tag:blogger.com,1999:blog-338232372024-03-24T12:40:15.814+05:30जयहिंदीबालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.comBlogger232125tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-57465155713928498772014-12-20T20:23:00.000+05:302014-12-20T20:23:09.131+05:30पेशावर हत्याकांड – पाकिस्तान की आतंकी नीति की खुलती परतेंपाकिस्तानी तालिबान द्वारा पेशावर के फ़ौजी स्कूल में किए गए हत्याकांड का विश्लषण करने से पाकिस्तान की आतंकी नीति की परतें खुलती हैं, और हमें इस नीति को बेहतर रूप से समझने में मदद मिलती है।<p>
तालिबान पाकिस्तानी फ़ौज और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई द्वारा बनाया गया संगठन है। उसे निर्मित करने का उद्देश्य उसकी मदद से अफ़गानिस्तान में पाक-समर्थक सरकार स्थापित करना है। पाकिस्तान अफ़गानिस्तान को अपना पिछवाड़ा मानता है जो भारत के साथ भविष्य में होनेवाले युद्धों के लिए भौगोलिक गहराई प्रदान करनेगा। वहाँ वह ऐसी किसी भी सरकार को पनपने नहीं देता है जो उसके हितों के विरुद्ध जाए। वर्तमान में अमरीका द्वारा अफ़गानिस्तान में स्थापित सरकार पाक-विरोधी सरकार है। अब चूँकि अमरीका अफ़गान युद्ध हारने के बाद अपनी सेना को अफ़गानिस्तान से खींच रहा है, पाकिस्तान को वहाँ एक बार फिर पाक-समर्थक तालिबान सरकार स्थापित करने के अवसर नज़र आ रहे हैं।<p>
ओसामा बिन लादेन के अल-क़ायदा द्वारा न्यू योर्क के ट्विन टावर को धराशायी करने के बाद अमरीका ने काबुल में तालिबानी सरकार को अपदस्थ करके वहाँ करज़ई की कठपुली सरकार स्थापित कर दी थी। अमरीकी सेना के हमलों से बचने के लिए तालिबानी लड़ाके अफ़गानिस्तान भर में और अफ़गानिस्तान से लगते पाकिस्तान के इलाक़ों में फैल गए और वहाँ से अपनी छापेमार लड़ाई चलाते रहे। यह लड़ाई अब सफलता की ओर बढ़ रही है और अमरीका अपनी सेना समेटकर वापस जा रहा है। पीछे रह गई अफ़गानी सेना अकुशल, अपेशवर, अप्रशिक्षत और अनुभवहीन है और वह तालिबान के मँजे हुए लड़ाकों का मुक़ाबला करने में असमर्थ हैं। इतना ही नहीं, तालिबानों को पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का परोक्ष समर्थन और मार्गदर्शन भी प्राप्त है। इससे उसे जल्द ही काबुल में एक बार फिर अपनी सत्ता क़ायम करने की उम्मीद है।<p>
लेकिन, इस परिदृश्य को बिगाड़नेवाली कुछ बातें भी अफ़गान-पाकिस्तान में गतिशील हो रही हैं। इतने दिनों तक अमरीकी सेना से लड़ने और अंत में उसे हराने से तालिबान के हौसले बुलंद हैं और उसे पाकिस्तानी सेना द्वारा नचाया जाना बिलकुल रास नहीं आ रहा है। दूसरे, तालिबान अल-क़ायदा से जुड़े अन्य आतंकी संगठनों से भी जुड़ा हुआ है और उन सबमें लड़ाकों, पैसे और जंगी सामान का आदान-प्रदान होता है। इन सबका मुख्य शत्रु अमरीका ही है। अल-क़ायदा से जुड़ा एक प्रमुख संगठन आईसिस है जो ईराक में अमरीका द्वारा ईराक में स्थापित कठपुतली शिया सरकार से लड़ रहा है। उसे आश्चर्यजनक सफलता मिल रही है और उसने लगभग आधे ईराक पर कब्ज़ा करके वहाँ एक स्वतंत्र सुन्नी इस्लामी ख़िलाफ़त की घोषणा कर दी है। इसे साउदी अरब और अन्य सुन्नी-वहबी अरब देशों से प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन मिल रहा है। तालिबान को भी इन्हीं स्रोतों से समर्थन मिलता है। तालिबान से घनिष्ट रूप से जुड़ा ओसामा बिन लादेन साउदी राज-परिवार से जुड़ा एक व्यक्ति ही था। हालाँकि इराक में आईसिस को ज़बर्दस्त सफलताएँ मिल रही है, लेकिन उसके विरुद्ध पश्चिमी सरकारों का सैनिक गठबंधन भी बनता जा रहा है और बहुत जल्द उनके सम्मिलित सैन्य बल का मुक़ाबला करना आइसिस के लिए कठिन होता जाएगा। इसलिए वह भी अपने समर्थकों को इकट्ठा करने में जुट गया है। तालिबान और हक्कानी नेटवर्क और हाफ़िज़ साईद का लश्करे-तोईबा और जमात-उद-दवा जैसे आतंकी संगठनों ने पहले ही आइसिस को अपना समर्थन घोषित कर दिया है और वे उसे पैसे और लड़ाके भेजने लगे हैं।<p>
पर तालिबान ही नहीं, आइसिस भी जानता है कि अमरीका और पश्चिमी देशों की मिली-जुली सैन्य बल को हराने का एक ही तरीका परमाणु हथियार प्राप्त करना है। अब पूरे इस्लामी विश्व में केवल पाकिस्तान के पास परमाणु अस्त्र हैं। इसलिए बहुत समय से तालिबान, और अब आईसिस, पाकिस्तान के परमाणु हथियार हथियाने की फ़िराक में है। पर ये हथियार पाकिस्तानी फ़ौज की सख्त पहरेदारी में रखे गए हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज को हराना आवश्यक है।<p>
इस तरह एक ओर पाकिस्तान तालिबान को अफ़गानिस्तान में अपने मंसूबों को साकार करने के लिए उपयोग करना चाहता है, और दूसरी ओर तालिबान पाकिस्तान से परमाणु हथियार छीनने की ताक में है।<p>
अब तक तो पाकिस्तानी फ़ौज तालिबान पर नकेल कसकर उसे अपने इशारों पर नचाने में सफल रहा है, पर अब लग रहा है कि तालिबान इतना शक्तिशाली हो चला है कि वह यह नकेल उतार फेंककर, पाकिस्तानी फ़ौज को ही अपने नियंत्रण में लेना चाहता है। यह उनके लिए सामरिक महत्व भी रखता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इससे तालिबान, और उनके ज़रिए ईराक के आइसिस को, परमाणु हथियार मिल जाएँगे, और दूसरे, अफ़गानिस्तान में सत्ता हथियाने के उनके मुहिम के लिए पाकिस्तान से रसद और पाकिस्तान के सरहदी इलाक़ों में सुरक्षित स्थान प्राप्त हो जाएँगे। या अन्य शब्दों में, तालिबान को काबुल की अपनी लड़ाई में पाकिस्तान भौगोलिक गहराई प्रदान कर सकेगा। कैसी विडंबना है यह! कहाँ पाकिस्तान ने अफ़गानिस्तान में भौगोलिक गहराई तलाशते हुए तालिबान की सृष्टि की थी, और यही तालिबान पाकिस्तान को ही अपने लिए भौगोलिक गहराई प्रदान करनेवाला इलाक़ा बनाना चाहता है, और जले पर नमक छिड़कने के लिए उससे उसके परमाणु खिलौने भी छीनना चाहता है।<p>
इस लड़ाई में कौन विजयी होगा, यह समय ही बताएगा। पर अब तक जब तालिबान पाकिस्तान की फ़ौज के हुक्मों के विरुद्ध जाता है, तो पाकिस्तानी फ़ौजी उसे सख्ती से दंडित करती है। स्वात घाटी में यही हुआ था और अब वज़ीरिस्तान में यही चल रहा है। और जब भी पाकिस्तानी फ़ौज तालिबान पर सख्ती बरतती है, तो वह कोई न कोई आतंकी हमला करके इसका बदला लेता है। यह घात-प्रतिघात वर्षों से चला आ रहा है। हर बार पाकिस्तानी फ़ौज को पहले से अधिक सख्ती से काम लेना पड़ रहा है, और तालिबान का जवाबी हमला पहले से अधिक ख़ौफ़नाक होता जा रहा है। पेशावर में पाकिस्तानी फ़ौज के अफ़सरों और सिपाहियों के बच्चों का क़त्ल करके तालिबान ने यही दिखाया है कि वह ईंट का जवाब पत्थर से देने में समर्थ है।<p>
अब सवाल यह है कि यह सब कहाँ जाकर थमेगा? इस दुष्चक्र का अंत निकट भविष्य में नहीं होनेवाला है। कारण स्पष्ट है। पाकिस्तान की अफ़गान नीति का लक्ष्य – अफ़गानिस्तान में अपने लिए अनुकूल सरकार क़ायम करना – उसकी पहुँच के दायरे में आ गया है। अमरीका अफ़गान युद्ध हारकर अपनी सेना वहाँ से हटा रहा है। अफ़गानिस्तान में रह गई अफ़गान सेना किसी भी तरह से तालिबान का मुक़ाबला करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए, तालिबान की जीत निश्चित लग रही है। इस जीत को कुछ और निश्चित बनाने के लिए पाकिस्तान वज़ीरिस्तान में बरसों से रह रहे तालिबान टोलियों को वापस अफ़गानिस्तान खदेड़ देना चाहता है, ताकि वे अफ़गान तालिबान के साथ मिलकर इन दोनों के ही नेता मुल्ला उमर, जो स्वयं पाकिस्तान में ही, शायद कराची में, छिपकर रह रहा है, के हाथ मजबूत कर सकें।<p>
वज़ीरिस्तान में पाकिस्तनी सेना द्वारा पिछले कई महीनों से चलाए जा रहे अभियान का मुख्य लक्ष्य यही है। पर इतने दिनों से पाकिस्तान में रहने के बाद और वहाँ तेजी से फैल रहे इस्लामी कट्टरवाद को देखते हुए, पाकिस्तानी तालिबान ने ख़ून चख चुके शेर की तरह अपनी निगाहें पाकिस्तान पर गढ़ा ली हैं और वह वहाँ सत्ता-पलट करके पाकिस्तान और उसके परमाणु हथियारों को अपने कब्ज़े में लेने की सोचने लगा है।<p>
पाकिस्तान की जनता इन दोनों शैतानी ताकतों के दंगल का मूक दर्शक बनी हुई है। दोनों ही ताकतें उसे अँधेरे में रखने की पूरी कोशिश कर रही हैं, पर पेशावर हत्याकांड जैसी घटनाएँ उसे पर्दे के पीछे की सचाई की अस्पष्ट-सी झलक ज़रूर दिखा देती हैं।<p>
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बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-47964189491641673412014-12-20T10:43:00.001+05:302014-12-20T10:43:24.042+05:30पेशावर हत्याकांड का असली चेहरापेशावर हत्याकांड के बाद पाकिस्तान में इस हत्याकांड के असली कर्ता-धर्ताओं को छिपाने और पाकिस्तानी फ़ौज और ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के साथ इन हत्यारों की साँठगाँठ पर पर्दा डालने की कोशिशें तेज़ हो गई हैं। इसमें सर्वोच्च स्तर के नेता, फ़ौजी अफ़सर, मीडिया के लोग और आतंकी सब शामिल हो गए हैं।<p>
पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ और विपक्षी नेता इमरान ख़ान दोनों इस हत्याकांड की निंदा करते हुए बड़ी सफ़ाई से तालिबान का नाम लेने से कन्नी काट गए, हालाँकि तालिबान के प्रवक्ता ने हत्याकांड के तुरंत बाद इस हत्याकांड की ज़िम्मेदारी क़बूल करते हुए कह दिया था कि यह पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा उत्तरी वज़ीरिस्तान में सैकड़ों बच्चों सहित अनगिनत मासूम पख्तूनों की हत्या करने का बदलना लेने के लिए किया गया है।<p>
पाकिस्तान में हुए आम चुनावों में तालिबान ने नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान दोनों को ही अधिक सीटें जीतने में मदद की थी क्योंकि उन्होंने उनके विरोध में खड़े हुए बेनज़ीर भुट्टो और आसिफ़ ज़रदारी की पाकिस्तान पीपुल्क पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार के दौरान चुन-चुनकर मार डाला था। नतीज़ा यह हुआ कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी खुलकर चुनाव प्रचार नहीं कर पाई और केवल सिंध तक सिमटकर रह गई जहाँ उसका अब भी थोड़ा-बहुत वर्चस्व है। इससे नवाज़ शरीफ़ को पाकिस्तानी संसद में अप्रत्याशित बहुमत मिल सकी और इमरान ख़ान भी खैबर-पख्तून ख्वाह प्रांत में बहुमत हासिल कर सके।<p>
निश्चय ही इसके बदले इन दोनों ही पार्टियों ने तालिबान के साथ परोक्ष समझौता किया होगा। इमरान ख़ान तो पहले से ही तालिबान समर्थक रहे हैं और पाकिस्तान में शरीयत लागू करने की निरंतर वकालत करते हैं। इसलिए अब इनके लिए तालिबान की निंदा करना ज़रा कठिन है। यही कारण है कि नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान ने अपने वक्तव्यों में तालिबान पर सीधा आक्षेप नहीं किया।<p>
यह भी ध्यान रहे कि नवाज़ शरीफ़ ने उत्तरी वज़ीरिस्तान में तालिबान के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई को टालने के लिए हर संभव प्रयास किया था और इसे तभी होने दिया जब इमरान ख़ान और कनाडाई मौलवी कादरी के मिले-जुले पैंतरे ने उसके हाथ कमज़ोर कर दिए और उसे अपनी गद्दी बचाने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज से समझौता करना पड़ा। इस समझौते के तहत वज़ीरिस्तान में फ़ौजी कार्रवाई के लिए हरी झंडी देना भी शामिल था। यह हरी झंडी मिलते ही पाकिस्तानी फ़ौज और अमरीका के ड्रोन विमान वज़ीरिस्तान पर टूट पड़े और हज़ारों लोगों को मार डाला। इनमें से मुट्ठी भर लोग ही वास्तव में तालिबान के लड़ाकू थे, बाकी सब मासूम लोग थे। इस सबका मीडिया में उतना खुलासा नहीं हुआ क्योंकि पाकिस्तानी फ़ौज ने मीडिया को वज़ीरिस्तान में घुसने ही नहीं दिया है। इसके विपरीत पेशावर हत्याकांड को पूरा मीडिया कवरेज प्राप्त हुआ जिससे ऐसी धारणा विश्व भर में फैल गई कि तालिबान वहशी हैं, पर यह पूरा सत्य नहीं है। दरअसल पाकिस्तानी फ़ौज ने भी वज़ीरिस्तान में इतना ही या इससे कहीं अधिक वहशीपन दिखाया है, और इसी का बदला तालिबान ने पेशावर में पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चों को मारकर लिया।<p>
कहने का मतलब यह है कि पेशावर हत्याकांड की एक लंबी-चौड़ी पृष्ठभूमि है और उसे मात्र एक आतंकी हमला मानना ठीक नहीं होगा।<p>
यह सब होते हुए भी, पेशावर हत्याकांड ने पाकिस्तानी जनता को झकझोर डाला है, और उनके मन में अनेक कठिन सवाल उठ रहे हैं, और तालिबान और पाकिस्तानी फ़ौज, आईएसआई, और पाकिस्तानी नेताओं के बीच जो साँठगाँठ है वह पाकिस्तानी जनता को समझ में आने लगा है। यदि जनता पूरी तरह इन संबंधों को समझ जाए, तो यह पाकिस्तान के लिए बड़ी समस्या बन सकती है क्योंकि पाकिस्तान का अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा। पाकिस्तान को इस्लामी मुल्क के रूप में अभिकल्पित किया गया है और उसका सीधा सरोकार वहाँ की जनता की खुशहाली या उनके दुखों-कष्टों को दूर करने से नहीं है। यही कारण है कि वहाँ देश की अधिकांश संपदा को फ़ौज को पुष्ट करने और अफ़गानिस्तान और भारत में अनावश्यक हस्तक्षेप करने में खर्च किया जाता है।<p>
इसलिए यह ज़रूरी है कि जल्द ही पेशावर हत्याकांड के असली स्वरूप पर पर्दा डाला जाए। इसका आजमाया हुआ नुस्खा भारत या अमरीका को पाकिस्तान में हो रहे सभी नापाक कामों के लिए ज़िम्मेदार ठहराना है। और यही हथकंडा इस बार भी अपनाया गया है।<p>
पेशावर हत्याकांड अभी चल ही रहा था कि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और फ़ौजी तानाशाह मुशर्रफ़ ने एक टीवी चैनल को इंटर्वयू देते हुए कह दिया कि पेशावर हमले के पीछे भारत का हाथ है और पाकिस्तानी फ़ौज को भारत को मुँह तोड़ जवाब देना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि पाकिस्तान में जब भी कोई आतंकी घटना घटती है, तो इसकी ज़िम्मेदारी भारत के मत्थे मढ़ने के लिए वहाँ किसी भी प्रकार के प्रमाण या सबूत की आवश्यकता नहीं होती है। यह वहाँ की मीडिया, स्तंभ लेखक, अख़बार, नेता, आतंकी सब की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है। ऐसा करके वहाँ की जनता में भारत के प्रति नफ़रत की भावना भड़काई जाती है, जिसके बिना पाकिस्तान के अलग अस्तित्व का कोई औचित्य ही नहीं बनता है।<p>
उधर हाफ़िज साईद, जिसने मुंबई में पेशावर के जैसा ही हत्याकांड आयोजित कराया था, और जिसके लिए उसे पाकिस्तान में हीरो की तरह पूजा जाता है, एक बड़ी प्रेस सम्मेलन बुलाकर वक्तव्य दे दिया कि पेशावर हमले के पीछे भारत का हाथ है और यह भारत की सोची-समझी साजिश है क्योंकि यह हमला ठीक उस दिन (दिसंबर 15) को किया गया है जिस दिन भारत ने 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करके पूर्वी पाकिस्तान में बंग्लादेश का निर्माण करा दिया था। हाफ़िज़ ने यह भी कहा कि इसका बदला कश्मीर को भारत से छीनकर लिया जाएगा।<p>
पाकिस्तान के अनेक पत्रकारों ने भी इस तरह की अफ़ावाएँ फैलाते हुए पेशावर हमले का ज़िम्मा भारत पर डालना शुरू कर दिया है। वे चाहते हैं कि पाकिस्तानी जनता का रोष तालिबान और उनके आका पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई और तालिबान के समर्थक नेताओं और राजनीतिक पार्टियों पर न उमड़े और उसे सुरक्षित मार्गों की ओर मोड़ दिया जाए, अर्थात भारत की ओर मोड़ दिया जाए।<p>
पर इस बार उनका काम अधिक मुश्किल है, क्योंकि एक तो स्वयं तालिबान ने इस हत्याकांड की ज़िम्मेदारी क़बूल कर ली है और उसे वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा मारे गए सैकड़ों मासूम बच्चों और औरतों का बदला बताया है। <p>
इसके अलावा अब इस हत्याकांड को अंजाम देनेवाले लड़ाकों द्वारा अफ़गानिस्तान में बैठे अपने आकाओं के साथ हुए वार्तालाप की रेकॉर्डिंग भी प्राप्त हो चुका है, जिसमें वे अपने आकाओं से पूछ रहे हैं कि हमने यहाँ सारे बच्चों को मार दिया है अब हमें क्या करना है। उधर से जवाब आता है कि अपने आपको बम से उड़ा लेने से पहले पाकिस्तानी फ़ौज को आने दो ताकि बम धमाके में पाकिस्तानी फ़ौज के सिपाही भी बड़ी संख्या में मरें।<p>
इन सब तथ्यों को मद्दे नज़र रखते हुए ही अनेक भारतीय प्रेक्षकों का मानना है कि आंतिकियों का उपयोग अफ़गानिस्तान और भारत में राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करने की पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई की नीति पेशावर हत्याकांड के बाद भी ज़रा भी नहीं बदलेगी।<p>
पाकिस्तान अफ़गानी तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के आतंकियों का उपयोग अफ़गानिस्तान में तबाही मचाने और पाकिस्तानी तालिबान और हाफ़िज़ साईद के लश्कर-ए-तोइबा और जमात-उद-दवा का उपयोग कश्मीर और भारत में आतंक फैलाने के लिए करता है। इनके ज़रिए वह भारत के साथ सामरिक संतुलन स्थापित करने के सपने देखता है और अफ़गानिस्तान में अपने अनुकूल तालिबानी कठपुतली सरकार स्थापित करने के मंसूबे बाँधता है।<p>
पर पेशावर हमले ने दिखा दिया है कि तालिबान कठपुतले कम और दुर्दांत और वहशी लड़ाकू हैं जो समस्त पाकिस्तान को ही लील जाने की क्षमता रखते हैं। अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पाकिस्तान के संबंध में सही ही कहा है कि जो लोग अपने घर में इस इरादे से ज़हरीले साँप पालते हैं कि वे उनके पड़ोसियों को डसेंगे, देर-सबेर स्वयं ही इन विषधरों द्वारा डस लिए जाते हैं।<p>
बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-52457222194762752602014-12-18T19:47:00.001+05:302014-12-18T19:47:05.764+05:30पेशावर कत्लेआम से नहीं बदलेगी पाकिस्तान की आतंकी नीतिपेशावर स्कूल हमले के बाद भारत के अनेक लोगों ने यह आशा व्यक्त की है कि शायद इस हादसे के बाद पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने आएगी और वह आतंकवाद को पालने-पोसने से बाज़ आएगा। लेकिन इसकी ज़रा भी संभावना नहीं है।<p>
पेशावर के फ़ौजी स्कूल में बहे पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चों का ख़ून और उनकी माँओं के आँसू अभी सूखे भी न थे कि लाहौर की एक अदालत ने मुंबई हत्याकांड के प्रमुख संचालक और लश्कर-ए-तोइबा के कमांडर ज़ाकिर रहमान लख़वी की ज़मानत पर रिहाई मंजूर कर ली।<p>
यह शायद हमारे गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा पाकिस्तान से मुंबई हत्याकांड के एक अन्य प्रमुख आरोपी हाफ़िज़ साईद को भारत के हवाले करने की माँग का परोक्ष उत्तर था। हाफ़िज़ पाकिस्तान में खुले आम घूम रहा है और अभी हाल में जब पाकिस्तानी फ़ौज कश्मीर में आतंकियों को घुसाने के लिए सरहद पर फ़ायरिंग कर रही थी, सरहद के पास भी इसे देखा गया था। इतना ही नहीं इसने कुछ ही दिन पहले लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान के मैदान में एक बड़ी रैली भी आयोजित की, जिसके लिए लोगों को लाहौर लाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने ख़ास रेलगाडियाँ चलाईं। इससे पता चलता है कि हाफ़िज़ एक तरह से पाकिस्तानी फ़ौज और वहाँ की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का घर-जमाई है और पाकिस्तान का इन आतंकियों से नाता तोड़ने का कोई इरादा नहीं है।<p>
पेशावर हमले की निंदा वहाँ के नेताओं और फ़ौज को मजबूरन करनी पड़ रही है, पर इससे पाकिस्तान की केंद्रीय नीति में कोई भी परिवर्तन आने के आसार नहीं है क्योंकि इसी नीति पर पाकिस्तानी मुल्क का वजूद टिका है। ध्यान रहे, पेशावर हमले की निंदा करते हुए तहरीख-ए-पाकिस्तान पार्टी के नेता इमरान खान पाकिस्तानी तालिबान का नाम लेने से साफ मुकर गए, हालाँकि इस हमले के लिए पाकिस्तानी तालिबान ने ज़िम्मेदारी क़बूल कर ली है और कहा है कि यह हमला वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा मासूम पख्तून निवासियों को मारने के बदले में किया गया है।<p>
पाकिस्तान जानता है कि सैनिक होड़ में वह भारत का मुक़ाबला नहीं कर सकता है, भले ही उसके पास परमाणु बम क्यों न हो। इसलिए शुरू से ही वह ग़ैर-सैनिक ज़रियों से भारत को कमज़ोर करने की नीति पर चलता आ रहा है। इसे वह हज़ार घावों से ख़ून बहाकर भारत को घुटनों पर लाने की नीति कहता है। इसे अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज ने और खास तौर से उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने दाऊद इब्राहीम, हाफ़िज़ साईद, और तालिबान जैसे अनेक ग़ैर-सरकारी ताकतों को पालकर खड़ा किया है और इन्हें वह भारत में आतंक फैलाने के लिए समय-समय पर छोड़ता रहता है।<p>
तालिबान को उसने अमरीका की सहायता से तब खड़ा किया था जब सोवियत संघ ने अफ़गानिस्तान पर कब्ज़ा करके वहाँ नजीबुल्ला की पाकिस्तान-विरोधी सरकार स्थापित की थी। अफ़गानिस्तान को पाकिस्तान अपने ही मुल्क का पिछवाड़ा मानता है और वहाँ ऐसी किसी भी सरकार को बर्दाश्त नहीं करता है जिसकी बागडोर पाकिस्तान के फ़ौजी जनरलों या आईएसआई के हाथों में न हो। इसलिए नजीबुल्ला सरकार को गिराने के लिए उसने तालिबान को पाला पोसा और इस तालिबान ने ओसामा बिन लादेन जैसे सौउदी धन्ना-सेठ और कट्टर सुन्नी और वहबी इस्लामी विचारधारा के पैरोकारों की मदद से सोवियत संघ को अफ़गानिस्तान छोड़ने पर मजबूर कर दिया और वहाँ तालिबान की सरकार कायम कर दी।<p>
इसके बाद पाकिस्तान के दुर्भाग्य से ओसामा बिन लादेन के अल-क़ायदा ने अमरीका में हवाई जहाजों को मिसाइलों के रूप में उपयोग करके न्यू योर्क में ट्विन-टावर को धराशायी कर दिया। इसमें 3,000 से अधिक अमरीकी नागरिक मरे। इससे भी बड़ी बात यह थी कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान द्वारा पर्ल हार्बर पर समुद्री हमले के बाद यह पहली बार अमरीका की ज़मीन पर किसी ने हमला किया था। अब तक अमरीका यही समझ रहा था कि उसके देश पर कोई भी हमला नहीं कर सकता है। न्यू योर्क हमले ने अमरीकियों की इस ख़ुश-फ़हमी को सदा-सदा के लिए खत्म कर दिया।<p>
इस हमले का बदला लेने के लिए अमरीकी सेना अफ़गानिस्तान में उतरी और उसने तालिबान को काबुल से खदेड़कर हमीद करज़ई को राष्ट्रपति बना दिया। इस लड़ाई में उसने पाकिस्तान को भी शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। अमरीका ने पाकिस्तान को अल्टिमैटम दे डाला कि लड़ाई में शामिल हो जाओ, वरना हम पाकिस्तान पर इतने बम बरसाएँगे कि वह पत्थर युग में पहुँच जाएगा।<p>
पाकिस्तान को इस धमकी को गंभीरता से लेने में ही समझदारी लगी और वहाँ के तानाशाह राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ़ ने अमरीकियों का साथ देना क़बूल किया, पर आधे मन से ही। वह अमरीकियों के साथ लड़ता भी रहा और तालिबान को बचाने के लिए यथा-शक्ति छिपी कोशिश भी करता रहा। यही कारण है कि अमरीका अफ़गानिस्तान में तालिबान को सफ़ाई के साथ हरा नहीं सका न ही वह ओसामा बिन लादेन को ही पकड़ सका क्योंकि वह पाकिस्तानी फ़ौज की एक छावनी अबोट्टाबाद में सुरक्षित रूप से पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा छिपाया गया था जहाँ वह पाकिस्तानी फ़ौज के संरक्षण में अपनी बीवियों और बच्चों के साथ मज़े से रह रहा था। आखिर अमरीका को अपने सीलों को भेजकर रात के अँधेरे में इस तरह उसका वध करवाना पड़ा कि पाकिस्तानी फ़ौज को इसकी भनक तक न लग पाए।<p>
जब तालिबान सरकार सत्ताच्युत हुई तो तालिबानी लड़ाकू पूरे अफ़गानिस्तान में और पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में भागकर फैल गए और वहाँ से वे अमरीका के विरुद्ध छापेमार युद्ध लड़ते रहे। पाकिस्तान में जो तालिबान फैल गए थे, वे ही पाकिस्तानी तालिबान के रूप में जाने जाते हैं और उनका अफ़ागानी तालिबान के साथ घनिष्ट संबंध है। दोनों का अंतिम ध्येय है अफ़गानिस्तान में अमरीका द्वारा स्थापित सरकार को अपदस्थ करके तालिबानी सरकार दुबारा क़ायम करना। यही ध्येय पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का भी है।<p>
अमरीकी दबाव में आकर पाकिस्तानी फ़ौज को अफ़गानी तालिबान पर कुछ कार्रवाई करनी पड़ी है जिससे तालिबान उनसे काफ़ी रुष्ट हो गया है। इसी तरह तालिबान का पाकिस्तानी हिस्सा जब पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को पार करने लगा, तब भी पाकिस्तानी फ़ौज को पाकिस्तानी तालिबान के विरुद्ध कार्रवाई करनी पड़ी है। ऐसा एक बार तब हुआ जब पाकिस्तानी तालिबान ने स्वात घाटी में अपना वर्चस्व फैला लिया और वहाँ शरीयत लागू करके अपराधियों का सिर कलम करना, हाथ काटना, कोड़े लगाना, पत्थर फेंककर मरवाना आदि इस्लामी दंड लागू करने लगा था। इसी तालिबान ने वहाँ लड़कियों को स्कूल जाने से भी मना कर दिया था और इस निषेध का उल्लंघन करने के लिए ही मलाला यूसुफ़ज़ई नामक 15 साल की लड़की के सिर पर एक तालिबानी कमांडर ने गोली दाग दी थी। ईश्वर की कृपा से वह बच गई और उसे लंदन में शरण मिल गई। इसी लड़की को अभी हाल में भारत के कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरस्कार मिला है।<p>
