सुप्रसिद्ध चुनाव आयुक्त श्री टी एन शेषन ने एक किताब अंग्रेजी में लिखी है, जिसका नाम है, डीजेनेरेशन ओफ इंडिया। इसकी 3,000 से भी कम प्रतियां ही बिकीं।
लेकिन इसी पुस्तक के मलयालम अनुवाद की 20,000 प्रतियां बिकीं। (स्रोत:- लिमका बुक ओफ रिकोर्ड्स, 2001)
इससे पता चलता है कि हमारी भाषाओं के जरिए जनसमुदाय तक पहुंचना कितना आसान है।
इसी से जुड़ी एक और खबर।
JuxtConsult नाम की एक चोटी की शोध कंपनी ने अभी अभी "इंडिया ओनलाइन 2009" नाम की अपनी रिपोर्ट पेश की है। यह रिपोर्ट हर वर्ष प्रकाशित होती है। इस रोपोर्ट के अनुसार, भारत में इंटरनेट का उपयोग करनेवाले केवल 13 प्रतिशत लोग इंटरनेट पर अंग्रेजी में लिखी हुई विषयवस्तु पढ़ना पसंद करते हैं।
इस रिपोर्ट में कुछ अन्य रोचक जानकारी भी प्रकाशित हुई है:-
- भारत में कुल 4.7 करोड़ लोग इंटनेट का उपयोग करते हैं (3.9 करोड़ शहरी और 80 लाख ग्रामीण)।
- इंटरनेट का उपयोग करनेवाले लोगों में से एक अच्छा खासा प्रतिशत छोटे शहरों और गांवों में रहता है, जो इस तालिका से स्पष्ट है:-
महानगर - 29%
टायर 2 शहर - 24%
टायर 3 शहर और गांव - 47%
- साइबर कफे जाकर इंटरनेट का उपयोग करनेवाले लोगों की प्रतिशत 2009 में पिछले वर्ष की तुलना में 5% घटी, जिसका मतलब है कि अधिकाधिक लोग अब घरों में इंटरनेट कनेक्शन ले रहे हैं।
- यद्यपि अधिकांश लोग (68%) अपने दफ्तरों से इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं, 37% लोगों ने कहा कि उन्हें अपने घर से इंटरनेट का उपयोग करना ज्यादा पसंद है।
हमारी भाषाएं अब हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं। अखबार के क्षेत्र में हिंदी अखबारों ने अंग्रेजी अखबारों को कहीं पीछे छोड़ दिया है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका आदि के पाठकों की संख्या अंग्रेजी अखबारों के पाठकों से दुगुनी-तिगुनी है। दैनिक जागरण तो अब विश्व में सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले अखबारों में गिना जाता है। यह तब की स्थिति है जब बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश आदि में साक्षरता दर 40-50% से अधिक नहीं है। जब यहां भी देश के अन्य भागों के समान शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त कर ली जाएगी, हिंदी अखबार दौड़ में और भी आगे निकल जाएंगे। मलयालम, तमिल और बंगाली के कई अखबारों के पाठकों की संख्या भी अंग्रेजी अखबारों के पाठकों की संख्या से कहीं ज्यादा है। टीवी चैनलों में तो हिंदी चैनलों का वर्चस्व असंदिग्ध है ही। अब इंटरनेट पर भी हमारी भाषाएं अपना उचित स्थान प्राप्त कर रही हैं।
पुस्तक प्रकाशन, अखबार, टीवी, और अब इंटरनेट पर भी हमारी भाषाओं का डंका बज रहा है। यह अत्यंत ही शुभ समाचार है। क्या कहेंगे आप?
Friday, May 15, 2009
हमारी भाषाओं का दबदबा
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: विविध
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1 Comment:
आपने इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं की उपस्थिति से संबंधित बहुत अच्छी जानकारी दी है। अंग्रेज़ी के वर्चस्व को चुनौती देने वाली इन भाषाओं को सरकार का पूरा सहयोग मिलना चाहिए।
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