Sunday, July 12, 2009

राहुल सांकृत्यायन और डा. रामविलास शर्मा

पिछले एक पोस्ट, क्या ब्लोग साहित्य है? में मैंने राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं के बारे में डा. रामविलास शर्मा के मत का जिक्र किया था, जो उन्होंने अपनी पुस्तक इतिहास दर्शन के "इतिहास दर्शन और राहुल सांकृत्यायन" वाले अध्याय में व्यक्त किए हैं।

यह पुस्तक वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, www.vaniprakashan.com ने प्रकाशित की है। मूल्य है रु. 495 और प्रकाशन वर्ष है 2007.

इस लेख पर जो टिप्पणियां प्राप्त हुईं उनमें से दो टिप्पणियों में इस उल्लेख के बारे में क्षोभ व्यक्त किया है। एक टिप्पणी स्मार्ट इंडियन की है और दूसरी अजित वडनेरकर की।

इस मामले में मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है ताकि यह धारणा न बने कि मैं राहुल सांकृत्यायन जैसे वरिष्ठ और महत्वपूर्ण हिंदी साहित्यकार के प्रति अवज्ञा या अनादर रखता हूं। बात ऐसी नहीं है। मेरे लिए सभी हिंदी साहित्यकार आदरणीय और पूज्य हैं, पर मैं उन्हें और उनके साहित्य को अलग-अलग समझता हूं। साहित्यकारों की हिंदी सेवा के सामने नत-मस्तक होते हुए भी मैं उनके साहित्य को स्वतंत्र दृष्टि से देखने-परखने का पक्षधर हूं। साहित्य समय-सापेक्ष होता है और उसमें साहित्यकार के पूर्वाग्रह, उसके समय के ज्ञान की सीमाएं, उसकी परिस्थितियां आदि का अनिवार्य प्रभाव पड़ता है। इन सब प्रभावों से नियंत्रित होकर वह जो साहित्य रचता है, उसके कुछ या अधिक अंश ऐसे भी हो सकते हैं जो बाद की पीढ़ियों के लिए अनिष्टकारी हों। इसलिए किसी साहित्य को ग्रहण करने से पहले उसे भली-प्रकार ठोंक-बजा लेना बुद्धिमानी है। साहित्य का हम पर काफी गहरा असर पड़ता है और वह हमारे सोचने-जीने के नजरिए को बदलने की ताकत रखता है। इसलिए किसी साहित्य को अपनाते समय यह जान लेना जरूरी है कि वह हम पर किस तरह का प्रभाव डाल सकता है।

हमारे यहां एक दुखद प्रवृत्ति देखी जाती है कि हम “बड़े” लोगों को, चाहे वे साहित्यकार हों या नेता, पूजनीय बनाकर किसी चबूतरे पर बिठा देते हैं और उनके साहित्य को पढ़ना या उनके उपदेशों पर आचरण करना जरूरी नहीं समझते। राहुल सांकृत्यायन जैसे साहित्यकारों की रचनाओं पर आलोचनात्मक दृष्टि डालकर इस प्रवृत्ति को कमजोर किया जा सकता है। मैं चाहता हूं कि लोग राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं को पढ़ें और पढ़ते वक्त अपनी क्षीर-नीर बुद्धि को भी साथ में रखें।

स्मार्ट इंडियन और अजित वडनेरकर की टिप्पणियों का स्पष्टीकरण मुझे डा. शर्मा की उक्त पुस्तक के अंश देकर करना होगा। यह काम अनेक पोस्टों में करना पड़ेगा अन्यथा बात बहुत नीरस हो जाएगी।

डा. शर्मा बड़े ही गंभीर समालोचक हैं और उनकी लेखनी को चंद पस्टों में समेटना खतरे से खाली नहीं है। उससे अतिसरलीकरण हो सकता है और उनकी मूल भावना विकृत हो सकती है। इसलिए पाठकों से मेरा निवेदन है कि इस लेख माला को एक संकेत मात्र मानकर उनकी किताब इतिहास दर्शन को ही पढ़ने की कोशिश करें, और उसी के आधार पर अपना मत बनाएं, न कि मेरे इन लेखों के आधार पर।

