रंगभेदी समाज-व्यवस्था के कुपरिणामों से दक्षिण अफ्रीका आज भी मुक्त नहीं हो पाया है और वहां कालों और गोरों की आर्थिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर पाया जाता है।
सदियों की रंगभेदी नीतियों के फलस्वरूप दक्षिण अफ्रीका की सामाजिक स्थिति अत्यंत विषम हो गई है। उसकी कुल आबादी 4.28 करोड़ है, जिसमें से 14 प्रतिशत श्वेत हैं। ये सबके सब काफी समृद्ध हैं। इनकी औसत आय 9,109 डालर है जो पुर्तगाल या दक्षिण कोरिया के नागरिकों की औसत आय के बराबर है। इसकी तुलना में कालों की औसत आय मात्र 992 डालर है। 90 प्रतिशत कालों की आय निर्धनतम पांच प्रतिशत श्वेतों की औसत आय से कहीं कम है।
दक्षिण अफ्रीका में 80 लाख लोग गंदी बस्तियों में रहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सब काले लोग हैं। लगभग सभी श्वेत-गृहस्थियों को बिजली की सुविधा उपलब्ध है, पर केवल 31 प्रतिशत काले परिवारों को यह मूलभूत सुविधा मिलती है। विडंबना यह है कि दक्षिण अफ्रीका अपनी जरूरतों से 30 प्रतिशत अधिक बिजली पैदा करता है, बाकी बिजली को वह अन्य अफ्रीकी देशों को निर्यात कर देता है।
1994 में जब काले नेता नेलसन मंडेला राष्ट्रपति बने, उन्होंने 5 साल में 1 करोड़ नए घर बनाने और 25 लाख घरों में बिजली पहुंचाने का वादा किया था। पर अब तक 8 लाख से कम घर बन पाए हैं। बिजली रोजाना 1000 घर के हिसाब से पहुंचाई जा रही है, पर इस दर से 2010 में 70-80 लाख घरों में बिजली की रोशनी नहीं होगी।
Monday, June 22, 2009
दक्षिण अफ्रीका : एक देश दो चेहरे
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: दक्षिण अफ्रीका, रंगभेद
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4 Comments:
रंगभेदी निजाम का हट जाना रंगभेद का हट जाना नहीं होता। आर्थिक विषमता का दूर होना वह तो मौजूदा विश्व में जब तक उत्पादन साधनों पर समाज नियंत्रण स्थापित नहीं होता संभव नहीं है।
ऐसी विसंगतियां बनी ही रहेंगी
काले इसके लिए कहाँ तक जिम्मेदार हैं?
गिरिजेश: जैसे द्विवेदी जी ने समझाया है, द. अफ्रीका में कालों की सरकार तो बन गई है, लेकिन उत्पादन के साधनों पर अब भी थोड़े से लोगों का ही अधिकार बना हुआ है, जिनमें अधिकतर गोरे और थोड़े से काले लोग शामिल हैं। इसलिए वहां लोकतंत्र बस नाम के लिए ही है।
हमारे देश की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है, आजादी के 60 साल बाद भी देश के अधिकांश लोगों की स्थिति अंग्रेजों के जमाने की तुलना में ज्यादा बेहतर नहीं है।
यहां भी लोकतंत्र दिखावे भर का ही है, और असल सरकार कुछ उद्योगपति, विदेशी ताकतों के नुमाइंदे, और देशी-विदेशी पूंजीपति चला रहे हैं। सब कुछ उन्हीं के फायदे के लिए होता है। हर पांच साल चुनाव का नाटक जरूर खेला जाता है, लोगों को गुमराह करने के लिए।
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