जब यह स्पष्ट होने लगा कि अमरीका अफ़ागन युद्ध में कहीं आगे नहीं बढ़ रहा है और जल्द वहाँ से बोरियाँ-बिस्तर बाँधनेवाला है, तो तालिबान का भी हौसला बुलंद होने लगा। वह अपनी शक्ति बटोरने लगा ताकि अमरीकी सेना के निकलते ही वह अफ़गानिस्तान पर फिर से कब्ज़ा जमा सके। इस नए हौसले ने पाकिस्तानी तालिबान को भी मदहोश कर दिया है और वह पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई द्वारा उस पर कसा गया नकेल तोड़ने के लिए कसमसा रहा है। उसे यह उम्मीद भी बनती जा रही है कि उसके लिए अफ़गानिस्तान पर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान पर भी कब्ज़ा करना और इस तरह पाकिस्तानी फ़ौज के पास मौजूद परमाणु हथियार पर नियंत्रण पाना शायद मुमकिन है। परमाणु हथियार हाथ आते ही, उन्हें इराक में उनके बंधु-बांधव आईसिस के हवाले करके वहाँ से भी अमरीका को खदेड़ना संभव हो सकेगा। इस तरह आईसिस द्वारा घोषित ख़िलाफ़त की नींव और भी पक्की हो सकेगी। तालिबान ने पहले से ही आईसिस को अपना समर्थन घोषित कर दिया है।<p>
इस विचार को अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी तालिबान धीरे-धीरे कोशिश कर रहा है। अभी हाल में उसके एक कुमुक ने कराची हवाई अड्डे पर कब्ज़ा कर लिया था, और एक अन्य दल ने पाकिस्तानी नौसेना के एक युद्ध-पोत पर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी।<p>
तालिबान ने समस्त पाकिस्तान में इस्लामी और सुन्नी वहबी विचारधारा को भी इतना फैला दिया है कि वहाँ उसके इमरान खान जैसे शक्तिशाली समर्थक हो गए हैं। इमरान खान की तहरीख-ए-पाकिस्तान पार्टी खैबर-पक्तून ख्वाह प्रांत में सरकार चला रही है, और अभी हाल में उसने कनाडावासी इस्लामी मौलवी ताहिर उल कादिर के साथ मिलकर इस्लामाबाद में ऐसी जबर्दस्त हड़ताल आयोजित की कि कई दिनों तक पाकिस्तानी सरकार ठप्प पड़ गई और पाकिस्तान के सदाबहार मित्र चीन के राष्ट्रपति तक को अपनी पाकिस्तानी दौरा रद्द करना पड़ा। इमरान खान तालिबान और शरियत क़ानून का प्रबल समर्थक है और पाकिस्तानी युवाओं में उसकी काफी धाक है।<p>
दूसरी ओर मुंबई हमले के कर्ता-धर्ता हाफ़िज़ साईड का संगठन लश्कर-ए-तोइबा का भी पाकिस्तान में काफी रुतबा है। यह संगठन पकिस्तान में हज़ारों मदरसे चलाता है जहाँ कट्टर वहबी इस्लामी विचारों का प्रचार होता है। यह संगठन बाढ़, भूकंप आदि विपदाओं में राहत कार्य चलाकर भी लोगों के दिलों में जगह बनाता है। उसे साउदी अरब से अकूत दौलत भी प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई भी उसे सभी सहूलियतें मुहैया कराती हैं। इसके बदले वह भारत के विरुद्ध आतंकी हमले आयोजित करता है और काश्मीर में अशांति फैलाकर पाकिस्तानी फ़ौज की मदद करता है।<p>
इस तरह जिस पाकिस्तानी तालिबान ने पेशावर स्कूल में कत्ले-आम किया है, वह पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का ही बनाया हुआ है और उसे बनाने के पीछे पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई के खास मकसद हैं। ये हैं अफ़गानिस्तान में पाक-समर्थक सरकार खड़ा करना और भारत के विरुद्ध ग़ैर-सैनिक आतंकी कार्रवाई कराने में उसकी मदद करना।<p>
पर पाकिस्तानी फौज़ की बनाई हुई चीज़ होने पर भी तालिबान कई बार किसी उद्दंड संतान की तरह अपने ही पिता के निर्देशों का उल्लंघन कर देता है, और तब पाकिस्तानी फ़ौज उसे दंडित करके सही रास्ते पर ले आती है। ऐसा कई बार हुआ है, जैसे स्वात घाटी में और अभी वज़ीरिस्तान में जर्द-ए-अज़्ब नामक सैनिक कार्रवाई में, जिसके तहत सैकड़ों तालिबानी लड़ाकों को और हज़ारों पख्तून निवासियों को पाकिस्तानी फ़ौज ने मार डाला है।<p>
इसी का बदला लेने के लिए पाकिस्तानी तालिबान ने पेशावर स्कूल हमला कराया है। पाकिस्तानी तालिबान चाहती है कि पाकिस्तानी फ़ौज भी वही दर्द और पीड़ा महसूस करे जो अपनों के मारे जाने पर होता है और जिसे वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौजी कार्रवाई में मारे गए पख्तूनों के कारण तालिबान को महसूस हुआ था। इसीलिए पाकिस्तान ने पेशावर के सैनिक स्कूल को चुना था क्योंकि वहाँ पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चे पढ़ते हैं और इन बच्चों के मारे जाने पर पाकिस्तानी फ़ौज को वही दुख-दर्द महसूस होगा जो तालिबान को वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज के हाथों अपनों के मारे जाने पर हुआ था।<p>
इसलिए पेशावर हमले को आतंकी हमला मानना पूरी तरह से ठीक नहीं होगा। यह प्रतिशोध की कार्रवाई है, और दो ऐसे पक्षों के बीच की रस्सा-कशी है जो एक-दूसरे को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश में हैं। पाकिस्तानी फ़ौज चाहती है कि तालिबान वही करे जो उसका हुक्म हो, और तालिबान पाकिस्तान पर कब्ज़ा करके उसके परमाणु हथियारों और अन्य सैनिक साज-सामानों को हथियाना चाहती है ताकि उसकी मदद से उसके वैचारिक भाई आईसिस इराक में इस्लामी खिलाफ़त को सुदृढ़ बना सके।<p>
युद्धरत पक्षों के बीच इस तरह की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई अक्सर होती रहती है। जो महाभरत से वाकिफ़ हैं, वे जानते होंगे कि महाभारत युद्ध में भी ऐसी ही एक कार्रवाई को कौरवों ने अंजाम दिया था। युद्ध के अंतिम दिनों जब पांडवों ने एक अर्ध-सत्य का सहारा लेकर कौरवों की तरफ़ से लड़ रहे उनके गुरु और कौरव सेनापति द्रोणाचार्य की हत्या करा दी थी, तो द्रोणाचार्य के पुत्र और दुर्योधन के मित्र अश्वत्थामा ने कृतवर्मा और कृपाचार्य का साथ लेकर रात के अँधेरे में पांडवों के शिवर में घुसकर वहाँ सो रहे सभी को मारकर इसका बदला लिया था। मारे गए व्यक्तियों में द्रौपदी के पाँच बच्चे भी शामिल थे। पांडव इसलिए बच पाए क्योंकि वे उस समय वहाँ नहीं थे।<p>
भारत के लिए यह सब अत्यंत चिंता का विषय है क्योंकि चाहे तालिबान जीते या पाकिस्तानी फ़ौज, दोनों स्थितियों में उसे नुकसान होनेवाला है। यदि तालिबान पाकिस्तान को हज़म कर जाए, तो परमाणु बम से लैंस एक ऐसी शत्रुतापूर्ण शक्ति भारत की सरहदों पर उभर आएगी, जो भारत के प्रति आज के पाकिस्तान से हज़ार गुना द्वेष रखती है। और यदि पाकिस्तानी फौज़ तालिबान को दंडित और अनुशासित करने में क़ामयाब होती है, तो आनेवाले दिनों में यह तालिबान और हाफ़िज़ साईद जैसे आतंकी पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई के इशारों पर भारत पर आजकल से कहीं अधिक विस्तार से हमले कराएँगे।<p>
इसलिए पाकिस्तान के घटनाचक्र पर भारत को पैनी निगाह रखनी होगी और उसे हर स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए मुस्तैद होना पड़ेगा। <p>बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-42371921840986313582014-12-11T09:18:00.001+05:302014-12-11T09:46:53.720+05:30अफ़ज़ल खान की जीतमहाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा-शिव सेना गठबंधन को तोड़ते हुए शिव सेना ने भाजपा पर अफ़ज़ल खान की सेना होने का आरोप लगाया था। उस समय शिव सेना चुनाव में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थी और महाराष्ट्र में वरिष्ठ हिंदुत्ववादी पार्टी होने का उसे घमंड भी था। <p>
चुनाव परिणाम आते ही शिव सेना की सारी आशाएँ चौपट हो गईं, क्योंकि इतिहास को नकारते हुए अफ़ज़ल खान की सेना शिव सेना पर विजय हासिल कर गई। जैसा कि हारी हुई सेना के साथ अक्सर होता है, शिव सेना को अपनी हार के बाद एक के बाद एक करके अनेक अपमान सहने पड़े। शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने उम्मीद की थी कि चूँकि चुनाव में स्पष्ट बहुमत किसी भी पार्टी को नहीं मिला है, भाजपा उसके सहयोग के बिना सरकार नहीं बना पाएगी, और इस सुखद परिस्थिति का लाभ उठाकर वे भाजपा से मनमाना दाम वसूल कर सकेंगे। चुनाव के तुरंत बाद ही उद्धव ने अपने लिए उप-मुख्यमंत्री पद तक माँग लिया।<p>
पर घटनाएँ अलग ही मार्ग पर चल पड़ीं। चाणक्य-बुद्धि रखनेवाले शरद पवार ने चुनाव परिणाम आते ही, बिना किसी शर्त भाजपा को अपनी पार्टी का बाहरी समर्थन घोषित कर दिया। इससे विधान सभा में भाजपा के पास विधायकों की इतनी संख्या हो गई कि वह किसी भी दूसरे दल की सहायता के बिना सरकार बना सके। इस तरह शरद पवार ने भाजपा के लिए विधान सभा में शिव सेना के समर्थन को बिलकुल महत्वहीन कर दिया। एक बार फिर उद्धव की सारी आशाओं पर पानी फिर गया।<p>
दरअसल उद्धव की हालत अत्यंत हास्यास्पद और शोचनीय हो गई है। सबके सामने यह स्पष्ट हो गया है कि उद्धव में उतनी राजनीतिक परिपक्वता और चतुराई नहीं है जितनी शरद पवार जैसे मँजे हुए नेताओं में है, या उनके ही पिता बाल ठाकरे में थी। बाल ठाकरे का रुतबा इतना था कि अटल बिहारी वाजपायी और आडवानी जैसे चोटी के नेता तक उनके सामने झुक जाते थे। उद्धव ने यह मानने की गलती की कि अपने पिता का यह रुतबा उन्हें विरासत में मिल गया है और भाजपा के वरिष्ठ नेता भी मातोश्री (ठाकरे परिवार का निवास स्थान) में जी-हुज़ूरी करने आ पहुँचेंगे।<p>
पर जिस तरह की राजनीति शिव सेना खेलती है, उसका नरेंद्र मोदी के उदय के बाद पैदा हुई भाजपा की नई परिस्थितियों में कोई स्थान नहीं था। नरेंद्र मोदी गठबंधन वाली सरकारों की खामियाँ-बुराइयाँ खूब देख चुके थे – स्वयं अपनी पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व के समय और कांग्रेस की यूपीए सरकार के समय। आम चुनाव में ही उन्होंने एक ही पार्टी (यानी भाजपा) की बहुमत पर टिकी सरकार बनाने का लक्ष्य रख लिया था। अमित शाह के कुशल नेतृत्व में और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विशाल भारत-व्यापी नेटवर्क की मदद से वे अपना लक्ष्य हासिल भी कर सके।<p>
अब पूरे देश में राजनीतिक समीकरण बदल गया था, और क्षेत्रीय दलों के दिन लद से गए थे। हरियाणा और महाराष्ट्र में भी भाजपा अपने दम पर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। अब उसकी निगाहें जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, तमिल नाड, केरल आदि राज्यों पर गढ़ी हैं जहाँ आनेवाले महीनों में चुनाव होनेवाले हैं और जहाँ सब भाजपा सबसे प्रमुख दल के रूप में उभरना चाहती है।<p>
इसके लिए यह आवश्यक है कि भाजपा अपनी सोच को क्षेत्रीय दायरों से उठाकर राष्ट्रव्यापी स्तर पर ला टिकाए। यहीं भाजपा की राजनीति शिव सेना जैसे क्षेत्रीय दलों की राजनीति से अलग पड़ती है। शिव सेना मराठी मानुस के इर्द-गिर्द राजनीति खेलती है और मराठी भाषियों में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए निरंतर ग़ैर-मराठियों पर धावे बोलती है। उसकी इस कुत्सित राजनीति के शिकार अलग-अलग समयों में मद्रासी, गुजराती, मुसलमान, बिहारी आदि बन चुके हैं। जब तक भाजपा विपक्ष में थी, इस तरह की राजनीति खेलनेवाली किसी पार्टी के साथ उठने-बैठने से उसका कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होता था। लेकिन जब केंद्र में देश की बागडोर उसके हाथ में आ गई है और उसका लक्ष्य देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरना बन गया है, तब इस तरह की बाँटने और और भाई को भाई से लड़ानेवाली राजनीति उसके लिए काफी महँगी साबित हो सकती है।<p>
महाराष्ट्र के चुनावों के दौरान भी भाजपा की निगाहें उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनावों पर टिकी हुई थीं। उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनाव जीतने के लिए बिहारियों और उत्तर प्रदेशियों पर ज़ुल्म करनेवाली शिव सेना जैसी पार्टियों से नाता तोड़ना बिलकुल आवश्यक था, वरना इन राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान वहाँ के मतदाता भाजपा से शिव सेना जैसे उन्हें उत्पीड़ित करनेवाले दल के साथ भाजपा के संबंध को लेकर टेढ़े और कठिन सवाल पूछ सकते थे। इसलिए शिव सेना से नाता तोड़ना भाजपा के लिए ज़रूरी हो गया था।<p>
और भाजपा के लिए शिव सेना की उपयोगिता भी जाती रही थी। अब भाजपा महाराष्ट्र में शिव सेना का पिछलग्गू न होकर मोदी लहर पर तैरते हुए प्रमुख शक्ति बन चुकी थी। अब शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी। उल्टे शिवा सेना उसके लिए गले में पड़ा सिल का पत्थर (अनावश्यक बोझ) बन चुकी थी और महाराष्ट्र में भाजपा के स्वाभाविक विस्तार को रोक रही थी। इसलिए भाजपा के लिए न केवल शिव सेना से पिंड छुड़ाना बल्कि उस पर नकेल भी कसना एक राजनीतिक आवश्यकता बन चुकी थी। यही बात राजनीति में कच्चे उद्धव समझ नहीं सके। वे यही सोचते रहे कि अब भी शिव सेना बाल ठाकरे के जमाने में जैसी थी वैसी ही शक्तिशाली है, और वह भाजपा को अपनी इच्छाओं के अनुसार नचा सकती है।<p>
भाजपा ने न केवल शिव सेना से नाता तोड़ा है, बल्कि देश के अन्य भागों में भी, जैसे पंजाब और हरियाणा में, अपने पहले के सहयोगी दलों से अलग हो रही है। पंजाब में अकाली दल और हरियाणा में अजीत सिंह का लोक दल इसके उदाहरण हैं। इन सभी जगहों में भाजपा अकेले दम लड़ने की नीति पकड़ ली थी। यह प्रवृत्ति लोक सभा चुनाव से भी पहले दिखाई देने लगी थी जब उड़ीसा में नवीन पटनायक और बिहार नितीश कुमार से उसने तलाक ले लिया था।<p>
दक्षिण में भी भाजपा यही नीति अपनाएगी। तमिल नाड में दोनों प्रमुख द्रविड पार्टियाँ लोगों की नज़रों में इतनी गिर चुकी हैं कि अगले चुनाव में भाजपा को वहाँ अपने लिए मौका दिखने लगा है। वहाँ भी भाजपा अकेले दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय ले सकती है। सच तो यह है कि उसके पास और कोई विकल्प भी नहीं रह गया है। महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब आदि में शिव सेना, लोक दल, अकाली दल आदि क्षेत्रीय दलों के साथ भाजपा ने जो किया है उससे सहमकर तमिल नाड की छोटी-बड़ी पार्टियाँ भाजपा को शक की नज़र से देखने लगी हैं और उसके साथ गठबंधन में उतरने से कतरा रही हैं। इसलिए मज़बूरन भाजपा को वहाँ अकेले चलना पड़ सकता है। इसकी संभावना कम लगती है कि तमिल नाड में, कम से कम आगामी चुनाव में, भाजपा कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन कर पाएगी, लेकिन वहाँ यदि वह मुट्ठी भर सीटें भी जीत जाती है, तो यह एक बहुत बड़ी जीत मानी जाएगी क्योंकि वहाँ दशकों से भाजपा अपना खाता नहीं खोल सकी है। यदि वहाँ चुनाव के बाद किसी भी पार्टी को बहुमत न मिले, तो थोड़ी सीटें होने पर भी भाजपा बड़ी भूमिकाएँ निभा सकती है और अपना पाँव इतना फैला सकती है कि इसके बाद होनेवाले चुनाव में वह और भी मजबूत स्थिति हासिल कर सके। भाजपा लंबी दूरी के धावक के रूप में मैदान में उतरी है और आनेवाले दस-पंद्रह वर्षों तक वही लगभग पूरे भारत में राजनीति के नियम-क़ानून स्थापित करेगी।<p>
मेरे विचार से इसे सकारात्मक दृष्टि से ही देखना ठीक होगा। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को एक-जुट रखने के लिए दृढ़ केंद्रीय शक्ति की आवश्यकता है, वरना राज्य अलग-अलग दिशाओं में खींचते हुए देश को कमज़ोर कर देंगे। इसके उदाहरण हमें बंगाल और तमिल नाड में मिलते हैं जहाँ क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बंग्लादेश के साथ केंद्र सरकार द्वारा की गई राष्ट्र-हित को आगे बढ़ाने वाली संधियों को खटाई में डलवा दिया है, और तमिल नाड की द्रविड पार्टियों ने श्रीलंका के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने के मार्ग में अड़चनें पैदा की हैं जिसका फायदा उठाकर चीन वहाँ पाँव पसारने लगा है।<p>
हमें यही आशा करनी चाहिए कि भाजपा उसके हाथ आई राजनीतिक शक्ति को समझदारी और विवेक के साथ और संपूर्ण राष्ट्र के हित के लिए उपयोग करेगी और भारत को विश्व में गौरवपूर्ण स्थान दिलाएगी।
बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-55696982331872349192014-11-23T13:04:00.003+05:302014-11-23T13:04:42.152+05:30जैसे को तैसाएक गड़रिया एक बनिए को मक्खन बेचता था। एक दिन बनिए को शक हुआ कि गड़रिया ठीक मात्रा में मक्खन नहीं दे रहा है। उसने अपने तराजू में तोलकर देखा तो मक्खन का वजन कम निकला। वह आग बबूला हुआ, राजा के पास गया। राजा ने गड़रिए को बुलवाकर उससे पूछा, क्यों, तुम मक्खन कम तोलते हो?<br /><br />हाथ जोड़कर गड़रिए ने नम्रतापूर्वक कहा, हुजूर, मैं रोज एक किलो मक्खन ही बनिए को दे जाता हूँ।<br /><br />नहीं हुजूर, मैंने तोलकर देखा है, पूरे दो सौ ग्राम कम निकले, बनिए ने कहा।<br /><br />राजा ने गड़रिए से पूछा, तुम्हें क्या कहना है?<br /><br />गड़रिया बोला, हुजूर, मैं ठहरा अनपढ़ गवार, तौलना-वोलना मुझे कहाँ आता है, मेरे पास एक पुराना तराजू है, पर उसके बाट कहीं खो गए हैं। मैं इसी बनिए से रोज एक किलो चावल ले जाता हूँ। उसी को बाट के रूप में इस्तेमाल करके मक्खन तोलता हूँ।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-12282410450832462742014-11-23T13:01:00.000+05:302014-11-23T13:01:40.087+05:30जुए बीनना और बतियाना<span style="font-weight:bold;">मानव निरीक्षण - 5</span><br /><br />क्या आप बता सकते हैं, बंदरों की सबसे प्रिय आदत क्या है? वह है एक दूसरे के शरीर से जुए बीनना। जुए बीनने की यह आदत उनकी सामाजिक व्यवस्था में काफी महत्व रखती है। मनुष्यों में भी जुए बीनने की बंदरों की आदत का समतुल्य व्यवहार होता है? वह है, बतियाना, जी हां, बातचीत करना। आगे पढ़िए, सब स्पष्ट हो जाएगा।<br /><br />टोलियों में रहनेवाले सदस्यों में एक वरीयता क्रम (पेकिंग आर्डर) होता है, जो यह तय करता है कि मैथुन, भोजन, सुरक्षा और अन्य सुविधाओं पर पहला अधिकार किसका हो। यह वरीयता क्रम टोली के सदस्यों में इन सब सुविधाओं के लिए नित्य के झगड़ों से बचने के लिए बहुत आवश्यक है। टोलियों के सदस्य शुरुआत में हल्के-फुल्के शक्ति परीक्षण से इस क्रम को निश्चित कर लेते हैं, और उसके बाद टोली में अपेक्षाकृत शांति बनी रहती है। लड़ाई की नौबत तभी आती है जब इस क्रम का कोई उल्लंघन करे। ऐसा होने पर जिस सदस्य की हैसियत को चुनौती मिली हो, वह या तो अपनी हैसियत की लाज रखने के लिए नियम भंग करनेवाले से भिड़ जाता है, या उसके लिए अपना स्थान सदा के लिए छोड़ देता है।<br /><br />वरीयता क्रम निश्चित हो जाने के बाद भी सदस्यों में परस्पर सौहार्द बनाए रखने के लिए बहुत से छोटे-मोटे व्यवहार होते रहते हैं। इनमें से एक प्रमुख व्यवहार एक-दूसरों के शरीर से जुए बीनना है। हमें लग सकता है कि यह बिना किसी निहितार्थ के किया जाता होगा, पर जिन वैज्ञानिकों ने इन बातों का अध्ययन किया है, वे बताते हैं कि जुए बीनने जैसे सामान्य व्यवहार के पीछे भी काफी राजनीति होती है।<br /><br />आमतौर पर जुए बीनना अपने से अधिक सत्तावान सदस्य के प्रति समर्पण भाव दिखाने का एक तरीका होता है। सामान्यतः कम शक्तिमान सदस्य ही अपने से अधिक शक्तिमान सदस्य के शरीर से जुए बीनता है। ऐसा करके वह यही दर्शाता है कि मैं तुम्हारी वरीयता स्वीकार करता हूं और इसके सबूत के रूप में मैं तुम्हें कष्ट पहुंचा रहे इन कीड़ों से छुटकारा दिलाऊंगा। और अधिक सत्तावान सदस्य अपने से कम सत्तावान सदस्य द्वारा अपने शरीर के जुए बिनवाकर उसे यही आश्वासन देता है कि मैं तुम्हारे समर्पण को स्वीकार करता हूं और तुम्हें अपने संरक्षण में लेता हूं और तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा। इससे दोनों को मनोवैज्ञानिक सकून मिलता है। सत्तावान सदस्य उस दूसरे सदस्य के प्रति निश्चिंत हो जाता है कि यह मेरे विरुद्ध उत्पात नहीं करेगा, और कम सत्तावान सदस्य को यह आश्वासन मिलता है कि मुझसे अधिक शक्तिशाली यह सदस्य अब मेरा उत्पीड़न नहीं करेगा।<br /><br />मित्रों में, अर्थात लगभग समान सामाजिक हैसियत वाले सदस्यों में, जुए बीनने की क्रिया उनके परस्पर संबंधों को और प्रगाढ़ बनाती है।<br /><br />इसलिए बंदरों में जुए बीनने की क्रिया समूह के अंदर के सबंधों को बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।<br /><br />अब आते हैं मनुष्यों के विषय पर। मनुष्य भी वानर कुल का ही सदस्य है, और वह भी समूहों में रहनेवाला प्राणी है। उसमें भी जुए बीनने की क्रिया से मिलता-जुलता व्यवहार है, जो है बतियाना।<br /><br />मनुष्यों में समस्या यह है कि उसके शरीर में बाल नहीं हैं, इसलिए उसे जुए, पिस्सू आदि जीव कम परेशान करते हैं। इसलिए जुए बीनने की क्रिया उसके संबंध में अर्थहीन है। पर हम सब जानते हैं कि हमारे समुदाय में भी एक सुस्पष्ट वरीयता क्रम देखी जाती है। चाहे आप परिवार को लें, या किसी दफ्तर के सदस्यों को, हमें वहां सब एक वरीयता क्रम दिखाई देगा। सबसे ज्यादा अधिकार परिवार के वरिष्ठ पुरुष सदस्य का, फिर उसकी पत्नी का, उसके बाद उनके सबसे वरिष्ठ पुत्र का, सबसे नीचे बच्चों और नौकर-चाकरों का। बच्चों में भी वरीयकता क्रम होता है, चाहे वह घर के बच्चे हों या मोहल्ले या स्कूल के बच्चे। नौकरों में भी यही बात है। दफ्तर में सबसे अधिक रसूख वाला व्यक्ति सीईओ होता है, उसके नीचे वरिष्ठ प्रबंधक, फिर कनिष्ठ प्रबंधक, फिर उनके सचिव आदि और सबसे कम रसूख वाला कर्मचारी चपरासी होता है जिस पर सब रौब जमाते हैं। सेना में तो यह बहुत ही औपचारितापूर्ण ढंग से लागू होता है।<br /><br />अनौपचारिक रूप से भी, जहां भी चार मनुष्य एकत्र हों, उनके बीच यह वरीयता क्रम निश्चित हो जाता है। लोग एक-दूसरे को नाप-तौलकर अपने बीच तय कर लेते हैं कि कौन किससे आगे है और इस क्रम का सभी व्यवहारों में पालन करते हैं। यह अल्प समय के लिए बने मानव समूहों में भी देखा जाता है, जैसे किसी रेल के डिब्बे में चंद घंटों के लिए एकत्र मुसाफिरों में।<br /><br />डेसमंड मोरिस (मैन वाचिंग, द नेकड एप, ह्यूमन ज़ू आदि पुस्तकों के लेखक) का कहना है कि इस वरीयता क्रम को बिना अनावश्यक लड़ाई-झगड़े के बनाए रखने के लिए मनुष्यों में जो तरीका है, वह है बतियाना। मनुष्य निरंतर बितियाता रहता है। दो मनुष्य मिले नहीं कि कोई न कोई बहाना ढूंढ़कर वे बातचीत शुरू कर देते हैं। डेसमंड मोरिस का कहना है कि यह वास्तव में दोनों में एक दूसरे को तौलने और वरीयता क्रम निश्चित करने की प्रक्रिया है। पुराने परिचित भी खूब बातचीत करते हैं। इनमें बातचीत का महत्व वरीयता क्रम निश्चित करने में नहीं है, क्योंकि वह पहले ही निश्चित हो चुका होता है, बल्कि उसे पुष्ट करने में होता है।<br /><br />बातचीत में संलग्न दोनों सदस्य एक दूसरे के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं, दोनों के बीच तनाव कम हो जाता है और समाज में सामरस्य बना रहता है।<br /><br />आम प्रवृत्ति अधिक बातचीत को हतोत्साहित करने की है। स्कूलों में, दफ्तरों में, सभी जगह यही कहा जाता है कि बातें कम करो, और काम करो, बातों में समय नष्ट मत करो, इत्यादि। पर यदि हम डेसमंड मोरिस की बात मानें, तो बातें करना तनाव मुक्ति और अनावश्यक रगड़-झगड़ घटाने का एक साधन है और यदि हमें मनुष्य समाज में शांति बनाए रखनी हो, तो हमें परस्पर खूब बातचीत करनी चाहिए।<br /><br />यदि हम हमारे व्यवहार पर थोड़ा गौर करें तो डेसमंड मोरिस की बात समझ में आती है। जब दो लोगों में मन-मुटाव होता है, तो इसका एक प्रमुख संकेत होता है उनमें बातचीत बंद हो जाना। दोनों मुंह फुलाएं एक दूसरे से कट्टी कर लेते हैं। बच्चों में तो यह खास तौर से देखा जाता है। और दोनों में मैत्री भाव की पुनर्स्थापना का पहला संकेत भी यही होता है कि वे दोनों बातें करने लग गए हैं। दोनों में मेल-मिलाप करानेवाले व्यक्ति भी सबसे पहले दोनों के बीच बातचीत शुरू कराने की ही कोशिश करते हैं। <br /><br />इस तरह हम देखते हैं कि बातचीत हमारे समुदाय में तनाव घटाने का और मैत्री भाव जताने का एक महत्वपूर्ण जरिया होता है। यदि दो लोगों में मनमुटाव हो तो उनमें बातचीत करा दीजिए और देखिए वे कैसे तुरंत फिर से मित्र बन जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति तनाव, मायूसी या चिंता से ग्रस्त हो, तो उससे खूब बातचीत कीजिए उसे तुरंत आराम मिल जाएगा। यदि आप स्वयं तनाव, मायूसी या चिंता से परेशान हों, तो अपने परिवार के जनों, मित्रों, पड़ोसियों और अन्य व्यक्तियों से खूब बात कीजिए, और देखिए आप कितनी जल्दी बेहतर महसूस करते हैं।<br /><br />मजे की बात यह है कि यह दो व्यक्तियों पर ही लागू नहीं होता, दो राष्ट्रों में भी यही बात देखी जाती है। विवाद की स्थिति में दोनों औपचारिक कूटनीतिक संबंधों को तोड़ लेते हैं। एक-दूसरे के देश से अपने राजदूतों को वापस बुला लेते हैं, और यदि इससे भी बात नहीं बनी तो, अपने दूतावासों को ही बंद कर लेते हैं। उसके बाद तो खुले युद्ध का ही रास्ता बचा रहता है।<br /><br />दूसरे देश जो इस लड़ाई से दुनिया को बचाना चाहते हैं, वे यही कोशिश करते हैं कि दोनों देशों में फिर से बातचीत शुरू हो जाए। भारत और पाकिस्तान, ईरान और अमरीका, रूस और अमरीका, चीन और जापान आदि के संदर्भ में यह बात और स्पष्ट हो जाएगी। मुंबई हत्याकांड के बाद भारत ने पाकिस्तान से सभी वर्ताएं बंद कर दी थीं और अमरीका निरंतर हम दोनों पर दबाव डाल रहा है कि ये वार्ताएं पुनः शुरू हो जाएं, ताकि युद्ध की नौबत न आए। जब दो व्यक्तियों या राष्ट्रों में बातचीत ही बंद हो जाए तो इसका मतलब यह होता है कि दोनों के बीच जो वरीयता क्रम पहले निश्चित था, वह अब मान्य नहीं रहा और उसे नए सिरे से निश्चित करना पड़ेगा। यह बातचीत से या युद्ध से हो सकता है। चूंकि युद्ध के भीषण परिणाम निकल सकते हैं, दूसरे देश युद्ध टालने के लिए दोनों के बीच बातचीत बहाल करने की ही कोशिश करते हैं।<br /><br />अब तो राष्ट्रों के बीच औपचारिक बातचीत को सुगम बनाने के लिए स्थायी व्यवस्थाएं भी बना दी गई हैं, यथा, लीग ओफ नेशेन्स (प्रथम महायुद्ध के बाद), संयुक्त राष्ट्र संघ (दूसरे महायुद्ध के बाद)। ये ऐसे मंच हैं जो कट्टी किए बैठे राष्ट्रों के बीच बातचीत पुनः शुरू कराने के अवसर देते हैं।<br /><br />इसी तरह संसद, विधान सभा, अदालत, आदि सब औपचारिक बातचीत द्वारा मैत्री स्थापित करने के तरीके हैं, जो सब बंदरों के जुए बीनने की गतिविधि के ही विकसित रूप हैं।<br /><br />दफ्तरों में जोइंट कंसलटेटिव मेकेनिज़म (जेसीएम) जिसमें प्रबंधक और कर्मचारी बातचीत के माध्यम से अपनी समस्याएं सुलटा लेते हैं, और हड़ताल, तोड़-फोड़, पुलिस कार्रावाई आदि की नौबत नहीं आने देते, भी ऐसी ही एक व्यवस्था।<br /><br />सामाजिक स्तर पर सत्संग, सामूहिक उपासना, प्रवचन आदि भी बातचीत द्वारा समाज में व्यवस्था स्थापित करने के विभिन्न उपाय हैं।<br /><br />सभी कलाओं की मूल प्रेरणा भी बातचीत करने की इस मूलभूत आवश्यकता ही है। मनुष्य केवल बोलकर ही नहीं बातचीत करता। वह इशारे से (नृत्य कला), लिखकर (साहित्य), गाकर (संगीत), चित्र बनाकर (चित्रकला), मूर्तियां बनाकर (मूर्तिकला), इमारतें बनाकर (स्थापत्यकला) भी अपने मन की बात व्यक्त करता है। ये सब कलाएं बातचीत करने की क्रिया के ही परिष्कृत रूप हैं, और उन सबका मूल मक्सद तनाव घटाना और मैत्रीभाव बढ़ाना है।<br /><br />अक्सर हम देखते हैं कि अत्यंत विषाद या दुख की स्थिति में हमारे मुंह से अपने आप ही गीत फूट निकलते हैं। वाल्मीकि ने रामयाण ऐसे ही लिखा था, जब सारस जोड़ी में से एक के बहेलिए द्वारा मार दिए जाने से उनका मन विषाद से भर गया था। वाल्मीकि ही नहीं, हम भी दुख की स्थिति में कोई न कोई गाना गुनगुनाते हैं। अक्सर लेखक, चित्रकार, कवि आदि भी अत्यंत दुख की स्थिति में ही अपनी कला का उच्चतम प्रदर्शन करते हैं। यह इसलिए क्योंकि यह उनके लिए दुख से मुक्ति पाने का एक जरिया होता है। कोई रचना करने के बाद वे दुख या तनाव से मुक्त हो जाते हैं।<br /><br />तो है न मानव निरीक्षण एक रोचक चीज। क्या आपने इससे पहले सोचा भी था कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युद्ध, साहित्य, चित्रकारी आदि गंभीर क्रियाकलापों का बंदरों द्वारा जुए बीनने की क्रिया से घनिष्ट संबंध है?<br />बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-8062745547450169782014-11-23T12:10:00.001+05:302014-11-24T17:43:45.227+05:30न संस्कृत न जर्मन, बल्कि तीसरी भारतीय भाषाअभी हाल में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने केंद्रीय विद्यालयों द्वारा जर्मन को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाए जाने को अवैध घोषित किया है। यह भी कहा जा रहा है कि मानव संसाधन मंत्री चाहती हैं कि जर्मन की जगह इन विद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाए। इसे लेकर शिक्षा जगत में माहौल काफी गरम हो उठा है।<p>
