Friday, July 10, 2009

क्या ब्लोग साहित्य है?

आजकल ब्लोगजगत में एक बहस खूब उफान ला रहा है - क्या ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है?

कुछ लोग साहित्य और ब्लोग की तुलना को हंस और कौए को एक पांत में बिठाना कह रहे हैं, तो कोई पलटवार करके साहित्य को ही कागज में छपा बासी ब्लोग बता रहे हैं।

ब्लोगजगत को यह विषय इतना गंभीर लग रहा है कि उस पर एक बकायदा संगोष्ठि ही की जा रही है आज रायपुर में। अध्यक्ष हैं, छींटें और बौछारें के सुपरिचित ब्लोगर श्री रविशंकर श्रीवास्तव (रविरतलामी)।

तो सच क्या है, ब्लोग साहित्य है या नहीं? जानिए जयहिंदी का दृष्टिकोण।

साहित्य वह चीज है जिसमें किसी जाति (जाति शब्द को अंग्रेजी के नेशनैलिटी के समतुल्य के रूप में यहां प्रयोग किया गया है) के लोग अपनी आकांक्षाओं, सपनों, इच्छाओं, भावों और आहों की झलक पाते हैं। उसका लिखित होना जरूरी नहीं है, वेद सहित अधिकांश साहित्य मौखिक ही रहे हैं, और यही स्थिति अब भी बनी हुई है, लोक साहित्य को देखिए।

साहित्य जनता की आवाज होता है। वह जनता को प्रेरणा देता है, सही दिशा दिखाता है, सांत्वना देता है, उसका उत्साह बढ़ाता है, उसका मनोरंजन करता है और उसकी अभिरुचियों का परिष्कार करता है। थोड़े शब्दों में कहें, तो साहित्य जन-कल्याणकारी होता है। स्वांतः सुखाय जो लिखा जाता है वह अधिकांश में श्रेष्ठ साहित्य की कोटि में नहीं आता। इसी तरह जो किसी छिपे एजेंडा को लेकर लिखा जाता है, वह प्रोपेगैंडा है, साहित्य नहीं, और उसका उद्देश्य किसी खास वर्ग के हितों को बढ़ावा देना होता है, न कि समस्त जन-समूह का। इसके उदाहरण के स्वरूप हम रुड्यार्ड किप्लिंग को ले सकते हैं। उन्होंने खूब लिखा है और वे अंग्रेजी के प्रख्यात साहित्याकार भी माने जाते हैं। उन्हें नोबल पुरस्कार भी मिला है। पर उनका सारा साहित्य अंग्रेजों के साम्राज्यवाद को सही ठहराने के उद्देश्य से लिखा गया है, और वह उपनिवेशी समुदायों को दोयम दर्जे का सिद्ध करने का प्रयास मात्र है।

रुड्यार्ड किप्लिंग का उदाहरण महत्वपूर्ण है। उनके समय में उन्हें एक बहुत भारी साहित्यकार माना जाता था, पर जब बाद में उनके लिखे का बारीक विश्लेषण किया गया, तो उनमें निहित द्वेषात्मक अंश बाहर आने लगे और अब वे पूर्णतः डिसक्रेडिट हो चुके हैं।

यदि हींदी का ही उदाहरण लेना हो, तो हम राहुल सांकृत्यायन को ले सकते हैं। रुड्यार्ड किप्लिंग के ही समान उन्होंने भी खूब लिखा है, और उन्हें अपने समय में एक बहुत बड़ा साहित्यकार माना जाता था। पर बाद में जब उनके साहित्य का विश्लेषण किया गया, तो पाया गया कि उसके कई अंश घोर नस्लवादी हैं। उनमें गलत और अहितकारी जानकारी की भरमार है - उदाहरण के लिए, वे यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि आर्य यूरोप से भारत आए थे, बौद्ध धर्म सबसे श्रेष्ठ धर्म है, बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद मार्क्सवाद ही है, इत्यादि। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास दर्शन’ में राहुल सांकृत्यायन की संपूर्ण रचनावली का सूक्ष्म विश्लेषण करके दिखाया है कि इस लेखक की मान्यताएं भारतीय राष्ट्र की उन्नति के लिए कितनी घातक साबित हो सकती हैं।

