जब धर्म वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार अपने-आपको ढालने के संकेत देता है, तो निश्चय ही वह एक सराहनीय बात है।
ईसाई धर्म में इस तरह के सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं। ईसाई धर्म में मृतकों को ताबूत में रखकर दफनाने का रिवाज है। यह ताबूत सागौन आदि महंगी लकड़ी से बनते हैं, और कलात्मक नक्काशी वाले ताबूतों की कीमत 50,000 रुपए तक पहुंच जाती है। इन ताबूतों के कारण अनेक गरीब ईसाइयों के लिए अपने प्रिय-जनों के अंतिम संस्कार के फलस्वरूप कर्ज और आर्थिक बर्बादी की नौबत आती है।
पर कैथोलिकों की सभा ने अब शवों को बिना ताबूतों में रखे, केवल कफन के कपड़े में लपेटकर दफनाने को मंजूरी दे दी है। इससे पहले ही मुंबई क्षेत्र में कई चर्चों में बिना ताबूत के शवों को दफनाया जाता रहा है। मुंबई के वसाई क्षेत्र के कुछ ईसाई इसके मध्यवर्ती रिवाज अपनाते हैं। वे शव को ताबूत में रखकर कब्रिस्तान तक लाते हैं, पर दफनाते समय शव को ताबूत से बाहर निकालकर कफन में लपेटकर दफनाते हैं। इस तरह एक ही ताबूत का बारबार उपयोग हो पाता है। कैथोलिक सभा ने राय दी है कि अब शवों को बिना ताबूत के दफनाने की प्रथा को व्यापक रूप से अपनाने में दोष नहीं है। इससे संबंधित वक्तव्य सभा ने अपनी पत्रिका सत्यदीप में प्रकाशित की है।
शव संस्कार की इस नई रीति का एक फायदा महंगे ताबूतों से मुक्ति है, पर इसके अन्य फायदे भी हैं। ताबूतों में रखे शवों के नष्ट होने में अधिक समय लगता है, और इस कारण कब्रिस्तानों में भूमि के पुनरुपयोग की संभावना घट जाती है। पर्यावरण की दृष्टि से भी शवों के दफनाने में ताबूत का उपयोग न करना फायदेमंद है। इससे न जाने कितने पेड़ों को जीवन-दान मिल सकता है।
शवों के दफनाने की यह नई रीति हिंदुओं, मुसलमानों, यहूदियों और पारसियों की अंत्येष्टि प्रथाओं के समीप है। इन सब धर्मों में भी ताबूत का उपयोग नहीं होता है। शवों को या तो जलाकर नष्ट किया जाता है, अथवा कफन में लपेटकर दफनाया जाता है।
इस संबंध में सेंट इग्नेशियस चर्च के पादरी फादर जोसेफ डिसूज़ा याद दिलाते हैं कि स्वयं ईसा मसीह के मृत-देह को बिना ताबूत के दफनाया गया था।
सभी धर्मों को अपने रीति-रिवाजों को इसी तरह समकालीन परिस्थितयों के अनुसार बदलने में संकोच नहीं करना चाहिए। इन रीति-रिवाजों का धर्मों के केंद्रीय तत्वों से कोई संबंध नहीं होता है, वे केवल सुविधा के लिए अपनाए गए होते हैं।
आजकल कई धर्मों ने अपने परंपरागत रिवाजों से चिपके रहने की अड़ियलता दिखाई है, भले ही ये रिवाज आजकल की परिस्थितियों में निरर्थक या हानिकारक साबित हो चुके हों। उन्हें ईसाइयों की इस प्रगतिशीलता से प्रेरणा लेनी चाहिए।
Thursday, January 06, 2011
ईसाइयों की प्रगतिशीलता
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
Sunday, June 14, 2009
भक्ति आंदोलन का असली स्वरूप
