अतुल्य भारत वाले प्रचार ने हमें यकीन दिलाया था कि हम विकसित देश हो गए हैं और अब केवल अमरीका एक देश रह गया है जो हमसे थोड़ा-बहुत आगे है, वह भी चंद वर्षों के लिए, जब भारत उसे भी पछाड़कर दुनिया का अग्रणी देश बन जाएगा। चीन भी उससे दो कदम पीछे ही होगा।
एक तरह से यह प्रचार ठीक साबित हो रहा है, भारत दुनिया में अग्रणी हो ही गया है, पर भूख के मामले में। आज भारत में दुनिया भर में जितने भूखे लोग हैं, उनमें से आधे का निवास है। सब सहारा अफ्रीका या बंग्लादेश या पाकिस्तान जैसे गरीब या कुशासित समझे जानेवाले देशों के लोगों को भी भारतीयों से ज्यादा खाने को मिलता है।
खाद्य वस्तुओं की बढ़ती कीमतों के कारण भारत में भोजन में अनाजों का अंश निरंतर घट रहा है। शहरी इलाकों में लोगों के भोजन में अनाजों का अंश 1973-74 में 11.3 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह था जो 1993-94 में 10.6 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह और 2004-2005 में 10.6 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह हुआ। ग्रामीण इलाकों में 1972-73 में वह 15.3 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह था जो 1993-94 में 13.4 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह हुआ और 2004-05 में 12.12 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह। योजना आयोग का कहना है कि 20 वर्ष की अवधि में प्रति व्यक्ति कैलोरी और प्रोटीन कंसम्शन भारत में निरंतर घटा है। ग्रामीण इलाकों के लिए कैलरी सीमा 2,400 कैलरी प्रति दिन मानी गई है, पर इन बीस सालों में वह कभी भी इस स्तर तक पुहंच नहीं पाया। बीस साल पहले वह मात्र 2221 कैलरी था जो अब और भी घटकर 2047 कैलरी रह गया है।
2005-06 में भारत की कुल वयस्क आबादी के एक-तिहाई का शारीरिक वजन सूचक (बोडी मास इंडेक्स) 18.5 से नीचे था, जो कुपोषण की सीमा दर्शाता है। दुनिया के सभी विकासशील देशों में जितने कम वजन वाले बच्चे पैदा होते हैं, उनमें से आधे भारत में पैदा होते हैं। यहां की महिलाओं और लड़कियों में खून की कमी की दर बहुत अधिक है।
अमरीका के एक राज्य के कैदियों के बारे में प्रकाशित एक रिपोर्ट में क्षोभ व्यक्ति किया गया था कि कैदियों को तीन दिन में एक बार ही भरपेट खाना मिलता है। वहां के एक अखबारी टिप्पणी में इसे अमानवीय और और शर्मनाक करार दिया गया। इसकी तुलना कीजिए राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण की रिपोर्ट की इस टिप्पणी से – भारत की आबादी का लगभग 5 प्रतिशत हर दिन दो भरपेट भोजन के बिना सो जाने को मजबूर है। यानी 6 कोरड़ भारतीयों की स्थिति अमरीका के एक राज्य के कैदियों से भी बदततर है। क्या हमारे लिए इससे बढ़कर शर्मनाक बात कोई हो सकती है?
सरकारी अनुमानों के अनुसार देश में गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की संख्या 6.52 करोड़ है। उन्हें बाजारी मूल्य से आधे मूल्य पर हर महीने 20 किलो अनाज देने की सरकारी व्यवस्था है। इसके लिए देश भर में 10 लाख राशन की दुकानें खोली गई हैं। पर मजे की बात यह है कि सरकार ने 8 करोड़ राशन कार्ड बांट रखे हैं। मतलब जितने गरीब हैं, उससे करीब 1.5 करोड़ अधिक राशन कार्ड। यह इस प्रणाली में फैले व्यापक भ्रष्टाचार का एक बढ़िया उदाहरण है।
योजना आयोग ने भी माना है कि राशन प्रणाली में रिसाव बहुत अधिक है। यह बिहार जैसे कुशासित प्रदेशों में ही नहीं है बल्कि पंजाब जैसे समृद्ध समझे जानेवाले राज्यों में भी है। इन दोनों राज्यों में राशन की दुकानों को उपलब्ध कराए गए अनाज का 75 प्रतिशत गरीबों तक नहीं पहुंचता है। आयोग का अनुमान है कि 2003-04 में राशन की दुकानों को गरीबों में बांटने के लिए 1.4 करोड टन अनाज दिया गया था। उसमें से केवल 80 लाख टन अनाज ही असल में गरीबों तक पहुंच सका। अन्य शब्दों में कहें तो, गरीबों को मिले प्रत्येक किलो अनाज के लिए सरकार को 2.23 किलो अनाज जारी करना पड़ा।