इससे एक महत्वपूर्ण सीख हमें मिलती है। कोई लेखन श्रेष्ठ साहित्य तभी बनता है, जब उसमें जन-कल्याणकारी प्रवृत्ति हो, और जो समय की कसौटी पर खरा उतरे। रुड्यार्ड किप्लिंग या राहुल सांकृत्यायन की रचनाएं दोनों कसौटियों पर फेल हो जाती हैं।

इससे एक और बात स्पष्ट होती है। सब सुंदर लेखन श्रेष्ठ साहित्य हो, यह जरूरी नहीं है। रुड्यार्ड किप्लिंग या राहुल सांस्कृत्यायन की रचनाएं बहुत सुंदर कला कृतियां हैं, पर मात्र इससे वे श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाएं नहीं बन जातीं, क्योंकि उनमें सौदर्य के साथ-साथ अकल्याणकारी विष की बूंदें भी मौजूद हैं। हां, यह जरूर है कि सब श्रेष्ठ साहित्य सुंदर भी होता ही है, रामचरितमानस को ही ले लीजिए। सुंदर होना साहित्य का आवश्यक गुण है, पर वह पर्याप्त नहीं है। श्रेष्ठ साहित्य होने के लिए किसी रचना को सुंदर होने के साथ-साथ जन-कल्याणकारी भी होना चाहिए। इसे हम आचार्य रामचंद्र शुल्क के शब्दों में यों कह सकते हैं, श्रेष्ठ साहित्य वह है जिससे लोक-मंगल की साधना हो।

इस कठिन कसौटी पर कसा जाए, तो बहुत कुछ जो लिखा जा रहा है, चाहे वह ब्लोगों में हो, या पुस्तकों में या पत्र-पत्रिकाओं में, अंग्रेजी में, या हिंदी में, वह श्रेष्ठ साहित्य कहलाने के लायक नहीं है।

बात शुरू हुई थी, इस सवाल से कि क्या ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है?

यदि ऊपर के विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह सवाल जरा प्रिमेचर लगता है। आखिर हिंदी ब्लोग हैं ही कितने पुराने, यही चार-छह साल। इतने कम समय में उनमें कोई स्थायी महत्व की सामग्री आई भी है यह कहना मुश्किल है। यदि आज ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह बीस-पच्चीस साल बाद भी पढ़ा जाता रहे, तब इस पर विचार किया जा सकता है कि वह साहित्य कहलाने लायक है या नहीं। और तब भी कसौटी वही रहेगी, क्या वह लेखन जन कल्याणकारी है? क्या उसमें लोक-मंगल की साधना है? क्या उसमें प्रोपेगैंडा या किसी विशेष वर्ग के हित-साधन का प्रयास तो नहीं है? क्या वह स्वांतः सुखाय लिखा गया है?

इसलिए ब्लोग में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है या नहीं, इसकी चिंता अभी न करके, ब्लोगों में श्रेष्ठ सामग्री भरने की ओर हमें ध्यान देना चाहिए। साहित्य बहुत ऊंची चीज है, और हर ठेले हुए लेखन को उसके स्तर पर उठाया नहीं जा सकता। पर हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि हम अच्छा लिखें, सुंदर लिखें, कल्याणकारी चीजें लिखें। ऐसे लेखन के साहित्य के स्तर के बनने की संभावना अधिक है। और यह ब्लोगों पर ही नहीं, अन्य प्रकार के लेखनों पर भी समान रूप से लागू होता है।

18 Comments:

Unknown said...

jis me jan ka hit nahin..
vah kuchh bhi ho,sahitya nahin

संगीता पुरी said...

सटीक लिखा है !!

Anshu Mali Rastogi said...

मेरा तो मानना है कि ब्लॉग साहित्य की गंदगी और लंपट साहित्यकारों से कहीं बेहतर माध्यम है अभिव्यक्ति का।
साहित्य कागजों तक सिमटकर रह गया है। उसे बस रद्दी की टोकरी की जरूरत है।

डा. अमर कुमार said...


सः हिताय से साहित्य शब्द की उत्पत्ति हुई है ।
ब्लागिंग एक विधा है, अभिव्यक्ति का एक टूल मात्र..
इससे रचे गयी हर रचना को साहित्य नहीं कहा जा सकता..
पर इसे साहित्य की श्रेणी से ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता ।
ज़रूरत यह देखने भर की है, बाहुल्य किसका है.. विषयनिष्ठ लेखन का या पल्प लेखन का !