जर्मन समर्थकों का कहना है कि आधुनिक विश्व में जर्मन जैसी विदेशी भाषा सीखने से बच्चों का भविष्य उज्ज्वल होता है और उन्हें नौकरी मिलने की संभावना बढ़ती है। इसके विरुद्ध स्मृति ईरानी का कहना है कि केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन पढ़ाया जाना सरकारी नीति के विरुद्ध है और तीन-भाषा वाले सूत्र के मूल उद्देश्यों के प्रतिकूल है। पर विडंबना यह है कि जर्मन की जगह संस्कृत के अनिवार्य शिक्षण का प्रावधान करना भी इसी तीन-भाषा वाली शिक्षा नीति के मूल उद्देश्यों के विरुद्ध है।<p>
तीन-भाषा सूत्र का प्रस्ताव उस गतिरोध को तोड़ने के लिए किया गया था जिसके तहत हिंदी को सच्चे अर्थों में भारत की राज भाषा के रूप में स्वीकार करने में गैर-हिंदी प्रांतों को झिझक थी, और इसका फायदा लेकर अँग्रेज़ी भारत में अपना पैर दृढ़ता से जमाती जा रही थी। अहिंदी भाषियों को डर था कि यदि हिंदी को भारत की राज भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा, तो प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी भाषियों को गैर-हिंदी भाषियों पर नाज़ायज फायदा होगा। इस शिकायत का समाधान करने के विचार से ही तीन-भाषा सूत्र का प्रस्ताव किया गया था। उसके अनुसार अहिंदी प्रांतों में शिक्षण की भाषा स्थानीय भाषा रहेगी और हिंदी और अँग्रेज़ी को द्वीतीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाया जाएगा। और, हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षण की भाषा हिंदी रहेगी और अँग्रेज़ी और कोई अन्य भारतयी भाषा द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाएँगी।<p>
इस सूत्र के प्रवर्तकों को आशा थी कि इससे हिंदी भाषी क्षेत्रों में अन्य भारतीय भाषाओं का पठन-पाठन होगा और इससे तमिल, बंगाली, मलयालम, उड़िया असमी आदि भारतीय भाषाओं का सामान्य ज्ञान स्कूल छात्र हासिल करेंगे, जिससे आगे चलकर राष्ट्रीय एकता की भावना को बल मिलेगा। दूसरी ओर, अहिंदी क्षेत्रों में छात्र हिंदी सीखेंगे और आगे चलकर वे भी प्रतियोगी परीक्षाओं में उसी तरह आगे आ पाएँगे, जैसे हिंदी क्षेत्र के बच्चे।<p>
यह सूत्र सरसरी तौर पर निरापद लगता है, पर जब इसे कार्यान्वित किया गया, तो कुछ ही समय में उसे इस तरह विरूपित कर दिया गया कि इसे जारी करने का मूल उद्देश्य ही भुला दिया गया। हिंदी भाषी क्षेत्र में तीसरी भारतीय भाषा के रूप में सभी जगह तमिल, बंगला, मलायम, तेलुगु आदि की जगह संस्कृत सिखाई जाने लगी। संस्कृत का भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के साथ जितना भी गहरा संबंध क्यों न हो, आज की परिस्थिति में वह एक मृत भाषा है, और उसके शिक्षण से तीन भाषा सूत्र लाने का मूल उद्देश्य किसी भी तरह से पूरा नहीं होता है। गैर-हिंदी राज्यों में तीन-भाषा सूत्र ले-देकर कुछ हद तक उसके मूल उद्देश्यों के अनुसार कार्यान्वित किया गया, लेकिन वहाँ भी तमिल नाड की सरकार ने इसे अपनाने से इन्कार कर दिया और वहाँ स्कूली बच्चों को केवल तमिल और अँग्रेज़ी सिखाई जाने लगी।<p>
इस बीच इस तीन-भाषा वाली नीति को कमज़ोर करने का छिपा प्रयास केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी किया और उसने तीसरी भाषा के रूप में जर्मन का शिक्षण शुरू कर दिया। उसका तर्क यह था कि इससे देश को फायदा होगा क्योंकि भूगोलीकरण के जमाने में जर्मनी जैसी महत्वपूर्ण आर्थिक महाशक्ति की भाषा सीखने से न केवल बच्चों का भविष्य सुधरेगा, बल्कि देश का कल्याण भी होगा।<p>
इस तर्क में वज़न जितना भी हो, यह निर्विवाद है कि वह उक्त सरकारी नीति का खुला उल्लंघन है, क्योंकि तीन भाषा नीति का मुख्य उद्देश्य स्कूली बच्चों को देश की समृद्ध भाषाई विरासत से अवगत कराना और देश में एकता की भावना में वृद्धि करना था, न कि देश की आर्थिक उन्नति में योगदान करना। स्पष्ट ही तीसरी भाषा के रूप में जर्मन सिखाने से न तो बच्चों में देश की समृद्ध भाषाई विरासत से परिचय बढ़ता है न ही उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित होती है। इसलिए केंद्रीय विद्यालय संगठन का यह कदम निंदनीय है और उसे अवैध घोषित करके मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने ठीक ही किया है।<p>
पर जर्मन की जगह संस्कृत के शिक्षण के संबंध में यही बात नहीं कही जा सकती है। तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ाना तीन भाषा नीति की दृष्टि से लगभग उतना ही बेतुका है जितना जर्मन सिखाना। संस्कृत देश में कहीं भी बोली नहीं जाती है। इसलिए उसके शिक्षण से बच्चों द्वारा देश की समृद्ध भाषाई संस्कृति से परिचित होने का सवाल ही नहीं उठता। इतना ही नहीं, उससे राष्ट्रीय एकीकरण को भी बढ़ावा नहीं मिलता। यदि संस्कृत की जगह हिंदी भाषी क्षेत्रों में बच्चे तमिल, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, कश्मीरी, आदि भाषाएँ सीखते, तो वे हमारे देश की समृद्ध भाषाई और साहित्यिक विरासत से कितनी अच्छी तरह से परिचित हो जाते।<p>
इसलिए मानव संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय विद्यालयों से जर्मन हटाने के बाद स्कूली बच्चों पर संस्कृत थोपने की जगह, तीन भाषा सूत्र को सलीके से लागू करने की व्यवस्था करनी चाहिए। यानी, उसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत सहित देश की सभी अन्य भाषाओं के शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।<p>
आजकल हर देश के लिए यह आवश्यक है कि वह विश्व के सभी प्रमुख भाषाओं के पठन-पाठन की व्यवस्था करे। भारत के लिए भी यह आवश्यक है। भारत में भी चीनी, जापानी, फारसी, अफगान, सिंहला, अरबी, स्पेनी, पुर्तगाली, फ्रेंच, जर्मन, आदि भाषाओं का शिक्षण होना चाहिए। पर यह सब स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग नहीं हो सकता है। स्कूली शिक्षण के अनेक उद्देश्य होते हैं, जिनमें से प्रमुख हैं राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित करना, वैज्ञानिक सोच विकसित करना, और व्यावहारिक और आर्थिक महत्व के विषय पढ़ाना। मातृ भाषा, हिंदी, अँग्रेज़ी, कोई अन्य भारतीय भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, आदि विषय सभी को पढ़ना चाहिए। कुछ छात्र आगे चलकर इनमें से कुछ विषयों को अधिक गहनता से और पेशेवरीय स्तर पर पढ़ सकते हैं। कुछ छात्र देश-विदेश की अन्य भाषाएँ भी अतिरिक्त रूप से पढ़ सकते हैं। पर अनिवार्य शिक्षण का अंग यह नहीं हो सकता है। स्कूलों में तथा स्कूली बच्चों के पास सीमित समय ही होता है। उस समय में कुछ सीमित चीज़ें ही पढ़ाई जा सकती हैं। इन चीज़ों को हमें काफी सोच-समझकर तय करना होगा। यहाँ किसी खास वर्ग की विशिष्ट ज़रूरतों को सब पर थोपने के लिए कोई गुँजाइश नहीं है। इन खास वर्गों के लिए निजी स्कूलों का मार्ग खुला है। सरकारी पैसों से चलनेवाले केंद्रीय विद्यालयों में तथा आम शिक्षण में सर्वहित ही एकमात्र कसौटी होनी चाहिए। सर्वहित न तो संस्कृत के शिक्षण में है न जर्मन के शिक्षण में, बल्कि वह तीन भाषा सूत्र को ईमानदारी से और कुशलता से देश-भर में कार्यान्वित करने में है।
बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-52048486282201084652013-12-22T22:29:00.000+05:302013-12-23T06:28:13.015+05:30देवयानी प्रकरण पर मेरे विचारभारतीय दूतावास की कर्मचारी देवयानी को अमरीका में अपनी नौकरानी को कम वेतन दिए जाने के लिए गिरफ़्तार करना और उनके साथ अपमानजनक बर्ताव करना सभी भारतीयों के खून को खौलानेवाला प्रकरण है। देवयानी को अपने ही बच्चों के सामने हथकड़ियों में जकड़कर सरे आम ले जाया गया और जेल में उनके साथ बहुत ही कुत्सित बर्ताव किया गया, उसी तरह का बर्ताव जैसे हत्यारों, नशाखोरों, बलात्कारियों आदि के साथ किया जाता है – पुलिसकर्मियों ने देवयानी को नंगा करके, उनके शारीरिक द्वारों में (योनी, मुँह, गुदा, आदि) में उँगली या अन्य चीजें डालकर जाँच की (कैविटी सर्च), यह मालूम करने के लिए कि उन्होंने वहाँ कोई हथियार या नशीली दवा तो नहीं छिपा रखी है। अमरीका में संगीन जुर्मों के कैदियों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जाता है। पर देवयानी तो कोई संगीन जुर्म के लिए पकड़ी गई कैदी नहीं थीं, और तो और वे एक स्वाधीन राष्ट्र के दूतावास की कर्मचारी थीं, जिसके साथ अमरीका के दोस्ताना संबंध थे, तथा एक स्वतंत्र देश के दूतावास के कर्मी होने के कारण उन्हें अमरीका के क़ानूनों से एक प्रकार का अभयदान मिला हुआ था। पर इन सब बातों को दरकिनार करके देवयानी के साथ बदसलूकी की गई।<p><p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-nGvkTYsoRHs/UreHsxV3P8I/AAAAAAAAAuo/OuGxbe9PirQ/s1600/India_Diplomat_devyani_AP_360.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-nGvkTYsoRHs/UreHsxV3P8I/AAAAAAAAAuo/OuGxbe9PirQ/s320/India_Diplomat_devyani_AP_360.jpg" /><FIGCAPTION>भारतीय दूत देवयानी जिसके साथ अमरीका ने बदसलूकी की।</FIGCAPTION></a></div>
अब सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हुआ। मुझे लगता है कि इसके पीछे अनेक कारण हैं। पहला कारण देवयानी को गिरफ़्तार करनेवाले भारतीय मूल के व्यक्ति प्रीत भरारा के व्यक्तित्व से जुड़ा है। यह व्यक्ति शायद अमरीकियों को यह दिखाना चाहता है कि वह उनसे भी बढ़कर अमरीकी है, और इसे ज़ाहिर करने का इससे बढ़िया क्या तिकड़म हो सकता है कि वह अपने ही मूल देश के देशवासियों को अमरीकी क़ानूनों के फंदे में फँसाए। ऐसा करके वह शायद यह दिखाना चाहता है कि उसने अपनी भारतीयता की केंचुली पूरी तरह से उतार फेंक दी है, और वह संपूर्ण रूप से अमरीकी हो गया है। शायद उसके मन में राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी हो, और देवयानी के प्रति बदसलूकी करके उसे उम्मीद हो कि अमरीका के लोग उस पर उसकी भूरी चमड़ी के बावजूद अधिक भरोसा करने लगेंगे। या ऐसा भी हो सकता है कि वह अमरीकी में फल-फूल रहे भारत-विरोधी खेमों में से किसी के हाथों का कठपुतली बन गया हो, जो अमरीका में भारत को नीचा दिखाकर न जाने क्या उल्लू सीधा करना चाहते हैं – ये लोग नरेंद्र मोदी को विदेशों में बदनाम करने और उसे अमरीकी वीज़ा से वंचित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का पसीना एक किए हुए हैं और पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। अब जब ऐसा लग रहा है कि नरेंद्र मोदी अगले चुनाव के बाद भारत के प्रधान मंत्री के रूप में उभरकर आ सकता है, स्वयं इनके पसीने छूटने लगे हैं। शायद यह बरार ऐसी ही मनोवृत्तिवाला भारत-द्वेषी व्यक्ति हो।<p><p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><figure><a href="http://3.bp.blogspot.com/-PS7Ef33oS2U/UreI0oVbO7I/AAAAAAAAAu0/51-Zm0Xmbyc/s1600/Preet+Bharara.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-PS7Ef33oS2U/UreI0oVbO7I/AAAAAAAAAu0/51-Zm0Xmbyc/s320/Preet+Bharara.jpg" /><FIGCAPTION>भारतीय मूल का प्रीत भरारा।</FIGCAPTION></a></figure></div>
यह इस प्रकरण का एक संभव स्पष्टीकरण है। एक अन्य संभाव्यता यह है कि देवयानी की नौकरानी संगीता और उसके परिवार भारत में अमरीकियों के लिए जासूसी करने में लगे हुए थे और उन्हें बचाने के लिए ही देवयानी को बलि का बकरा बनाया गया है। देवयानी को अपनी नौकरानी को कम वेतन देने के ज़ुर्म में फँसाकर, अमरीका ने संगीता, उसके पति तथा परिवार के अन्य सदस्यों को रातों-रात अपने देश में शरण दे दी है। अब हर कोई जानता है कि अमरीका में एक आम भारतीय को शरण तो दूर प्रवेश करने तक का वीज़ा मिलना कितना कठिन काम है। पर संगीता और उसके परिवार को, जो मात्र एक नौकरानी है, अमरीका ने सपरिवार वीज़ा देकर अपने देश में सुखपूर्वक बसाया है। ज्ञातव्य रहे कि संगीता के पिता भारत में अमरीकी दूतावास में बरसों से काम करते आ रहे हैं। निश्चय ही इस दौरान उन्होंने अनेक अमरीकियों से घनिष्ट संबंध बना लिए होंगे, जो संगीता के इस समय काम आए। शायद वे अमरीकियों के लिए कोई अन्य महत्वपूर्ण सेवा भी प्रदान करते रहे होंगे, जिसके प्रति कृतज्ञता जताते हुए उन्होंने संगीता को सपरिवार अपने देश में उठा ले जाने जैसा विलक्षण कार्य किया। स्पष्ट ही यह काम अमरीकियों के लिए अति महत्वपूर्ण रहा होगा, वरना वे ऐसा क्यों करते। जासूसी ही ऐसा काम मुझे प्रतीत हो रहा है जिसकी अमरीकी इतनी अधिक कीमत आँकते। अब सवाल यह उठता है कि संगीता के परिवार ने अमरीकियों को क्या-क्या गुप्त बातें बताई हैं और यह जानकारी भारत के लिए कितना अधिक नुकसानदेह साबित हो सकती है। इसका तो आनेवाले दिनों में ही खुलासा हो सकता है, और इसकी संभावना भी कम ही है, क्योंकि जासूसी से संबंधित अनेक बातें कभी उजागर होती ही नहीं हैं।<p><p>
एक अन्य संभाव्यता यह है कि अमरीका इस प्रकरण के जरिए भारत को किसी अन्य चीज़ के लिए सज़ा दे रहा है। अभी हाल में हमारे रक्षा मंत्री ए के ऐंटनी ने एक बहुत ही महँगे रक्षा निवादा से अमरीकियों का पत्ता काट दिया था। इसी तरह से कुछ अन्य मामलों में भी अमरीकी उद्योगों के प्रस्तावों के स्थान पर अन्य देशों के प्रस्तावों को चुना गया था। इससे अमरीकी उद्योग ताव में आ गया है, और वह भारत को सबक सिखाने के मौके की तलाश कर रहा है। शायद उसने प्रीत बरार के माध्यम से जाल बिछाकर देवयानी को उसमें फँसाकर भारत के विरुद्ध प्रतिघात किया हो।<p><p>
इसके पीछे आर्थिक कारण भी हैं। पहले भारत की अर्थव्यवस्था चीन की अर्थव्यवस्था जितनी ही चुस्त-दुरुस्त थी और तेज़ी से विकसित हो रही थी। पर पिछले कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की हवा निकल गई है, वह चीन की बराबरी तो दूर विश्व के दोयम दर्जे के देशों से भी पीछे हो गया है। अमरीका मुख्य रूप से पूँजीवादी देश है और उसकी बागडोर वहाँ के बड़े-बड़े धन्नासेठों के हाथों में ही रहती है। इन्हें अब भारत उतना आकर्षक नहीं लग रहा है, और इसलिए भारत के प्रति सम्मान दर्शाना भी वे अब आवश्यक नहीं मान रहे हैं। इसीलिए भारत के दूतावास के कर्मी के प्रति अमरीका ने ऐसा अवहेलनापूर्ण व्यवहार किया है जैसा वह अफ्रीका के ग़रीबों और कम महत्वपूर्ण देशों के दूतों के साथ भी नहीं करता है।<p><p>
इस सारे काँड में सबसे अखरनेवाली बात यह है कि देवयानी को प्रताड़ित करनेवाला व्यक्ति एक पूर्व-भारतीय है। हम विदेशों में रह रहे अपने देश के लोगों पर उचित ही गर्व करते हैं और उनकी उपलब्धियों को अपनी ही उपलब्धियाँ मानते हैं, भले ही इन लोगों ने दूसरे देशों की नागरिकता स्वीकार कर ली हो। हम यही विश्वास करते हैं कि ऐसा उन्होंने मजबूरी में किया है, और वे दिल से अब भी भारतीय हैं और सदा भारतीय ही रहेंगे। अब इस प्रीत बरार ने सिद्ध कर दिया है कि हमारी यह धारणा कितनी मासूम और अवास्तविक है। इस आदमी के बर्ताव से भारत के प्रति अंशमात्र भी सम्मान या प्रेम नहीं झलक रहा है। वह तो भारत को अनादर करने पर तुला हुआ सा प्रतीत हो रहा है। और यही बात हम भारतीयों को समझ में नहीं आ रही है, कि कैसे भारतीय मूल का कोई व्यक्ति इस कदर राह भटक सकता है, कि वह अपने ही वतन की छाती पर वार कर बैठे।<p><p>
इससे हमें सबक भी लेनी चाहिए, और वह यह है कि विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों को भारत के साथ जोड़े रखने के लिए हमें और मेहनत करनी होगी। आज स्थिति यह है कि एक-दो पीढ़ी में वे भारत से इतने कट जाते हैं कि उनमें से कई प्रीत बरार के ही अन्य संस्करण बन जाते हैं। उनका भारत के साथ नाता उनकी भूरी चमड़ी और नाक-नक्शे तक ही सीमित रह जाता है। दिल और दिमाग से वे भारतीयता से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। यह भारत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। क्योंकि भारतीयता की अवधारणा भारत की राजनीतिकि सीमाओं तक सीमति नहीं है, बल्कि वह एक विश्वव्यापी चीज़ है। भारत से निकला व्यक्ति चाहे कहीं भी जाए और चाहे जिस देश का भी नागरिक हो जाए, वह भारत के लिए मूल्यवान है, और भारत को और भारतवासियों को उसे भारत के साथ जोड़े रखने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास राज्य के स्तर पर और सामाजिक संगठनों के स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर हमें करना होगा। राज्य के स्तर पर उन्हें दुहरी नागरिकता देना और भारत में उन्हें अन्य विदेशियों की तुलना में अधिक सहूलियतें देना जैसे कार्य शामिल हैं। सामाजिक स्तर पर यहाँ के धार्मिक संगठनों तथा कला-आदि से संबंधित संगठनों को उन्हें अपनी भारतीयता बरकार रखने में मदद करनी चाहिए। यह काम सबसे अच्छा हिंदी फिल्में कर रही हैं, पर समाज के अन्य स्तरों पर भी यह होना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम इसमें मदद कर सकते हैं।<p><p>
भारतीयता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी, से इन प्रवासी भारतीयों का संबंध है। यह भाषाई सेतु उन्हें धर्म, साहित्य, फ़िल्म, संगीत आदि भारतीयता के अन्य पहलुओं से जोड़े रखता है। और यही भाषाई सेतु प्रवासी भारतीयों के लिए सबसे पहले टूटती है, विशेषकर उन प्रवासी भारतीयों के लिए जो अँग्रेज़ी बोलनेवाले देशों में बसते हैं। वे एक-दो पीढ़ी में ही अपनी मूल भाषा और हिंदी को भूल जाते हैं, और अँग्रेज़ी ही उनकी एकमात्र भाषा रह जाती है। और भाषा का यह संबंध खत्म होते ही, धर्म, साहित्य, कला, संगीत आदि के साथ उनका नाता भी टूट जाता है।<p><p>
इसलिए मेरी दृष्टि में, विदेशों में बसे भारतीयों में भारत के प्रति सहानुभित बनाए रखने के लिए हमें उनकी भाषाई सेतु, और विशेषकर हिंदी के साथ उनके संबंध, को बनाए रखने की ओर खास ध्यान देना चाहिए।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-87776505636877874492013-09-27T23:10:00.000+05:302013-12-23T06:31:02.205+05:30लंचबॉक्स जैसी एक मलयालम फ़िल्म भी है<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-8m0VQs_3ykY/UkXBZKPLkiI/AAAAAAAAAog/sZWYwA-g298/s1600/MV5BMjM2ODkxMzA5NV5BMl5BanBnXkFtZTgwOTYwOTYxMDE@._V1_SY317_CR175,0,214,317_.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-8m0VQs_3ykY/UkXBZKPLkiI/AAAAAAAAAog/sZWYwA-g298/s400/MV5BMjM2ODkxMzA5NV5BMl5BanBnXkFtZTgwOTYwOTYxMDE@._V1_SY317_CR175,0,214,317_.jpg" /></a></div>
लंचबॉक्स फ़िल्म आजकल काफी चर्चे में है। इसके ऑस्कार के लिए नामित किए जाने तक की बात चल पड़ी थी, पर आखिरी वक्त पर किसी दूसरी फ़िल्म को भारत की ओर से ऑस्कार का प्रतिनिधि चुना गया। <p><p> हिंदी में लंचबॉक्स भोजन को लेकर बनी इनी-गिनी फ़िल्मों में से एक है, इससे पहले, अमिताभ बच्चन और तब्बू वाली चीनी कम, और लव शव चिकन खुराना फ़िल्म काफी चली थी, जिसमें भी कहानी स्वादिष्ट भोजन के इर्द-गिर्द घूमती है। चीनी कम और लव शव चिकन खुराना एक संपूर्ण बॉलीवुड फ़िल्म हैं, नाच-गाने से भरूपर सफल व्यावसायिक रोमैटिंक कॉमेडी। लंचबॉक्स की विधा डॉक्यूमेंटरी के अधिक निकट जा पड़ी है, वह आर्ट फ़िल्म के खेमे में मानी जाएगी। लंचबॉक्स बॉलीवुड शैली की फ़िल्म नहीं है। फिर भी लंचबॉक्स एक सुंदर फ़िल्म है, जिसमें सभी अदाकारों ने उम्दा अभिनय किया है, चाहे वह ईरफ़ान खान हो, या नवासुद्दीन सिद्दीक़ी, या निम्रत कौर। <p><p> यह फ़िल्म आधी हिंदी में और आधी अँग्रेज़ी में है – इरफ़ान खान के सभी पत्र अँग्रेजी में हैं और उन्हें फ़िल्म में अँग्रेजी में ही पढ़कर सुनाया जाता है। इस कारण से केवल हिंदी जाननेवालों को लगभग आधी फ़िल्म समझ में नहीं आएगी। फ़िल्म का केंद्रीय हिस्सा लंचबॉक्स के ज़रिए निम्रत कौर और इरफ़ान खान के बीच पत्रों के विनिमय से जुड़ा है, यह इस फ़िल्म की एक मुख्य खामी है। पर शायद इस फ़िल्म को भारतीय दर्शकों के लिए नहीं बल्कि विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है, या यों कह लीजिए, उच्च वर्ग के भारतीयों या विदेशों में बसे भारतीयों के लिए बनाया गया है, जो इतनी अँग्रेज़ी जानते हैं कि फ़िल्म के इन हिस्सों को समझ सकें। इस कारण से यह फ़िल्म देश के शहरी हिस्सों में ही चल सकेगी। गाँवों में जहाँ लोग अँग्रेज़ी से वाकिफ़ नहीं होते हैं, इसे समझ नहीं पाएँगे।<p><p>फ़िल्म का माहौल मुंबई पर टिका है – विशेषकर डिब्बेवालों और लोकल ट्रेनों पर। यह भी थोड़ा कृत्रिम लगता है, और ऐसा लगता है कि डिब्बेवालों की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति को भुनाने का प्रयत्न किया गया है। डिब्बेवालों का ट्रेन में बैठे तुकाराम के गीत गानेवाला अंश जो बारबार फ़िल्म में दिखाया गया है, मुझे काफ़ी अस्वाभाविक लगा।<p><p> फ़िल्म की कुछ अन्य बातें में भी खटकती हैं, जैसे इरफ़ान का सड़क में क्रिकेट खेल रहे बच्चों के साथ अँग्रेज़ी में बात करना, जबकि वे हिंदी अच्छी तरह जानते हैं और दफ़्तर में नवासुद्दीन आदि के साथ बड़ी अच्छी हिंदी बोलते हैं। भले ही इरफ़ान का किरदार एक ईसाई व्यक्ति का है, फिर भी कोई भी सड़क पर खेल रहे बच्चों के साथ अँग्रेज़ी में नहीं बात करेगा। यदि इरफ़ान अँग्रेज़ी में बच्चों को डाँटते, और बच्चे हिंदी में उन्हें अपनी सफ़ाई देते, तो यह फिर भी अधिक स्वाभाविक लगता, क्योंकि उस उम्र के और उस आर्थिक वर्ग के बच्चे अँग्रेज़ी नहीं बोलते हैं, हिंदी ही बोलते हैं। फ़िल्म के निर्माताओं/निदेशकों द्वारा यह दर्शाना कि ईसाई लोगों की ज़ुबान अँग्रेज़ी है, वास्तविकता से कोसों दूर है। भारत के ईसाई भारत की ही विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं। यहाँ भी फ़िल्म के निर्माताओं/निदेशकों की नज़र विदेशी दर्शकों पर रही है।<p><p>पर फ़िल्म की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि यह अचानक समाप्त हो जाती है। इसे यथार्थता कहा जा सकता है, पर इससे फ़िल्म एक डोक्यूमेंटरी जैसे लगती है – डिब्बेवालों पर बनी डोक्यूमेंटरी।<p><p>