एक दूसरी बात भी कहना आवश्यक है। डा. शर्मा के विचार उनके अनेक पुस्तकों में बिखरे पड़े हैं। जो विचार बीज रूप में एक किताब में आए हैं, उन्हें उनकी किसी अन्य किताब में और उन्मीलित किया गया है। इसलिए उनकी विचारधारा को समझने के लिए आपको उनकी संपूर्ण रचनावली को पढ़ना पड़ेगा। यह काम आपके लिए आसान नहीं होगा क्योंकि डा. शर्मा ने अपने लंबे और अत्यंत अनुशासित एवं कर्मठ जीवनकाल में लगभग 100 किताबें लिखी हैं, हिंदी साहित्य, हिंदी जाति, हिंदी साहित्यकार, राजनीति, इतिहास, कूटनीति आदि पर। अब तक किसी प्रकाशक ने इन सबको संकलित करके एक रचनावली के रूप में प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं दिखाई है, हालांकि उनकी अधिकांश किताबें राजकलम प्रकाशन, दिल्ली और वाणी प्रकाशन, दिल्ली से निकली हैं। ये हिंदी के चोटी के प्रकाशन-गृह हैं और सभी बड़े हिंदी पुस्तक विक्रय केंद्रों में इनकी किताबें मिलनी चाहिए। आप डाक से भी किताबें मंगा सकते हैं। इसलिए आपको उनकी किताबों को प्राप्त करने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

पर डा. शर्मा की पुस्तकों को अवश्य पढ़ें, आपका पूरा नजिरया ही बदल जाएगा कई मामलों के बारे में और आजकल की राजनीति, सामाजिक जीवन, साहित्य आदि से जुड़ी अनेक गुत्थियां आपके लिए खुल जाएंगी।

तो शुरू करते हैं, राहुल सांकृत्यायन की पुस्तकों पर डा. शर्मा की समालोचना से परिचय प्राप्त करना।

डा. शर्मा इतिहास दर्शन की भूमिका में लिखते हैं –

राहुल जी हिंदी के माध्यम से जनता में ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करना चाहते थे, हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध करना चाहते थे। पर हिंदी भाषियों के जातीय विकास की रूपरेखा उनके सामने अस्पष्ट थी, इस विकास में जनपदों और संप्रदायों की भूमिका अस्पष्ट थी। साहित्यिक हिंदी का विकास अधिकतर पूर्वी जनपदों में हुआ था पर इन्हें एक ही जातीय प्रदेश के अंतर्गत न मानकर वह उन्हें स्वतंत्र जातीय क्षेत्रों के रूप में पुनर्गठित करना चाहते थे। उनका यह प्रयास बौद्धकालीन भारत के मानचित्र से प्रेरित था। जातीय संस्कृति की रूपरेखा स्पष्ट न होने से राहुलजी हिंदू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति की बात करते थे, हिंदी का संबंध हिंदुओं से उर्दू का संबंध मुसलमानों से जोड़ते थे। अंग्रेजी राज कायम होने से पहले दरबारी साहित्य में और दरबारों के बाहर रचे जाने वाले साहित्य में हिंदू और मुसलमान एक साथ हैं। राहुलजी की दृष्टि से यह इतिहास ओझल रहता है। उर्दू और हिंदी दो भाषाएं नहीं हैं, उनमें क्रियापदों, सर्वनामों आदि की बुनियादी एकता है, काफी परिमाण में राष्ट्रीय और जनवादी साहित्य उर्दू में भी लिखा गया है, हिंदी के अनेक लेखक उर्दू के लेखक भी थे - इन तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है। राहुलजी की मान्यताएं समाजसंबंधी हमारी आज की धारणाओं को प्रभावित करती हैं, इसलिए उनका विवेचन प्रासंगिक है।

इसके बाद डा. शर्मा ने राहुल जी की साहित्यिक यात्रा का संक्षिप्त परिचय देकर उसके दो पहलुओं का विशद विवेचन किया है, जो हैं, इतिहास और दर्शन।

आगे के पोस्टों में मैं उनके विवेचन के केवल कुछ चुने हुए अंशों को प्रस्तुत करूंगा। बाकी आपको वहीं पढ़ना पड़ेगा।

(...जारी)

2 Comments:

premlatapandey said...

श्रंखला ज्ञानवर्धक रहेगी। अगले अंक की प्रतीक्षा...

निर्मला कपिला said...

साहित्य की पूरी जानकारी ना रखने वाले हम जैसे लोगों के लियेरापकी पोस्ट और् इस पर टिप्पणियाँ हमारे लिये रोचक और ग्यानवर्धक हैं आभार्

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