एक टूल को किससे परिभाषित किया जाय, इस पर कोई बहस अप्रासँगिक सा लगता है । जो मेरा दृष्टिकोण है !

अजित गुप्ता का कोना said...

ब्‍लाग और पुस्‍तकों के साहित्‍य में एक मूल अन्‍तर दिखायी देता है। वह है प्रतिक्रिया का। ब्‍लाग पर लिखने पर त्‍वरित प्रतिक्रियाएं प्राप्‍त होती हैं और पुस्‍तक में लिखने पर विलम्‍ब से। ब्‍लाग पर लिखा साहित्‍य भी यदि लोककल्‍याणकारी है तो वह भी भविष्‍य में श्रेष्‍ठ साहित्‍य की गिनती में आएगा। क्‍योंकि ब्‍लाग सर्वसुलभ होते हैं। श्रेष्‍ठ आलेख, स्‍पष्‍ट व्‍यक्‍तव्‍य के लिए बधाई।

रंजन said...

क्यों इस पचडे़ में पड़े कि साहित्य क्या है? और ब्लोग क्या है.. क्या साहित्य कि कोई परिभाषा हो सकती है या क्या इसे परिभाषा में बांधा जा सकता है... कतई नहीं जो आपके लिये साहित्य है वो मेरे लिये कुड़ा हो सकता है और जो आपके लिये कुड़ा हो वो मेरे लिये साहित्य.. किसी को साहित्य कहने न कहने का कोई सर्वमान्य आधार नहीं.. क्यों हम छड़ी लेकर नापते है और किसी को तय खानों में फिट करने कि कोशिश करतें है.. जो है वो है.. जो जैसा है उसे वैसा रहने दें..

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

है, बस्स्स्स्स.

प्रेमलता पांडे said...

आपके विचार पढ़े।
इस पर हमने अपने विचार लिखे थे। -
http://pasand.wordpress.com/2008/04/14/way-of-publishing/

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

राहुल जी का लिखा हुआ बहुत रोचक है, बहुत सुन्दर है, कोई भी व्यक्ति पूर्णत: निरपेक्ष नहीं हो सकता, लेकिन इसके लिये उनके लिखे को खारिज भी नहीं किया जा सकत. सोवियत संघ के प्रति झुकाव या बौद्ध धर्म के प्रति झुकाव होने के कारण यदि उनके साहित्य में कुछ पक्षपात भी है तो इस आधार पर खारिज तो नहीं किया जा सकता. रही बात व्लोग की, तो यह एक बहुत बड़ा और अच्छा साधन है, जिसे अच्छा लगे वह उसे पढ़े न अच्छा लगे तो छोड़ दे.

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

भारतीय नागरिक : राहुल सांस्कृत्यायन के साहित्य को इसलिए नहीं खारिज करना है कि वे सोवियत संघ के प्रति झुकाव रखते थे या बौद्ध धर्म के पक्षपाती थे, पर इसलिए करना उचित है कि उसमें अवैज्ञानिक बातें हैं, अहितकारी बातें हैं और राष्ट्र के लिए घातक बातें हैं।

मैंने अपने लेख में केवल एक दूसरे विद्वान, डा. रामविलास शर्मा, की पुस्तक, इतिहास दर्शन (प्रकाशक राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) द्वारा राहुल जी की रचनाओं की जो समालोचना लिखी है, उसका सारांश भर दिया है। इस पुस्तक में डा. शर्मा ने बड़े ब्योरे से दिखाया है कि राहुल जी की पुस्तकों में (दर्शन-दिग्दर्शन उनके यात्रावृत्तांत, उपन्यास, कहानी आदि) में किस तरह देश के लिए अहितकारी धारणाएं भरी पड़ी हैं। आपसे अनुरोध है कि इतिहास दर्शन पढ़कर इस विषय पर अपना मत बनाएं।

कभी जयहिंदी में इस विषय पर और विस्तार से लिखने की कोशिश करूंगा।

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

डा. अमर कुमार : ब्लोग से मेरा मतलब माध्यम से नहीं, बल्कि उस माध्यम में जो प्रकाशित हो रहा है, उससे है। क्या वह साहित्य है, यह प्रश्न है।

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

अंशुमाली रस्तोगी जी : क्या तुलसी, निराला, प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, नागार्जुन, प्रसाद आदि बहुतेरे साहित्यकार लंपट और गंदे थे?