अब रही फ़िल्म की मुख्य कहानी की बात, यह भी कुछ मौलिक नहीं है। इसी तरह की एक फ़िल्म मलयालम में कुछ वर्ष पहले बन चुकी है, और यह फ़िल्म भी इतनी ही सुंदर और लोकप्रिय हुई थी, पर मलयालम जगत में। हिंदी वालों ने शायद ही उसके बारे में सुना होगा। यह फ़िल्म है <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Salt_N%27_Pepper">सॉल्ट एंड पेप्पर</a>।<p><p>सॉल्ट एंड पेप्पर (नमक और काली मिर्च) अनेक दृष्टियों से लंचबॉक्स से कहीं श्रेष्ठ फ़िल्म है। इसमें भी कहानी भोजन पर (दक्षिण भारतीय भोजन) पर आधारित है और यहाँ भी किसी को भेजा गया संदेश किसी और को पहुँच जाता है। इस फ़िल्म में टेलिफ़ोन के क्रॉस कनेक्शन से ऐसा होता है। एक विज्ञापन कंपनी में काम कर रही स्त्री एक होटल से ढोसा मँगाती है, और होटल को निर्देश देती है कि ढोसा किस तरह से बनाकर लाना है। पर यह फ़ोन होटल को न जाकर एक पुरातत्ववेत्ता को पहुँचता है जो किसी सुनसान पुरातत्व स्थल में अपने रसोइए द्वारा बनाए गए नीरस भोजन से तंग आ चुका है। जब उसे भोजन के संबंध में यह लार-टपकानेवाला फ़ोन कॉल आता है, तो वह पहले तो झुँझला उठता है, पर फिर चुपचाप सुनता जाता है। आगे के दिनों में यह क्रॉस कनेक्शन बारबार होता है और चूँकि यह पुरातत्ववेत्ता भी महा भोजन-भट्ट है, दोनों में धीरे-धीरे दोस्ती होती जाती है, जो मुख्य रूप से दोनों का भोजन पर रुचि होने पर आधारित होती है।<br />
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<a href="http://2.bp.blogspot.com/-EdkmBBYp-PQ/UkXBwc2AUWI/AAAAAAAAAoo/wK52V9LG3aM/s1600/salt_n_pepper_ver6_xlg.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-EdkmBBYp-PQ/UkXBwc2AUWI/AAAAAAAAAoo/wK52V9LG3aM/s400/salt_n_pepper_ver6_xlg.jpg" /></a></div><p><p>जिस तरह लंचबॉक्स में नवासुद्दीन सिद्दकी की भूमिका इरफ़ान के शागिर्द की है, वैसे ही सॉल्ट एंड पेप्पर में भी पुरातत्ववेत्ता के एक साइड-किक (शागिर्द) के रूप में उसका एक भाँजा उसके साथ रहने आता है (यह भूमिका मलयालम फ़िल्म जगत के उभरते सुपरस्टार आसिफ़ अली ने बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया है)। आसिफ़ अली नौकरी की तलाश में बैठे एमबीए की पढ़ाई पूरी कर चुके छात्र की भूमिका निभाता है, जो नौकरी लगने तक कुछ समय अपने मामा के साथ बिताने आया है।<p><p> लंचबॉक्स में निम्रत कौर की एक अधेड़ उम्र की पड़ोसिन है जिसकी केवल आवाज़ सुनाई देती है। इससे मिलती-जुलती एक भूमिका सॉल्ट एंड पेपर में भी है। यह है होटल से ढोसा मँगानेवाली स्त्री की सहकर्मी।<p><p>जब ढोसा वाली स्त्री और पुरातत्ववेत्ता में दोस्ती बढ़ती जाती है, दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार के अंकुर भी फूटने लगते हैं। दोनों शादी करने की सामान्य उम्र पार चुके हैं, और उन्हें आशा बँधती है कि शायद यह उनके लिए आखिरी मौका है। पर दोनों को ही अपने ऊपर विश्वास नहीं है। पुरातत्ववेत्ता को लगता है कि वह बूढ़ा और कुरूप है, और जब फ़ोन वाली स्त्री उसे आमने-सामने देखेगी तो उसका मोह-भंग हो जाएगा। स्त्री का भी यही ख्याल है। इसलिए जब दोनों एक-दूसरे से मिलने का निश्चय करते हैं, तो पुरात्ववेत्ता आसिफ़ अली को उसकी जगह भेजता है, और फ़ोन वाली स्त्री अपनी सहकर्मी को, जो उम्र में उससे बहुत छोटी है। दोनों अपने-अपने प्रतिनिधि को निर्देश देते हैं कि जाकर देख आओ कि वह कैसा/कैसी है। जब फ़ोनवाली स्त्री की सहेली आसिफ़ अली को देखती है, तो उसे लगता है कि इतनी कम उम्र का लड़का उसकी सहली का जीवन-साथी नहीं बन सकता है, और असिफ़ अली को भी फ़ोनवाली स्त्री की सहेली को देखकर यही बात लगती है। दोनों जाकर बता देते हैं यह रिश्ता महज हवाई कल्पना है और यह दोनों के लिए बिलकुल बेमेल है। इतना ही नहीं, कहानी में ट्विस्ट के रूप में असिफ़ अली को फ़ोनवाली स्त्री की सहेली से प्यार भी हो जाता है। और पुरातत्ववेत्ता को लगता है कि असिफ़ अली ने इसी कारण उससे झूठ बोला है कि फ़ोनवाली स्त्री के साथ उसका संबंध बेमेल साबित होगा। इससे जो ईर्ष्या, जलन, झगड़े आदि होते हैं, उसको लेकर फ़िल्म काफी उलझ जाती है।<p><p> पुरतत्ववेत्ता को अब अपने काम में ज़रा भी मज़ा नहीं आता है और उसकी झुँझलाहट और भी अधिक बढ़ जाती है। वह अपने रसोइए से भी लड़ पड़ता है, जिसके साथ वह बचपन से ही रहता आ रहा है। यही हाल फ़ोनवाली लड़की का भी होता है, वह भी जीने की इच्छा खो बैठती है।<p><p> फ़िल्म का अंत हैपी ऐंडिंग में होता है, और दोनों एक-दूसरे से मिलते ही नहीं, बल्की एक-दूसरे से विवाह भी कर लेते हैं। यह कहना मुश्किल है कि लंचबॉक्स की कहानी इस मलयालम फ़िल्म से चुराई गई है या नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि दोनों ही फ़िल्मों की मूल-प्रेरणा किसी अन्य जगह से आई हो। जो भी हो, लंचबॉक्स और सॉल्ट एंड पेप्पर में इतनी अधिक समानताएँ है कि वे इन दोनों फ़िल्मों को देखनेवालों को बरबस आकर्षित करती हैं। मुझे स्वयं लंचबॉक्स से अधिक सॉल्ट एंड पेप्पर पसंद आई। वह एक संपूर्ण फ़िल्म की तरह लगती है, यानी उसमें कहानी एक मुकाम तक पहुँचती है, और लंचबॉक्स की तरह अधर में लटकी हुई नहीं रहती है।<p><p>
सॉल्ट एंड पेप्पर संपूर्ण रूप से एक व्यावसायिक – और सफल – फ़िल्म है, जबकि लंचबॉक्स फ़िल्म फ़ेस्टिवलों, विदेशी दर्शकों और ऑस्कार जैसे पुरस्कारों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। वह भारतीय दर्शकों के साथ सही गोट नहीं बैठा पाती है। तकनीकी दृष्टि से लंचबॉक्स त्रुटि-रहित फ़िल्म हो सकती है, पर यह भारतीय फ़िल्मों के रसिकों को रुचती नहीं है। यही इस फ़िल्म की कमी है।<p><p> आपमें से जिन लोगों ने लंचबॉक्स और मलयालम की सॉल्ट एंड पेप्पर फ़िल्म दोनों देखी हों, वे बताएँ कि क्या उन्हें भी इन दोनों फ़िल्मों की समानताएँ देखकर आश्चर्य हुआ था।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-34287752236561489312013-03-25T08:12:00.000+05:302013-03-25T08:54:05.977+05:30टाइम्स ऑफ़ इंडिया का दकियानूसी उर्दू प्रेमसंजय दत्त को पाँच साल की जेल सज़ा होने की ख़बर आते ही अख़बारों में इसी की चर्चा छायी रही। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में भी यही बात थी। उसमें छपी एक ख़बर ने विशेषरूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया और मैं सोचने के लिए मजबूर हुआ कि यह अख़बर इस तरह का घिनौना काम क्यों कर रहा है।<p>
यह ख़बर थी, उर्दू अख़बारों में संजय दत्त के मामले में क्या कहा गया है इसकी समीक्षा। अब टाइम्स ऑफ़ इंडिया आए दिन तो उर्दू अख़बारों में क्या छपा है इसकी समीक्षा प्रकाशित नहीं करता है न ही अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर उर्दू अख़बारों को याद करता है – उदाहरण के लिए लगभग इसी समय इतालवी कमांडो को इटली से वापस न भेजने का इटली की संसद का निर्णय भी एक मुख्य सुर्खी रही थी, पर टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने इस मुद्दे पर उर्दू अख़बारों की राय की तलब नहीं की।
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-a9tG9qMpxvE/UU-22E06BjI/AAAAAAAAAkI/J9d6Bev2Ltw/s1600/sdutt.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://4.bp.blogspot.com/-a9tG9qMpxvE/UU-22E06BjI/AAAAAAAAAkI/J9d6Bev2Ltw/s320/sdutt.jpg" width="219" /></a></div>
थोड़ा सोचने पर विदित होता है कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया उर्दू अख़बारों का उन्हीं संदर्भों में उल्लेख करता है जिनका संबंध मुसलमानों से होता है। संजय दत्त मामले का संबंध मुंबई में आतंकवादियों द्वारा बम विस्फोट कराए जाने से है, और यह बम विस्फोट इससे पहले बाबरी मसजिद के ढहाए जाने के बाद हुए दंगों में सैकड़ों मुसलमानों को शिव सेना आदि हिंदुत्व पार्टियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए जाने के बदले में कराए गए थे। इस तरह संजय दत्त मामले का सीधा संबंध मुसलमानों से है। इसीलिए टाइम्स ऑफ़ इंडिया इस मामले के बारे में उर्दू अख़बारों के विचारों की समीक्षा करता है। इससे पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अफ़सल गुरु को फाँसी दिए जाने के बाद भी इस संबंध में उर्दू अख़बारों में छपे लेखों की समीक्षा छापी थी। <p><p>
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की यह करतूत कितनी राष्ट्रविरोधी और घातक है यह उन सभी को मालूम होगा जो यह जानते हैं कि उर्दू मात्र मुसलमानों की भाषा नहीं है बल्कि वह उत्तर और दक्षिण भारत (जहाँ उर्दू साहित्य का उद्भव और प्ररंभिक विकास हुआ था) के शिष्टजनों की भाषा है, जिनमें हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, दलित आदि सभी शामिल हैं। उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित करना अंग्रेजों की बाँटो और राज करो कूटनीति का अंग था, जो भयानक रूप से सफल हुआ और मानव इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को जन्म दे बैठा और देश को दो (और बाद में तीन) टुकड़ों में बाँट बैठा, और यह नरसंहार अब भी थमा नहीं है – पाकिस्तान में जो नरमेध मचा हुआ है वह इसका सबूत है।<p>
तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा उर्दू अख़बारों की तलब केवल मुसलमानों से संबंधित विषयों में करना अंग्रेज़ों की इसी बाँटो और राज करो वाली घातक नीति को तूल देना है और उर्दू को मात्र मुसलमानों के साथ जोड़कर उसकी असमय मृत्यु के लिए रास्ता साफ करना है। आज यदि इस देश में उर्दू की हालत खस्ता है, तो इसका मुख्य कारण उसे मुसलमानों की भाषा समझना और देश-विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना है। जिस भाषा का संबंध देश विभाजन से हो और पाकिस्तान जैसे शत्रुतापूर्ण देश से संबंधित हो, उसे देशवासियों के दिलों में कैस स्थान मिल सकता था। पर यह निष्कर्ष एक ग़लत प्रचार पर आधारित है। उर्दू न तो मात्र मुसलमानों की भाषा है न ही वह किसी ग़ैर-भारतीय उपज है। वह इस देश में पैदा हुई नवीनतम भाषा है जिसमें गज़ब की अभिव्यक्ति शक्ति है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह इस देश की सबसे लोक-प्रिय और आम भाषा है, और यह हिंदी का ही एक परिष्कृत रूप है। जिस तरह हनुमान शाप-वश अपनी ही ताकत़ भूल गए थे, उसी तरह हिंदी भी अंग्रेजों की बाँटो और राज करो कूटनीति के शाप के प्रभाव से अपने ही परिष्कृत रूप उर्दू को भूल ही नहीं गई है बल्कि उसे अपना शत्रु मानने लगी है, यद्यपि कई जांबवानों ने हिंदी को अपने भूले-बिसरे रूप उर्दू की याद दिलाई है – डा. रामविलास शर्मा ने कई दशक पहले यह काम किया था, और अब न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू यह काम कर रहे हैं। आइए, इसे समझें कि हिंदी और ऊर्दू को, जो एक भाषा हैं, अलग क्यों और कैसे किया गया।<p>
1857 के संग्राम में हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लड़े थे और उनका लगभग इस देश से खात्मा कर दिया था। यदि पंजाब, नेपाल आदि कुछ रियासत अंग्रेजों की फ़ौजी मदद न करते और दक्षिण के रियासत इस संग्राम में शामिल हो गए होते तो अंग्रेजों का बोरिया-बिस्तर तभी बंध चुका होता और आज भारत का इतिहास, और विश्व का इतिहास भी, कुछ और ही हुआ होता। पर इस संग्राम को दबाने में अंग्रेज सफल हुए और वे समझ गए कि इस देश पर अपनी हुकूमत कायम रखनी हो, तो यहाँ के लोगों को विभिन्न परस्पर वैमनस्यपूर्ण गुटों में तोड़ना होगा। इनमें से प्रमुख गुट हिंदुओं और मुसलमानों के थे। इनमें दरार डालने की कूटनीति अंग्रेजों ने बड़े ही संगठित तरीके से शुरू कर दी। इस कूटनीति की आधारशिला भारतीय जनता की उस समय की साझी भाषा हिंदुस्तानी को दो अलग-अलग भाषाओं में विभाजित करना थी। अंग्रेज जानते थे कि कौमी एकता का एक प्रमुख खंभा भाषा होता है और भाषा को बाँटते ही कौम भी बँट जाता है।<p>
इस नीति के तहत फोर्ट विलयम में स्थापित भाषा कोलेज में भाषाविद गिलक्राइस्ट के नेतृत्व में हिंदी और उर्दू को अलग करने की साजिश को अंजाम दिया गया। गिलक्राइस्ट ने पंडित सदासुखलाल जैसे लेखकों की मदद से संस्कृत बहुल भाषा में कुछ पुस्तकें प्रकाशित करवाईं, और इसी प्रकार उर्दू-फारसी बहुल भाषा में और फारसी लिपि में कुछ अन्य किताबें छपवाईं और यह घोषित कर दिया कि हिंदी हिदुओं की भाषा है और उर्दू केवल मुसलमानों की। इसके अलावा अंग्रेजों ने अनगिनत मौलवियों और पंडितों को भी इस घातक धारणा को प्रचारित करने के काम में लगा दिया। कुछ ही दशकों में उनका यह प्रचार रंग लाने लगा और लोग हिंदी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएँ समझने लगे। इतना ही नहीं हिंदी को मात्र हिंदुओं की और उर्दू को मात्र मुसलमानों की भाषा मानने लगे। इसकी परिणति देश-विभाजन और देश के विभाजन से जुड़े भयानक नर-संहार में हुई।<p>
हिंदी-उर्दू अलग-अलग भाषाएँ हैं, यह बात कितनी बेबुनियाद है यह इस पर विचार करने से स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे प्रेमचंद हिंदी और उर्दू दोनों में ही लिखते थे। इसके अलावा मंटो, फिराक, राजिंदर सिंह बेदी, आदि अनेक उर्दू के लेखक मुसलमान नहीं हैं। आज भी यदि आप उत्तर प्रदेश या बिहार के देहाती इलाकों में चले जाएँ और लोगों की बातें सुनें, तो आप कह नहीं पाएँगे कि वे हिंदी बोल रहे हैं या उर्दू। उर्दू-हिंदी में केवल उच्च स्तरीय लेखन और लिपि में फ़र्क है, और इस फ़र्क को दूर करना कोई मुश्किल काम नहीं है। लिपि की समस्या कुछ हद तक आज कम होती जा रही है क्योंकि अब बहुत सी उर्दू रचनाएँ देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रही हैं और खूब बिक रही हैं क्योंकि देवनागरी लिपि में आने से वे हिंदी भाषियों को भी सुलभ हो जाती हैं।<p>
अब अंग्रेजों के यहाँ से गए साठ से अधिक वर्ष हो गए हैं और हममें से कई लोग इस बात को समझने लगे हैं कि अंग्रेजों ने हमें कैसे उल्लू बना दिया था। पर इन समझनेवाले लोगों में टाइम्स ऑफ़ इंडिया शामिल नहीं है। वह अब भी यह राग अलाप रहा है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और उर्दू अख़ाबार की राय उन्हीं विषयों में लेने की ज़रूरत है जिनका संबंध मुसलमानों से है। आश्चर्य की बात यह है कि यही अख़बार बड़े ज़ोर-शोर से अमन की आशा नाम का अभियान चला रहा है जिसका कथित उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बुद्धि जीवियों को निकट लाना है। पर इस अख़बार को यह मामूली बात भी अब तक समझ में नहीं आ सकी है कि भारत और पाकिस्तान को निकट लाने का सूत्र दोनों की भाषा में बनाई गई कृत्रिम दरारों को दूर करने में निहित है। भारत और पाकिस्तान को पास लाने का पहला सोपान हिंदी और उर्दू का एकीकरण है। और यह एकीकरण तब तक संभव नहीं है जब तक उर्दू को मात्र मुसलमानों की भाषा समझा जाता जाएगा। उर्दू समस्त भारत की उपज है। वह हिंदुओं और मुसलमानों, सिक्खों और अन्य समुदायों की साझी विरासत है। उसमें भाषाई नज़ाकत चरम स्थिति तक पहुँचा दी गई है और इस भाषा में गज़ब की अभिव्यक्ति शक्ति है। इस अभिव्यक्ति शक्ति से अपने आपको वंचित करने के कारण ही हिंदी वह भव्यता नहीं प्राप्त कर पाई है जो वह प्राप्त कर सकती थी। हिंदी में संस्कृत के शब्द भरने और उससे आम बोलचाल के शब्दों को उर्दू के शब्द मानकर निकालने की जो ग़लती की गई, उससे उसकी अभिव्यंजना शक्ति काफी हद तक कुंठित हुई। इतना ही नहीं, उसे फिर से परिमार्जीत करने में दशकों लग गए। अब भी यह नहीं कहा जा सकता है कि वह संपूर्ण रूप से परिमार्जित हो गई है। यह इस बात से स्पष्ट है कि हिंदी की कविताएँ - और भाषा अपने सबसे अधिक निखरे हुए रूप में कविताओं में ही दिखाई देती है - अब भी आम आदमी के लिए दुरूह हैं। क्या आप किसी आम आदमी को निराला, जय शंकर प्रसाद, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि की कविताओं का रसास्वादन करते हुए सोच सकते हैं? इनके लिए इन महान कवियों की कविताएँ दुरूह और कठिन ही बनी हुई हैं। इसकी तुलना में उर्दू की गज़लें, ग़ालिब की रचनाएँ और और अन्य उर्दू शायरों की कविताएँ, आम लोगों की ज़ुबानों पर चढ़ चुकी हैं, उनके कई अंश मुहावरों का रूप ले चुके हैं। उर्दू के कहानी-किस्से भी लोगों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। समस्त हिंदी फिल्म और फिल्मी गानों की भाषा अधिकांश में उर्दू है और उनकी लोकप्रियता को लेकर कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है।<p>
यदि हिंदी और उर्दू में कृत्रिम दरारें नहीं डाली गई होतीं, तो इस मिली-जुली भाषा ने मुग़लों के अंतिम समय में जो आश्चर्यजनक कथन शैली विकसित कर ली थी, वह अनायास ही हिंदी को प्राप्त हो गई होती और उसे कई दशक बिताकर नए सिरे से अपनी अभिव्यंजना शक्ति विकसित नहीं करनी पड़ती और हिंदी आज जहाँ पहुँच सकी है, उससे कई दशक आगे की मंजिल प्राप्त कर गई होती।<p>
यह बात बरसों पहले डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तकों में कही थी, और एक अनोखे संयोग से आज लगभग उन्हीं की बातों को एक समकालीन विचारक दुहरा रहे हैं। ये हैं सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू जो प्रेस कांउसिल के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग <a href="http://justicekatju.blogspot.in/2012/02/sanskrit-as-language-of-science.html">सत्यम ब्रूयत</a> में दो महत्वूपूर्ण लेख लिखे हैं जिनका विषय उर्दू और देश-विभाजन हैं। अपने <a href="http://justicekatju.blogspot.in/2012/02/what-is-urdu-speech-delivered-on-8.html">उर्दू वाले लेख</a> में उन्होंने लगभग वे बातें दुहराई हैं जो डा. शर्मा पहले कह चुके हैं, कि उर्दू मात्र मुसलमानों की भाषा कतई नहीं है बल्कि वह भारत में रहनेवाले लोगों की साझी विरासत है, जिनमें हिंदू, मुसलमान, इसाई, सिक्ख, दलित सभी शामिल हैं। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा इस साझी भाषा को तोड़ने की कूटनीति का भी विस्तार से वर्णन किया है। अपने<a href="http://justicekatju.blogspot.in/2013/03/the-truth-about-pakistan.html"> दूसरे महत्वपूर्ण लेख</a> में उन्होंने पाकिस्तान को एक कृत्रिम देश करार देते हुए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को फिर से एक होने का आह्वान किया है। यह भी डा. शर्मा अपनी पुस्तकों में कह चुके हैं।<p>
इन देशों का फिर से एक होना आज एक असंभव सी बात लग सकता है, पर यही इन देशों का प्रारब्ध है जिसे उन्हें आनेवाले पचास-सौ सालों में साकार करना होगा। आज हर युवक और विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य बनता है कि वह इस सपने को सत्य में बदलने के लिए अपना योगदान करे। शुरुआत वह उर्दू सीखकर और उर्दू साहित्य से अपना परिचय बढ़ाकर कर सकता है। इससे उसे यह अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि ये दोनों भाषाएँ एक ही हैं और ये दोनों भाषाएँ बोलनेवाले लोग भी वास्तव में एक ही कौम के अंश हैं, भले ही वे अलग-अलग धर्मों में विश्वास करते हों। दो धर्म, दो देश वाली विचारधारा अंग्रेजों द्वारा इस देश को कमज़ोर करने और तोड़ने के लिए फैलाया गया विषवृक्ष है। यह पाकिस्तान के बनते ही उसके दो टुकड़ों में बटने से और पाकिस्तान के आज की हालात से बखूबी स्पष्ट है। आज पाकिस्तान नाम के लिए मुसलमानों का देश है पर वहाँ मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं। सुन्नी शिया को मार रहे हैं, अफगान पाकिस्तानियों को मार रहे हैं और पाकिस्तानी अफगानों, अहमदियों, बोहरा मुस्लिमों और महिलाओं पर अत्याचार ढो रहे हैं। <p>
हम सबको इस विष-वृक्ष की जड़ें काटकर इस देश को (जिसमें उसके दो भटके टुकड़े भी शामिल हैं) मजबूत करना होगा।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-87897365198570480612013-01-21T22:01:00.000+05:302013-01-21T22:01:21.922+05:30उपभोक्ता चयन का महत्वअधिकांश शहरी उपभोक्ताओं के समान मैं भी आजकल बड़े मॉलों में उपलब्ध एक ही तरह की चीज़ के अनेक विकल्पों से कुछ परेशान सा रहता हूँ। चाहे वह साबुन हो, या टूथपेस्ट, पंखा हो या मोबाइल, दर्जनों विकल्प उपलब्ध रहते हैं, और सब एक से बढ़कर एक बढ़िया या घटिया। ऐसे में यह तय कर पाना कठिन होता है कि किस विकल्प को चुनें।<p>
अपने बचपन की एक मिसाल दूँ तो बात अधिक स्पष्ट होगी। जहाँ तक मुझे याद है, ठेठ बचपन से लेकर मेरे कॉलेज के दिनों तक घर में एक ही प्रकार का साबुन उपयोग किया जाता था, मैसूर सैंडल। इसकी तुलना में आज मेरे बच्चे एक साथ कई साबुन उपयोग करते हैं – बालों के लिए एक, हाथ धोने के लिए दूसरा, स्नान करने के लिए तीसरा। इसके अलावा अनेक प्रकार के शैंपू, हैंडवाश, लोशन, क्रीम आदि, आदि, सब अलग। इतना ही नहीं हर महीने उनकी पसंदें बदलती रहती हैं। आज पिएर्स साबुन है तो कल डोव और परसों गोदरेज। लगता है आजकल के युवा-जन विज्ञापनों के आधार पर या दोस्तों, सहपाठियों, रिश्तेदारों की देखादेखी चयन करते हैं।<p>
एक समय वह था जब हम अपने उपभोक्ता चयनों से सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन लाने की कोशिश करते थे। हमारे ही देश के स्वाधीनता संग्राम को ही लीजिए जब अंग्रेजों को यहाँ से खदेड़ने के एक कारगर तरीके के रूप में उनके देश में बने कपड़ों और अन्य वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन गाँधी जी और अन्य नेताओं ने चलाया था, और जिसका विकसित रूप, स्वदेशी आंदोलन, आज भी हमारी राजनीति को थोड़ा-बहुत प्रभावित करता है। पर ऐसा लगता है कि आजकल के युवक अपने उपभोक्ता चयनों में किसी ऊँचे आदर्श को बीच में लाने को या तो नापसंद करते हैं या उनकी राजनीतिक जागरूकता इतनी विकसित नहीं हुई है कि वे इसकी ताकत को पहचान सकें।<p>
मैं समझता हूँ कि उनकी इस आदर्शहीन उपभोक्ता चयन समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के एक शक्तिशाली जरिए से उन्हें वंचित कर रहा है और वे जाने अनजाने उपभोक्ता संस्कृति के हाथों कठपुतले बनते जा रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति चाहती है कि हम ज्यादा से ज्यादा उपभोग करें, चाहे हमें उपभोग की जा रही वस्तुओं की आवश्यकता हो या नहीं। तभी इन उपभोक्ता वस्तुओं को बनानेवाली कंपनियों को निरंतर मुनाफा प्राप्त होता रह सकेगा। पर क्या उनका निरंतर मुनाफा प्राप्त करते जाना अधिक व्यापक मानव समाज के लिए अच्छा है? पृथ्वी के सीमित साधनों का क्या यह दुरुपयोग नहीं है? जो चीज़ वर्षों चल सकती हो, उसे कुछ ही महीने के उपयोग के बाद फेंककर, उसी के जैसी नई वस्तु खरीदकर लाना क्या आत्म-तुष्टि का चरम उदाहरण नहीं है? जब हमारे चारों ओर इतने व्यापक पैमाने पर गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा और संरचनात्मक विघटन हो, तो यह कहाँ तक उचित है कि हम अपनी कल्पित इच्छाओं की पूर्ति करते जाएँ? महात्मा बुद्ध ने सही ही कहा था कि हमारी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है, उन्हें परिश्रम से दबाना होगा, और उसे निहायत जरूरी चीजों तक सीमित करना होगा। उन्होंने यह निर्वाण प्राप्त करने के संदर्भ में कहा था, पर यह आज समतापूर्ण समृद्धि प्राप्त करने के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक है।<p>
पूँजीवादी संस्कृति की मुख्य कमी भी यही है। वह उपभोक्तावाद को उकसाता जाता है, मनुष्यों और मानव समाजों की वास्तविक ज़रूरतों से उसका कोई तालमेल नहीं रहता है। इसलिए, एक ओर अमरीका जैसे अमीर देश फिजूल-खर्ची और अंधाधुंध प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ाते जाते हैं, जैसे चाँद पर आदमी उतारना, या मंगल ग्रह में उपग्रह भेजना, परमाणु हथियार बनाना आदि, तो दूसरी ओर भारत, अफ्रीका, अफ़गानिस्तान आदि गरीब देशों में करोड़ों लोग भूख से व्याकुल हैं, उनके पास पहनने के लिए ढंग के वस्त्र नहीं हैं, उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, और उनके शहरों में आधारभूत अधिसंरचनाएँ (सड़कें, रेल, मकान, आदि) बहुत ही खराब हालत में हैं। यदि अमरीका और अन्य विकसित देश चाहें तो उनके पास मौजूद दौलत और प्रौद्योगिकी से इन सबको क्षण-भर में ही दूर कर सकते हैं, पर पूँजीवादी संस्कृति का मुख्य ध्येय मुनाफा कमाना होता है, न कि मनुष्यों की तकलीफों को दूर करना।<p>
इसीलिए पूँजीवादी संस्कृति को नियंत्रित करने और उसे मानव कल्याण की ओर मोड़ने के लिए बाहरी ताकतों की आवश्यकता होती है वह चाहे राज्य की शक्ति हो, या उपभोक्ताओं का संगठित प्रयास (उपभोक्ता चयन), या विप्लव या साम्वाद। इनमें से केवल उपभोक्ता चयन ही एक ऐसा जरिया है जिससे आम आदमी (यानी आप और मैं) पूँजीवादी संस्कृति को नियंत्रित कर सकता है और उसे जन-कल्याणकारी कामों में लगा सकता है।<p>
