Tuesday, July 14, 2009

राहुल सांकृत्यायन चर्चा : ऋग्वेद के दार्शनिक महत्व का अवमूल्यन

इस लेख माला का संदर्भ जानने के लिए पहले का यह लेख देखें - राहुल सांकृत्यायन और डा. रामविलास शर्मा

राहुल जी में जो अनेक अंतर्विरोध हैं, उनमें से एक ऋग्वेद के दार्शनिक महत्व को लेकर है। वे ऋग्वेद को दार्शनिक दृष्टि से महत्वहीन मानते हैं, पर उनके ही विवेचन से ऋग्वेद का असाधारण दार्शनिक महत्व स्पष्ट होता है। पढ़िए डा. शर्मा के ही शब्दों में –

दर्शन-दिग्दर्शन में जो बात सबसे पहले उभरकर सामने आती है, वह यह है कि बौद्ध धर्म के उद्भव से पहले यहां एक शानदार दार्शनिक परंपरा थी और उसे हम धर्मनिरपेक्ष कह सकते हैं। उसमें उपासना का अभाव नहीं है किंतु स्वतंत्र चिंतन उसकी विशेषता है। वह दर्शन रूढ़िबद्ध नहीं है। उसमें अनेक धाराएं हैं। विशेष बात यह कि वह संसार को सत्य मानता है। उसे हम यथार्थवादी दर्शन कह सकते हैं। राहुल जी ने ‘बुद्ध के पहले के दार्शनिक’ शीर्षक देकर सबसे पहले चर्वाक का नाम लिया है। उनकी विचारधारा का सारांश यह बताया है : “ईश्वर नहीं, आत्मा नहीं, पुनर्जन्म और परलोक नहीं जीवन के भोग त्याज्य नहीं ग्राह्य हैं। अनुभव और बुद्धि को हमें सत्य के अन्वेषण के लिए अपना मार्गदर्शन बनाना चाहिए।“ यहां कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका विरोध किसी यथार्थवादी दार्शनिक से हो। यह भौतिकवादी दर्शन है और इसकी बुनियाद, राहुल जी के अनुसार, बुद्ध से पहले डाली जा चुकी है। चर्वाक से और पहले भी यहां दार्शनिक परंपराएं थीं। सबसे पहले यहां ऋग्वेद की दार्शनिक परंपरा है। देखना चाहिए राहुल जी ऋग्वेद के दर्शन के बारे में क्या कहते हैं।

कहते हैं, “जिसे हम दर्शन कहते हैं, वह वैदिक काल में दिखलाई नहीं पड़ता।” इस तरह ऋग्वेद में यदि कोई दर्शन था, तो उसका सफाया हो गया। किंतु उसी पृष्ठ पर वह ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त से लंबा उद्धरण देते हैं। और उद्धरण के बाद कहते हैं, “यहां हम उन प्रश्नों को उठते हुए देखते हैं, जिनके उत्तर आगे चलकर दर्शन की बुनियाद कायम करते हैं। विश्व पहले क्या था? इसका उत्तर किसी ने सत अर्थात वह सदा से ऐसा ही मौजूद रहा – दिया। किसी ने कहा कि वह असत, नहीं मौजूद, अर्थात सृष्टि से पहले कुछ नहीं था। इस सूक्त के ऋषि ने पहले वाद के प्रतिवाद का प्रतिवाद (प्रतिषेध) करके – ‘नहीं सत था नहीं असत -’ द्वारा अपने संवाद को पेश किया।" यदि ऋग्वेद में वे बुनियादी प्रश्न प्रस्तुत किए गए हैं, जिनसे आगे का दर्शन विकसित होता है, तो यह भी ऋग्वेद का दार्शनिक महत्व है। यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें दर्शन का नितांत अभाव है। इसके सिवा तर्क पद्धति में यह बात ध्यान देने की है कि पहले स्थापना है, फिर प्रतिस्थापना है; दोनों के बाद एक नई संस्थापना है। राहुल जी ने इसी को प्रतिवाद का प्रतिवाद कहा है और अंत में जो निष्कर्ष निकलता है, उसे संवाद कहा है। इसका अर्थ यह है कि जिसे डायलेक्टिक्स या द्वंद्ववाद कहते हैं, उसकी शुरुआत ऋग्वेद में हो चुकी है। यह ऋग्वेद का असाधारण महत्व है।