यदि साहित्य कूड़ा बन गया है, तो कूड़ेदान में वेद, महाभारत, रामायण, और न जाने कितने और अमूल्य रत्न नजर आएंगे, और कूड़ा इतना बेशकीमती हो जाएगा, कि कूड़े की परिभाषा ही बदल जाएगी!

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

डा गुप्ता जी, आपकी बात से सहमत हूं।

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

रंजन जी : इसका अधिक विस्तार से जवाब अपेक्षित है, अलग पोस्ट में।

डॉ .अनुराग said...

एक ही कविता अलग अलग उम्र के दौर पे अलग अलग अर्थ की व्याख्या करती है ....धर्मवीर भारती का सत्रह की उम्र में पढ़ा हुआ" गुनाहों का देवता "अब शायद बचकाना लगे तब उसने किंतनी थ्रिल दी थी.....
मनीषा कुलश्रेष्ट जी ने कभी कही लिखा था ...
इन्टरनेट पे हिन्दी साहित्य के लिए कोई खास छलनी नहीं है ,कोई क्वालिटी कंट्रोल नहीं ,अभिव्यक्त करना कितना आसान की चार पंक्तिया लिखी ओर ठेल दी सच कहा था उन्होंने ...
किसी चीज को ड्राफ्ट करके लिखने .बार बार उससे गुजरने ओर अचानक मन में आई किसी अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त करने में कुछ फर्क तो होता ही है....एक ओर पेशेवर लेखक ओर दूसरी ओर कामकाजी दुनिया के गैर पेशेवर लेखक....फर्क तो होना लाजिमी है ....साहित्य दरअसल किसी समय का दस्तावेज है ओर एक सोच की खिड़की है जो एक नए आसमान में खुलती है...धूमिल के शब्दों में कहे तो

अकेला कवि कटघरा होता है
ओर कविता
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े
बेक़सूर आदमी का हलफनामा

लेखक कुछ बदल नहीं सकता ,पर छटपटा सकता है ..आपकी आत्मा को जगाये रखने में मदद कर सकता है ...कुछ उपन्यास कुछ किताबे जप हम बचपन में पढ़ते है ..हमारी सोच को एक नया आयाम देते है .हम उससे सहमत हो या न हो...पर जीवन के एक पहलु से हम रूबरू होते जरूर है....प्रेमचंद्र की "मन्त्र "हो या रेनू की "मैला आँचल "...मंटो की "बाबा टेक सिंह "हो या भीष्म सहनी की "तमस" .....श्री लाल शुक्ल का "राग दरबारी "हो या मंजूर अह्तेषम का "सूखा बरगद "
सब आपको बड़ा करने में आपकी मदद करते है .....भले ही आप उसे माने या न माने ...
नेट एक चाभी है जिससे आप पल भर में दुनिया के दुसरे दरवाजे पे पहुँच जाते है ....ओर दो मिनटों बाद आपको प्रतिक्रिया भी मिल जाती है ...शायद संवाद का एक बेहतर जरिया ....पर यहाँ एक विचार की उम्र कम होती है चौबीस घंटे ...या शायद कुछ ज्यादा .......जाहिर है इसके नुकसान भी है फायदे भी....जिस तरह साहित्य में सब कुछ अच्छा नहीं होता वैसे ही ब्लॉग में सब कुछ लिखा अच्छा नहीं होता .आप अपने स्तर का अपनी पसंद का ढूंढ ही लेते है .....
वाही कीजिये .इन्तजार कीजिये .शायद भविष्य ओर बेहतर हो......

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

डा अनुराग जी : इतने विस्तार से समझाने के लिए मैं आपका आभारी हूं, और आपकी बातों से पूरी तरह सहमत भी हूं।

साहित्य हमें तैयार करता है, और उसका हर उम्र में अलग-अलग अर्थ होता है, या यों कहिए, जैसे-जैसे हमारे अनुभव, समझ और विवेक बढ़ते जाते हैं, साहित्य की नई-नई परतें हमारे लिए खुलती जाती हैं।

आपने यह बिलकुल सही कहा।

अजित वडनेरकर said...

अजित वडनेरकर said...