तो हमें अपने उपभोक्ता चयनों को उच्च आदर्शों के साथ समेकित करना होगा। कोई चीज़ खरीदने से पहले यह सोचना होगा कि क्या हमें उसकी जरूरत है? उसका कोई अन्य विकल्प बेहतर हो सकता है? क्या उसे बड़े मॉल से खरीदना अधिक जन-हितकारी है या नुक्कड़ के किराने की दुकान से खरीदना? क्या उस उत्पाद में निहित नैतिक और सामाजिक मूल्य जन-हितकारी हैं या अहितकारी? उदाहरण के लिए, यदि उस चीज़ के विज्ञापन में कोई ऐसी बात दर्शाई जा रही हो जो समाज के लिए नुकसानदेह है, तो हमें उस वस्तु को खरीदने से इन्कार कर देना चाहिए, भले ही वह कितना ही अधिक किफायती, उपयोगी, तकनीकी दृष्टि से बेहतर या अन्य रीति से हमारे लिए लाभदायक हो। मान लीजिए कि किसी टूथपेस्ट के विज्ञापन में मिहलाओं को अभद्र और आपत्तिजनक रूप से दर्शाया गया हो। इससे उस विज्ञापन को देखनेवाले व्यक्तियों, विशेषकर युवा जनों पर हानिकारक नैतिक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे समाज के नैतिक मूल्यों का ह्रास हो सकता है। तो ऐसे विज्ञापनों को रोकने का हमारे पास एक ही साधन है कि हम उस विज्ञापन में दर्शाई गई चीज़ को न खरीदने का निर्णय लें और उस चीज़ के निर्माता को अपने निर्णय से अवगत कराएँ। और इससे आगे बढ़कर हम उन लोगों को भी जिन पर हमारा नियंत्रण या प्रभाव है इस चीज़ को न खरीदने या उपयोग करने की सलाह दें। इससे होनेवाले आर्थिक नुकसान से घबराकर उस चीज़ का निर्माता उस विज्ञापन को बदलने पर मजबूर होगा और उस विज्ञापन की अभिकल्पना करनेवाले लोग कोई दूसरा और अधिक सकारात्मक विज्ञापन सोचने को प्रेरित होंगे। इससे पूरे समाज को फायदा होगा।
बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-73689688660624691052011-01-09T22:21:00.001+05:302013-03-25T08:42:33.319+05:30मेरी गुरुवायूर तीर्थयात्राजब माताजी मेरे साथ रहने आईं, तो हमने गुरुवायूर की तीर्थयात्रा की योजना बनाई। माताजी के दो बेटे हैं, मैं और मेरा बड़ा भाई, जो दिल्ली में हैं। वे हम दोनों बेटों के बीच समय काटती हैं, हालांकि ज्यादातर समय बड़े बेटे, यानी दिल्ली में ही, वे रहना पसंद करती हैं। पर इस बार जब दिल्ली का पारा चिंताजनक रूप से गिरने लगा और उन्हें ठंड असह्य होने लगी, तो उन्होंने मुंबई में मेरे साथ कुछ समय बिताने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इसमें गुरुवायूर जाने का मेरा प्रलोभन का योगदान भी काफी रहा होगा। मां 70 साल की हैं, और उनका और मेरे पिताजी का बचपन गुरुवायूर के इर्द-गिर्द ही गुजरा है। आज गुरुवायूर एक बड़ा तीर्थ-स्थल है जहां भक्तों की अपार भीड़ जुटती है, और भगवान के दर्शन के लिए घंटों कतार में खड़ा रहना पड़ता है। पर मां के बचपन के समय गुरुवायूर इतना बड़ा तीर्थस्थल नहीं बना था, और उनकी पीढ़ी के लोगों के लिए सुबह मंदिर के पवित्र सरोवर में स्नान करना और देवालय में जाकर अनायास ही गुरुवायूरप्पन के दर्शन कर आना, रोज की दिनचर्या में शामिल था। इस तरह गुरुवायूर और गुरुवायूरप्पन उनके रग-रग में व्याप्त था, और पचास साल से अधिक वर्ष केरल के बाहर रहने के बावजूद गुरुवायूर का आकर्षण उनके लिए कुछ भी कम नहीं हुआ था।<br /><br />मुझे भी गुरुवायूर जाना प्रिय था। गुरुवायूरप्पन के दर्शन करना और उनका आशीर्वाद पाना एक कारण था, दूसरा इस मंदिर के विभिन्न क्रियाकलाप देखने का लोभ था, विशेषकर उसके हाथियों के आयोजन। गुरुवायूर में 70 से अधिक हाथी हैं, जिनमें से अधिकांश बड़े-बड़े दंतैल हाथी हैं। इन्हें मंदिर के कई क्रियाकलापों में उपयोग किया जाता है। जब इन्हें सोने-चांदी, रेशम, मोरपंख, छत्र, चंवर आदि से सजाकर इन पर भगवान की मूर्ति रखकर चेंडैं (एक प्रकार का केरली नगाड़ा), झांझ, आदि पांच वाद्यों (पंचवाद्य) के मादक सुर-लहरी के साथ घोषयात्रा निकलती है, तो देखनेवालों में एक विचित्र और अलौकिक रोमांच संचरित हो जाता है, जो अवर्णनीय है।<br /><br />बड़ी मुश्किल से रेल में आरक्षण मिल सका और हम चल पड़े मुंबई से नेत्रावती एक्सप्रेस में, थ्रिशूर तक - जो लगभग 24 घंटे की यात्रा है। गुरुवायूर के लिए थ्रिशूर सबसे सुविधाजनक रेलवे स्टेशन है। दिल्ली से त्रिवेंड्रम जानेवाली राजधानी आदि सभी बड़ी गाड़ियां इस स्टेशन पर रुकती है। यहां से गुरुवायूर मात्र 25 किलोमीटर है। जब हम बहुत से लोग होते हैं, तो यह दूरी किराए के क्वालिस में अथवा बस से तय करते हैं, पर चूंकि इस बार हम दो ही लोग थे, और सामान भी कम था, इसलिए मैंने ऑटोरिक्शे से ही जाना तय किया। किसी ने मुझे बताया था, कि थ्रिशूर से गुरुवायूर ऑटोरिक्शे जाते हैं। स्टेशन के बाहर ही एक ऑटो मिल गया। हल्की बारिश हो रही थी, और हमें अंदर खेद हो रहा था कि हमने सामान कम करने के चक्कर में छतरी साथ में नहीं रखी, हालांकि कई लोगों ने हमें चेताया था कि केरल में इस समय बारिश हो रही है। पर बारिश हल्की थी और उसके जल्द थम जाने के आसार दिख रहे थे।<br /><br />घंटे भर में ही हम गुरुवायूर पहुंच गए। मैंने गुरुवायूर मंदिर के व्यवस्थापकों द्वारा चलाए जानेवाले पांचजन्य गेस्टहाउस में पहले ही कमरा बुक करके रखा था, इसलिए ऑटो को वहीं ले गया। सामान उतारकर जब ऑटोवाले को पैसा चुकाने लगा, तो उसने जो दाम मांगा, उसे सुनकर मेरे होश उड़ गए। 25-30 किलोमीटर की यात्रा के लिए उसने 360 रुपए मांगे। इस हिसाब से प्रति किलोमीटर 14 रुपए बनते थे, जो टैक्सी की दर से भी ज्यादा था। पर बहस करना व्यर्थ लगा, गलती मेरी ही थी, मैंने शुरू में ही रेट तय नहीं किया, बस इतना पूछा कि मीटर से ही लोगे न, जिसका उत्तर ऑटो चालक ने हां में दिया था। मैंने यह स्पष्ट पूछना जरूरी नहीं समझा कि प्रति किलोमीटर क्या रेट होगी। मैंने मान लिया था कि वह सामान्य शहरी रेट ही होगी, और 25-30 किलोमीटर के लिए 50-60 रुपए से अधिक नहीं होगा। मुझे क्या मालूम था कि वह एसी-टैक्सी से भी ज्यादा की रेट वसूलेगा। <br /><br />पर हम बिना किसी संकट के थ्रिशूर से गुरुवायूर पहुंच ही गए थे, इसलिए इस लूट का मैंने अधिक विरोध नहीं किया और पांच सौ रुपए का नोट ऑटोवाले को थमा दिया। उसने बड़ी महरबानी से डेढ़ सौ रुपए लौटाए, यानि मुझे दस रुपए की छूट दी। मुझे इसी से संतुष्ट होना पड़ा।<br /><br />मैं पांचजन्य गेस्टहाउस में अपना कमरा प्राप्त करने के लिए गया। कमरे का किराया (एक दिन के 350 रुपए) मैंने अग्रिम ही ड्राफ्ट के रूप में भेज दिया था, और गेस्टहाउस प्रबंधकों से कमरे की बुकिंग की रसीद भी मुझे डाक से ही मिल चुकी थी। इसलिए वहां कोई दिक्कत नहीं हुई। कमरे में सामान रखकर हमने जल्दी से नहा लिया और गेस्टहाउस के ही रेस्तरां में भोजन करने गए। यह रेस्तरां वाकई अच्छा है और इसमें कई स्वादिष्ट व्यंजन मिलते हैं। भोजन (राइस प्लेट) तो मिलता ही है, मसाला दोशा, इडली, वडा, तला हुआ मीठा केला (यह केरल का एक विशिष्ट व्यंजन है जो केरल में हर जगह मिलता है, यहां तक कि ट्रेनों और स्टेशनों में भी, और इसे आपको एक बार तो चखकर देखना ही चाहिए), पूरी-भाजी, आदि। पर दुपहर का समय होने से उस समय केवल भोजन (राइस प्लेट) उपलब्ध था, हमने वही लिया। अब हम पूरी तरह तैयार थे, भगवद-दर्शन के लिए। यह काफी मशक्कत-वाला काम साबित हो सकता था, क्योंकि उस समय अय्यप्पन का सीज़न था और दक्षिण भारत के सभी मंदिरों में अयप्पन के भक्तों की अपार भीड़ थी।<br /><br />मंदिर का पश्चिम द्वार ठीक पांचजन्य गेस्टहाउस के गेट के सामने ही था, इसलिए पैदल ही चल पड़े, चप्पल हमने कमरे में ही छोड़ दिए। हमारे सौभाग्य से ज्यादा भीड़ नहीं थी, और एक-आध घंटे में ही भगवान के दर्शन हो जाने की उम्मीद थी। इसलिए हम उत्साह के साथ कटघरों में खड़े हो गए। जो लोग तिरुपति आदि गए हों, वे इन कटघरों के बारे में जानते होंगे। लोहे की पाइपों से बना यह भूल-भुलैया, भीड़-नियंत्रण के विचार से खड़ा किया गया है, दर्शनार्थियों को इसमें खड़ा रहकर धीरे-धीरे आगे बढ़ना होता है।<br /><br />लाइन में खड़े-खड़े हम चारों ओर की विभिन्न गतिविधियों को निहारने लगे। गरुवायूर हमारे लिए परिचित स्थल था, पर हर बार वहां आने पर नयापन लगता था। मंदिर के बड़े-बड़े भवन हर ओर दिखाई दे रहे थे। गर्भगृह, ऊट्टु-पेरै (भोजन-शाला, जहां भक्तगणों को मुफ्त में भोजन मिलता है), जिसके आगे भगवद-दर्शन कर चुके भक्तों की लंबी कतार खड़ी थी, स्नानगृह, मंदिर के सरोवर की सीढ़ियां, ऊंचा कोडि-मरम (पताका-दंड), दीपस्तंभ, स्वर्ण-मंडित गुंबद, नाट्यशाला (जहां प्रवचन, कथकली, भरत-नाट्यम, संगीत-उत्सव आदि आयोजित किए जाते हैं), विवाह-मडंप (दक्षिण में शादी-ब्याह गुरुवायूर मंदिर में कराने की प्रथा है, जिसके लिए दो विशेष मंडप बने हैं; मुहूरत वाले दिन यहां बीसियों शादियां होती हैं, जिसके लिए आधे-एक घंटे के लिए लोग इन मंडपों को किराए पर लेते हैं) जिनमें एक के बाद एक करके विवाह होते जा रहे थे और नागस्वरम (दक्षिणी शहनाई), कोट्टुमेलम (मृदंग जैसा वाद्य जिसे एक ओर से लकड़ी की छोटी छड़ी और दूसरी ओर से हाथ की ऊंगलियों से बजाया जाता है) आदि बज रहे थे, और मंदिर के द्वार के आगे लंबा सा दालान जिसके दोनों ओर दुकानें हैं - ये पूजा के सामान तो बेचते ही हैं, जैसे घंटी, दीप, अगर, फोटो, कैसेट, धार्मिक पुस्तकें, आदि, अन्य सामानों की दुकानें भी हैं, जैसे मिठाई के, कपड़े के, अल्पाहार-गृह आदि। दूसरे मैदान में हाथी बांधने का शेड है, जिसमें उस समय दो बड़े-बड़े हाथी विश्राम कर रहे थे और बड़े-बड़े नारियल के हरे डंठल युक्त पत्ते खा रहे थे। हमारे देखते ही महावत एक बड़े दंतैल को शेड की ओर ले आए। वह अपनी सूंड और दांतों के बीच नारियल के पत्तों का एक बड़ा गट्ठर थामे हुए था। महावत के इशारे पर उसने यह गट्ठर शेड के आगे गिरा दिया और अपनी पीछे की एक टांग घुटने पर मोड़कर ऊपर की ओर किया ताकि उस पर पैर रखकर उसकी पीठ पर सवार महावत नीचे उतर सके। महावत के उतरने के बाद हाथी कुछ कदम रिवर्स गियर में चलकर अपने निर्धारित स्थान में अन्य हाथियों के बगल में खड़ा हो गया और महावत ने उसके पैरों पर जंजीरें कस दीं। हाथी इत्मीनान से चारा चबाने लगा। उसे तथा उसके अन्य दो साथियों को देखने एक छोटी भीड़ शेड के चारों ओर इकट्ठी हो गई।<br /><br />लाइन में खड़े-खड़े हम यह सब देखते-सुनते जा रहे थे। मंदिर के पब्लिक एनाउन्समेंट सिस्टम से मंदिर की गतिविधियों की संक्षिप्त कमेंट्री भी प्रसारित हो रही थी। यह मलयालम, तमिल, हिंदी और अंग्रेजी में बारी-बारी से प्रसारित हो रही थी। मैं हिंदी प्रसारणों की ओर विशेष ध्यान दिया। प्रसारण स्त्री-वाणी में था, और उच्चारण बिलकुल शुद्ध था। शायद कोई हिंदी-भाषी युवती ही संदेशों को पढ़ रही थी, या शायद ये संदेश पहले से ही रेकोर्ड किए गए थे। <br /><br />इतनी विविध दृश्वाली होने के कारण लाइन में खड़े-खड़े समय कैसे बीत गया, यह पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे कतार आगे बढ़ती गई और हम थोड़ी धक्का-मुक्की के साथ मंदिर में प्रवेश कर गए। मंदिर के अहाते में अपार भीड़ थी जिनमें अधिकांश काले वस्त्रों में अय्यप्पन-भक्त ही थे। ये रह-रहकर "स्वामि शरणम, शरणमय्यप्पा" की गुहार लगा रहे थे, और अय्यप्पन-भगवान के भजन गा रहे थे।<br /><br />पूरे मंदिर को दीपों से सजाया गया था। गर्भगृह के सामने हमें चंद पलों के लिए ही खड़े होने मिला, इतने में ही पुजारियों ने और हमारे पीछे खड़ी भीड़ के धक्कों ने हमें वहां से खदेड़ दिया। इन पलों में हमें गुरुवायूरप्पन की जो झलक मिल सकी, उसी में हमने उन्हें जीवन के कष्टों की फिहिरिश्त मन ही मन सुना दी और उनकी कृपा की अपील की।<br /><br />अब जब मुख्य काम हो गया था, तो हम थोड़े इत्मीन से मंदिर के अन्य क्रियाकलापों की ओर ध्यान दे सके। जैसा कि मुझे आशा थी, मंदिर के अंदर के अहाते में भी पत्थर के बड़े-बड़े खंभों के बीच चार हाथी बंधे हुए थे, जिनमें से तीन दंतैल थे और एक मादा थी। इनके सामने नारिल के पत्तों का ढेर रखा हुआ था, जिन्हें ये अपनी सूंड़ों से उठा-उठाकर खा रहे थे। इनके महावत इनके खंभे नुमा पैरों पर कंधा टिकाए बैठे आपस में बतिया रहे थे। हर हाथी के पीछे दो-तीन महावत थे। मंदिर में अपार भीड़ थी। सैकड़ों लोग उस बंद अहाते में मौजूद थे, और वे हाथियों से चंद फुट की दूरी पर आ-जा रहे थे। कभी कोई हाथियों की ओर केला बढ़ा देता, और हाथी उसे अपनी सूंड़ में लेकर मुंह में डाल लेता। इतने कोलाहल के बावजूद हाथी शांति से खड़े थे। बड़ी ही विस्मयकारी बात थी। महावतों को इन दानवों पर कितना अचूक और पूर्ण नियंत्रण था, इसका यह प्रमाण था। यदि ये हाथी जरा भी भड़क जाते या बेकाबू हो जाते तो मिनटों में बीसियों आदमियों की जानें चली जातीं। ऐसा भी नहीं है कि मोटे-मोट जंजीरों में बंधे ये हाथी यदि चाहें, तो भी अधिक नुकसान नहीं कर सकते, क्योंकि जब शीवेली (घोषयात्रा) निकाली जाती है, तो इन्हें बंधनमुक्त कर दिया जाता है, और इन पर भगवान की मूर्ती रखकर, वाद्ययंत्रों के साथ गर्भगृह के चारों ओर के अहाते में इन्हें चलाया जाता है। हाथी अपार भीड़ के बीच रास्ता बनाते हुए बढ़ते हैं, महावतों और पुजारियों को चिल्ला-चिल्लाकर और कभी-कभी बलात हाथियों के लिए भीड़ में से रास्ता बनाना पड़ता है। सब लोग हाथियों को घेरकर खड़े हो जाते हैं और बूढ़ी औरतें हाथियों को छूकर अपने-आपको पवित्र करने के प्रयास में उनके पैरों के बीच तक भी आ जाती हैं, और महावतों को उन्हें खदेड़ना पड़ता है।<br /><br />मंदिर में पूरा दिना बिताना मुश्किल न था, इतनी सारी गतिविधियां वहां एक-साथ चल रही थीं। कहीं तुलाभारम (मनचाहे वस्तु से अपने आपको तुलवाकर उस वस्तु को भगवान को अर्पित करना) के लिए लोग भीड़ लगा रहे थे, कहीं प्रसाद के लिए लाइन लगी थी। मुख्य मंदिर के चारों ओर अनेक छोटे मंदिर भी थे, जिनमें से प्रत्येक में भक्तों की भीड़ थी। कुछ भक्त विचित्र रीति से गर्भगृह की परिक्रमा कर रहे थे, कोई एक पैर के ठीक आगे दूसरा पैर सटाकर रखकर धीरे-धीरे, भगवान का नाम जपते-जपते परिक्रमा कर रहा था, कोई फर्श पर साष्टांग लेटकर और धीरे-धीरे फर्श पर लुढ़कते-लुढ़कते मंदिर की परिक्रमा कर रहा था।<br /><br />पर हम दिन भर की रेल-यात्रा से थके थे, इसलिए रात के दस बजे के करीब अपने कमरे में लौट आए, और यह निश्चय करके सो गए कि कल सुबह जल्दी उठकर फिर मंदिर जाएंगे।<br /><br />बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-64285657988465655082011-01-06T10:34:00.001+05:302011-01-06T10:41:53.175+05:30ईसाइयों की प्रगतिशीलताजब धर्म वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार अपने-आपको ढालने के संकेत देता है, तो निश्चय ही वह एक सराहनीय बात है।<br /><br />ईसाई धर्म में इस तरह के सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं। ईसाई धर्म में मृतकों को ताबूत में रखकर दफनाने का रिवाज है। यह ताबूत सागौन आदि महंगी लकड़ी से बनते हैं, और कलात्मक नक्काशी वाले ताबूतों की कीमत 50,000 रुपए तक पहुंच जाती है। इन ताबूतों के कारण अनेक गरीब ईसाइयों के लिए अपने प्रिय-जनों के अंतिम संस्कार के फलस्वरूप कर्ज और आर्थिक बर्बादी की नौबत आती है।<br /><br />पर कैथोलिकों की सभा ने अब शवों को बिना ताबूतों में रखे, केवल कफन के कपड़े में लपेटकर दफनाने को मंजूरी दे दी है। इससे पहले ही मुंबई क्षेत्र में कई चर्चों में बिना ताबूत के शवों को दफनाया जाता रहा है। मुंबई के वसाई क्षेत्र के कुछ ईसाई इसके मध्यवर्ती रिवाज अपनाते हैं। वे शव को ताबूत में रखकर कब्रिस्तान तक लाते हैं, पर दफनाते समय शव को ताबूत से बाहर निकालकर कफन में लपेटकर दफनाते हैं। इस तरह एक ही ताबूत का बारबार उपयोग हो पाता है। कैथोलिक सभा ने राय दी है कि अब शवों को बिना ताबूत के दफनाने की प्रथा को व्यापक रूप से अपनाने में दोष नहीं है। इससे संबंधित वक्तव्य सभा ने अपनी पत्रिका सत्यदीप में प्रकाशित की है।<br /><br />शव संस्कार की इस नई रीति का एक फायदा महंगे ताबूतों से मुक्ति है, पर इसके अन्य फायदे भी हैं। ताबूतों में रखे शवों के नष्ट होने में अधिक समय लगता है, और इस कारण कब्रिस्तानों में भूमि के पुनरुपयोग की संभावना घट जाती है। पर्यावरण की दृष्टि से भी शवों के दफनाने में ताबूत का उपयोग न करना फायदेमंद है। इससे न जाने कितने पेड़ों को जीवन-दान मिल सकता है।<br /><br />शवों के दफनाने की यह नई रीति हिंदुओं, मुसलमानों, यहूदियों और पारसियों की अंत्येष्टि प्रथाओं के समीप है। इन सब धर्मों में भी ताबूत का उपयोग नहीं होता है। शवों को या तो जलाकर नष्ट किया जाता है, अथवा कफन में लपेटकर दफनाया जाता है।<br /><br />इस संबंध में सेंट इग्नेशियस चर्च के पादरी फादर जोसेफ डिसूज़ा याद दिलाते हैं कि स्वयं ईसा मसीह के मृत-देह को बिना ताबूत के दफनाया गया था।<br /><br />सभी धर्मों को अपने रीति-रिवाजों को इसी तरह समकालीन परिस्थितयों के अनुसार बदलने में संकोच नहीं करना चाहिए। इन रीति-रिवाजों का धर्मों के केंद्रीय तत्वों से कोई संबंध नहीं होता है, वे केवल सुविधा के लिए अपनाए गए होते हैं।<br /><br />आजकल कई धर्मों ने अपने परंपरागत रिवाजों से चिपके रहने की अड़ियलता दिखाई है, भले ही ये रिवाज आजकल की परिस्थितियों में निरर्थक या हानिकारक साबित हो चुके हों। उन्हें ईसाइयों की इस प्रगतिशीलता से प्रेरणा लेनी चाहिए।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-13833827908977261632010-12-28T20:23:00.001+05:302010-12-28T20:36:42.215+05:30मजदूरों की जागरूकतामलयालम अखबार मातृभूमि में एक रोचक खबर पढ़ने को मिली, जो आपको भी रुचिकर लगेगी। खबर कुछ यों है -<br /><br /><blockquote>एक व्यक्ति ने मकान बनाने के लिए लट्ठें खरीदीं। लट्ठों को ट्रक पर चढ़ाने के लिए उसने एक हाथी को किराए पर लिया। हाथी ने सभी लट्ठों को ट्रक पर चढ़ा दिया। ट्रक चलने ही वाला था, कि तभी मजदूर यूनियन के कारिंदे वहां आ धमके और ट्रक को घेरकर खड़े हो गए। उन्होंने लट्ठ खरीदनेवाले व्यक्ति से उनसे काम न लेने का जुर्माना मांगा। जब उस व्यक्ति ने 1,200 रुपए दिए, तभी उन्होंने ट्रक को जाने दिया। ट्रक जाने को हुई तो उससे दो लट्ठें खुलकर सड़क पर गिर गईं। जब मजदूरों से कहा गया कि इन्हें ट्रक पर चढ़ा दो, तो उन्होंने मना कर दिया।</blockquote><br />क्या ऐसी कोई खबर किसी हिंदी अखबार में पढ़ने को मिलेगी? है न यह हिंदी भाषियों को कल्चरल शॉक देनेवाली खबर!<br /><br />पहली विचित्र बात तो लट्ठ उठवाने के लिए हाथी का बुलाया जाना है। गधे, ऊंट, बैल, भैंसा आदि जानवरों से बोझा उठवाने के बारे में आपने सुना होगा। पर हाथी से ऐसा काम करवाना! हिंदी भाषियों के लिए हाथी ऐश्वर्य और आडंबर का चिह्न है न कि भारवाहक पशु। पर केरल में पालतू हाथी इतनी प्रचुर संख्या में हैं कि उनके भरण-पोषण में योगदान देने के लिए उनसे ऐसे छोटे-मोट काम कराए ही जाते हैं। हां, वहां भी हाथी ऐश्वर्य और आडंबर का चिह्न है, और बड़े मंदिरों में एक-दो हाथी बंधते ही हैं, जिनका मंदिर के उत्सवों और अन्य समारोहों में उपयोग किया जाता है। गुरुवायूर जैसे बड़े मंदिरों में तो 70 से अधिक हाथी हैं, यानी हमारे कई हाथी-अभयारण्यों में जितने हाथी हैं, उससे कहीं ज्यादा!<br /><br />दूसरी गौर-तलब बात है मजदूरों का हाथी से काम लेने का विरोध करना, और इसके लिए जुर्माना वसूलना। भूलना नहीं चाहिए कि केरल वह राज्य है जहां आजाद भारत के प्रथम आम चुनाव में ही साम्यवादी सरकार बन गई थी। यह दूसरी बात है कि नेहरू ने उसे तुरंत ही तिकड़म करके बर्खास्त करा दिया था। पर सच यह है कि केरलवासियों की रग-रग में साम्यवाद के सिद्धांत बसे हुए हैं, और वहां का आम आदमी भी मार्कस्वाद की बातें समझता है। वहां का हर वर्ग अपने अधिकारों को अच्छी तरह पहचानता है और उनके लिए लड़ना जानता है। वहां के मजदूर रोजगार पाना अपना अधिकार मानते हैं, और यदि कोई उन्हें इस अधिकार से वंचित करना चाहे, तो वे हथियार उठा लेने के लिए तैयार रहते हैं, जैसा कि उपर्युक्त खबर से ही स्पष्ट है।<br /><br />क्या केरल के सिवा किसी अन्य प्रदेश के मजदूरों में इतना साहस हो सकता है कि वे रोजगार पाने के अपने अधिकारों के लिए इस तरह लड़ सकें? अभी हाल में दिल्ली से साइकिल-रिक्शों को निषद्ध करने की आज्ञा दिल्ली सरकार ने जारी की थी। रिक्शा चालकों की तरह से किसी भी प्रकार का विरोध देखने में नहीं आया। किसी भी राजनीतिक दल ने उनकी तरफ से आवाज नहीं उठाई। इसी तरह मुंबई के हिंदी भाषी टैक्सी-चालकों के विरुद्ध शारीरिक हमले हुए, पर कोई भी इन मजदूरों के पक्ष में सामने नहीं आया। यदि दिल्ली के रिक्शा-चालक और मुंबई के टैक्सी-चालक भी केरल के मजदूरों के समान साम्यवादी सिद्धांतों से परिचित होते और संगठित होते, तो किसकी मजाल कि उनकी रोजी-रोटी पर इस तरह लात मारे।<br /><br />पर क्या ऐसा हो सकता था? केरल में शत-प्रति-शत साक्षरता है, यानी गरीब से गरीब मजदूर भी अखबार पढ़ता है, पुस्तकें पढ़ता है, स्वतंत्र चिंतन करता है। अखबारों, पुस्तकों, टीवी-रेडियो आदि के माध्यम से वह आधुनिक सिद्धांतों के सजीव संपर्क में रहता है। केरल के राजनीतिक दल भी अधिक जनतांत्रिक हैं, वहां वंशवाद नहीं चलता है। गांधी परिवार, मुलायम परिवार, लालू परिवार, पासवान परिवार जैसे खानदान केरल की राजनीति में आपको नहीं मिलेंगे। हां करुणाकरन (जो अभी हाल में दिवंगत हुए) ने अपना राजनीतिक वंश चलाने की कोशिश की थी, पर सफल नहीं हुए। और फिर वे कांग्रेसी थे, और वहीं से उन्हें ऐसे संस्कार मिले होंगे।<br /><br />दूसरी बात यह है कि केरल ने कई दशकों से छोटा परिवार अपनाया हुआ है। केरल में आम गृहस्थी में एक या ज्यादा-से-ज्यादा दो बच्चे ही होते हैं। यह अमीरों और मध्यम-वर्ग के परिवारों के लिए ही सच नहीं है, बल्कि गरीब तबके के परिवारों के लिए भी। इससे अधिकांश परिवारों को अपनी इकलौती या दुकलौती संतान की शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य-सेहत, खान-पान, दवा-दारु पर मुक्त-हस्त से खर्च करने में कोई संकोच नहीं होता है, चाहे वह लड़का हो या लड़की । इससे केरल के बच्चों को जिंदीगी की दौड़ में दो कदम आगे रहने में मदद मिलती है। वे स्वस्थ-तंदुरुस्त, पढ़े-लिखे, प्रसन्न-चित्त होते हैं, जिससे उनमें आत्म-विश्वास छलकता रहता है, और किसी भी अन्याय से लड़ने की उनमें गहरी क्षमता होती है। उन्हें डराना-धमकाना, या बलपूर्वक चुप करा देना संभव नहीं होता। <br /><br />हिंदी प्रदेश में शिक्षा का अभाव है, रूढ़िवादिता ज्यादा है, लोग कुपोषण, बीमारी, अंधविश्वास आदि से पीड़ित रहते हैं, जिससे उनमें आत्म-विश्वास की कमी हो जाती है, ज्ञान का प्रकाश न रहने से वे दुविधा की स्थिति में रहते हैं, और अपने केरली भाइयों की तुलना में अधिक धब्बू होते हैं। पर धीरे-धीरे स्थिति बदल रही है, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि अंगड़ाई ले रहे हैं और निद्रा झटककर शिक्षा और ज्ञान को अंगीकार कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि आनेवाले दशकों में उनके लोग भी वैसे ही आत्मविश्वासी और दृढ़ बन सकेंगे, जैसे केरल के।<br /><br />तीसरी बात केरल में स्त्रियों को मिली हुई संपूर्ण आजादी है। शायद केरल भारत का एकमात्र राज्य है, जहां स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। पंजाब, हरियाणा, गुजरात आदि में 1,000 पुरुषों के पीछे 800-900 महिलाएं ही हैं, जबकि केरल में 1,098 महिलाएं हैं। स्त्री स्वतंत्र रहने पर उनकी संतानें भी अधिक स्वस्थ, पढ़ी-लिखी और आत्म-विश्वास से भरपूर होती हैं।<br /><br />और अंत में पहले बताई गई खबर से मिलती-जिलुती एक और किस्सा। उत्तर भारत से एक मुसाफिर केरल के एक रेलवे स्टेशन पर उतरा। उसके साथ कुछ सामान था, इसलिए उसने कुली बुलाया। कुली ने जो भाव मांगा वह उसे अधिक लगा। सामन बहुत भारी न था, इसलिए उसने उसे खुद ही उठा लेने का निश्चय किया। उसने सूटकेस किसी तरह सिर पर चढ़ा लिया और बैगों को कधे पर टांगकर लड़खड़ाते कदमों से प्लेटफोर्म से चल पढ़ा। गाड़ी तीसरे नंबर के प्लैटफोर्म पर आई थी, इसलिए उसे सीढ़ियां चढ़नी-उतरनी पड़ीं। किसी तरह हांफते-हांफते, पसीने से तरबतर होकर, वह स्टेशन के बाहर आया।<br /><br />बाहर आते ही कुलियों के गिरोह ने उसे घेर लिया। उसकी अगुआई कर रहा था वही कुली जिससे उसकी प्लैटफोर्म पर बहस हुई थी।<br /><br />उस कुली ने कहा, "चुपचाप मजदूरी गिनकर रख दो, वरना समान यहां से नहीं हिलेगा।" <br /><br />मुसाफिर पहले तो कुछ समझा नहीं, बोला, "कैसी मजदूरी, कहां की मजदूरी। सारा सामान तो मैंने खुद उठाया है!"<br /><br />कुली बोला, "खुद क्या हमसे पूछकर उठाया था? यहां का नियम है कि सामान कुली ही उठाएंगे। यदि स्वयं उठाना चाहो, तो शौक से उठा लो, पर कुली को मेहनताना तो देना ही पड़ेगा।"