डा. रामविलास शर्मा ने ऋग्वेद का गहन अध्ययन किया है। ऋग्वेद को वे हिंदी जाति का आदि ग्रंथ मानते हैं और उसके अध्ययन में उन्होंने दस वर्ष बिताए। इसके आधार पर उन्होंने कई ग्रंथ रचे, जिनमें से एक इतिहास दर्शन भी है। भाषा और समाज और भारत के भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंड) में भी ऋग्वेद की खूब चर्चा है। इतिहास दर्शन के प्रथम अध्याय में उन्होंने ऋग्वेद और उसे रचनेवाले ऋषियों पर अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है। इस अध्याय में उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों द्वारा ऋग्वेद के संबंध में फैलाई गई भ्रांत धारणाओं का खंडन किया है। वे ऋग्वेद को सिंधु घाटी सभ्यता से पहले की चीज मानते हैं, और उसे 5 से 10 हजार साल पहले का साहित्य मानते हैं। विदेशी विद्वान उसे ईसा पूर्व 1500 के आसपास बताते हैं, यानी 3-3.5 हजार साल पुराना।

ऋग्वेद के संबंध में डा. शर्मा की कुछ महत्वपूर्ण मान्यताएं ये हैं –

  • ऋग्वेद वर्णाश्रम धर्म के प्रकट होने से पहले रचा गया है। उसमें ब्राह्मण, शूद्र के विभाजन का कोई संकेत नहीं है।
  • ऋग्वेद मात्र धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि उसमें हमारे पूर्वजों का इतिहास और स्मृतियां भी हैं।
  • ऋग्वेद रचने वाले ऋषि कहीं बाहर से नहीं आए थे, बल्कि यहीं के लोग थे।
  • सिंधु घाटी सभ्यता ऋग्वेदिक आर्यों के बाद की चीज है और दोनों में घनिष्ट संबंध है।
  • ऋग्वेदिक आर्यों की संस्कृति के अंश व्यापार, दिग्विजय आदि के कारण ईरान, यूनान, जर्मनी, मध्य एशिया आदि में फैले, जिसके प्रमाण हैं इन जब जगहों में पाई जानेवाली भाषाओं में संस्कृत के शब्दों का मिलना। पाश्चात्य विद्वानों ने गंगा की धारा को उल्टा बहाकर यह प्रमाद फैलाया कि आर्य मध्य एशिया से भारत आए। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे अंग्रेजों द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण को सही ठहराना चाहते थे और यहां के जन-समुदाय में फूट डालना चाहते थे। राहुल सांकृत्यायन जैसे कुछ देशी विद्वानों ने भी पाश्चात्य विद्वानों के इस द्वेषपूर्ण प्रचार को बिना सोचे-समझे अपना लिया। डा. शर्मा कहते हैं कि यह धारणा देश की एकता के लिए काफी घातक है क्योंकि इससे यह अर्थ भी निकलता है कि आर्य लोगों ने यहां के लोगों को मारकर दक्षिण की ओर खड़ेद दिया और उन्हें शूद्र बनाया। इस गलत धारणा को दक्षिण की द्रविड पार्टियों ने अपना लिया था और वे दक्षिण में इसी के आधार पर अलग देश की मांग भी करने लगी थीं। हिंदी विरोध में भी इस धाराणा का उपयोग किया जाता है। इसलिए आर्यों के बाहर से आने की भ्रांत धारणा को खारिज करना देश की एकता के लिए बहुत जरूरी है। हमारा सौभाग्य है कि डा. शर्मा जैसे विद्वानों के प्रयास से अब बहुत कम लोग ऐसे रह गए हैं जो इस बात को मानते हैं कि आर्य बाहर से आए थे।
  • आर्यों के बाहर से आने की धारणा को सबसे अधिक पाश्चात्य भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में माना गया है। भारत के विश्वविद्यालयों में भाषा विज्ञान के विभागों में भी इस गलत धारणा का बहुत अधिक प्रभाव है। दरअसल यहां जो भी भाषा वैज्ञानिक शोध होता है, वह पाश्चत्य विश्वविद्यालयों द्वारा नियत मानदंडों के अनुसार होता है, जो हमारे देश के हित में नहीं है। डा. शर्मा ने अपनी पुस्तकों के जरिए भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिए नई राहें काटकर दी हैं। उन्होंने किशोरीदास वाजपेयी जैसे देशी वैयाकरणों के काम को आगे बढ़ाया है। दुख की बात यही है कि देशी विश्वविद्यालयों ने उनके इस पथ-प्रशस्तक कार्य को अब भी महत्व नहीं दिया है। हिंदी जाति की उन्नति के लिए डा. शर्मा की इन मान्यताओं के महत्व को देखते हुए, जनता को ही अपने-अपने स्तर पर उनका अध्ययन करना चाहिए और उसे आगे बढ़ाना चाहिए।


इतिहास दर्शन, डा. रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, www.vaniprakashan.com ने प्रकाशित की है। मूल्य है रु. 495 और प्रकाशन वर्ष है 2007.

(... जारी)

2 Comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

आज की यह पोस्ट बहुत विचारणीय है। डॉ. रामविलास जी को गंभीरता से पढ़ना पड़ेगा।

farhaan khan said...

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