गांवों में किसानों की एक आम समस्या यह होती है कि कुंआ या तालाब खोदने के लिए सही स्थान क्या हो जहां खोदने से पानी मिले और वह मीठा हो। कुंआ या तालाब खोदने का काम श्रम और व्यय साध्य होता है और यदि वह विफल हो जाए या खारा पानी मिले, तो किसान तबाह हो सकते हैं।
इन दोनों बातों की सटीक जानकारी पाने के लिए अब भी हमारे गांवों में सगुनियों का ही सहारा लिया जाता है। विज्ञान इस मामले में गांवों तक नहीं पहुंचा है।
पानी खोजने वाले सगुनिए भारत में ही नहीं विश्व भर में पाए जाते हैं, और आजकल से नहीं, बल्कि हजारों सालों से। उनकी विद्या, चाहे वह पाखंड हो या सच, बड़े काम की है और लाखों लोगों को उसकी आवश्यकता रहती है। कई प्रयोगों से स्पष्ट हुआ है कि पानी खोजने में सगुनियों की सफलता प्रशिक्षित जल-वैज्ञानिकों से कम नहीं होती। आस्ट्रेलिया में तो 1970 के दशक तक वहां की सरकार कुंए आदि खोदने हेतु उपयुक्त स्थल का चयन करने के लिए नियमित रूप से सगुनियों का उपयोग करती थी।
सगुनिए नीम की टहनी, धातु की मुड़ी हुई छड़, दोलक आदि का उपयोग करके पानी की उपस्थिति की जानकारी देते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि वे कई मामलों में सही साबित होते हैं, और प्रशिक्षित भूवैज्ञानिकों को भी मात दे देते हैं। सगुनियों का कहना है कि नीचे मौजूद पानी के कारण होनेवाले सूक्ष्म कंपनों या पानी के कारण पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में होनेवाले परिवर्तनों को वे भांप लेते हैं। कुछ सगुनिए यह भी दावा करते हैं कि वे बता पाते हैं कि पानी खारा है या मीठा या वह बह रहा है या स्थिर है।
तो क्या सगुनियों में ऐसी कोई विलक्षण शक्ति होती है जो साधारण मनुष्यों में नहीं होती, या फिर क्या यह सब मात्र ढकोसला है? यदि ढकोसला है तो सगुनिए अनेक मामलों में सही कैसे साबित होते हैं?
इन प्रश्नों का वैज्ञानिक कई रीति से उत्तर देते हैं। वे कहते हैं कि सगुनिए कंपनों को भांप कर पानी का पता नहीं लगाते बल्कि अन्य बाह्य चिह्नों का सूक्ष्म निरीक्षण करके, जैसे मिट्टी का प्रकार, जमीन पर उग रही वनस्पति का प्रकार, जमीन की ढलान, आदि। अक्सर सगुनिए स्थानीय लोग होते हैं और वे भूमि की विशेषताओं की बारीक जानकारी रखते हैं। जबकि बाहर से आए जल-वैज्ञानिक केवल कुछ दिनों के सर्वेक्षण के आधार पर कुंआ या तालाब खोदने की जगह का चयन करते हैं। इससे कई बार उनका अनुमान गलत साबित होता है जबकि अपनी स्थानीय जानकारी का उपयोग करके सगुनिए अधिक सही अनुमान कर पाते हैं।
सगुनियों की सफलता का एक अन्य कारण यह भी है कि कई प्रदेशों में भूमि के नीचे पानी बहुत ही व्यापक रूप में विद्यमान रहता है, और लगभग कहीं भी खोदने से पानी मिल ही जाता है।
लेकिन अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों में सगुनिए पानी की उपस्थिति को ठीक से भांप नहीं पाए हैं। एक प्रयोग में एक सगुनिए की आंखों पर पट्टी बांधकर उस जगह पर ले जाया गया जहां पानी की उपस्थिति का पता लगाना था। उसने जो स्थान बताया उसे नोट कर लिया गया। उसके बाद उसकी आंखों की पट्टी खोल दी गई और दुबारा पानी वाली जगह पहचानने को कहा गया। इस बार उसने दूसरी कोई जगह बताई।