<br /><br />उस बेचारे मुसाफिर ने बहुत बहस करके देखी, पर उसकी एक न चली। अंत में उसे कुली को पैसे देने ही पड़े। कैसा कड़ुवा अनुभव रहा होगा उसका, सामान भी खुद उठाना पड़ा और पैसे भी मुट्ठी से गए। यदि उसे पता होता कि ऐसा होनेवाला है, तो शायद वह कुली को ही सामान सौंप देता और अपने कंधों पर इतना अत्याचार नहीं होने देता।<br /><br />खैर, जब मजदूरों में जागरूरता आती है, तो ऐसा भी हो सकता है। शायद इसीलिए हर देश में सत्ताधारी वर्ग इसकी भरपूर कोशिश करते हैं कि मजदूर वर्ग को अशिक्षा के अंधकार में रखा जाए, और साम्यवाद जैसे सिद्धांतों की उन्हें भनक तक न लगे।<br /><br />और इसीलिए हर देश में साम्यवादी दल का क्रांतिकारी महत्व होता है। क्योंकि वही सत्ताधारी वर्गों के विरोध का सामना करते हुए मजदूर वर्गों में अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता ला सकता है।<br /><br />सवाल यह है कि क्या भारत के साम्यवादी दल यह भूमिका निभा रहे हैं? वे तो सत्ता की चसक लगकर खूब मोटे और आसली हो गए हैं। उनके नेताओं में और शासक वर्गों में कोई अंतर ही नहीं रह गया है।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-52206046038384153912009-09-04T07:12:00.000+05:302009-09-04T07:13:29.799+05:30ज्ञानेश्वरीज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा रची गई श्रीमदभगवतगीता की अद्वितीय टीका है। यह ग्रंथ ज्ञानेश्वर की सबसे महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है। इसमें ज्ञानेश्वर के व्यक्तित्व और उनके दर्शन की झांकी मिलती है। ज्ञानेश्वरी एक अत्यंत लोकप्रिय कृति है। इस कृति में ऐसे तत्व विद्यमान हैं जिनसे प्रेरणा प्राप्त करके मराठी भाषा में एक नवीन काव्य परंपरा का सूत्रपात्र हुआ। <br /><br />संत ज्ञानेश्वर 13वीं शताब्दी में हुए थे। उस समय हिंदू समाज में जाति के आधार पर कट्टरता व्यापक पैमाने में मौजूद थी और सामाजिक बुराइयों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों, बलि प्रथा, यज्ञ और तंत्र-मंत्र का बोलबाला था। इस पृष्ठभूमि में संत ज्ञानेस्वर ने लोक भाषा में श्रीमदभगवदगीता की व्याख्या की। ज्ञानेश्वर ने अपनी कृति के माध्यम से भ्रष्ट रीतियों का उन्मूलन करके नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की। उन्होंने नए सिरे से भक्ति मार्ग की व्याख्या की और जाति प्रथा को समाप्त करने का आग्रह करके समाज सुधार पर बल दिया। चिदविलासवाद अथवा स्फूर्तिवाद का प्रवर्तन करके उन्होंने महाराष्ट्र की दार्शनिक परंपरा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इस सिद्धांत के अनुसार समस्त सृष्टि परमेश्वर के प्रकाश से दीप्त है और स्वयं अपने हाथों से किया गया काम ही पूजा है। इस प्रकार उन्होंने दलितों और नीची जाति के लोगों का उत्थान किया। संत ज्ञानेश्वर का जीवन धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध विजयी संघर्ष की सजीव गाथा है।<br /><br />सात सौ वर्ष पूर्व रचा गया यह महान आध्यात्मिक काव्य आज भी प्रासंगिक है। ज्ञानेश्वरी ने लोगों की धार्मिक आस्थाओं की व्याख्या उनकी सामाजिक आवश्यकताओं के संदर्भ में की। उसने लौकिक और पारलौकिक संसार में अंतर दूर करके अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया । भक्तगणों ने ज्ञानेश्वरी की पूजा उसे मां मानकर की तथा उसकी स्तुति में जगह-जगह गीत गाए जाने लगे। आध्यात्मिक उत्थान में जाति या लिंग बंधन नहीं रहा। महाराष्ट्र में ज्ञानेस्वरी प्रत्येक वर्ग में पूजा की वस्तु बन गई।<br /><br />संत ज्ञानेश्वर ने कुछ अन्य कृतियों की भी रचना की, जैसे अमृतानुभव, चांगदेवप्रशस्ति, हरिपथ और अभंग। इन सब कृतियों में भी ज्ञानेश्वरी भक्ति की दार्शनिकता की छाप है।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-35764780471013183242009-09-03T10:10:00.003+05:302009-09-03T11:41:39.665+05:30दुहराना या दोहराना?अनुवाद, संपादन और प्रूफ-शोधन के व्यवसाय से जुड़े होने के कारण मुझे शब्दों की सही वर्तनी और प्रयोग पर काफी ध्यान देना होता है। हिंदी में अनेक शब्दों के लिए एक से अधिक वर्तनियां चलती हैं। मैं कोशिश करता हूं कि विभिन्न विकल्पों में से मानक हिंदी द्वारा अपनाए गए विकल्प का ही प्रयोग करूं। यह मेरे लिए एक पेशेवरीय आवश्यकता भी है।<br /><br />अभी हाल में दुहराना तथा उसके सजातीय कुछ शब्दों से सामना हो गया, और उनकी सही वर्तनी निश्चित करने के लिए मुझे अनेक व्याकरण पोथियों की गर्द झाड़नी पड़ी। अंत में किशोरीदास वाजपेयी की पुस्तक हिंदी शब्द मिमांसा में उनका समाधान प्राप्त हुआ।<br /><br />जरा इन शब्दों को देखिए :- दुहराना, दुपहर, दुअन्नी, दुतल्ला, दुतरफा, दुपट्टा।<br /><br />इन्हें अनेक पुस्तकों में इस तरह से भी लिखा हुआ मिलता है :- दोहराना, दोपहर, दोअन्नी, दोतल्ला, दोतरफा, दोपट्टा।<br /><br />इनमें से सही वर्तनी कौन-सी है?<br /><br />किशोरीदास वाजपेयी ने हिंदी शब्द मिमांसा में विस्तार से समझाया है कि इन सबमें दु वाले रूप सही हैं, यानी, दुहराना, दुपहर, दुअन्नी, दुतल्ला, दुतरफा, दुपट्टा।<br /><br />हिंदी में संख्यावाचक शब्द बनाते समय मूल शब्द का ह्रस्वीकरण होता है –<br /><br />एक – इक – इकतारा, इकहरा, इकलौता<br />दो – दु - दुहराना, दुपहर, दुअन्नी, दुतल्ला, दुतरफा, दुपट्टा<br />तीन – ति – तिपाई, तिकोना, तिरंगा<br />चार – च – चवन्नी<br />पांच – पंच – पंजाब, पंचरत्न, पंचांग, पंचमेल, पंचशील<br />छह – छि – छिहत्तर<br />सात – सत – सतरंगा, सत्ताईस, सत्तावन<br />आठ – अठ – अठन्नी<br />नौ - नव – नवग्रह, नवरत्न, नवदीप<br />सौ – सै – सैकड़ा<br />लाख – लख - लखपति<br /><br />इस नियम को ध्यान में रखने पर दोपहर, एकतारा, सातरंगा, आठन्नी आदि शब्द गलत सिद्ध होते हैं।<br /><br />किशोरीदास वाजपेयी ने हिंदी व्याकरण, वर्तनी आदि पर एक दर्जन से अधिक अत्यंत उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं। उनके द्वारा लिखा गया हिंदी का सर्वांगीण व्याकरण, हिंदी शब्दानुशासन, कामता प्रसाद गुरु के हिंदी व्याकरण के बाद हिंदी का सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। राहुल सांकृत्यान ने किशोरीदास वाजपेयी की व्याकरण प्रतिभा को देखते हुए उन्हें हिंदी का पाणिनी कहा था, जो उचित ही है।<br /><br />वाणी प्रकाशन, दिल्ली ने अभी हाल में किशोरीदास वाजपेयी रचनावली प्रकाशित की है जिसमें वाजपेयी जी की सभी पुस्तकें शामिल की गई हैं। इन पुस्तकों में प्रमुख हैं – <br /><br />हिंदी शब्द मिमांसा<br />अच्छी हिंदी<br />हिंदी वर्तनी<br />अच्छी हिंदी का नमूना<br />हिंदी निरुक्त<br />भारतीय भाषाविज्ञान<br />हिंदी शब्दानुशासन<br />संस्कृति का पांचवा स्तंभ<br /><br />ये सभी पुस्तकें वाणी प्रकाशन, दिल्ली से अलग से भी उपलब्ध हैं।<br /><br />हिंदी व्यवसाय में जुड़े सभी लोगों को (अनुवादक, संपादक, प्रूफ-शोधक, लेखक, अध्यापक, आदि) और साफ–सुथरी हिंदी लिखने में रुचि रखनेवाले लोगों को ये पुस्तकें अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए। छात्रों के लिए भी ये अत्यंत उपयोगी हैं।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-16678832639670788482009-09-02T08:31:00.002+05:302009-09-02T09:18:55.164+05:30जाति-धर्म के बंधनों को तोड़ता त्योहार ओनमआज ओनम है, केरलवासियों का सबसे लोकप्रिय त्योहार। ओनम तब आता है जब वर्षा ऋतु समाप्ति पर होती है और चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। नदी-नाले, तालाब और कुंए स्वच्छ जल से लबालब भरे होते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य अपने चरमोत्कर्ष पर होता है।<br /><br />किंवदंती है कि बहुत साल पहले राजा महाबली केरलवासियों पर राज करते थे। वे एक न्यायप्रिय, दयालु और प्रजावत्सल राजा थे। हर साल ओनम के अवसर पर राजा अपनी प्रजा का हालचाल जानने के लिए उनके द्वारों पर पधारते थे। प्रजा अपने प्रिय राजा के स्वागत में बड़े उल्लास से ओनम त्योहार मनाती थी।<br /><br />ओनम के पर्व पर केरल भर में नन्हे-मुन्ने बच्चे टोकरी लिए बाग-बगीचों में निकल प़ड़ते हैं और अपने-अपने घर-आंगन को सजाने के लिए सुंदर फूल तोड़ लाते हैं। सभी लोग पौ फटते ही जाग जाते हैं और नदी-तालाबों में जाकर स्नान करते हैं। प्रकृति तो सुंदर वेश-भूषा धारण किए हुए ही होती है, लोग भी, खासकर के बच्चे, नए-नए वस्त्र पहनते हैं। इन वस्त्रों को ओनक्कोडी कहा जाता है। गृहणियां घर-आंगन को बुहारकर साफ करती हैं और दीवारों और फर्श पर गोबर लीपती हैं। युवतियां आंगन में फूलों से रंगोली बनाती हैं और दीप जलाती हैं। इन रंगोलियों को पूक्कोलम (पू = फूल; कोलम = रंगोली) कहा जाता है। पूक्कोलम के चारों ओर युवतियां कैकोट्टिक्कली नाच करती हैं जिसमें वे मधुर-मधुर गीत गाती हुई और तालियां बजाती हुई पूक्कोलम के चारों ओर गीत की लय में थिरकती हैं।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/Sp3qtcBQI5I/AAAAAAAAAis/i_vB40JkPEI/s1600-h/Onam.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 303px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/Sp3qtcBQI5I/AAAAAAAAAis/i_vB40JkPEI/s400/Onam.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5376711596486697874" /></a><br />बच्चे बूढ़े और जवान प्रकृति के निकट आने की कोशिश करते हैं। पेड़ों की डालियों से झूले टांगे जाते हैं। रात को खुले में नारियल और ताड़ के झूमते वृक्षों के नीचे कथकली आदि के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। सब्जी मंडियों में तरह-तरह की सब्जियों का ढेर लगा रहता है, जिन्हें लोग आ-आकर ओनम की दावत तैयार करने के लिए खरीद ले जाते हैं। दावत केले के चौड़े पत्तों पर परोसी जाती है और उसमें तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन होते हैं। दावत के अंत में पायसम, यानी खीर, परोसी जाती है।<br /><br />खेल-कूद और प्रतियोगिताएं ओनम त्योहार का अभिन्न अंग होती हैं। सबसे लोकप्रिय वल्लमकलि (जल-क्रीडा) है। यह नदियों और कायलों (समुद्र का वह भाग जो थल भागों के भीतर घुसा होता है) में आयोजित होती है। नौका दौड़ प्रतियोगिताएं सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। देश-विदेश से पर्यटक उन्हें देखने केरल की ओर उमड़ पड़ते हैं। ये नौकाएं खास प्रकार की होती हैं। एक-एक नौका में बीस-बीस, चालीस-चालीस या उससे भी अधिक खेवक होते हैं, जो सब एक खास गीत की लय में चप्पू चलाते हैं। उनके सशक्त एवं संगठित प्रयत्नों से नौकाएं पानी को चीरकर तीर की तेजी से बढ़ती हैं और दर्शकों में उल्लास और रोमांच भर देती हैं।<br /><br />ओनम उन थोड़े से त्योहारों में से एक है जिनमें धर्म और जाति के बंधन तोड़कर लोग खुले दिल से भाग लेते हैं। केरल में हिंदू, मुसलमान और ईसाई पर्याप्त तादाद में हैं। तीनों ही धर्मों के अनुयायी ओनम त्योहार समान उत्साह से मनाते हैं। इतना ही नहीं केरलवासी जहां कहीं भी हों, ओनम मनाना नहीं भूलते। इस कारण ओनम आज एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय त्योहार हो गया है जो हमें धार्मिक भाईचारे की सीख देता है।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-23925384505659628372009-08-24T09:47:00.003+05:302009-08-24T09:51:02.096+05:30जिन्ना, जसवंत और भारत का भविष्य<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpIUsclV_TI/AAAAAAAAAiU/Y2nxui2kt7o/s1600-h/jinnah.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 130px; height: 216px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpIUsclV_TI/AAAAAAAAAiU/Y2nxui2kt7o/s400/jinnah.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373380059226045746" /></a><br />जिन्ना पर जसवंत सिंह द्वारा लिखी गई किताब (जिन्ना – भारत विभाजन के आईने में, राजपाल एंड सन्स, रु. 599) के प्रकाशित होते ही जसवंत को भाजपा से निष्पासित कर दिया गया और गुजरात में पुस्तक पर बैन लगा दिया गया।<br /><br />दोनों ही बातें हमारे वैचारिक परिपक्वता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। क्या इस देश में विभाजन जैसे महत्वपूर्ण विषय पर खुले मन से चर्चा करना अपराध है? क्या हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां इतनी असुरक्षित और कमजोर हैं कि एक किताब के प्रकाशन से ही उनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है?<br /><br />विभाजन के बाद पैदा हुए भारतीयों के लिए विभाजन के समय की घटनाओं को गहराई से समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि उसके बिना उनके व्यक्तित्व को पूर्णता नहीं मिल सकती तथा देश के उद्भव की परिस्थितियों के बारे में उनके मन में अस्पष्टता बनी रहेगी।<br /><br />इसलिए उन दिनों की घटनाओं पर प्रकाश डालनेवाली हर पुस्तक महत्वपूर्ण है। इस तरह की पुस्तकों पर बैन लगाकर वर्तमान पीढ़ी के लोगों को विभाजन के समय की बातों को जानने से रोका जा रहा है और इसे मैं बिलकुल ही ठीक नहीं समझता।<br /><br />मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि 1947 में देश का विभाजन गलत था। इससे शायद ही किसी का फायदा हुआ है, और हुआ भी है तो भारत का अहित चाहनेवालों का, जैसे ब्रिटन, और अब चीन और अमरीका। मेरे विचार से देश का विभाजन इसलिए हुआ क्योंकि उस समय के नेता राजनीति में अकुशल थे और दीर्घदृष्टिहीन थे, और कुछ तो मौका परस्त और अंग्रेजों के हाथों के कठपुतले भी थे। जिन्ना, नेहरू आदि में भारी अहंकार भी था, जिसके चलते, वे देश हित को अपनी प्रतिष्ठा के आगे नहीं रख सके।<br /><br />कोई भी ऐतिहासिक निर्णय अनिवार्य नहीं होता। यदि बाद की पीढ़ियों को लगे कि किसी निर्णय से उनका विकास अवरुद्ध हो रहा है अथवा कोई निर्णय गलत कारणों से या गलत पक्षों के फायदे के लिए लिया गया था, तो उसे पलटना जरूरी होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है प्रथम महायुद्ध के दौरान जर्मनी के गलत विभाजन के बाद पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण। इसका एक अन्य उदाहरण है समस्त यूरोप का एकीकरण, जिसकी प्रक्रिया अभी भी चल रही है। 1960-70 के वर्षों में जब सोवियत संघ शक्तिशाली था और शीत युद्ध पराकांष्ठा पर था, इन घटनाओं की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, पर 30-40 सालों में ही ये होकर रहीं।<br /><br />इसी तरह भारत का विभाजन भी कोई पत्थर पर खींची गई लकीर नहीं है, जो बदल नहीं सकती। अब इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हो गए हैं कि विभाजन जिन्ना, नेहरू, पटेल, राजाजी, राजेंद्र प्रसाद आदि उन दिनों के नेताओं की राजनीतिक भूल थी। इससे न पाकिस्तान का कोई भला हुआ है न भारत का। दोनों देशों की जनता को उसके कारण अपार कष्ट ही झेलना पड़ा है और वे अब भी झेल रहे हैं। काश्मीर जैसे अनसुलझे मुद्दे, तीनों देशों में सांप्रदायिकता की बाढ़ और आतंकवाद भी उसी का परिणाम है।<br /><br />देश के मूल विभाजन के चंद वर्षों बाद ही बंग्लादेश का बनना इसका अकाट्य प्रमाण है कि जिन आधारों पर देश का विभाजन किया गया था, वह खोखला था। आज पाकिस्तान में जो हो रहा है जिसके कारण वह तेजी से एक विफल राज्य बनता जा रहा है, और उसके द्वारा निरंतर आतंकवाद समर्थन देने और भारत के प्रति विद्वेषात्मक रवैया बनाए रखने से उसका भारत सहित समस्त मानव जाति के लिए एक महा खतरा बन जाना, ये सब भी इसके प्रमाण हैं कि विभाजन गलत था। भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश में सांप्रदायिक और संकीर्णतावादी ताकतों का बलवती होना भी विभाजन की विषैली विरासत है।<br /><br />इसलिए हम सबको यह सोचने लगना आवश्यक है कि किस तरह विभाजन को निरस्त किया जाए। इसी में भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता की भावी खुशहाली निर्भर करती है। भारत के लिए देश का एकीकरण सामरिक दृष्टि से भी अत्यंत आवश्यक है। आज पाकिस्तान और बंग्लादेश का उपयोग करके चीन, अमरीका, ब्रिटन आदि देश भारत विरोधी कार्रवाई को अंजाम देते हैं, और भारत को कमजोर रखने का भरसक प्रयास करते हैं। इनका मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का एकीकरण आवश्यक है। भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश ऐतिहास काल से एक रहे हैं, चाहे वह चंद्रगुप्त मौर्य का समय हो या अकबर का या अंग्रेजों का। आज भी भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति है और सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक भाषाई और आर्थिक स्तरों पर अनेक समानताएं हैं, जो हजारों सालों से साथ रहने और भौगोलिक निकटता का परिणाम है। इस सहानुभूति और समानताओं के आधार पर इन तीनों देशों को पूर्ववत एक किया जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, बर्मा, अफगानिस्तान आदि भी ऐतिहासिक काल में एक ही संस्कृति से परस्पर बंधे थे।<br /><br />भारत के एकीकरण को सिद्ध करने के लिए विभाजन की घटनाओं पर पुनविर्चार और उनका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है। जसवंत और उनके पहले आडवानी ने जिन्ना के पुनर्मूल्यांकन का जो प्रयास किया है, वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे हमें विभाजन के बारे में, और उसके बहाने उपमहाद्वीप के देशों के एकीकरण के बारे में, पुनः सोचने का अवसर प्रदान करते हैं।<br /><br />राजनीति असंभव को संभव करने की कला है। 1942 तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि पांच ही वर्षों में भारत दो टुकड़ों में और फिर तीन टुकड़ों में बंट जाएगा। पर अंग्रेजों और जिन्ना जैसे लोगों ने, नेहरू, पटेल आदि की राजनीतिक अकुशलता से मदद लेते हुए, इसे साकार करके दिखाया।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpIUza0OYyI/AAAAAAAAAic/BTeCQBEsI20/s1600-h/gandhi-jinnah.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 261px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpIUza0OYyI/AAAAAAAAAic/BTeCQBEsI20/s400/gandhi-jinnah.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373380179010675490" /></a><br />इसी तरह आज 2009 में भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश का फिर से एक होना ख्याली पुलाव लगता है, पर यदि सही दिशा में कोशिशें की जाएं, यही पुलाव 2014 में ख्याली न रहकर वास्तविक भी बन सकता है।<br /><br />पर इसके लिए भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश के लोगों को इसके बारे में गंभीरता से सोचना होगा। जसवंत सिंह की किताब का महत्व इसी में है। वह लोगों को विभाजन के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। विभाजन की घटनाओं पर पुनर्विचार करने पर उसकी अनिवार्यता की धारणा कमजोर हो जाती है, और हमें विदित होने लगता है कि वह अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल थी, भारत को कमजोर रखने की। हमें समझ में आने लगता है कि भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश का असली हित एक होने में हैं। हमें समझ में आने लगता है कि आतंकवाद, कश्मीर, सांप्रदायिकता, संकीर्णतावाद, विदेशी हस्तक्षेप आदि का सही समाधान विभाजन को पलटने में है। हमें यह भी समझ में आता है कि तीन टुकड़ों में बंटे रहकर न तो भारत, न ही पाकिस्तान या बंग्लादेश ही जनता की गरीबी, भूख, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि, से ठीक से लड़ पा रहे हैं, और इनसे लड़ने के बजाए एक-दूसरे के विरुद्ध लड़कर अपनी-अपनी शक्ति को क्षीण कर रहे हैं।<br /><br />जब हमारी पीढ़ी के लोगों को ये बातें समझ में आ जाएंगी, वे विभाजन को निरस्त करने के बारे में सोचने लगेंगे। और यदि हमें कोई दूर-दृष्टिवाले कुशल नेता का मार्गदर्शन भी मिल जाए, तो यह एकीकरण संभव भी हो सकता है।<br /><br />जहां तक मैं समझ सका हूं, जिन्ना तथा नेहरू-पटेल में जो वैचारिक मतभेद था, वह भारत की राजनीतिक स्वरूप को लेकर था। जिन्ना भारत को अनेक राज्यों का विशृंखलित संघ के रूप में देखते थे, जबकि नेहरू-पटेल, एक दृढ़ केंद्र वाले यूरोपीय शैली के राष्ट्र के रूप में।<br /><br />यदि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश को एक करना है, तो पहले यह इन तीनों के एक विशृंखलित संघ के रूप में ही संभव हो पाएगा। इस विशृंखलित संघ को साकार करने में जिन्ना के विचार उपयोगी हो सकते हैं। इस विशृंखलित राष्ट्र संघ में हमें नेपाल और श्रीलंका को, और संभव हो, तो अफगानिस्तान और बर्मा तक को भी खींच लेना चाहिए, क्योंकि ये भी भारत विरोधी प्रयासों के अड्डे बनते जा रहे हैं, और तेजी से चीन, अमरीका आदि के प्रभाव में जा रहे हैं, जो हमारे हित में नहीं है।<br /><br />बाद में, तीस-पचाल वर्षों बाद, जब इस विशृंखलित संघ के रूप में रहते हुए सभी देशों के नेताओं और जनता को तसल्ली हो जाए, तो विशृंखलन को उत्तरोत्तर कम किया जा सकता है, और नेहरू-पटेल वाले अधिक दृढ़ केंद्रीकृत राष्ट्र की ओर बढ़ा जा सकता है। यूरोप का एकीकरण भी इसी तरीके से हो रहा है। पहले अनेक मामलों में यूरोपीय संघ के घटक देश स्वतंत्र थे। फिर धीरे-धीरे उनकी बहुत से विशेषाधिकार यूरोपीय संघ को स्थानांतरित किए गए, जैसे, सेना, विदेश नीति, मुद्रा, नागरिकता आदि।<br /><br />इसी रास्ते हम भी चल सकते हैं। इसलिए 1947 के नेताओं में जो विचार-भेद था वह हमारे लिए अत्यंत उपयोगी और प्रासंगिक है, ये सब नेता अखंड भारत को दृष्टि में रखकर सोचते थे, क्योंकि तब भारत अविभाजित था।<br /><br />विभाजन को इस तरह निरस्त करना एक प्रतीकात्मक कार्य भी होगा और इस महा अभियान के साथ हम अपनी अनेक अन्य सामयिक समस्याओं को भी जोड़ सकते हैं, जो सब ले-देकर अंग्रेजी राज की ही विरासतें हैं। जैसे राष्ट्रभाषा का विषय और आरक्षण का मुद्दा। आज आरक्षण की राजनीति देश को बांट रही है और इस देश में रह रहे सभी लोगों के भावनात्मक एकीकरण के आड़े आ रही है। इसी तरह राष्ट्रभाषा के विषय का आजादी आंदोलन कोई ठोस समाधान नहीं प्रस्तुत कर सका, जिसके परिणामस्वरूप हमारी सभी भाषाओं की बाढ़ रुक सी गई है और हम पर आज भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बना हुआ है। इससे देश कमजोर हुआ है और सत्ता-संपन्न (अंग्रेजी जाननेवाले) और सत्ता-विहीन (अंग्रेजी न जाननेवाले) में देश बंटता जा रहा है। राष्ट्र को जोड़े रखने और उसके विभिन्न भागों में विचार विनिमय को सुगम बनाने के लिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत इस जोड़नेवाली कड़ी के बिना अपना काम चला रहा है, क्योंकि शासन में अंग्रेजी का ही अधिक उपयोग होता है। इस तरह की विसंगतियों को भी विभाजन को निरस्त करने के महा अभियान के साथ जोड़कर आसानी से दूर किया जा सकता है।<br /><br />इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का राजनीतिक एकीकरण 1857 की क्रांति या 1947 के आजादी आंदोलन के स्तर का महा प्रयास होगा, जो एक ही साथ कई समस्याओं का समाधन कर सकेगा। पर इतना बड़ा आंदोलना चलाना कोई आसान काम भी न होगा। इसके लिए हमें कांग्रेस की तरह का कोई उपकरण, गांधी जी जैसे कुशल विचारक और समन्वयवादी नेता, तथा भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, आदि के समान विचारशील और साहसी युवकों की आवश्यकता पड़ेगी। <br /><br />1857 और 1947 में हमारे समक्ष शत्रु सुस्पष्ट था – अंग्रेज और अंग्रेजी राज। आज शत्रु उतना स्पष्ट नहीं है। इसी का लाभ उठाकर कुछ संकीर्णतावादी ताकतें, देशवासियों के ही एक हिस्से को अथवा अपने ही मूल देश के टुकड़ों को शत्रु का जामा पहनाकर जनता को संगठित करने का प्रयास कर रही हैं। यह प्रयास खंडित है, खराब राजनीति है और सामरिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। हमें असली शत्रु को पहचानना होगा। असली शत्रु है विभाजन के कारण पैदा हुई वैमनस्यपूर्ण परिस्थितियां। इन परिस्थितयों को शब्दों और विचारों में ऐसा परिभाषित और रूपायित करना होगा कि आम आदमी भी इन्हें शत्रु के रूप में पहचान सकें और इनके विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष में मर-मिटने के लिए तैयार हो जाएं, उसी तरह जैसे वे 1857 में या 1947 में तैयार हुए थे। इसमें कवियों, लेखकों, नाटकारों, फिल्मकारों, आदि की महत्वपूर्ण भूमिका है।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-24445481725587295182009-08-23T11:53:00.011+05:302009-08-23T17:54:09.103+05:30आइए आपको सिखाता हूं दक्षिण भारतीय मोदक बनाना<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SiHz8jPCf6I/AAAAAAAAAK4/JLkX6-WpqHI/s1600-h/ganesh3.