्ष था।
इससे यह पता चलता है कि यदि पूरे देश में सभी बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा और अच्छे पोषण की व्यवस्था की जा सके, तो आरक्षण जैसे शोटकट की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
सर्वशिक्षा और सर्वपोषण के अधिक दुष्कर कार्य की ओर ध्यान न देकर सरकार और संपन्न वर्ग आरक्षण की नीति पर जोर दे रहे हैं। ये संपन्न वर्ग अच्छी तरह जानते हैं कि आरक्षण से उनका कुछ नहीं बिगड़नेवाला है, क्योंकि उन्होंने देश में दुहरी शिक्षा व्यवस्था कायम कर ली है। सरकारी स्कूल दलितों और गरीबों के लिए, और उनके अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल और विदेशों की शिक्षा संस्थाएं। जब तक इस दुहरी व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जाएगा, आरक्षण की बात करना हवा में किले बांधने के समान है।
इसलिए आरक्षण हटाने के साथ-साथ सर्वशिक्षा लाना होगा और अंग्रेजी माध्यम के अभिजातीय शिक्षण व्यवस्था को भी खत्म करना होगा। ये दोनों परस्पर जुड़ी बातें हैं।
Wednesday, June 03, 2009
आरक्षण और अंग्रेजी
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: राजनीति
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4 Comments:
आपकी सोच सही है, मगर यह विवादित विषय है.
वि. पी. सिंह और अर्जुन सिंह को लोग भूले नहीं है. हिंदुस्तान में बीमारियाँ बहुत हैं, और लोग इलाज़ को अपना हक मान लेते हैं. मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ.
मुझे तो यही लगता है कि अब ऊंची जाति वालों को देश छोड़ने में ही भलाई है क्यों कि हर जगह तो सरकार उन्ही को लाएगी, तो फिर सवर्ण क्या करेंगे?
क्या सवर्ण में गरीब नहीं होते? क्या सवर्ण हिंदी स्कूलों में नहीं पढ़ते? इन प्रश्नों पर सरकार मौन है, उसे यह नज़र नहीं आता कि तेलंगाना और विदर्भ में आत्महत्या गरीब कर रहे हैं, जिसकी कोई जाति नहीं है, और शायद आपको भी नहीं..
केवल पिछड़ी जाति को आगे बड़ाने से कुछ नहीं होगा पूरे समाज को साथ लेकर चलना पड़ेगा। सभी गरीबों को एकसमान हक देना होगा, हमें हमारी शिक्षा व्यवस्था बदलनी होगी। कुछ नई व्यवस्था के बारे में सोचना होगा कि शिक्षा पर सबका समान अधिकार हो केवल अमीरों का नहीं।
ये अजीब बात है तो क्या अब तक ये सोचा जाता रहा की दलितों का दिमाग पैदा होते ही कम होता है या वो सामान्य वर्ग के छात्रों से दिमाग में कम होते हैं ....ये तो वैज्ञानिक तौर पर भी साबित नहीं हो सकता :) :)
दिमाग तो लगभग सब में बराबर ही होता है ...बस फर्क शिक्षा, माहौल, और अवसरों का होता है ...खासतौर पर अंग्रेजी और हिंदी का भी ...और ये सभी जानते हैं ...माने या ना माने
नब्ज़ पकड़ ली आप ने।
निदान तो ठीक है पर इलाज कौन करेगा?
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