इसी तरह के एक अन्य प्रयोग में कुछ सगुनियों को ऐसे स्थल ले जाया गया जहां पानी ले जानेवाली भूमिगत पाइपें बिछी थीं और उनसे कहा गया कि वे बताएं कि पाइपें ठीक कहां हैं। कोई भी सगुनी यह नहीं बता पाया। एक और प्रयोग में सगुनियों को बताया गया कि जमीन के नीचे पानी की पाइपें हैं, और उनसे पूछा गया कि क्या इन पाइपों में पानी बह रहा है या नहीं। सुगुनिए यह भी ठीक से नहीं बता पाए।
जर्मनी में किए गए एक प्रयोग में एक बहुमंजिली ईमारत के निचले तल्ले में एक बड़ी टंकी में पानी रखा गया और सगुनियों को ऊपरी तल्ले में ले जाकर पूछा गया कि टंकी की स्थीति ठीक कहां है। टंकी की जगह को बारबार बदलकर उनसे टंकी की नई स्थिति का पता लगाने को कहा गया। सुगुनियों को उतनी ही सफलता मिल पाई जितनी तुक्का लगानेवाले किसी व्यक्ति को मिलती।
इस संबंध में एक रोचक जानकारी आस्ट्रेलिया से। वहां किसानों ने सरकारी जल-वैज्ञानिकों द्वारा बताए गए स्थानों में अनेक बार पानी न मिलने से नाराज होकर मांग की कि सगुनियों को यह काम दिया जाए और सरकार ने ऐसा किया भी। कुछ सालों में इनकी सफलता-विफलता के संबंध में अच्छे आंकड़े इकट्ठे हो गए। इन आंकड़ों से पता चला कि जहां सगुनिए हर 3 अनुमानों में से 1 में गलत सिद्ध हुए, भूवैज्ञानिक हर 12 अनुमानों में से 1 में ही गलत सिद्ध हुए।
भारत में अब भी विज्ञान जन-जन तक नहीं पहुंचा है। अधिकांश प्रयोगशालाएं, अनुसंधान संस्थाएं आदि अब भी उद्योगों, व्यवसायों और शहरों की जरूरतों पर ही ज्यादा ध्यान देती हैं। आम आदमी की जरूरतों की ओर विज्ञान कम जागरूक है। और गांवों के खस्ता हाल के चलते पढ़े-लिखे वैज्ञानिक गांवों में रहना पसंद भी नहीं करते। अधिकांश चोटी के वैज्ञानिकों की मंशा यही रहती है कि उन्हें अमरीका-कानाडा आदि समृद्ध देश में नौकरी मिले और वे वहां बस जाएं, या यदि यह संभव न हो तो किसी बड़े व्यवसाय में या शहरों के किसी प्रयोगशाला में वे रख लिए जाएं। इसलिए किसानों की वैज्ञानिक जानकारी की आवश्यकता भारत की विज्ञान और अनुसंधान संस्थाओं द्वारा पूरी नहीं हो पा रही हैं। किसानों को मजबूर होकर सगुनिए, ज्योतिषी, नीम-हकीम आदि के भरोसे जैसे-तैसे अपना काम चलाना पड़ रहा है।
एक दूसरी समस्या यह है कि हमारे यहां उच्च शिक्षा संस्थानों में अंग्रेजी का बोलबाला है। इससे इन संस्थाओं से जो लोग पढ़कर आते हैं और इन संस्थाओं में जो लोग पढ़ाते हैं वे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से अधिक परिचित नहीं हैं। इस कारण से उनका ज्ञान हिंदी आदि के माध्यम से जन-जन तक नहीं पहुंच रहा है। हमारे देश में अंधविश्वासों का इतने व्यापक स्तर पर फैला होने के पीछे एक कारण यह भी है।
यदि हम इस वस्तुस्थिति को समझे बगैर सगुनियों का पर्दाफाश करें, तो इससे गरीबों का नुकसान ही ज्यादा होगा, क्योंकि तब गरीबों के लिए न वैज्ञानिकों का सहारा रहेगा न सगुनियों का, जो कम से कम थोड़े मामले में तो सफल हो ही जाते थे।
सगुनियों का धंधा बंद कराने के साथ-साथ हमें गांवों में हिंदी आदि जाननेवाले डाक्टर, इंजीनयर, भूवैज्ञनिक, कृषि वैज्ञानिक आदि को भी पहुंचाना होगा, और गांव में शिक्षा का प्रसार करना होगा। इसके साथ ही उच्च शिक्षा संस्थानों, प्रोयगशालाओं, शोध संस्थाओं को भी हिंदी में काम करना शुरू करना होगा।
Monday, July 20, 2009
क्या सगुनिए सचमुच भूमिगत जल खोज पाते हैं?
