मेरे क्या ब्लोग साहित्य है? लेख पर शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पांडेय का ब्लोग में मिश्र जी ने एक पोस्ट लिखा है जिस पर काफी प्रतिक्रियाएं आई हैं। मैं इस पोस्ट पर देर से पहुंचा इसलिए इस बहस में वहां भाग न ले पाया, पर सब टिप्पणियों के अंत में मैंने अपनी टिप्पणी लगा दी है। इसके पढ़े जाने की कम संभावना है क्यों यह पोस्ट कुछ दिन पहले का है, इसलिए मेरी इस टिप्पणी को जयहिंदी में भी दुहरा रहा हूं -
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इस चर्चा में मैं देर से पहुंचा, पर यह एक तरह से अच्छा ही हुआ क्योंकि सबकी बातें पढ़कर जवाब दे सकता हूं। वैसे कहने को कुछ ज्यादा है नहीं, बाकी लोग काफी कह गए हैं।
पहली बात, शिव जी, कि आप साहित्य और ज्ञान को एक नहीं मान सकते। ज्ञान पल-पल बदलता है, पर साहित्य अधिक स्थायी चीज है, वरना हम आज भी क्यों रामायण-महाभारत का रस ले पाते हैं उन्हें पढ़ते हैं? या आज प्रकाशित उपन्यासों की तुलना में एक शताब्दी से भी पहले प्रकाशित प्रेमचंद, निराला, अमृतलाल नागर या वृंदावनलाल वर्मा की उपन्यास-कहानियों में ज्यादा रस ले पाते हैं?
इसलिए कि ये सब किताबें समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। इन्हें कई पीढ़ियों ने पढ़ा है और अनुभव किया है कि ये काम की चीजें हैं, और उन्हें दुबारा-तिबारा पढ़ना समय का अपव्यय नहीं है। साहित्य हमें यह आश्वासन देता है।
क्या ब्लोगों में लिखी चीजों के बारे में यह कहा जा सकता है? निश्चय ही कुछ पोस्ट कालजयी हैं, और आगे चलकर साहित्य बनेंगे। यह तो मैंने भी कहां नकारा है? पर अधिकांश पोस्ट?
दूसरी बात जो कहने को रहती है, वह यह कि साहित्य को कौन सहेजकर रखता है? आपने तथा टिप्पणीकारों ने किताब, प्रकाश्क, पुस्तकालय, विश्वविद्यालय आदि का नाम लिया है, पर यह काम करनेवाले सबसे महत्वपूर्ण तबके को आप सब भूल गए - जनता। अच्छे साहित्य को जनता जीवित रखती है। नहीं तो रामचरितमानस, कबीर, सूर आदि का साहित्य जो शूरू में लिखे ही नहीं गए थे मौखिक रूप में ही उनका अस्तित्व था, आज हमारे आस्वादन के लिए उपलब्ध ही नहीं रहते।
ब्लोगरों को अच्छा न लगना स्वाभाविक है कि उनका लिखा अधिकांश साहित्य नहीं है। इतनी तीखी प्रतिक्रिया जो आई है, वही साबित करता है कि मन ही मन वे यह चाहते हैं कि उनके लिखे को साहित्य माना जाए। यह अच्छी बात भी है। पर साहित्य क्या है यह समझना भी जरूरी है। मैंने इसे परिभाषित करने की अपनी क्षमता के अनुसार कोशिश की है। जो लेखन कल्याणकारी हो, जो किसी वर्ग-विशेष मात्र का पोषक न हो, वह लेखन साहित्य है। इसके साथ ही उसमें सौंदर्य, संप्रेषेणीयता, गरिमा, आदि अन्य गुण भी होने चाहिए। मैं सब ब्लोगों को नहीं पढ़ता हूं, संभव भी नहीं है, कुछ 10,000 ब्लोग हैं हिंदी के, पर निश्चय ही इनमें ऐसा काफी कुछ लिखा जाता होगा, जो साहित्य है, उसे बाहर लाना चाहिए, पहचानना चाहिए, और जनता के सम्मुख रखना चाहिए, यदि वह उनके काम की चीज हो, क्योंकि जनता अभी ब्लोगों तक पहुंचने की स्थिति में नहीं है, और जनता ही साहित्य का असली पोषक होती है।
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Monday, July 13, 2009
क्या ब्लोग साहित्य है? - शिवकुमार मिश्र जी को उत्तर
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: विविध
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12 Comments:
हर वर्ष हजारों किताबें छपती है...कौन पढ़्ता है याद रखता है? वैसा ही ब्लॉग के साथ है.