भक्ति आंदोलन, जिसके शिरोमणि तुलसी थे, मूलतः सामंतविरोधी आंदोलन था। वह सामंतवाद द्वारा हाशिए पर दबा दिए गए वर्गों की आवाज था। भक्ति आंदोलन में समाज के हर वर्ग के लोगों ने नेतृत्व ग्रहण किया है, ब्राह्मण, जुलाहा, मोची, नाईं, बनिया, नारी आदि-आदि। भक्ति साहित्य में इन सब वर्गों की समस्याओं का यथार्थ चित्रण है। इसलिए भक्ति रचनाओं को, जिनमें तुलसी कृत रामचरितमानस भी है, महज धार्मिक ग्रंथ मानना उचित नहीं है। असल में रामचरितमानस उस समय की सामाजिक व्यवस्था का विश्वकोष है।
यहां वहां से रामचरितमानस के दोहों को संदर्भ से अलग करके उद्धृत करना और उनके आधार पर तुलसी को नारी विरोधी घोषित करना या उन पर कोई अन्य लेबल चेपना फूहड़ता होगी और उनके बारे में और भक्ति आंदोलन के संदर्भ व मूल स्वरूप के बारे में अज्ञान का परिचय देना होगा।
तुलसीदास एक महान, मानवतावादी और करुणामय कवि हैं। जिन्होंने रामचरितमानस को पूरा पढ़ा है, उसके इक्के-दुक्के दोहों-चौपाइयों को नहीं, वे इससे सहमत होंगे। नारी की दशा के प्रति उनकी अपार सहानुभूति थी, जो इस चौपाई से स्पष्ट होती है। संदर्भ है, शिव से विवाह होने के बाद उमा अपनी मां से विदा हो रही है, और मां उमा से कहती हैं:-
“जननी उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही।
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारि धरम पति देव न दूजा।
बचन कहत भरि लोचन बारी। बहुर लाइ उर लीन्हि कुमारी।
कत बिधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरज कीन्ह कुसमउ बिचारी।“
इन पंक्तियों को सदर्भ से अलग करके यों ही पढ़कर आप आसानी से कह सकते हैं – “देखिए, तुलसी नारी को कैसी ऊंटपटांग सलाह रहे हैं। मानो स्त्री का कोई वजूद ही न हो, वह मात्र पति की दासी हो। पति के चरणों की पूजा करना, और यही नहीं, इसे ही नारी का धर्म बताना, कितनी घिनौनी, नारी-विरोधी बात है। जिस ग्रंथ में ऐसा कहा गया हो, उसे तुरंत जला डालना चाहिए।“
अब संदर्भ सहित इन्हीं पंक्तियों की व्याख्या करें। तब हम देखेंगे कि इसमें नारी के प्रति कितनी करुणा, सदाशय, और व्यावहारिक सूझ-बूझ छिपी है। भूलिए मत तुलसी के जमाने में सामंतवाद मजबूत था। पितृसत्तात्मक समाज व्यस्था थी। नारी पुरुष के आश्रय में ही फल-फूल सकती थी। पुरुषों से अलग होने पर नारी का जीवन दयनीय हो उठता था। ऐसे में नारी का परम स्वार्थ और हित इसी में था कि वह हमेशा पुरुष का कृपापात्र बनी रहे। यही सलाह उमा की अनुभवी मां अपनी बेटी को दे रही है। वह एक प्रकार उसे अशीष दे रही है कि तू अपने पति का हमेशा कृपापात्र बनी रह। तेरा पति हमेशा तुझे रखे। और इस अशीष को फलीभूत करने के लिए जो नीति उमा को अपनानी है, वह भी उसे समझाती है -- अपनी पति से बेकार में भिड़ मत, उसकी सेवा कर, उसे खुश रख, ताकि तू भी खुश रहे। यह एक प्रकार से वही नीति है, जो कमजोर हमेशा बलवान के प्रति अपनाता है। बलवान से खामखां उलझना कहीं की बुद्धिमानी नहीं है। तुलसी यहां सही-गलत की व्याख्या नहीं कर रहे, बल्कि स्त्री को सफलता का एक गुर समझा रहे हैं। यदि वे उमा को उकसाते कि तू पति की कोई बात मत मान, हर बात में अपनी स्वतंत्रता की दुहाई दे, तो यह तुलसी की घोर अमानवीय स्वरूप होता। ऐसा स्वरूप हमें समस्त रामचरितमानस में और तुलसी की अन्य रचनाओं में कहीं नहीं मिलता।