ये सारे आंकड़े आजकल की आर्थिक मंदी के पूर्व के हैं। निश्चय ही अभी की स्थति इससे कहीं अधिक गंभीर होगी। न केवल पिछले महीनों में अर्थव्यवस्था धीमी हुई है, खाद्य सामग्रियों की कीमतें भी तेजी से बढ़ी हैं। खाद्य पदार्थों की बढ़ी हुई कीमतों की सबसे कड़ी मार गरीबों पर पड़ती है। अनेक अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि गरीब परिवारों में कुल आमदनी का आधा खाने की चीजों पर खर्च होता है। खाद्य सामग्रियों की कीमतें बढ़ने का उनके लिए सीधा मतलब यह है कि अन्य खर्चों के लिए, जैसे कपड़े, दवाएं, बच्चों की पढ़ाई आदि के लिए उनके पास और भी कम पैसे बचते हैं।
अभी हाल में किए गए आर्थिक सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत की 60.5 प्रतिशत आबादी प्रति दिन 20 रुपए की आमदनी पर गुजारा करने को मजबूर है। दरअसल, देश में सचमुच कितने गरीब लोग हैं, इस संबंध में कोई एक मत नहीं है। नेशनल कमिशन ओफ ऐंटरप्राइसेस ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत के 77 प्रतिशत लोगों की स्थिति ऐसी है कि वे हर रोज 20 रुपए से भी कम खर्च कर सकते हैं। योजना आयोग का अंदाजा है भारत की कुल आबादी के 27.5 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं।
भारत में गरीबी रेखा की परिभाषा भी बहुत कठोर रखी गई है। उसे जिंदा रहने के लिए जो न्यूनतम पोषण आवश्यक है, उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक आय माना गया है। यानी गरीबी रेखा पर रह रहे लोग किसी तरह जिंदा रहने मात्र के लिए आवश्यक भोजन जुटा पाते हैं, परंतु उसके बाद उनके पास कपड़े, मकान, शिक्षा, चिकित्सा आदि अन्य आवश्यकताओं के लिए पैसे नहीं बचते।
क्या अब आप समझे कि भारत को ओलिंपिक्स में रो-पीटकर एक-आध मेडल ही क्यों मिलते हैं, जबकि चीन पर मेडलों की वर्षा होती है?
Saturday, July 04, 2009
भारत में गहराया भूख का साया
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: अर्थव्यवस्था, कुपोषण, भारत, भूख, विकास
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8 Comments:
पता नहीं ....आखिर ये कब बदलेगा ...तस्वीरों ने हिला कर रख दिया....
किसे चिंता है इस भारत की भूख की? अपनी भूख मिटाने को भूखों को ही खड़ा होना होगा।
क्या कहा जाए?
अंदर तक कसमसाकर रह जाया जा सकता है।
भरे पेट भौं-भौं में मस्त हैं।
खाली पेट की मजबूरियां...उफ़।
चिंतनीय मुद्दा .. पर इसके लिए जिसे चिंता करनी चाहिए .. उन्हें कोई चिंता ही नहीं।
@"आयोग का अनुमान है कि 2003-04 में राशन की दुकानों को गरीबों में बांटने के लिए 1.4 करोड टन अनाज दिया गया था। उसमें से केवल 8 करोड़ टन अनाज ही असल में गरीबों तक पहुंच सका।"
गणित में कुछ गड़बड़ है। सुधार करें।
सब अर्थलिप्सा का अनर्थ जाल है। गांधी जी के शब्दों में कहें तो धरती के पास आदमी की जरूरतों के लिए तो सामान हैं लेकिन उसकी लिप्सा के लिए नहीं।
एक बहुत बड़ा षड़यंत्र जाल है यह। लोगों की आँखें ऐसे ही खोलते रहें। जरूरत पड़े तो आँख में मिर्ची भी डाल दें। दर्द के बाद जब आँखें खुलेंगी तो साफ नजर आएगा।
गिरिजेश जी : आंकड़े की गलती सुधार दी। ध्यान दिलाने के लिए आभार।
आज से करीब पच्चीस साल पहले मैने पर कैपिटा कैलोरी को ले कर बहुत माथापच्ची की थी। और मैं कई दिन परेशान रहा कि औसत भारतीय को १९००-२००० कैलोरी के आसपास मिलता है।
तब मुझे अहसास हुआ कि सारा डाटा बेकार है।
डाटा बेकार है। पर जनता की फिक्र होनी चाहिये और फ्रूगालिटी से काम लेना चाहिये।
sarkar mugh ko pagal lagti jo na jane kaha kaha se akde uth lati he .
bharat me 6 crore someting garib log he it is a jok olny
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