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 273px; height: 400px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SiHz8jPCf6I/AAAAAAAAAK4/JLkX6-WpqHI/s400/ganesh3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5341818854614138786" /></a><br /><br />आज गणेश चतुर्थी है। घर में दक्षिण भारतीय शैली में मीठे मोदक बने। मैंने आपको बताने के इरादे से बनाने की सारी विधि का फोटो ले लिया ताकि आप भी इस स्वादिष्ट व्यंजन का कभी मजा ले सकें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">क्या-क्या चाहिए होगा</span><br /><br />तो सबसे पहले आवश्यक चीजों की सूची देख लेते हैं। आपको चाहिए होंगे –<br /><br />1. एक बड़ा नारियल<br />2. एक कप गुड़<br />3. एक कप चावल का महीन पिसा आटा<br /><br />इतनी सामग्री से लगभग 20 मोदक बनेंगे। यदि आपको इससे अधिक चाहिए, तो इसी अनुपात में और सामग्री ले लें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बनाने की विधि</span><br /><br />1. नारियल का महीन कतरन बना लें।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDssHkXc4I/AAAAAAAAAhM/dXVy30DeWTc/s1600-h/-1coconutgiri.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 374px; height: 347px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDssHkXc4I/AAAAAAAAAhM/dXVy30DeWTc/s400/-1coconutgiri.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373054598142980994" /></a><br /><br />2. एक कड़ाई में आधा गिलास पानी डालें और उसे उबलने के लिए रख दें। जब पानी उबलने लगे, गुड़ को उसमें डाल दें। थोड़ी देर में गुड़ पानी में पूरी तरह घुल जाएगा। तब नारियल की गिरी को कड़ाई में डाल दें और हिलाते रहें ताकि गुड़ और नारियल अच्छी तरह मिल जाएं। जब कड़ाई का सारा पानी उड़ जाए और गुड़ और नारियल अच्छी तरह मिल जाएं, तो कड़ाई को आंच से उतार लें। थोड़ी देर इंतजार करें ताकि नारियल-गड़ का पूरण थोड़ा ठंडा हो जाए। तब उसके आंवले के जितने बड़े गोल पिंड बना लें, जैसा चित्र में दिखाया गया है।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDs6sAS5-I/AAAAAAAAAhU/DKq8-goNbUM/s1600-h/0modakpurnam.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 348px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDs6sAS5-I/AAAAAAAAAhU/DKq8-goNbUM/s400/0modakpurnam.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373054848441968610" /></a><br /><br />3. चावल के आटे को महीन छलनी से छान लें ताकि उसके कण बहुत छोटे हों। आटा जितना महीन होगा उतने अधिक अच्छे मोदक बनेंगे। <br /><br />4. अब दूसरी कड़ाई में एक गिलास पानी डालकर उबलने के लिए आंच पर रख दें। उसमें एक चुटकी नमक भी मिलाएं। जब पानी उबलने लगे, तो उसमें चावल का आटा मिला दें और करछुल से अच्छी तरह हिलाते जाएं। चावल का आटा जब सारा पानी सोख ले, और अच्छी तरह पक जाए, तो कड़ाई को आंच से उतार दें। पका हुआ चावल का आटा इस तरह दिखना चाहिए।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDtUdaOBiI/AAAAAAAAAhc/lF7eh0qVujE/s1600-h/1modakcover.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 341px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDtUdaOBiI/AAAAAAAAAhc/lF7eh0qVujE/s400/1modakcover.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373055291200767522" /></a><br /><br />5. पूरण के पिंडों से थोड़े बड़े गोल पिंड, चावल के पके आटे के भी बना लें। यदि चावल का आटा हाथ से चिपके, तो उंगलियों पर थोड़ा नारियल का तेल लगा लें। चावल के आटे के उतने पिंड बनाएं जितने पूरण के पिंड हों।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDtlxsN-LI/AAAAAAAAAhk/moNFoo50iCk/s1600-h/2modakcovergola.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 361px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDtlxsN-LI/AAAAAAAAAhk/moNFoo50iCk/s400/2modakcovergola.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373055588702746802" /></a><br /><br />6. अब चावल के प्रत्येक पिंड को दोनों हाथों में पकड़कर दोनों हाथों के अंगूठों से दबाकर चपटा कर लें। <br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDty8rfhcI/AAAAAAAAAhs/DcAFNw-frWk/s1600-h/3modakcoverflat.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 374px; height: 321px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDty8rfhcI/AAAAAAAAAhs/DcAFNw-frWk/s400/3modakcoverflat.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373055814990792130" /></a><br /><br />7. उसके बीच में पूरण का एक पिंड रखकर पूरण के पिंड को चारों ओर से चावल के आटे से ढंक दें। चावल के आटे को ऊपर की तरफ इकट्ठा करके नोंक जैसा आकार दे दें, जैसा चित्र में दिखाया गया है।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDt9keGchI/AAAAAAAAAh0/MDeZehQWcB8/s1600-h/4modakcoverwithpuran.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 335px; height: 330px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDt9keGchI/AAAAAAAAAh0/MDeZehQWcB8/s400/4modakcoverwithpuran.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373055997470732818" /></a><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDuJunTxtI/AAAAAAAAAh8/wYgwfhuumac/s1600-h/5modakcomplete.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 279px; height: 287px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDuJunTxtI/AAAAAAAAAh8/wYgwfhuumac/s400/5modakcomplete.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373056206352139986" /></a><br /><br />8. इसी तरह सभी पिंड़ों को तैयार करें।<br /><br />9. अब प्रेशर कुकर में इन पिंडों को रखकर 20 मिनट तक बिना वेट रखे भाप में पकाएं।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDuauH7XoI/AAAAAAAAAiE/4gITLjyAC_0/s1600-h/6modakcooker.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 375px; height: 375px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDuauH7XoI/AAAAAAAAAiE/4gITLjyAC_0/s400/6modakcooker.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373056498278293122" /></a><br /><br />10. खाने से पहले गणेश जी को एक मोदक भोग लगाना न भूलें!<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDuugKziYI/AAAAAAAAAiM/55D0JbLRzSg/s1600-h/7modakall.png"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 345px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SpDuugKziYI/AAAAAAAAAiM/55D0JbLRzSg/s400/7modakall.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5373056838129650050" /></a>बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-41405328190695807122009-08-19T09:50:00.001+05:302009-08-19T09:52:55.497+05:30एडोब इनडिजाइन सीएस4 और हिंदीविश्व भर में डीटीपी के लिए अब अधितर एडोब इनडिजाइन का ही उपयोग हो रहा है। इसने अपने प्रतिद्वद्वी डीटीपी सोफ्टवेयरों को या तो कहीं पीछे छोड़ दिया है, या उन्हें खरीदकर अपने में मिला लिया है। पहले वर्ग में आते हैं क्वार्क एक्सप्रेस, फ्रंटपेज, और माइक्रोसोफ्ट पब्लिशर, और दूसरे वर्ग में आता है, पेजमेकर।<br /><br />पर जहां तक यूनिकोड एनकोडिंग में हिंदी डीटीपी का संबंध है, माइक्रोसोफ्ट पब्लिशर को छोड़कर उपर्युक्त सभी डीटीपी सोफ्टवेयर अनुपयुक्त हैं, क्योंकि वे हिंदी के लिए यूनिकोड एनकोडिंग का समर्थन नहीं करते हैं। इससे बड़ी दिक्कतें आती हैं, क्योंकि एक ही सामग्री को वेब साइट और प्रिंट के लिए नहीं उपयोग किया जा सकता। वेब साइट के लिए यूनिकोड एनकोडिंग में, यानी मंगल, एरियल यूनिकोड एमएस आदि फोंटों में सामग्री को तैयार करना पड़ता है, और प्रिंट के लिए कृतिदेव, डीवी-टीसुरेख, युवराज आदि गैर-यूनिकोड फोंटों में, ताकि पेजमेकर, इनडिजाइन, फ्रंटपेज, आदि में अक्षर-विन्यास (लेआउट) किया जा सके। इससे डबल मेहनत तो होती ही है, आगे सामग्री को अद्यतन करते समय भी खूब परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसा विशेषकर सोफ्टेवेयर मैन्यएलों के संबंध में आता है। इनके नए संस्करणों में यहां-वहां थोड़ा-बहुत परिवर्तन रहता है और बाकी सब सामग्री पहले के जैसे ही रहती है। पर हिंदी का मुद्रित मैनुअल कृतिदेव आदि गैरयूनिकोड फोंट में होने से ट्रेडोस आदि उन्नत शब्दसाधन और अनुवाद सोफ्टवेयर का उपयोग करके तेजी से इन अंशों को ठीक करना असंभव होता है। करना यह पड़ता है कि पहले यूनिकोड-एनकोडिंग वाली फाइलों में ये सुधार करने के बाद फाइल को या तो दुबारा कृतिदेव में टाइप कर दिया जाए, या फोंट कन्वर्टरों का प्रयोग करके मंगल आदि फोंट से कृतिदेव आदि में सामग्री को बदल दिया जाए। पर अब तक ऐसे कनवर्टर नहीं बन पाए हैं जो शतप्रतिशत परिशुद्धता के साथ मंगल आदि की सामग्री को कृतिदेव आदि में बदलकर दे। इससे फोंट-परिवर्तित सामग्री का बारीकी से प्रूफ-शोधन करना आवश्यक हो जाता है, जिसेम समय, श्रम और पैसा खूब लगता है। एक अन्य समस्या यह है फोंट कन्वर्टर केवल टेक्स्ट या वर्ड फाइलों को ही संभाल पाते हैं, इंडिजाइन की जैसी अधिक जटिल फाइलों को ले नहीं पाते हैं।<br /><br />परंतु खुशी की बात यह है कि अब एडोब जैसे सोफ्टवेयर निर्माता अपने सोफ्टवेयरों में यूनिकोड एनकोडिंग में हिंदी के लिए धीरे-धीरे समर्थन मुहैया कराते जा रहे हैं, जो हिंदी के तेजी से विश्व भाषा बनते जाने का ही प्रमाण है, क्योंकि यदि विश्व भर में हिंदी की पर्याप्त मांग न रहने पर, ये विदेशी सोफ्टवेयर कंपनियां, जो पूर्णतः व्यावसायिक मानदंडों और मुनाफे की संभावना पर काम करती हैं, अपने सोफ्टवेयरों में हिंदी का समर्थन शामिल करने में समय, श्रम और पैसा नहीं खर्च करतीं।<br /><br />इस मामले में माइक्रोसोफ्ट सबसे आगे रहा है और उसकी लगभग सभी प्रमुख सोफ्टवेयर यूनिकोड-एनकोडिंग में हिंदी का समर्थन करते हैं। माइक्रोसोफ्ट का डीटीपी सोफ्टवेयर पब्लिशर है, जो पूर्णतः यूनिकोड हिंदी का समर्थन करता है। पर माइक्रोसोफ्ट की सिद्धहस्तता प्रचालन तंत्र (विंडोस), ब्राउसर (इंटरनेट एक्सप्लोरर) और शब्द साधन (एमस वर्ड) में है, न कि डीटीपी में। इसलिए पब्लिशर इनडिजाइन के सामने फीका है, और अधिक लोग उसका उपयोग भी नहीं करते हैं। अभी विश्वभर में डीटीपी के लिए इनडिजाइन का ही ज्यादा उपयोग होता है।<br /><br />इनडिजाइन का ताजा संस्करण सीएस4 के नाम से जाना जाता है, सीएस यानी क्रिएटिव स्यूट। इससे पहले के संस्करणों का नाम सीएस3, सीएस2 आदि है। एडोब क्रिएटि सूट वास्तव में डीटीप, वेबडिजाइन, एनिमेशन आदि में उपयोगी साबित होनेवाले कई उम्दा सोफ्टवेयरों का समुच्चय है, जिसमें शामिल हैं, फोटोशोप, इलस्ट्रेटर, फ्लैश, ड्रीमवीवर, और इंडिजाइन।<br /><br />आइए देखें इनडिजाइन के ये सब संस्करण यूनिकोड हिंदी का किस हद तक समर्थन करते हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">इनडिजाइन सीएस2 और सीएस3</span><br /><br />सीएस2 और सीएस3 में हिंदी का समर्थन नहीं है। पर एक भारतीय कंपनी ने ऐसे प्लग-इन विकसित किए हैं, जिन्हें लगाने से सीएस2 और सीएस3 में यूनिकोड हिंदी में काम किया जा सकता है।<br /><br />इस कंपनी का नाम है मेटाडिजाइन और प्लग-इन का नाम है इंडिक-टूल्स। इस प्लग-इन की कीमत है 110 डालर। इसे लगाने पर न केवल इंडिजाइन में यूनिकोड हिंदी का अक्षर-विन्यास ठीस से हो सकता है, बल्कि शब्दकोश समर्थन भी प्राप्त होता है, यानी वर्तनी की त्रुटियां भी रखांकित होती हैं।<br /><br />इस कंपनी का वेब साइट यह है –<br /><a href="http://www.metadesignsolutions.com/IndicPlus.html">http://www.metadesignsolutions.com/IndicPlus.html</a><br /><br /><span style="font-weight:bold;"><br />इंडिजाइन सीएस4</span><br /><br />अब आते हैं इनडिजाइन सीएस4 पर जो इनडिजान का नवीनतम संस्करण है। खुशी की बात यह है कि इसमें यूनिकोड हिंदी के लिए पूर्ण समर्थन है, पर एडोब ने इन सुविधाओं तक पहुंचने के लिए जो इंटरफेस आवश्यक है उसे विकसित नहीं किया है। मतलब यह, कि सीएस4 में यूनिकोड हिंदी में काम करना संभव नहीं है। पर इसके लिए भी उत्कृष्ठ प्लग-इन उपलब्ध है। इस प्लग-इन का नाम है वर्ल्ड रेडी कंपोसर। उसकी कीमत 49 डालर है। उसे इस वेब साइट से डाउनलोड/खरीदा जा सकता है– <br /><br /><a href="http://www.in-tools.com/plugin.php?p=8">http://www.in-tools.com/plugin.php?p=8</a><br /><br />यहां से उसका 20 दिनों का फुल-फंक्शन वाला ट्रायल वर्शन भी खरीदा जा सकता है। इसे लगाने पर इनडिजाइन सीएस4 में यूनिकोड हिंदी के साथ काम किया जा सकता है। पर इस प्लग-इन में शब्दकोश समर्थन नहीं है।<br /><br />मजे की बात यह है कि उपर्युक्त वर्ल्ड रेडी कंपोसर प्लग-इन के ट्रायल संस्करण का 20 दिन का समय निकल जाने के बाद भी, उस दौरान सेव की गई इंडिजाइन सीएस4 की फाइलों में यह इंटरफेस बना रहता है, और इन फाइलों में यूनिकोड हिंदी में मजे से काम किया जा सकता है। यदि इस तरह के फाइलों को खोला रखकर इनडिजाइन की नई फाइलें बनाने पर यह इंटरफेस उन नए फाइलों में भी काम करता रहता है। यानी ट्रायल अवधि बीत जाने के बाद भी काम चलता रहता है। पर जो लोग इंडिजाइन में नियमित काम करते हों, उन्हें यह प्लग-इन खरीद लेना चाहिए।<br /><br />इन प्लग-इनों के बारे में अधिक जानकारी के लिए और इनके उपयोग की रीति के बारे में और जानने के लिए, निम्नलिखित कड़ी को भी देख आएं – <br /><br /><a href="http://www.thomasphinney.com/2009/01/adobe-world-ready-composer/">http://www.thomasphinney.com/2009/01/adobe-world-ready-composer/</a><br /><br /><span style="font-weight:bold;">इंडिजाइन एमई</span><br /><br />और अंत में इनडिजाइन की एक विशेष संस्करण के बारे में, जिसे इनडिजाइन मिडल ईस्टर्न (एमई) कहा जाता है। यह दाएं से बाएं लिखी जानेवाली अरबी आदि भाषाओं के लिए बनाया गया इनडिजाइन का विशेष संस्करण है। इस संस्करण का उपयोग करके यूनिकोड हिंदी में भी काम किया जा सकता है। पर मेरी जानकारी के अनुसार इसकी कीमत कुछ 2500 डालर है।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">समाहार</span><br /><br />इस तरह हम कह सकते हैं कि अब इंडिजाइन में यूनिकोड हिंदी का उपयोग करना संभव हो गया है –<br />1. यदि आप सीएस2 या सीएस3 का उपयोग करते हों, तो मेटाडिजाइन द्वारा विकसित इंडिक प्लग-इन का उपयोग करें।<br />2. यदि आप सीएस4 का उपयोग करते हों, तो वर्ल्ड रेडी कंपोसर का उपयोग करें।<br />3. या यदि आपकी जेब में खूब पैसे हों, तो इंडिजाइन एमई खरीदें।<br />4. या आप धीरजवाले व्यक्ति हों तो एडोब सीएस5 के आने का इंतजार करें, जिसके बारे में अफवाह है कि वह 2010 के अक्तूबर तक बाजार में आ जाएगा। इसमें यूनिकोड हिंदी के लिए पूर्ण समर्थन होने की लगभग शत-प्रतिशत संभावना है, कम-से-कम इंडिजाइन सीएस5 में तो हिंदी के लिए पूर्ण समर्थन होना चाहिए। पर फोटोशोप, इलस्ट्रेटर आदि के लिए संभवतः सीएस5 में समर्थन नहीं रहेगा, क्योंकि इनमें हिंदी समर्थन लाने के लिए एडोब को और अधिक मेहनत करने की आवश्यकता है। पर अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है, सीएस5 में फोटोशोप, इलस्ट्रेटर, फ्लैश आदि सभी में हिंदी समर्थन लाकर एडोब हमें चकित भी कर सकता है।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-48459309647274617432009-08-18T08:58:00.000+05:302009-08-18T09:00:31.315+05:30हिंदी का पहला उपन्यासहिंदी का पहला उपन्यास होने का गौरव लाला श्रीनिवास दास (1850-1907) द्वारा लिखा गया और 25 नवंबर 1885 को प्रकाशित <span style="font-weight:bold;">परीक्षा गुरु</span> नामक उपन्यास को प्राप्त है। लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटकार थे। नाटक लेखन में वे भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे मथुरा के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। उनके नाटकों में शामिल हैं, प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर और प्रेम मोहिनी, और संयोगिता स्वयंवर। <br /><br />लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। मदनमोहन एक समृद्ध वैश्व परिवार में पैदा होता है, पर बचपन में अच्छी शिक्षा और उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण और युवावस्था में गलत संगति में पड़कर अपनी सारी दौलत खो बैठता है। न ही उसे आदमी की ही परख है। वह अपने सच्चे हितैषी ब्रजकिशोर को अपने से दूर करके चुन्नीलाल, शंभूदयाल, बैजनाथ और पुरुषोत्तम दास जैसे कपटी, लालची, मौका परस्त, खुशामदी "दोस्तों" से अपने आपको घिरा रखता है। बहुत जल्द इनकी गलत सलाहों के चक्कर में मदनमोहन भारी कर्ज में भी डूब जाता है और कर्ज समय पर अदा न कर पाने से उसे अल्प समय के लिए कारावास भी हो जाता है।<br /><br />इस कठिन स्थिति में उसका सच्चा मित्र ब्रजकिशोर, जो एक वकील है, उसकी मदद करता है, और उसकी खोई हुई संपत्ति उसे वापस दिलाता है। इतना ही नहीं, मदनमोहन को सही उपदेश देकर उसे अपनी गलतियों का एहसास भी कराता है।<br /><br />उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेजी से आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रज भाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। काव्य के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रज भाषा चुना है।<br /><br />उपन्यास की भाषा हिंदी के प्रारंभिक गद्य का अच्छा नमूना है। उसमें संस्कृत और फारसी के कठिन शब्दों से यथा संभव बचा गया है। सरल, बोलचाल की (दिल्ली के आस-पास की) भाषा में कथा सुनाई गई है। इसके बावजूद पुस्तक की भाषा गरिमायुक्त और अभिव्यंजनापूर्ण है। वर्तनी के मामले में लेखक ने बोलचाल की पद्धति अपनाई है। कई शब्दों को अनुनासिक बनाकर या मिलाकर लिखा है, जैसे, रोनें, करनें, पढ़नें, आदि, तथा, उस्समय, कित्ने, उन्की, आदि। “में” के लिए “मैं”, “से” के लिए “सैं”, जैसे प्रयोग भी इसमें मिलते हैं। कुछ अन्य वर्तनी दोष भी देखे जा सकते हैं, जैसे, समझदार के लिए समझवार, विवश के लिए बिबश। पर यह देखते हुए कि यह उपन्यास उस समय का है जब हिंदी गद्य स्थिर हो ही रहा था, उपन्यास की भाषा काफी सशक्त ही मानी जाएगी।<br /><br />इस उपन्यास की भाषा का एक बानगी नीचे दे रहा हूं –<br /><br /><blockquote>“सुख-दुःख तो बहुधा आदमी की मानसिक वृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन है। एक बात सै एक मनुष्य को अत्यन्त दःख और क्लेश होता है वही दूसरे को खेल तमाशे की-सी लगती है इसलिए सुख-दुःख होनें का कोई नियम मालूम होता” मुंशी चुन्नीलाल नें कहा।<br /><br />“मेरे जान तो मनुष्य जिस बात को मन सै चाहता है उस्का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा।<br /><br />“तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख में फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्का क्या कराण? असल बात यह है कि जिस्समय मनुष्य के मन मैं जो वृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशीकी सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछताबा करता है और न्याय वृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्हने अपनी भूल का अंगीकार करकै उस्के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्म सै आत्मग्लानि और उचित कर्म्म सै आत्मप्रसाद हुए बिना सर्वथा नहीं रहता” लाला ब्रजकिशोर बोले।<br /><br />(सुख-दुःख, प्रकरण से)</blockquote><br /><br />कुल मिलाकर यह एक सफल उपन्यास है जो उपन्यास विधा की सभी विशेषताओं को दर्शाता है।<br /><br />माना जाता है कि दुनिया का सबसे पहला उपन्यास जापानी भाषा में 1007 ई. में लिखा गया था। यह था “जेन्जी की कहानी” नामक उपन्यास। इसे मुरासाकी शिकिबु नामक एक महिला ने लिखा था। इसमें 54 अध्याय और करीब 1000 पृष्ठ हैं। इसमें प्रेम और विवेक की खोज में निकले एक राजकुमार की कहानी है।<br /><br />यूरोप का प्रथम उपन्यास सेर्वैन्टिस का “डोन क्विक्सोट” माना जाता है जो स्पेनी भाषा का उपन्यास है। इसे 1605 में लिखा गया था।<br /><br />अंग्रेजी का प्रथम उपन्यास होने के दावेदार कई हैं। बहुत से विद्वान 1678 में जोन बुन्यान द्वारा लिखे गए “द पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस” को पहला अंग्रेजी उपन्यास मानते हैं।<br /><br />भारतीय भाषाओं में लिखे गए प्रथम उपन्यासों का ब्योरा इस प्रकार है -<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मलयालम</span><br />इंदुलेखा। रचनाकाल, 1889, लेखक चंदु मेनोन।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">तमिल</span><br />प्रताप मुदलियार। रचनाकाल 1879, लेखक, मयूरम वेदनायगम पिल्लै।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बंगाली</span><br />दुर्गेशनंदिनी। रचनाकाल, 1865, लेखक, बंकिम चंद्र चैटर्जी।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मराठी</span><br />यमुना पर्यटन। रचनाकाल, 1857, लेखक, बाबा पद्मजी। इसे भारतीय भाषाओं में लिखा गया प्रथम उपन्यास माना जाता है।<br /><br />इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत की लगभग सभी भाषाओं में उपन्यास विधा का उद्भव लगभग एक ही समय दस-बीस वर्षों के अंतराल में हुआ।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-65534474142754332732009-08-17T09:10:00.001+05:302009-08-17T09:13:00.880+05:30जुए बीनना और बतियाना<span style="font-weight:bold;">मानव निरीक्षण - 5</span><br /><br />क्या आप बता सकते हैं, बंदरों की सबसे प्रिय आदत क्या है? वह है एक दूसरे के शरीर से जुए बीनना। जुए बीनने की यह आदत उनकी सामाजिक व्यवस्था में काफी महत्व रखती है। मनुष्यों में भी जुए बीनने की बंदरों की आदत का समतुल्य व्यवहार होता है? वह है, बतियाना, जी हां, बातचीत करना। आगे पढ़िए, सब स्पष्ट हो जाएगा।<br /><br />टोलियों में रहनेवाले सदस्यों में एक वरीयता क्रम (पेकिंग आर्डर) होता है, जो यह तय करता है कि मैथुन, भोजन, सुरक्षा और अन्य सुविधाओं पर पहला अधिकार किसका हो। यह वरीयता क्रम टोली के सदस्यों में इन सब सुविधाओं के लिए नित्य के झगड़ों से बचने के लिए बहुत आवश्यक है। टोलियों के सदस्य शुरुआत में हल्के-फुल्के शक्ति परीक्षण से इस क्रम को निश्चित कर लेते हैं, और उसके बाद टोली में अपेक्षाकृत शांति बनी रहती है। लड़ाई की नौबत तभी आती है जब इस क्रम का कोई उल्लंघन करे। ऐसा होने पर जिस सदस्य की हैसियत को चुनौती मिली हो, वह या तो अपनी हैसियत की लाज रखने के लिए नियम भंग करनेवाले से भिड़ जाता है, या उसके लिए अपना स्थान सदा के लिए छोड़ देता है।<br /><br />वरीयता क्रम निश्चित हो जाने के बाद भी सदस्यों में परस्पर सौहार्द बनाए रखने के लिए बहुत से छोटे-मोटे व्यवहार होते रहते हैं। इनमें से एक प्रमुख व्यवहार एक-दूसरों के शरीर से जुए बीनना है। हमें लग सकता है कि यह बिना किसी निहितार्थ के किया जाता होगा, पर जिन वैज्ञानिकों ने इन बातों का अध्ययन किया है, वे बताते हैं कि जुए बीनने जैसे सामान्य व्यवहार के पीछे भी काफी राजनीति होती है।<br /><br />आमतौर पर जुए बीनना अपने से अधिक सत्तावान सदस्य के प्रति समर्पण भाव दिखाने का एक तरीका होता है। सामान्यतः कम शक्तिमान सदस्य ही अपने से अधिक शक्तिमान सदस्य के शरीर से जुए बीनता है। ऐसा करके वह यही दर्शाता है कि मैं तुम्हारी वरीयता स्वीकार करता हूं और इसके सबूत के रूप में मैं तुम्हें कष्ट पहुंचा रहे इन कीड़ों से छुटकारा दिलाऊंगा। और अधिक सत्तावान सदस्य अपने से कम सत्तावान सदस्य द्वारा अपने शरीर के जुए बिनवाकर उसे यही आश्वासन देता है कि मैं तुम्हारे समर्पण को स्वीकार करता हूं और तुम्हें अपने संरक्षण में लेता हूं और तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा। इससे दोनों को मनोवैज्ञानिक सकून मिलता है। सत्तावान सदस्य उस दूसरे सदस्य के प्रति निश्चिंत हो जाता है कि यह मेरे विरुद्ध उत्पात नहीं करेगा, और कम सत्तावान सदस्य को यह आश्वासन मिलता है कि मुझसे अधिक शक्तिशाली यह सदस्य अब मेरा उत्पीड़न नहीं करेगा।<br /><br />मित्रों में, अर्थात लगभग समान सामाजिक हैसियत वाले सदस्यों में, जुए बीनने की क्रिया उनके परस्पर संबंधों को और प्रगाढ़ बनाती है।<br /><br />इसलिए बंदरों में जुए बीनने की क्रिया समूह के अंदर के सबंधों को बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।<br /><br />अब आते हैं मनुष्यों के विषय पर। मनुष्य भी वानर कुल का ही सदस्य है, और वह भी समूहों में रहनेवाला प्राणी है। उसमें भी जुए बीनने की क्रिया से मिलता-जुलता व्यवहार है, जो है बतियाना।