बानेश्वर का मेला दक्षिण राजस्थान के बड़े मेलों में से एक है। यह वागड़ प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात के जनजातीय लोगों का मेला है। राजस्थान के दक्षिण भाग को वागड़ प्रदेश कहते हैं। यह एक सुंदर और रमणीय प्रदेश है जो राजस्थान के सांस्कृतिक विविधता और जनजातीय समुदायों के जीवन की झांखी प्रस्तुत करता है।
बानेश्वर का नाम तीन पवित्र नदियों के संगम स्थान पर आए छोटे प्रदेश पर पड़ा है। ये नदियां हैं मही, सोम और जाखम। बानेश्वर महादेव का मंदिर यहां एक भव्य ऊंचाई पर स्थित है।
बानेश्वर का मेला जनवरी-फरवरी में होता है। मेला एक सप्ताह तक चलता है और माघ पूर्णिमा के दिन पराकाष्ठा पर पहुंचता है। जनजातीय लोग यहां संगम में पवित्र स्नान करते हैं और अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। मेले में जनजातियों के विभिन्न नाच, गान तथा नजाकत से दर्शकों का मन प्रफुल्लित हो जाता है। यहां जादूगर अपना कर्तब दिखाते हैं, नर्तकियां अपनी कला से दर्शकों का मनोरंजन करती हैं, और नवयुवक और युवतियां वातावरण को आनंदमयी बनाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि राजा बाली ने अश्वमेध यज्ञ जहां किया था, उसी स्थान पर बानेश्वर का मेला भरता है। यज्ञ पूर्ण होने पर विष्णु भगवान वामन के रूप में यहां उपस्थित हुए और उन्होंने बाली से तीन डग जमीन मांगी। तीसरा डग उन्होंने बाली के सिर पर ही रख दिया और इस तरह बाली को पाताल लोक में दबा दिया। यह जगह अब्रुदा के नाम से भी मशहूर है। बानेश्वर का संबंध संत मावजी से भी है जो विष्णु के कलियुग के अवतार कल्की माने जाते हैं। मावजी ने पांच किताबें लिखी हैं। बानेश्वर मेले के दौरान इन किताबों को पढ़ा जाता है।
बानेश्वर में बाली राजा की यज्ञभूमि, वाल्मीकी का पुराना मंदिर और राधाकृष्ण का मंदिर दर्शनीय हैं।
अगला बानेश्वर मेला 26 -30 जनवरी 2010 को लगेगा इसलिए आपके पास काफी वक्त उसमें शरीक होने की योजना बनाने के लिए।
बानेश्वर कैसे पहुंचें
निकटम हवाई अड्डा उदयपुर है।
निकटतम रेलवे स्टेशन बानेश्वर है।
उदयपुर और डुंगरपुर से बानेश्वर के लिए बसें चलती हैं।
Friday, July 31, 2009
बानेश्वर का मेला
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: बानेश्वर का मेला
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4 Comments:
बहुत अच्छा लेख!
जानकारी के लिए आभार।
यह स्थान बेणेश्वर कहलाती है। यहाँ के एक संत हुए हैं गोविन्द गिरी। इन्होंने जनजातियों के मध्य फैली कुरीतियों और अशिक्षा को दूर करने की अलख जगायी थी। यह बात अंग्रेजों को हजम नहीं हुई और उन्होंने माघ पूर्णिमा के दिन गोविन्द गिरी को एक पहाडी पर घेर लिया। उस समय गोवन्दि गुरु अपने हजारों शिष्यों के साथ हवन कर रहे थे। अंग्रेजों ने निर्मम गोली काण्ड किया और उसमें हजारो वनवारी मारे गए। यह जलियांवाला बाग से भी आधिक घृणास्पद काम था अंग्रेजों का। माघ पूर्णिमा पर वहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है। मैंने अभी एक उपन्यास लिखा है - अरण्य में सूरज, यह मेवाड की जनजातियों पर ही आधारित है। सामयकि प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित है। उसमें मैंने अंग्रेजों द्वारा किए गए षडयन्त्रों के बारे में भी लिखा है। इस बहादुर जाति को किस तरह से अंग्रेजों ने डाकू घोषित कर उन पर अत्याचार किए इसका भी संकेत है। यहाँ के भील सन 1100 तक राजा थे।
डा. गुप्ता जी, यह अतिरिक्त जानकारी देने के लिए बहुत आभार। इस नरसंहार के बारे में मुझे पहले पता नहीं था। अंग्रेजों ने यहां बहुत अत्याचार ढाए हैं, फिर भी हम उनकी संस्कृति और उनकी भाषा के साथ जोंक के समान चिपके फिर रहे हैं।
आपका उपन्यास, अरण्य में सूरज, जरूर प्राप्त करके पढ़ने की कोशिश करूंगा।
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