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15 Comments:
आपने सही विषय पर लिखा है दरअसल सगुनिए स्थानीय निवासी होते है उन्हें अपने क्षेत्र के भूजल क्षेत्र का पूरा पता होता है बस उन्हें तो किसान के खेत में एक जगह बतानी होती है | मुझे याद है बचपन में जब हमारा कुआँ खोदा गया तो पानी कहाँ है कि पूछताछ उसी व्यक्ति ने की जिसने गांव के लगभग सभी कुँए बनाए थे | हमारे कुँए का निर्माण कार्य भी उसने ही किया था वह हनुमान जी का भक्त था और हनुमान मंदिर में बैठ हनुमान जी छाया उसके शरीर में आती थी तब वह पानी का स्थान बताता था | शायद छाया आने का अभिनय वह बहुत अच्छा कर लेता होगा | १९९१ में में जब जोधपुर था तब वहां का भूजल स्तर भी बहुत निचे चला गया था कपडे के कारखानों में पानी की बहुत कमी रहती थी हर साल कारखाने वाले अलग अलग कोनो में ट्यूब वेल खुदवाया करते थे तब वहां भी मैंने कई सगुनिए देखे वे एक लकडी की चौकी पर नारियल रख कर उस पर किसी व्यक्ति को बिठाते नारियल जिधर घूमता उधर ही पानी होने का दावा कर दिया जाता लेकिन पानी वैसे मिलता जैसा जमीन होता |
वैज्ञानिक स्वीकारें या नहीं .. हमारी प्राचीन विद्याएं काफी काम की थी .. और सामान्य लोगों के लिए उपयोगी भी .. पर कालांतर में उनका अधोपतन होता चला गया .. हर क्षेत्र में समानुपातिक रूप से विकास न कर पाने से .. विज्ञान आज भी मात्र पांच प्रतिशत लोग के लिए उपयोगी है .. बाकी 95 प्रतिशत तो विज्ञान का अभिशाप झेलने को ही विवश है .. विज्ञान अपनी जुबानी अपनी कितनी ही शौर्यगाथा गा ले .. पर वह तबतक सफल नहीं माना जा सकता .. जबतक वह जमीनी हकीकत को न समझे।
सगुनिए हर 3 अनुमानों में से 1 में गलत सिद्ध हुए, भूवैज्ञानिक हर 12 अनुमानों में से 1 में ही गलत सिद्ध हुए।
यह आंकडा कलई खोलता है !
और हाँ यह सच है की विज्ञान जन जन तक नहीं पहुंच सका है -यही सगुनिये तरह तरह का भेष धरे उसका रास्ता रोके खडे हैं !
गुजरात में पोस्टिंग के दौरान मुझे बोर कराना था। भू सर्वेक्षक महोदय और उपकरणों के साथ धातु की दो छड़ें भी ले कर आए। अंगुलियों पर साध कर उत्तर दक्षिण का ध्यान रखते हुए उन्हों ने उस स्थान का अनुमान लगाया जहाँ डिस्चार्ज अच्छा मिल सकता था। हम लोगों को भी सिखाया। पूरी पद्धति मैं भूल चुका हूँ।
बाद में उसी स्थान को डीटेल्ड वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा स्थापित किया गया। वहीं बोर किया गया और पानी अफरात मिला - खारा। हम लोगों को मीठे पानी की आवश्यकता भी नहीं थी। धातु के टुकड़े वाले प्रयोग के वैज्ञानिक आधार हैं।
सगुनिए और वैज्ञानिक के बीच की खाई को पाटना जरूरी है। हमारे यहाँ पहले यह काम सगुनिये करते थे लेकिन अब लोग विज्ञानी को ही तलाशते हैं।
मै खुद भूजलवैज्ञानिक के रूप मे पंजीकृत था और सगुनियो की बात को मज़ाक समझता था।इस बात पर मेरा और एक अन्य मित्र चंद्रिका सिंग भूजलवैज्ञानिक जिसने इस काम को अपना पेशा बना लिया है,के बीच अक्सर विवाद होता था।एक बार उसने मुझे दूर गांव मे एक साईट पर चलने के लिये कहा और वंहा उसने नीम के पेड़ की टहनी तोड़ी और मुझसे कहा ट्राई करो।मै काफ़ी नाराज़ हुआ तो उसने मुझे टहनी पकड़ाई और कुछ दूर तक़ चला कर ले गया।एक स्थान ऐसा आया जब मैने अपनी हथेलियो पर दबाव महसूस किया।उसने उसी स्थान पर जांच की और बताया की वही स्थान उप्युक्त है।उसका कहना है कि मनुष्य का शरीर पानी से ही बना है और वो भूजल की तरंगो को महसूस कर सकता है।सवाल अनुभव करने का है।पता नही उसका कहना सच है या नही,मगर वो आज भी यही काम कर रहा है,उसका ये कारोबार अच्छा चल रहा है।मैने तो खैर इस काम को शुरू से पसंद ही नही किया और कभी भी ये काम किया ही नही।
Lekin ye to dhokha dhari hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
कभी कभी आयुर्वेद के चिकित्सक येल्लोपेथी की दावा देते देखे जा सकते हैं वैसे ही येल्लेओपेथी वाले आयुर्वेदी या होमिओपेथी की. हमारे पारंपरिक ज्ञान को एकदम से झुटलाया भी नहीं जा सकता. वैसे आपकी बात अपनी जगह सही है.
बालसुब्रमन्यम जी आपने सही लिखा है | और हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओँ पे चर्चा की बात है तो हमने भी थोडा इसपे लिखा है | कभी उधर भी पधारे http://www.raksingh.blogspot.com/
और एक बात कहना चाहता हूँ कि जो भी प्राचीन भारतीय कला है वो काफी हद तक परफेक्ट रही होंगी | आयुर्वेद का उद्धरण लीजिये, आज आयुर्वेद कौन सिख रहा है, जो कहीं सेट नहीं हो पाया हो प्रतिभा के मामले मैं ये काफी पीछे होते हैं | सारे प्रतिभाशाली लोग तो western education की तरफ भाग जाते हैं | अब ऐसी इस्थिती मैं जब आयुर्वेद या अन्य भारतीय कलाओं मैं सिर्फ अक्षम लोग आयेंगे तो इनका ज्ञान भी बहुत सिमित होगा | और इस अधर पे भारतीय कलाओं को गलत साबित करना सही नहीं है |
शास्त्रीय संगीत को ही लीजिये, इसमें प्रतिभाशाली लोग आ ही नहीं रहे है इसीलिए कितनी बारीक चीज लगभग विलुप्त हो गई | sशास्त्रीय संगीत के बारे मैं पहले पश्चिमी संगीतकार कोई अच्छी राय नहीं रखते थे | लेकिन जब उन्होंने इसको जानने-सिखने का प्रयास किया तो अब कई पश्चिमी संगीतकार कहते हैं की शास्त्रीय संगीत की गहराईयों और आध्यात्मिकता को western music छू भी नहीं पाया है |
योग विद्या का उद्धरण लीजिये, कुछ दिनों पहले तक (शायद आज भी) योग विद्या की अपेक्षा हम भारतीय jogging या अन्य western method को ही श्रेष्ठ मानते थे | B.K.S.इयेंगर और बाबा रामदेव के अतुलनीय प्रयासों से ये साबित हो गया है की योग विद्या श्रेष्ठ है |
बताइए की B.K.S.इयेंगर और बाबा रामदेव जैसे कितने लोग
मेरा मानना है कि हमारी प्राचिन विद्याये भी
कम नही है
भले ही आज के इस वैझानिक युग में वे पहले की तुलना में कम सफल हो रही है
इसका कारण भूमीगत जल स्तर का लगातार नीचे होना है !
मेरा मानना है कि हमारी प्राचिन विद्याये भी
कम नही है
भले ही आज के इस वैझानिक युग में वे पहले की तुलना में कम सफल हो रही है
इसका कारण भूमीगत जल स्तर का लगातार नीचे होना है !
हमारे गाव मे पानी 40फिट पर आजाता मगर वो पानी बहुत हि खारा पानी प्रेशर भी बहुत ज्यादा ह पानी का ईश पानी से हम खेती नही कर पते तो हम केसे पता लगाये कि मीठा पानी कहा पर ह कोई मुजे बताये 9983885948
हमारे गाव मे पानी 40फिट पर आजाता मगर वो पानी बहुत हि खारा पानी प्रेशर भी बहुत ज्यादा ह पानी का ईश पानी से हम खेती नही कर पते तो हम केसे पता लगाये कि मीठा पानी कहा पर ह कोई मुजे बताये 9983885948
हाँ इसके लिए मशीन का प्रयोग कैसा रहेगा
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