बाल मजूर उस बच्चे को कहते हैं जिसकी उम्र 4-14 वर्ष के बीच होती है और जो परिवार के भीतर अथवा बाहर श्रम करता है। इस श्रम के बदले उसे पैसा कभी-कभी मिलता है, पर बुहत बार उससे मुफ्त में ही श्रम करा लिया जाता है। साफ शब्दों में कहें तो बाल मजूर वह बच्चा है जिससे शिक्षा का अधिकार और बचपन छीना जा रहा है।
बाल मजूर कई प्रकार के होते हैं। सबसे पहले हमारे ध्यान में वे बच्चे आते हैं जो कारखानों में, कर्मशालाओं में, खानों-खदानों में, खेतों में और मध्यमवर्गीय घरों में काम करते हैं। फिरोजाबाद के कांच बनानेवाले कारखानों में 10-14 वर्ष की उम्रवाले लगभग 50,000 बच्चे काम कर रहे हैं। इन कारखानों में कांच की चूड़ियां बनाई जाती हैं। भट्टियों का तापमान 700-1400 डिग्री सेलसियस होता है। बच्चे लोहे के बड़े-बड़े सलाखों से भट्टी की टंकी से पिघला कांच निकालते हैं और उसे फुंकनी से चूड़ियां बनानेवाले कारीगरों तक ले जाते हैं। उन्हें भागकर इन कारीगरों तक जाना पड़ता है, ताकि कांच ठोस न हो जाए। भागते समय दुर्घटनाएं आमतौर पर होती हैं। कारखाने का वातावरण इतना प्रदूषित होता है कि उनमें 3-4 साल काम करने पर बच्चों के फेफड़े खराब हो जाते हैं। अगली बार जब आप किसी विशेष अवसर पर कांच की चूड़ियां पहनें, तो इन मासूम बच्चों को भी याद कर लें।
मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले की स्लेट काटनेवाली इकाइयों में बच्चे विद्युत-चालित आरियों से स्लेट को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटते हैं। इससे जो महीन स्लेट कणों की धूल उनके चारों ओर उड़ती है, वह उनके फेफड़ों में पहुंचकर उन्हें धीरे-धीरे सिलिकोसिस नामक जानलेवा बीमारी का शिकार बना देती है। जिस व्यक्ति को यह बीमारी हो जाए, उसे सांस लेने में तकलीफ होती है और थूक के साथ खून आने लगता है। बारह या उससे भी कम उम्र के बच्चे सिलिकोसिस से मरते अपने मां-बाप, भाई-बहन आदि को सहारा देने के लिए स्लेट काटने के काम में लगते हैं और स्वयं इस घातक बीमारी की चपेट में आ जाते हैं। तमिलनाडु के शिवकाशी के दियासलाई कारखानों में छोटे-छोटे बच्चे बायलररूम में जहरीले रसायनों को मिलाने का काम करते हैं। उन्हें जहरीले धुंए एवं भीषण गरमी का सामना करना पड़ता है। आग का खतरा तो सदा ही बना रहता है। अलीगढ़ के ताला बनानेवाले काखानों में, मोरादाबाद के पीतल के बर्तन बनानेवाले कारखानों में और महाराष्ट्र के दहानु के गुब्बारे बनानेवाले कारखानों में भी सैंकड़ों बाल मजूर काम करते हैं।
बाल मजूरों का दूसरा वर्ग सड़कों में रहनेवाले बच्चे हैं, जिसके अंतर्गत जूते चमकानेवाले बच्चे, कचरा बीननेवाले बच्चे, अखबार बेचनेवाले बच्चे और भिखमंगे बच्चे शामिल हैं। इनकी समस्या कारखानों आदि में काम करनेवाले बच्चों से कुछ भिन्न है। मुख्य अंतर यह है कि कारखानों आदि में काम करनेवाले बच्चों के पास शाम को लौटने के लिए ऐसा कोई स्थान होता है जिसे वे घर कह सकते हैं, परंतु सड़कों में रहनेवाले बच्चों का कोई घर नहीं होता। वे उन लोगों की दया पर टिके होते हैं जो उन्हें काम देते हैं। वे ढाबों, बस स्टैंडों, रेलवे स्टेशनों, पुलों या सड़कों पर ही रह लेते हैं। वे निरंतर जगह बदलते रहते हैं। आमतौर पर उन्हें पुलिस, चोर-उचक्के और नशीली दवाएं बेचनेवाले अपराधी बहुत सताते हैं। उनकी समस्या कारखानों आदि में काम करनेवाले बच्चों से कहीं अधिक विकट होती है।