वैसे एक ब्लॉगर के रूप में मुझे भी साहित्यकार कहलवाने में कोई रूची नहीं है. नई विद्या है और हम मस्त है. भविष्य तय करेगा की वे हमें किस रूप में देखना पसन्द करता है.
मैं न पत्रकार हूँ, न साहित्यकार हूँ. मैं तो बस ब्लॉगर हूँ.
एकदम सटीक व सही बात कही आपने।
आपने अच्छे साहित्य के कुछ लक्षण बताएं हैं -वह जो अविस्मर्णीय हो ,बार बार अवगाहन के लिए उत्प्रेरित करता हो और जनोपयोगी हो साहित्य है !
अच्छा लिखा है आपने !
आप से पूरी सहमति है।
आपका उत्तर महत्वपूर्ण है.
अब मैं अपने ब्लॉग पर जाकर प्रश्न की खोज करता हूँ.
भाई इतना हंगामा है क्युं बरपा? संजय बैंगाणी जी की बात अपनी बात.
और याद रखिये कि भविष्य मे साहित्य से श्रेष्ठ शब्द ब्लागर प्रोफ़ाईल हो जाये तो क्या करियेगा? भाई हमको साहित्यकार नही बनना. हम तो अपने ब्लाग की दुनियां मे मस्त हैं.
रामराम.
आपने अच्छा लिखा। धन्यवाद।
अच्छा विमर्श हुआ.. बधाई.. हम भी संजय जी के साथ है..
हम तो बस नत मस्तक डले हैं कि कोई तो ऐसा माध्यम जहाँ से हम अपने हिसाब से अपनी बात रख पा रहे हैं बिना किसी के हस्तक्षेप के.
अब इसे कोई साहित्य माने तो उसकी जय जय और न माने तो उसकी भी जय जय.
न ऐसा कुछ सोच कर लिखते हैं कि चश्मा पोंछें, फिर पूजा पाठ करके बैठें कि साहित्य रचने जा रहे हैं. जो है, फट से सामने. लोग पढ़ रहे हैं, बस काफी हो गया.
संजय भाई के साथ भीड़ में खड़े हम भी मुस्करा रहे हैं,
कोई क्षोब नहीं, बस, मस्ती है.
आज के इस दौर में
मुस्कराहट ही सबसे सस्ती है.
-जय हिन्द और जय हिन्दी!! आपकी भी जय. :)
भाई मैं भी संजय और समीर लाल के ही साथ खडा हूँ .
संजय बैंगाणी जी की बात से सहमत |
"10,000 ब्लोग हैं हिंदी के, पर निश्चय ही इनमें ऐसा काफी कुछ लिखा जाता होगा, जो साहित्य है, उसे बाहर लाना चाहिए, पहचानना चाहिए, और जनता के सम्मुख रखना चाहिए, यदि वह उनके काम की चीज हो, क्योंकि जनता अभी ब्लोगों तक पहुंचने की स्थिति में नहीं है, और जनता ही साहित्य का असली पोषक होती है।"
और एक और मठाधिषों कि जमात पैदा कर लें जो जीवन भर मीन-मेख निकालते रहे कि यह ब्लौग पोस्ट साहित्य है और ये नहीं है.. भई इतना हल्ला क्यों है? कहीं कुछ भी लिखा है उसे जिसे पढ़ना होगा वह पढ़ेगा.. जिसे नहीं पढ़ना होगा वह नहीं पढ़ेगा..
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