<br /><br />मनुष्यों में समस्या यह है कि उसके शरीर में बाल नहीं हैं, इसलिए उसे जुए, पिस्सू आदि जीव कम परेशान करते हैं। इसलिए जुए बीनने की क्रिया उसके संबंध में अर्थहीन है। पर हम सब जानते हैं कि हमारे समुदाय में भी एक सुस्पष्ट वरीयता क्रम देखी जाती है। चाहे आप परिवार को लें, या किसी दफ्तर के सदस्यों को, हमें वहां सब एक वरीयता क्रम दिखाई देगा। सबसे ज्यादा अधिकार परिवार के वरिष्ठ पुरुष सदस्य का, फिर उसकी पत्नी का, उसके बाद उनके सबसे वरिष्ठ पुत्र का, सबसे नीचे बच्चों और नौकर-चाकरों का। बच्चों में भी वरीयकता क्रम होता है, चाहे वह घर के बच्चे हों या मोहल्ले या स्कूल के बच्चे। नौकरों में भी यही बात है। दफ्तर में सबसे अधिक रसूख वाला व्यक्ति सीईओ होता है, उसके नीचे वरिष्ठ प्रबंधक, फिर कनिष्ठ प्रबंधक, फिर उनके सचिव आदि और सबसे कम रसूख वाला कर्मचारी चपरासी होता है जिस पर सब रौब जमाते हैं। सेना में तो यह बहुत ही औपचारितापूर्ण ढंग से लागू होता है।<br /><br />अनौपचारिक रूप से भी, जहां भी चार मनुष्य एकत्र हों, उनके बीच यह वरीयता क्रम निश्चित हो जाता है। लोग एक-दूसरे को नाप-तौलकर अपने बीच तय कर लेते हैं कि कौन किससे आगे है और इस क्रम का सभी व्यवहारों में पालन करते हैं। यह अल्प समय के लिए बने मानव समूहों में भी देखा जाता है, जैसे किसी रेल के डिब्बे में चंद घंटों के लिए एकत्र मुसाफिरों में।<br /><br />डेसमंड मोरिस (मैन वाचिंग, द नेकड एप, ह्यूमन ज़ू आदि पुस्तकों के लेखक) का कहना है कि इस वरीयता क्रम को बिना अनावश्यक लड़ाई-झगड़े के बनाए रखने के लिए मनुष्यों में जो तरीका है, वह है बतियाना। मनुष्य निरंतर बितियाता रहता है। दो मनुष्य मिले नहीं कि कोई न कोई बहाना ढूंढ़कर वे बातचीत शुरू कर देते हैं। डेसमंड मोरिस का कहना है कि यह वास्तव में दोनों में एक दूसरे को तौलने और वरीयता क्रम निश्चित करने की प्रक्रिया है। पुराने परिचित भी खूब बातचीत करते हैं। इनमें बातचीत का महत्व वरीयता क्रम निश्चित करने में नहीं है, क्योंकि वह पहले ही निश्चित हो चुका होता है, बल्कि उसे पुष्ट करने में होता है।<br /><br />बातचीत में संलग्न दोनों सदस्य एक दूसरे के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं, दोनों के बीच तनाव कम हो जाता है और समाज में सामरस्य बना रहता है।<br /><br />आम प्रवृत्ति अधिक बातचीत को हतोत्साहित करने की है। स्कूलों में, दफ्तरों में, सभी जगह यही कहा जाता है कि बातें कम करो, और काम करो, बातों में समय नष्ट मत करो, इत्यादि। पर यदि हम डेसमंड मोरिस की बात मानें, तो बातें करना तनाव मुक्ति और अनावश्यक रगड़-झगड़ घटाने का एक साधन है और यदि हमें मनुष्य समाज में शांति बनाए रखनी हो, तो हमें परस्पर खूब बातचीत करनी चाहिए।<br /><br />यदि हम हमारे व्यवहार पर थोड़ा गौर करें तो डेसमंड मोरिस की बात समझ में आती है। जब दो लोगों में मन-मुटाव होता है, तो इसका एक प्रमुख संकेत होता है उनमें बातचीत बंद हो जाना। दोनों मुंह फुलाएं एक दूसरे से कट्टी कर लेते हैं। बच्चों में तो यह खास तौर से देखा जाता है। और दोनों में मैत्री भाव की पुनर्स्थापना का पहला संकेत भी यही होता है कि वे दोनों बातें करने लग गए हैं। दोनों में मेल-मिलाप करानेवाले व्यक्ति भी सबसे पहले दोनों के बीच बातचीत शुरू कराने की ही कोशिश करते हैं। <br /><br />इस तरह हम देखते हैं कि बातचीत हमारे समुदाय में तनाव घटाने का और मैत्री भाव जताने का एक महत्वपूर्ण जरिया होता है। यदि दो लोगों में मनमुटाव हो तो उनमें बातचीत करा दीजिए और देखिए वे कैसे तुरंत फिर से मित्र बन जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति तनाव, मायूसी या चिंता से ग्रस्त हो, तो उससे खूब बातचीत कीजिए उसे तुरंत आराम मिल जाएगा। यदि आप स्वयं तनाव, मायूसी या चिंता से परेशान हों, तो अपने परिवार के जनों, मित्रों, पड़ोसियों और अन्य व्यक्तियों से खूब बात कीजिए, और देखिए आप कितनी जल्दी बेहतर महसूस करते हैं।<br /><br />मजे की बात यह है कि यह दो व्यक्तियों पर ही लागू नहीं होता, दो राष्ट्रों में भी यही बात देखी जाती है। विवाद की स्थिति में दोनों औपचारिक कूटनीतिक संबंधों को तोड़ लेते हैं। एक-दूसरे के देश से अपने राजदूतों को वापस बुला लेते हैं, और यदि इससे भी बात नहीं बनी तो, अपने दूतावासों को ही बंद कर लेते हैं। उसके बाद तो खुले युद्ध का ही रास्ता बचा रहता है।<br /><br />दूसरे देश जो इस लड़ाई से दुनिया को बचाना चाहते हैं, वे यही कोशिश करते हैं कि दोनों देशों में फिर से बातचीत शुरू हो जाए। भारत और पाकिस्तान, ईरान और अमरीका, रूस और अमरीका, चीन और जापान आदि के संदर्भ में यह बात और स्पष्ट हो जाएगी। मुंबई हत्याकांड के बाद भारत ने पाकिस्तान से सभी वर्ताएं बंद कर दी थीं और अमरीका निरंतर हम दोनों पर दबाव डाल रहा है कि ये वार्ताएं पुनः शुरू हो जाएं, ताकि युद्ध की नौबत न आए। जब दो व्यक्तियों या राष्ट्रों में बातचीत ही बंद हो जाए तो इसका मतलब यह होता है कि दोनों के बीच जो वरीयता क्रम पहले निश्चित था, वह अब मान्य नहीं रहा और उसे नए सिरे से निश्चित करना पड़ेगा। यह बातचीत से या युद्ध से हो सकता है। चूंकि युद्ध के भीषण परिणाम निकल सकते हैं, दूसरे देश युद्ध टालने के लिए दोनों के बीच बातचीत बहाल करने की ही कोशिश करते हैं।<br /><br />अब तो राष्ट्रों के बीच औपचारिक बातचीत को सुगम बनाने के लिए स्थायी व्यवस्थाएं भी बना दी गई हैं, यथा, लीग ओफ नेशेन्स (प्रथम महायुद्ध के बाद), संयुक्त राष्ट्र संघ (दूसरे महायुद्ध के बाद)। ये ऐसे मंच हैं जो कट्टी किए बैठे राष्ट्रों के बीच बातचीत पुनः शुरू कराने के अवसर देते हैं।<br /><br />इसी तरह संसद, विधान सभा, अदालत, आदि सब औपचारिक बातचीत द्वारा मैत्री स्थापित करने के तरीके हैं, जो सब बंदरों के जुए बीनने की गतिविधि के ही विकसित रूप हैं।<br /><br />दफ्तरों में जोइंट कंसलटेटिव मेकेनिज़म (जेसीएम) जिसमें प्रबंधक और कर्मचारी बातचीत के माध्यम से अपनी समस्याएं सुलटा लेते हैं, और हड़ताल, तोड़-फोड़, पुलिस कार्रावाई आदि की नौबत नहीं आने देते, भी ऐसी ही एक व्यवस्था।<br /><br />सामाजिक स्तर पर सत्संग, सामूहिक उपासना, प्रवचन आदि भी बातचीत द्वारा समाज में व्यवस्था स्थापित करने के विभिन्न उपाय हैं।<br /><br />सभी कलाओं की मूल प्रेरणा भी बातचीत करने की इस मूलभूत आवश्यकता ही है। मनुष्य केवल बोलकर ही नहीं बातचीत करता। वह इशारे से (नृत्य कला), लिखकर (साहित्य), गाकर (संगीत), चित्र बनाकर (चित्रकला), मूर्तियां बनाकर (मूर्तिकला), इमारतें बनाकर (स्थापत्यकला) भी अपने मन की बात व्यक्त करता है। ये सब कलाएं बातचीत करने की क्रिया के ही परिष्कृत रूप हैं, और उन सबका मूल मक्सद तनाव घटाना और मैत्रीभाव बढ़ाना है।<br /><br />अक्सर हम देखते हैं कि अत्यंत विषाद या दुख की स्थिति में हमारे मुंह से अपने आप ही गीत फूट निकलते हैं। वाल्मीकि ने रामयाण ऐसे ही लिखा था, जब सारस जोड़ी में से एक के बहेलिए द्वारा मार दिए जाने से उनका मन विषाद से भर गया था। वाल्मीकि ही नहीं, हम भी दुख की स्थिति में कोई न कोई गाना गुनगुनाते हैं। अक्सर लेखक, चित्रकार, कवि आदि भी अत्यंत दुख की स्थिति में ही अपनी कला का उच्चतम प्रदर्शन करते हैं। यह इसलिए क्योंकि यह उनके लिए दुख से मुक्ति पाने का एक जरिया होता है। कोई रचना करने के बाद वे दुख या तनाव से मुक्त हो जाते हैं।<br /><br />तो है न मानव निरीक्षण एक रोचक चीज। क्या आपने इससे पहले सोचा भी था कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युद्ध, साहित्य, चित्रकारी आदि गंभीर क्रियाकलापों का बंदरों द्वारा जुए बीनने की क्रिया से घनिष्ट संबंध है?बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-4453468247246391452009-08-16T10:33:00.000+05:302009-08-16T10:34:39.461+05:30नए मंगल फोंट की त्रुटियांविंडोस प्रचालन तंत्र में हिंदी के लिए डिफोल्ट फोंट मंगल है। इस कारण यह फोंट हिंदी के लिए सर्वाधिक उपयोग किए जानेवाले फोंटों में से एक है।<br /><br />एस्थेटिक्स (सुंदरता) की दृष्टि से देखें, तो मंगल फोंट कुछ कहने लायक नहीं है। उसके बारे में बस इतना ही कहा जा सकता है कि वह स्क्रीन पर पढ़ने के लिए ठीक-ठीक है (ठीक-ठाक नहीं)। मंगल फोंट में मुद्रित पाठ बहुत इंप्रेस नहीं करता है। उसे बारबार देखने से उसकी आदत सी हो जाती है, तभी उसकी सामान्यता अखरती नहीं है।<br /><br />पर इस फोंट में कुछ गंभीर त्रुटियां भी हैं, जिससे उच्च कोटि के हिंदी काम के लिए वह अनुपयुक्त है। इनमें से सबसे ज्यादा अखरनेवाली त्रुटि उसमें ड और ढ के नीचे नुक्ता सही जगह पर नहीं लगना है। नुक्ता इन अक्षरों के बाईं ओर चला जाता है।<br /><br />इसलिए जब रविरतलामी के छींटे और बौंछारे ब्लोग के माध्यम से मालूम हुआ कि मंगल फोंट का नया संस्करण विंडोस 7 के साथ उपलब्ध हो रहा है, तो सबसे पहले यही देखने की जिज्ञासा हुई कि क्या मंगल फोंट के नए संस्करण में यह नुक्ता वाली समस्या ठीक कर दी गई है या नहीं। इसलिए मैंने रवि जी से मंगल फोंट का नया संस्करण तुरंत ही मंगा लिया।<br /><br />मुझे यह देखकर खुशी हुई कि ड और ढ के नुक्ता वाली समस्या नए मंगल फोंट में ठीक कर दी गई है। मैं इसे लेकर खुशियां मना ही रहा था कि मंगल फोंट के इस नए संस्करण में मुझे एक त्रुटि दिख गई, जो प्रसंगवश, पुराने मंगल फोंट में नहीं है।<br /><br />यह है द से संबंधित कुछ संयुक्ताक्षरों का इसमें ठीक से न बनना। पुराने मंगल फोंट में द्व, द्ग, द्य आदि ठीक से संयुक्त होकर एक अक्षर के रूप में दिख जाते थे, पर मंगल के इस नए फोंट में वे टाइपराइटर शैली में हलंत के साथ तीन अक्षरों के रूप में दिखते हैं। कहना न होगा कि यह बहुत ही भद्दा लगता है। मजे की बात यह है कि नए मंगल में द के अन्य कई संयुक्ताक्षर जैसे द्र, द्ध, द्भ, द्म, द्द आदि ठीक से बनते हैं। ऐसा लगता है कि फोंट में सुधार करनेवाले लोगों के ध्यान से ये दे के संयुक्ताक्षर छूट गए थे। <br /><br />नए मंगल फोंट में ल अक्षर का रूप भी त्रुटिपूर्ण लगता है, कम से कम स्क्रीन पर 12 पोइंट पर देखने पर। ल का अंदर का हिस्सा शिरोरेखा को छूता सा लगता है। पुराने मंगल में यह समस्या नहीं थी।<br /><br />तो नए मंगल फोंट के साथ स्थिति दो कदम आगे, चार कदम पीछे वाली लगती है! लगता है कि इन त्रुटियों के ठीक होने के लिए विंडोस के अलगे संस्करण (विंडोस 8?) के आने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। वह पता नहीं कब आए। अब माइक्रोसोफ्ट को गूगल के प्रचालन तंत्र से कांटे की चुनौती मिल रही है। ऐसा भी हो सकता है कि विंडोस 8 की नौबत ही न आए!<br /><br />हिंदी में यूनिकोड एनकोडिंगवाले फोंटों की बड़ी कमी है। इस ओर जानकार लोगों को ध्यान देना होगा। खेद की बात है कि बहुत खोजबीन करने के बाद भी मुझे यूनिकोड वाला सब दृष्टि से त्रुटि रहित एक भी हिंदी फोंट नहीं मिल सका है। कुछ प्रमुख यूनिकोड हिंदी फोंटो की संक्षिप्त चर्चा से इस बात को स्पष्ट करता हूं – <br /><br />सीडैक द्वारा विकसित फोंट<br />पुणे स्थित सरकारी उद्यम सीडैक ने अनेक यूनिकोड आधारित फोंट जारी किए हैं, जैसे सुरेख, योगेश, भीम, ध्रुव, ऐश्वर्या आदि, आदि। इस खेप में लगभग 50 फोंट हैं। पर सबमें कोई न कोई त्रुटि है। <br /><br />सुरेख फोंट<br />सीडैक के सुरेख फोंट का यूनीकोड संस्करण मुद्रण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है, पर उसमें भी कई त्रुटियां हैं, जैसे – <br />1. उसमें य अक्षर प अक्षर के समान दिखता है।<br />2. अनुस्वार चिह्न इ की मात्रा के पीछे छिप जाता है, यथा, शांति शब्द को सुरेख में लिखने पर अनुस्वार की बिंदु को इ की मात्रा छिपा जाती है।<br /><br />योगेश फोंट<br />सीडैक द्वारा विकसित एक अन्य फोंट योगेश है। इसमें अनुस्वार चिह्न और इ की मात्रा वाली समस्या नहीं है, पर इसके कोड संख्याओं में त्रुटि है। उदाहरण के लिए एम डैश टाइप करने पर एकल उद्धरण चिह्न आता है।<br /><br />यानी कोड स्थिति यू+2014 (एम डैश) और यू+2018 (सिंगल कोटेशन मार्क) में घपला हो गया है। यह त्रुटि सुरेख को छोड़कर सीडैक द्वारा विकसित सभी यूनिकोड फोंटों में है, यथा भीम, ध्रुव, योगेश, ऐश्वर्य, अजय, देवेंद्र, आदि, आदि।<br /><br />विंडोस के फोंट<br />विंडोस ने हिंदी के लिए कई यूनिकोड फोंट जारी किए हैं, जैसे एरियल यूनिकोड एमएस, मंगल, कोकिला और अपराजिता। पर इन सबमें कोई न कोई त्रुटि है। मंगल फोंट की कमियों की चर्चा ऊपर हो चुकी है, इसलिए यहां अन्य फोंटों की चर्चा करते हैं<br /><br />एरियल यूनिकोड एमएस<br />यह एक अच्छा फोंट है, पर इसमें भी ड और ढ के नुक्ते के सही जगह पर न पड़ने की समस्या है। क्या विंडोस 7 में एरियल यूनिकोड एमएस का भी नया संस्करण आया है, जिसमें यह त्रुटि न हो?<br /><br />कोकिला<br />एक अन्य विंडोस फोंट कोकिला है। इसमें ड और ढ के नीचे नुक्ता की स्थिति ठीक है, पर इसमें हिंदी विराम चिह्न ठीक नहीं है वह पाइप वर्ण जैसा बहुत लंबा दिखता है और वाक्य के अंतिम अक्षर के बहुत नजदीक पड़ता है।<br /><br />अपराजिता<br />विंडोस का एक दूसरा फोंट अपराजिता है, पर यह अलंकृत फोंट है और सामान्य उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं है। इसमें ड और ढ के नुक्ते की समस्या नहीं है।<br /><br />लिनक्स के फोंट<br />लिनक्स के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है। मैंने सुना है कि उसमें हिंदी के कई अच्छे यूनिकोड फोंट हैं। रवि जी ने लोहित नाम के एक फोंट का ध्यान दिलाया था, पर यह भी त्रुटि रहित नहीं है। नुक्ता इसमें भी ड पर ठीक से नहीं पड़ता है। वह ड के निचले भाग को छूता हुआ सा प्रतीत होता है, कम से कम स्क्रीन पर 12 पोइंट साइस पर। दूसरी समस्या इसमें यह है कि ए की मात्रा े शिरोरेखा को छूती नहीं है और अलग सी खड़ी लगती है।<br /><br />कुल-मिलाकर कहें, तो यूनिकोड हिंदी फोंटों की स्थिति अत्यंत असंतोषजनक ही है। इस दिशा में बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है। कृतिदेव, कृतिपैड, युवराज आदि गैर-यूनिकोड फोंटों का यूनिकोड संस्करण जल्द तैयार करवाना चाहिए। ये अच्छे फोंट हैं, कम से कम ऐस्थेटिक्स की दृष्टि से। यदि ये यूनिकोड एनकोडिंग के साथ उपलब्ध हो जाएं, तो इन्हें वेब साइटों आदि के लिए भी उपयोग किया जा सकेगा। अभी इनका मूल्य केवल मुद्रण के लिए है। मुद्रण में भी उनका महत्व कम होता जा रहा है, क्योंकि वे यूनिकोड एनकोडिंग में नहीं है।<br /><br />सवाल यही है कि क्या कोई इस ओर काम कर रहा है? यदि कर रहा हो, तो उन्हें प्रोत्साहन और समर्थन देने की आवश्यकता है। संस्थाओं को भी आगे आना होगा। केंद्र सरकार के इलेक्ट्रोनिक्स और आईटी विभाग, केंद्रीय हिंदी संस्थान, विभिन्न राज्यों के हिंदी संस्थान, सीडैक, भारतीय प्रौद्योकिकी संस्थान आदि को इस ओर पहल करनी होगी क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है।<br /><br />टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो आदि बड़ी-बड़ी आईटी कंपनियों को भी इस कार्य में योगदान देना चाहिए। अब तक वे केवल पैसे बनाने में अपनी कुशलता दिखा पाए हैं, और देश के हित का कोई सोफ्टवेयर देने में नितांत असफल रहे हैं। अब समय आ गया है कि वे देश के लिए हितकारी कुछ काम करने की ओर भी ध्यान दें। क्या यह उनके लिए शर्म की बात नहीं है कि उनके पास इतना साधन और कुशलता होने के बाद भी हिंदी में ढंग के फोंट, सोफ्टवेयर आदि अब भी नहीं हैं, और जो हैं, वे सब माइक्रोसोफ्ट, एडोब आदि विदेशी कंपनियों द्वारा विकसित हैं?बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-32392934402709626752009-08-15T09:00:00.004+05:302009-08-15T09:07:42.059+05:30शहीद खुदीराम बोस<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SoYsxyiJbjI/AAAAAAAAAg0/3YkEQRX-7Q8/s1600-h/Khudiram_Bose.jpg"><img style="margin: 0pt 0pt 10px 10px; float: right; cursor: pointer; width: 237px; height: 351px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_DmvSSAYa07o/SoYsxyiJbjI/AAAAAAAAAg0/3YkEQRX-7Q8/s400/Khudiram_Bose.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5370028839576104498" border="0" /></a><br />आज यदि हम स्वतंत्र हवा में सांस ले पा रहे हैं, तो यह उन अनेक वीर भारतवासियों की बदौलत है जिन्होंने अपने वतन को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने के लिए अपनी जान तक की बाजी लगा दी थी। उनमें से एक अमर शहीद खुदीराम बोस थे। आइए आज, 15 अगस्त के दिन उन्हें याद कर लेते हैं। आज से 4 दिन पहले, यानी 11 अगस्त को, 1908 में अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर लटका दिया था, पर वे हमेशा भारतवासियों के हृदयों में बने रहेंगे।<br /><br />----<br /><br />खुदीराम बोस को भारत की स्वतंत्रता के लिए संगठित क्रांतिकारी आंदोलन का प्रथम शहीद माना जाता है। अपनी निर्भीकता और मृत्यु तक को सोत्साह वरण करने के लिए वे घर-घर में श्रद्धापूर्वक याद किए जाते हैं।<br /><br />खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। जब वे बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। उनकी बड़ी बहन ने उनका लालन-पालन किया था। 1905 में बंगाल का विभाजन होने के बाद वे देश के मुक्ति आंदोलन में कूद पड़े थे। उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया था।<br /><br />1906 में वे पहली बार गिरफ्तार हुए लेकिन पुलिस-हिरासत से बच निकले थे। इसके बाद 1907 में उन्होंने अपने साथियों के साथ हाटागाछा में डाक थैलों को लूटा और दिसंबर 1907 में गवर्नर की विशेष रेलगाड़ी पर बम फेंका। मिदनापुर के क्रांतिकारियों के बीच वह एक साहसी और सक्षम संगठनकर्ता के रूप में जाने जाते थे।<br /><br />उन दिनों किंग्सफोर्ड कलक्ता का चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट था। वह अपनी कठोर दमनकारी कार्रवाइयों से राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए कुख्यात था। क्रांतिकारियों ने उसे वहां से भगाने या खत्म करने का निर्णय किया और यह काम खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी को सौंपा गया। 13 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस ने प्रफुल्ल चाकी के साथ एक ऐसे वाहन पर बम फेंका जिसमें किंग्सफोर्ड के होने की संभावना थी। दुर्भाग्य से उस बम कांड में किंग्सफोर्ड के स्थान पर दो अंग्रेज महिलाएं मारी गईं जो उस वाहन में सफर कर रही थीं। प्रफुल्ल चाकी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था लेकिन उन्होंने खुद को गोली मार ली। खुदीराम को अगले दिन गिरफ्तार किया गया। उन्होंने निर्भीक होकर पुलिक को बताया कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को दंड देने के लिए बम फेंका था। उन्हें मौत की सजा दी गई और 11 अगस्त, 1908 को फांसी पर चढ़ा दिया गया। मुजफ्फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस "एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी के तख्ते की ओर बढ़ा था"। जब खुदीराम शहीद हुए थे तब उनकी आयु 19 वर्ष थी। उनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए गीत रचे गए और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। उनके सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के लोक गायक आज भी गाते हैं।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-33823237.post-85802817096084520702009-08-14T08:55:00.000+05:302009-08-14T08:56:36.275+05:30मनुष्य रंगों को क्यों पहचान पाता है?<span style="font-weight:bold;">मानव निरीक्षण - 4</span><br /><br />मनुष्य उन प्राणियों में से है जिनमें रंगों की पहचान की क्षमता काफी विकसित होती है। रंगों की पहचान करने के लिए हमारी आंखों में तीन प्रकार के प्रकाश-संवेदी शंकु कोशिकाएं हैं, जो क्रमशः लाल, हरे और नीले रंगों के प्रति संवेदनशील होती हैं। ये तीनों प्राथमिक रंग हैं और इनके मिश्रण से ही अन्य रंग उत्पन्न होते हैं।<br /><br />इसके विपरीत, कुत्ते, शेर, हिरण, घोड़े आदि में दो शंकु कोशिकाएं ही होती हैं, जो केवल दो रंगों को ही पकड़ पाती हैं। इसलिए ये जानवर उतने रंगों को पहचान नहीं सकते जितने मनुष्य।<br /><br />समुद्र की कुछ मछलियों और पक्षियों की आंखों में चार तक शंकु कोशिकाएं होती हैं, जो अलग-अलग चार रंगों को पहचानने में सक्षम होती हैं। इसलिए इन मछलियों और पक्षियों में रंगों की पहचान क्षमता मनुष्य से कहीं अधिक परिष्कृत होती है।<br /><br />इस तरह हम देखते हैं कि रंगों की पहचान की क्षमता सभी जीवों में एक समान नहीं है, कुछ जीव कम रंगों को ही पहचान पाते हैं, जब कि कुछ अधिक। मनुष्य उन जीवों में गिना जाता है जिसमें रंगों की पहचान की अपेक्षाकृत अधिक क्षमता है। सवाल यह है कि मनुष्य में रंगों की पहचान की क्षमता क्यों है।<br /><br />आम तौर पर ऐसे जानवरों में रंगों की पहचान की क्षमता अधिक पाई जाती है जिनके लिए यह क्षमता उपयोगी है। मनुष्य अपने विकास क्रम के प्रारंभिक दिनों में वृक्षों में काफी समय बिताता था और मुख्यतः वानस्पतिक पदार्थ खाता था, जैसे पत्ते, फूल, फल, टहनी आदि। अनेक पौधों में पत्ते आदि कुछ खास अवस्था में ही खाने योग्य होते हैं। उसके बाद उनमें जहरीले तत्व जमा हो जाते हैं और उन्हें खाना हानिकारक होता है। अथवा एक खास अवसथा में ही उनमें पौष्टिक सामग्री रहती है, बाद में वे कम पौष्टिक रह जाते हैं। उदाहरण के लिए जब पत्ते, डंठल, टहनी आदि कोमल होते हैं उनमें पोषक सामग्री ज्यादा होती है। जब पत्ते आदि पुराने हो जाते हैं, उनमें से पोषक सामग्री भी निकल जाती है। इसी प्रकार कई फल कच्ची अवस्था में खाने योग्य नहीं होते, पकने पर ही खाने योग्य होते हैं। इन सब अवस्थाओं में इनका रंग अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए टमाटर को ही लीजिए। शुरू-शुरू में वह गहरे हरे रंग का होता है, फिर इस हरे में गुलाबी रंग घुलने लगता है, जो गहराता जाता है और जब टमाटर पूरा पक जाता है, तो वह खून की तरह लाल रंग का हो जाता है। इसी तरह पत्ते प्रारंभ में तांबई रंग के होते हैं, फिर गहरे हरे हो जाते हैं। जब वे मुरझाने लगते हैं, तो पीले हो जाते हैं। इस तरह खाने की इन चीजों के रंग में निरंतर सूक्ष्म परिवर्तन होता रहता है, जो उनकी पौष्टिकता की ओर भी संकेत करता है। इन्हें खानेवाले जीवों में इन परिवर्तनों को पहचानने की क्षमता होनी चाहिए, और वह विकास-क्रम के दौरान अपने आप ही विकसित भी हो जाती है।<br /><br />आदि मानव के लिए रंगों की पहचान इसीलिए बहुत आवश्यक था। इसके बिना उसके लिए पौधों द्वारा दर्शाए गए इन सूक्ष्म रंग-संकेतों को पढ़कर यह तय कर पाना मुश्किल होता कि कौन सा पत्ता, फल, फूल या टहनी कब खाने योग्य है। इसीलिए मनुष्य में रंगों को पहचानने की क्षमता ऊंचे दर्जे की पाई जाती है।<br /><br />आम तौर पर वृक्षों में रहनेवाले और फल-फूल आदि वानस्पतिक सामग्री अधिक खानेवाले दिवाचर प्राणियों में रंगों को पहचानने की ऊंचे दर्जे की क्षमता पाई जाती है।<br /><br />इसलिए मनुष्यों में विद्यमान ऊंचे दर्जे की रंगों की पहचान करने की क्षमता यह भी सूचित करती है कि वह मूलतः फल-फूल-पत्ते खानेवाला दिवाचार प्राणी है। उसके शरीर के अन्य अवयवों से भी इसकी पुष्टि होती है, उदाहरण के लिए उसका पाचन तंत्र, दंत-पक्ति, जबड़े आदि यही दर्शाते हैं कि वह वानस्पतिक भोजन खाने के लिए बना है। मनुष्य में अन्य जानवरों को मारने के अवयवों का अभाव, जैसे तीक्ष्ण दांत या नाखून भी यही सूचित करता है कि मनुष्य मांसाहारी जीव नहीं है। लेकिन विकास-क्रम के दौरान उसे मांस-भक्षण भी अपनाना पड़ा है। यह उसकी सफलता का एक कारण भी बना। मांस-भक्षण से उसकी आहार-सूची में एक नया, सभी जगह विद्यमान भोजन-स्रोत जुड़ गया। जो प्राणी विभिन्न प्रकार के भोजन पचा सकता हो, उसकी उत्तरजीविता भी बढ़ जाती है। इसी कारण मनुष्य, चूहे, तिलचट्टे आदि प्राणी अधिक सफल हो पाए हैं, क्योंकि ये सब लगभग सभी कुछ खाकर जीवित रह सकते हैं और इसलिए पृथ्वी के हर कोने में फैल सके हैं। इसके विपरीत सीमत भोजन-स्रोतों पर निर्भर प्राणी सीमित क्षेत्रों में और सीमित संख्याओं में ही रह पाते हैं जहां उनके अनुकूल भोजन-स्रोत उपलब्ध हों। उदाहरण के लिए पांडा नामक जीव केवल बांस के कोमल डंठलों को खाता है। वह वहीं रह सकता है जहां बांस के जंगल हों। एक अन्य उदाहरण आस्ट्रेलिया का कोला नामक जीव है, जो केवल यूकालिप्टस वृक्ष के पत्ते ही खाता है। वह भी उन्हीं जंगलों में रह सकता है जहां यूकालिप्टस के वृक्ष बहुतायत में हों।बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणhttp://www.blogger.com/profile/09013592588359905805noreply@blogger.com6