बंधुवा बाल मजूरों का भी एक बड़ा वर्ग है। इन्हें इनके माता-पिताओं ने चुकाए न जा सकनेवाले कर्जों के बदले कर्जदाता परिवारों के पास गिरवी रख दिया होता है, या इन्हें अपने माता-पिता द्वारा लिए कर्जों को अपना श्रम देकर चुकाने के लिए मजबूर किया गया होता है। ऐसे बंधुआ मजूर मुख्यतः ग्रामीण इलाकों में होते हैं, पर कुछ शहरी मध्यमवर्गीय गृहणियां भी उन्हें रखती हैं। इन बंधुआ बाल मजूरों की मदद करना सबसे मुश्किल होता है क्योंकि सब-कुछ गुप-चुप ढंग से होता है। यदि ढाबा मालिक ने इन बच्चों को खरीद लिया है तो वे भाग नहीं सकते। यदि मध्यवर्गीय गृहणी ने उनके माता-पिता को उनका पारिश्रमिक अग्रिम दे दिया है, तो वे अपने घर नहीं लौट सकते और पूरी अवधि घरेलू कामों में लगाए रखे जाते हैं। यदि जमींदार ने उन्हें कर्ज के बदले गिरवी रख लिया है, तो वे उम्र भर उसकी कैद में रहते हैं या तब तक जब तक कि उनके स्वयं बच्चे नहीं हो जाते जिनको गिरवी रखकर वे अपने-आपको छुड़ा न लें।
बंधुआ बाल मजूरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उनसे दिन में 9-10 घंटे काम कराया जाता है और रात को उन्हें कमरे में कैदियों के समान बंद रखा जाता है। जो बच्चे भागने की कोशिश करते हैं उन्हें क्रूरतापूर्वक मारा जाता है। कई बार उन्हें गरम लोहे से दागा जाता है।
गिरवी रखे जाते समय वे 4-5 साल के ही होते हैं। इन नादान बच्चों को दिन भर काम करने की आदत ही नहीं होती है, वे तो अभी-अभी अपनी मां की गोद से उतरे होते हैं। उनसे दिन भर काम लेने के लिए उनके मालिकों को उन्हें बहुत मारना पड़ता है। कई बार छड़ी की मार से उनकी उंगलियों की हड्डियां टूट जाती हैं।
स्वयं अपने परिवारों में मजूरी करनेवाले बच्चों की स्थिति सबसे विवादास्पद है क्योंकि बहुत से लोग उन्हें बाल मजूर स्वीकारते ही नहीं हैं। वे कहते हैं कि यदि ये बच्चे स्वयं अपने ही माता-पिता के धंधे में या खेत में हाथ बंटा रहे हों, तो उन्हें बाल मजदूर नहीं माना जा सकता। परंतु जो बच्चे पढ़ाई छोड़कर दिन में 12-14 घंटे काम में घुटते रहते हों, उनकी हालत बाल मजूरों से कुछ भी भिन्न नहीं है।
भारत की आबादी का 42 प्रतिशत बच्चे हैं और उनमें से आधी लड़कियां हैं। इनमें से 40 प्रतिशत 0-14 वर्ष की आयुवर्ग में आती हैं। घरेलू कामों में मदद देने के अलावा वे दियासलाई, रस्सी, ताला, बीड़ी आदि बनानेवाले कारखानों में काम करती हैं। बहुत सी लड़कियां मध्यमवर्गीय घरों में झाड़ू-पोंछा लगाना, बर्तन मांजना, शहरी कचरे में से बिकाऊ वस्तुएं बीनना, अखबार बेचना आदि काम भी करती हैं।