बालाजी,
बढ़िया पोस्ट है। सच तो यह है कि जो काग़ज़ पर अच्छा है वो ब्लाग पर भी अच्छा। आज भी कई ब्लागर साथी काग़ज़ पर लिखी जा चुकी स्थायी महत्व की इबारतों को ब्लाग पर डाल ही रहे हैं। मसलन मुक्तिबोध, तुलसी, परसाईं, शरद जोशी, अमृता प्रीतम और भी कई लेखकों-साहित्यकारों के प्रशंसक इनमें शामिल हैं। इसी तरह ब्लाग पर लिखी सामग्री भी यकीनन पुस्तकाकार आ रही हैं। स्थायी महत्व की सामग्री हमेशा पुस्तकाकार पढ़ने में ही तसल्ली देती है। ब्लाग तो सिर्फ एक जरिया है।

एमएसवर्ड के जरिये लिखने और ब्लागर के जरिये पब्लिश कर देने से लेखन में कोई अतिरिक्त गुणवत्ता नहीं जुड़ जाती। ब्लागजगत भी उसी बुराई का शिकार है जिसका ब्लागेतर बहुसंख्यक हिन्दी समाज रहा है। जल्दबाज लेखन। प्रिंट में जल्दबाज लोगों पर फिल्टर लगता रहा है। उनकी रचनाओं को अस्वीकृत कर उन्हें खुद में परिष्कार पैदा करने की ललक पैदा की जाती रही है। कई बार लौटाने के बाद जब उनकी रचनाएं प्रकाशित हुईं तब उन्हें संपादकीय कौशल से निखारी गई खूबियों का आभास हुआ। आज ब्लाग के तौर पर जो भी लेखन सामने आ रहा है वह त्वरित प्रतिक्रिया स्वरूप है। उसमें कला और शिल्प का अभाव है। अगर यह साहित्य है तो इसकी एक अलग श्रेणी इस रूप में तो हमेशा ही होगी। अन्यथा यहां भी लिखनेवालों को मेहनत तो करनी ही पड़ेगी।

सिर्फ रामविलासजी द्वारा राहुलजी के बारे में बेबाक राय देने मात्र से क्या राहुलजी के समग्र योगदान पर प्रश्नचिह्न लगाना मैं उचित नहीं मानता। डॉ शर्मा भी एक विशिष्ट विचारधारा के रहे हैं। हर लेखक, साहित्यकार के अपने रुझान होते हैं। यशपाल के लेखन पर अज्ञेय अंगुलि उठाते रहे और अज्ञेय की तथाकथित क्रांतिकारिता और देशप्रेम पर यशपाल ने सशक्त सवाल खड़े किए। पर क्या इससे उनका साहित्य बेकार हो जाता है? राहुलजी ने बौद्धग्रंथों को तिब्बत से भारत लाकर भारतीय संस्कृति के इतिहास में जितना बड़ा काम किया है, वही उन्हें साबित करने के लिए काफी है। मैने राहुल जी का लगभग पूरा साहित्य पढ़ा है। देश के अहित जैसी कोई बात तो मुझे खटकी नहीं। रामविलासजी की सभी महत्वपूर्ण पुस्तकें मेरे पास हैं। उल्लेखित पुस्तक जरूर मंगा कर पढ़ूंगा। राहुलजी ने जो भी लिखा है, बिना किसी निहित स्वार्थ के लिखा है। दृष्टिकोण तो सबका अलग अलग रहता है।

साभार,
अजित

अर्कजेश said...

दरसल यह पूरा मामला कुछ इस तरह सोच रखने वालों की वजह से पैदा हुआ की "कागज में छ्पना साहित्य होने का मापदन्ड है जो की निहायत ही गलत है । यदि कोई पूरी ब्लॉगिंग को सिरे से खारिज करता है तो इस तरह की प्रतिक्रियायें स्वाभाविक है ।

झगडा यदि माध्यम के लिये है तो गलत है । यह सब विवाद मुद्दे का सामान्यीकरण करने की वजह से पैदा हुआ है । अच्छी सामग्री हर जगह अच्छी है । ना कोई ब्लॉगर होने की वजह से हल्का हो जाता और ना ही कोई कागज में छपने की वजह से वजनी ।

यदि पीले कागज पर छपने वाले ब्लॉगरों के प्रति दुराग्रह्पून होंगें तो ऐसा होना स्वाभाविक है ।

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट