कुछ दिन पहले यहां के अखबारों के अंदरूनी पृष्ठों में एक खबर देखने को मिली – गुजरात के प्रमुख व्यावसायिक महानगरी अहमदाबाद की सड़कों में संभावित भुखमरी की खबर।
पुलिस को सड़क के किनारे दो लाशें शहर के अलग-अलग स्थानों में पड़ी हुई मिलीं। इनमें से एक लाश मुकेश ओझा नाम के किसी 52 वर्षीय व्यक्ति की थी और दूसरी शिवाजी ठाकोर की थी जिनकी उम्र 60 वर्ष बताया जा रहा है। वे अहमदाबाद के औद्योगिक क्षेत्र वटवा के रहनेवाले थे। ओझा कालूपुर के निकट अकेले सड़कों में ही रहते थे, और कचरे के ढेरों से खाने की चीजें बीनकर जीवन निर्वाह करते थे।
दोनों लाशों को स्थानीय लोगों ने देखा और उनके बारे में पुलिस को सूचना दी। पुलिस ने इन्हें भुखमरी या बीमारी से हुई मौत के रूप में अपने दस्तावेजों में दर्ज किया है।
ये मौतें अनेक सवाल खड़े करते हैं। अहमदाबाद एक समृद्ध शहर है और गुजरात एक अपेक्षाकृत सुशासित, समृद्ध राज्य है। आमदनी में अहमदाबाद का नंबर पश्चिमी क्षेत्र में मुंबई के बाद दूसरा है। फिर भी यहां लोग भूख से मर रहे हैं। सरकार उनके लिए कुछ नहीं कर रही है। अभी हाल में कई महीनों से महंगाई आसमान छू रही है, जिसकी मार गरीबों पर ही सबसे अधिक पड़ रही है। गरीबों में इतनी क्रय शक्ति नहीं रह गई है कि वे बाजार से खाने की सामग्री खरीदकर अपना पेट भर सकें। भीख और कचरा ही उनका आसरा रह गया है। ऐसे में सरकार को इन निस्सहायों के लिए कोई व्यवस्था करनी चाहिए थी। इसका सामर्थ्य भी उसके पास है। अहमदाबाद जैसे पैसे वाले शहर के लिए अपने बजट का थोड़ा हिस्सा निस्सहायों के लिए भोजनालय स्थापित करने में लगाना कोई मुश्किल बात नहीं है। पर सत्ताधीन लोग गरीबों के प्रति इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि शायद उनके मन में यह बात आई ही नहीं। ऐसे में इसमें कितनी सचाई है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं? देश की प्राथमिकताएं कितनी विकृत हो गई हैं। देश के पास आदमी को चांद पर उतारने के लिए पैसा है, पर हमारे शहरों की सड़कों में भूख से मर रहे लोगों को दो जून की रोटी दिलाने के लिए पैसा नहीं है। क्या किसी लोकतंत्र में ऐसा हो सकता है?
और ऐसा भी नहीं है कि इसमें केवल अहमाबाद के शासकों की ही असंवेदनशीलता है। अहमदाबाद के नागरिक भी उतने ही असंवेदनशील हैं। यहां जैन धर्म और वैष्णव धर्म का बहुत प्रभाव है। अधिकांश लोग शाकाहारी हैं। यहां नियमित रूप से कबूतरों, गायों, कुत्तों आदि जानवरों को भोजन खिलाने का रिवाज है। पर मनुष्य उनकी दानशीलता के दायरे में नहीं आ पाए हैं। इसलिए इन धार्मिक मान्यताओं और धारणाओं में भी कहीं तो भारी खोट है। गायों, कुत्तों और कबूतरों को भोजन देना पुण्य का काम है, तो मनुष्यों को भोजन देना क्यों पुण्य का काम नहीं माना गया है? और धार्मिक संस्थानों ने संगठित रूप से मनुष्यों को भोजन खिलाने की व्यवस्था क्यों नहीं की है?
अहमदाबाद में बीसियों गैरसरकारी संगठन भी काम कर रहे हैं, उनका कार्य क्षेत्र ही गरीबों की मदद करना है। वे भी गरीबों की भूख को समय रहते भांप नहीं पाए और उसके निवारण के लिए सरकार पर या समुदाय पर पर्याप्त दबाव नहीं डाल पाए। इसलिए इसमें उनकी भी असंवेदनशीलता और विफलता है।
और ऐसा भी नहीं है कि भुखमरी केवल अहमदाबाद की सड़कों में ही हो रही है। हमारे देश के हर शहर में हो रही है। गांवों में तो हो ही रही है। वहां तो लोग भुखमरी से पहले ही आत्म-हत्या करके जल्दी छुट्टी पा ले रहे हैं।
यह सब हमारे समाज के लिए और हमारे लोकतंत्र के लिए और हममें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए शर्म की बात है। बाकी सब काम परे रखकर इसका तुरंत समाधान होना चाहिए। मुकेश ओझा और शिवाजी ठाकोर की भुखमरी व्यर्थ नहीं जानी चाहिए।
Wednesday, July 22, 2009
अहमदाबाद में भुखमरी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
8 Comments:
कहीं ज्यादा-कहीं कम..
चीनी कम..चीनी कम!!
अत्यंत दुखदायी. सरकार व समाज दोनों को ही सोचना होगा.
खुश करने और वाह वाही के लिए 'दुखद' लिखना काफी है. वरना यह बहु पक्षिय समस्या है. मुफ्त खाना बाँटना काफी नहीं है. ऐसे तो "राम रोटी" बहुत जगह चल रही है....जाओ और खा लो.
यह तो खबर बनाने की तकनीक है। मैं सज्जन हूं और किसी को गाली दे दूं तो वह बैनर वाली खबर। मैं डकैत हूं और चार हत्यायें कर दूं तो भी वह पिछले पन्नेपर भी जगह न पाये! :)
Chinta ki baat hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
दोनों व्यक्ति वृद्ध थे। वृद्ध होने के नाते किसी भारतीय नागरिक को कोई संरक्षण नहीं है। आप ने एक सवाल यह भी उठाया है कि यदि ऐसा हो रहा है तो यह जनतंत्र भी है या नहीं?
यही तो जनतंत्र है, जनता का जनतंत्र तो तानाशाही होता है।
ahmadabad jaise shahar me agar koi bhookh se marta hai toh uske liye na toh sarkaar aur na hi saamajik sansthaayen zimmedar honi chahiye
kyonki vahaan bhookh se marne ka matlab hai samandar me pyasa rahna
samandar ko dosh nahin dena chahiye....
ഊടു പേരായി ऊटू परै की व्यवस्र्था कैसी रहेगी?
Post a Comment