इसलिए तुलसी पर फतवा कसने से पहले हमें यह भी देखना है कि वे किस संदर्भ में क्या कह रहे हैं, और किस सामाजिक परिस्थिति और अवस्था में वे हुए हैं।
और इस विषय को छोड़ने से पहले, रामचरित मानस के उपर्युक्त उद्धरण के अंतिम दो पंक्तियों पर भी गौर करें।
एक तरफ पति सेवा का उपदेश, दूसरी तरफ पराधीन नारी के लिए स्वप्न में भी सुख न मिलने पर क्षोभ। जो लोग “ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ताड़न के अधिकारी“ को वेदवाक्य समझते हैं, वे इन पंक्तियों पर भी गौर करें:-
“कत विध सृजी नारि जग माहीं।
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं”
तुलसी के रामचरितमानस के संबंध में कुछ अन्य बातें भी ध्यान में रखने की है। इस प्राचीन ग्रंथ के काफी अंश प्रक्षिप्त हैं। उसका काफी अंश उनके समय के बाद के लोगों ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसमें जोड़ा है। यह रोग भारत में पहले से चला आ रहा है और वाल्मीकी रामायण से लेकर महाभारत तक कई ग्रंथों में इस तरह के प्रक्षिप्त अंश मिलते हैं। यहां तक कहा गया है कि महाभारत में संपूर्ण गीता प्रक्षिप्त है, और बाद की है।
हिंदी के मूर्धन्य समालोचक डा. रामविलास शर्मा के अनुसार “ढोल गंवार...” वाला अंश भी रामचरितमानस में प्रक्षिप्त है। वे कहते हैं -
“ढोल गंवार वाली पंक्ति राम और समुद्र की बातचीत में आई है जहां समुद्र जल होने के नाते अपने को जड़ कहता है और इस नियम की तरफ इशारा करता है कि जड़-प्रकृति को चेतन ब्रह्म ही संचालित करता है। वहां एकदम अप्रासंगिक ढंग से यह ढोल गंवार शूद्र वाली पंक्ति आ जाती है। निस्संदेह यह उन लोगों की करामात है जो यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि नारी पराधीन है और उसे स्वप्न में भी सुख नहीं है।"
वे आगे कहते हैं -
“सामंती व्यवस्था में स्त्रियों के लिए एक धर्म है तो पुरुषों के लिए दूसरा है। तुलसी के रामराज्य में दोनों के लिए एक ही नियम है:
“एक नारिब्रतरत सब झारी।
ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“
अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर तुलसीदास ने दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। लेकिन विशेषाधिकारवालों ने ढोल गँवार आदि जैसी पंक्तियां तो गढ लीं, और एक नारीव्रतरत होने की बात चुपचाप पी गए। वर्तमान समाज में भी नारी अधिकार-वंचित है। पराधीनता में उसे सुख नहीं है। तरह-तरह की मीठी बातों से उसे भुलावा दिया जाता है लेकिन उसकी दासता ढंकी नहीं जा सकती। तुलसीदास के समय में ऐसी परिस्थितियां नहीं थीं कि पराधीनता के पाश तोड़े जा सकें। वह केवल इस पराधीनता पर क्षोभ प्रकट कर सकते थे और ऐसे समाज का स्वप्न देख सकते थे जिसमें पुरुष भी एक-नारी व्रतधारी हों। राम के चरित्र में उन्होंने यही दिखाया। यह दूसरी बात है कि हिंदी आलोचना में जितनी चर्चा सीता के पतिव्रत की है, उतनी राम के पत्नीव्रत की नहीं है।”
(यह उद्धरण डा. रामविलास शर्मा की "परंपरा का मूल्यांकन" नाम की पुस्तक के “तुलसी-साहित्य के सामंत-विरोधी मूल्य” वाले अध्याय से है। पृष्ठ 81-82। इस पुस्तक के प्रकाशक हैं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली)
भक्ति आंदोलन और भक्त कवियों पर छिछले स्तर पर टिप्पणी न करके उसके समाजोपयोगी मूल्यों को पहचानना और उन्हें अपने संदर्भ के लिए ढालना ज्यादा उपयोगी होगा।
डा. शर्मा ने तुलसी, सूर, जायसी, कबीर आदि भक्तों पर ससंदर्भ काफी लिखा है। वह सब नारी आंदोलन के लिए ही नहीं, देश निर्माण की सभी परियोजनाओं के लिए काफी प्रासंगिक है।
एक बात और कहना चाहूंगा, धर्म और नास्तिकता के स्वरूप के बारे में।
इन दोनों में सूक्ष्म अंतर है। नास्तिक वह है जो भगवान को नहीं मानता। यह एक निजी मामला है। पर धर्म निजी मामला नहीं है, वह सामाजिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। ये मूल्य शाश्वत नहीं होते और सर्वहितकारी भी नहीं होते, इसे समझना जरूरी है। धर्म का सामंतवाद के साथ चोली-दामन का संबंध है। धर्म सामंतवाद के विकसित होने के बाद आता है, क्योंकि उसकी आवश्यकता तभी पड़ती है। धर्म का मूल हेतु सामंतवाद के अंतर्विरोधों को छिपाना और सामंतों के अधिकारों को सही ठहराना है। सामंत वे होते हैं जो समाज के साधनों और संपत्तियों पर, जिनमें नारी भी शामिल है, अधिकार किए हुए हैं। धर्म अनेक तर्क-कुतर्कों से इसे सही ठहराता है। इस मामले में सभी धर्म समान हैं, चाहे वह हिंदू धर्म हो, इस्लाम हो, बौध-जैन-ईसाई-सिक्ख धर्म हों। धर्म का उद्देश्य यथास्थिति को बनाए रखना, यानी सामंतवाद को बनाए रखना होता है।
भक्ति आंदोलन यथास्थिति को पलटने के लिए निम्न वर्गों द्वारा चलाया गया महान आंदोलन है। उसके कई मूल्य आज के पद-दलितों के लिए, जिनमें नारी भी शामिल है, बहुत ही प्रासंगिक हैं। इसलिए नारी आंदोलन को रामचरितमानक का अवमूल्यन नहीं करना चाहिए, बल्कि उससे अपने फायदे की बातें ढूंढ निकलानी चाहिए।
जब सामंतवाद को कमजोर करके पूंजीवाद समाज पर हावी हो जाता है, यथा स्थिति भी मूलभूत रूप से बदल जाती है, और पुराने धर्म अब अनुपयोगी हो जाते हैं। इसीलिए सभी पूंजीवादी देशों में धर्म समाप्त सा हो गया है, और उनके स्थान पर मानवतावाद, विज्ञानवाद, प्रौद्योगिकीवाद, बाजारवाद, समाजवाद, आदि अनेक अन्य मूल्य-ढांचे अस्तित्व में आए हैं।
भारत में भी जब सामंतवाद खत्म हो जाएगा, तो यही सब होगा। इसलिए देश को आगे ले जाने में जिन्हें रुचि है, उनका असली लक्ष्य सामंतवाद को खत्म करना होना चाहिए। सामंतवाद खत्म होते ही, उसके मूल्य और उसका वैचारिक आधार यानी धर्म, भी समाप्त हो जाएगा। इसीलिए कार्ल मार्क्स ने कहा था, धर्म गरीबों के लिए अफीम के समान है। वह उन्हें नशे में रखता है और असली समस्याओं पर विचार करने से रोकता है। लेकिन जब लोग धर्म के असली स्वरूप को समझ लेते हैं, तो उन पर से धर्म का नशा भी टूट जाता है।
इसलिए आज धर्म के नाम पर देश-विदेश में जो हिंसा का तांडव मचा हुआ है, वह निरर्थक ही नहीं मूर्खतापूर्ण भी है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
लेबल: कार्ल मार्क्स, तुलसीदास, धर्म, भक्ति आंदोलन, रामचरितमानस