वैसे एक पक्षी विज्ञानी हैं बीकानेर में वे अध्ययन कर रहे हैं गौरेया के अनयूजुअल हैबीटेट यानि असंभावित स्थानों पर घोंषला बनाने की प्रवृत्ति पर। यानि पक्षी अनुकूलित हो रहे हैं आधुनिकीकरण के साथ। आज यहां तारों का जाल है कल कोई चिडि़या इस तिलस्म को भेद लेगी और अपने लिए सुंदर घोंषला भी बना लेगी।
सिद्धार्थ जी : सही कहा। पेड़ों के कटने से पक्षियों को परंपरागत घोंसला-निर्माण सामग्री की क्लिल्त हो रही है और वे मानव-निर्मित चीजों से घोंसला बनाना सीख रहे हैं - जैसे धातु की तारें, प्लास्टिक के टुकड़े, आदि। बहुत जल्द वे सिमेंट-कंक्रीट-कांच तक भी अपनी ज्ञान सीमा बढ़ा लेंगे, और तब हमें देखने को मिलेंगे, आलीशासन आशियाने पक्षियों के!
अन्ने, इसका एक अलग पहलू भी है - भारतीय नागर जन का विलुप्त हो चुका सौन्दर्यबोध। घर के भीतर जिस तरह की सफाई और सौन्दर्यबोध का परिचय हम देते हैं, सार्वजनिक स्थानों पर ठीक उसके उलट आचरण करते हैं। न जाने क्यों यह सब हमें खटकता नहीं है?
विराम से वापस आने पर 'सौन्दर्यबोध' पर एक पोस्ट लिखने की सोच रहा हूँ। लेकिन इसके लिए बहुत होमवर्क की आवश्यकता है। केवल कुढ़ कर व्यवस्था को दोषी ठहराने के बजाय, इस प्रवृत्ति का एक विश्लेषण अपेक्षित है।
गिरिजेश जी : बहुत अच्छा विचार है। विषय इतना व्यापक है कि एक पोस्ट नहीं पूरी लेख माला की आवश्यकता होगी। बहुत से विचारणीय पहलु हैं - हमारे शहरों में सड़कों के दोनों ओर फुटपाथ न होना (यदि हों तो वे छोटे-मोटे बाजार में या अनाथालय में बदल चुके होते हैं), सार्वजनिक परिवहन न होना (जैसे बसें, मेट्रो, लोकल ट्रेन आदि), पार्किंग की कमी, शाचालयों की व्यवस्था न होना (यदि हो, तो केवल पुरुषों के होना), बच्चों के खेलने के लिए पर्याप्च जगहें न होना, पेड़-पौधों की कमी, कचरा प्रबंधन की कमी, ऐतिहासिक स्थलों की पर्याप्त देखभाल न होना, इत्यादि, इत्यादि...
एक सिविल इंजीनियर होने के नाते आप इन सब विषयों पर सकारात्मक प्रकाश डालने की अच्छी स्थिति में हैं।
आपके पोस्ट का इंतजार रहेगा, जल्दी विराम पूरा करके सक्रिय बनिए।
16 Comments:
यह मौत नामक चिडिया का घोंसला है.
व्यवस्था नामक चिड़िया का-इसी से विलुप्त होती जा रही है.
पता नही!
मौत का ही होगा।
ऐसे अनेकों घोंसले हमने दिल्ली में ही देखे हैं
वैसे एक पक्षी विज्ञानी हैं बीकानेर में वे अध्ययन कर रहे हैं गौरेया के अनयूजुअल हैबीटेट यानि असंभावित स्थानों पर घोंषला बनाने की प्रवृत्ति पर। यानि पक्षी अनुकूलित हो रहे हैं आधुनिकीकरण के साथ। आज यहां तारों का जाल है कल कोई चिडि़या इस तिलस्म को भेद लेगी और अपने लिए सुंदर घोंषला भी बना लेगी।
इंतजार कीजिए :)
सिद्धार्थ जी : सही कहा। पेड़ों के कटने से पक्षियों को परंपरागत घोंसला-निर्माण सामग्री की क्लिल्त हो रही है और वे मानव-निर्मित चीजों से घोंसला बनाना सीख रहे हैं - जैसे धातु की तारें, प्लास्टिक के टुकड़े, आदि। बहुत जल्द वे सिमेंट-कंक्रीट-कांच तक भी अपनी ज्ञान सीमा बढ़ा लेंगे, और तब हमें देखने को मिलेंगे, आलीशासन आशियाने पक्षियों के!
अन्ने, इसका एक अलग पहलू भी है - भारतीय नागर जन का विलुप्त हो चुका सौन्दर्यबोध। घर के भीतर जिस तरह की सफाई और सौन्दर्यबोध का परिचय हम देते हैं, सार्वजनिक स्थानों पर ठीक उसके उलट आचरण करते हैं। न जाने क्यों यह सब हमें खटकता नहीं है?
विराम से वापस आने पर 'सौन्दर्यबोध' पर एक पोस्ट लिखने की सोच रहा हूँ। लेकिन इसके लिए बहुत होमवर्क की आवश्यकता है। केवल कुढ़ कर व्यवस्था को दोषी ठहराने के बजाय, इस प्रवृत्ति का एक विश्लेषण अपेक्षित है।
ये बिजली मंत्री का घोंसला लगता है?
रामराम.
ye ghonsla nahin hai
karmathta ka dhakosla hai
बहुत खूब कहा अलबेला जी!
गिरिजेश जी : बहुत अच्छा विचार है। विषय इतना व्यापक है कि एक पोस्ट नहीं पूरी लेख माला की आवश्यकता होगी। बहुत से विचारणीय पहलु हैं - हमारे शहरों में सड़कों के दोनों ओर फुटपाथ न होना (यदि हों तो वे छोटे-मोटे बाजार में या अनाथालय में बदल चुके होते हैं), सार्वजनिक परिवहन न होना (जैसे बसें, मेट्रो, लोकल ट्रेन आदि), पार्किंग की कमी, शाचालयों की व्यवस्था न होना (यदि हो, तो केवल पुरुषों के होना), बच्चों के खेलने के लिए पर्याप्च जगहें न होना, पेड़-पौधों की कमी, कचरा प्रबंधन की कमी, ऐतिहासिक स्थलों की पर्याप्त देखभाल न होना, इत्यादि, इत्यादि...
एक सिविल इंजीनियर होने के नाते आप इन सब विषयों पर सकारात्मक प्रकाश डालने की अच्छी स्थिति में हैं।
आपके पोस्ट का इंतजार रहेगा, जल्दी विराम पूरा करके सक्रिय बनिए।
कामचोरी का।
ताऊ रामपुरिया : और इस घोंसले में जो चिड़िया रहती है, वह बिजली कर्मचारियों को सोने के खूब अंडे भी देती है।
मनुष्य नामक जीव का.
वाह ! सोचता हूं कि ये बनाया कैसे होगा ?
खतरनाक.. बिल्कुल एसा घोसला मेरे पुराने घर के सामने था.. दिल्ली के खिड़की एक्स्टेंशन में बहुत डराता था और बरसात में चिंगारी निकालता था...
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