5-6 साल की बालिकाएं 10 घंटे रोज काम करती हैं। 4 साल की उम्र में ही कुछ लड़कियां बीड़ी बनाने के काम में लगा दी जाती हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि तमिलनाड के तिरुनेलवेली के एक गांव में जितने भी बीड़ी मजूर हैं, उनमें से आधे मजूरों ने 5-10 साल के बीच काम करना शुरू किया था। बाकी मजूरों ने 11-15 वर्ष में। शिवकाशी के दियासलाई कारखानों में काम कर रहे 90 प्रतिशत मजूर 14 वर्ष से कम आयु की लड़कियां हैं। लड़कियों को अपने मां-बांप द्वारा किए गए भेदभाव का भी शिकार होना पड़ता है। लड़कों को स्कूल भेज दिया जाता है और लड़कियों को काम पर लगा दिया जाता है।
लड़कियों से हर दिन एक निश्चित संख्या में बीड़ी बनाने को कहा जाता है। यदि वे नहीं बनातीं तो उन्हें उनकी माएं बहुत मारती हैं। कई बार मार से बचने के लिए वे पेशेवर बीड़ी बनानेवालों से बीड़ी उधार लने लगती हैं। इसके अनेक दारुण परिणाम निकलते हैं। एक 12 साल की लड़की पर काफी उधार चढ़ गया था। जब उधार देनेवाले को पता चला कि वह उधार लौटा नहीं सकती, तो उसने लड़की के मां-बाप से पैसे मांगे। लड़की को अपने मां-बांप से मार पड़ने की आशंका हुई। उसने जंगल में जाकर एक जहरीला पौधा खाकर आत्महत्या कर ली।
आजकल बच्चों का, विशेषकर लड़कियों का, यौन शोषण भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। जहां भी बच्चे काम करते हैं -- कारखाने, सड़कें, मध्यमवर्गीय शहरी परिवार, बसस्टैंड आदि-आदि --वहां उनका यौन शोषण भी होता है। वे अपना बचाव करने में बिलकुल असमर्थ होते हैं। गांवों में ऐसे बिचौलिए घूमते रहते हैं जो निर्धन परिवारों को कर्ज देते हैं। बाद में यह कर्ज चुकाए न जाने पर वे परिवार की बेटी को गिरवी मांग लेते हैं। इन लड़कियों को बाद में व्यावसायिक वैश्यालयों को बेच दिया जाता है। इन अभागी लड़कियों की स्थिति सभी बाल मजूरों में से सबसे अधिक दयनीय होती है।
बाल मजूरी के संबंध में कई बार कहा जाता है कि वह गरीबी का परिणाम होता है, परंतु इसका ठीक उलटा ही सच है -- बाल मजूरी से गरीबी बढ़ती है। इसके अनेक कारण हैं। पहला, कम अथवा बिना मजूरी के काम करनेवाले बाल मजूरों के कारण मजूरी की दर इतनी गिर जाती है कि वयस्क मजूरों को दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो जाता है। दूसरा, कम उम्र में ही काम में लग जाने से बच्चे न तो पढ़-लिख पाते हैं या ऐसी कुशलताएं अर्जित कर पाते हैं जो उन्हें बड़ा होने पर अधिक मुनाफेदार रोजगार दिला सके। तीसरा, कठोर श्रम एवं शोषण से उनका स्वास्थ्य टूट जाता है जिससे वे बड़ा होने पर साधारण श्रम करने के भी काबिल नहीं रहते और वे गरीबी के दलदल में और अधिक धंस जाते हैं। ऐसे मजदूर गरीबी के दुश्चक्र से निकलने के लिए स्वयं अपने बच्चों को बाल मजूरी के चूल्हे में झोंक देते हैं क्योंकि उनके पास जिंदा रहने के लिए और कोई उपाय नहीं रहता। इससे बाल मजूरी का अभिशाप पीढ़ी दर पीढ़ी उनका पीछा करता है। बाल मजूरी को गरीबी का परिणाम बतानेवाले लोग यह भी तर्क करते हैं कि गरीब परिवारों के लिए बच्चों द्वारा कमाया गया पैसा महत्वपूर्ण होता है। परंतु अनेक अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि बच्चों की कमाई उनके परिवार की कुल कमाई का एक अल्पांश ही होती है।
मासूम बच्चों से श्रम कराना मानव-प्रकृति एवं नैतिकता का घोर उल्लंघन है। आज भारत परमाणु बम, लंबी दूरी तक मार करनेवाले प्रक्षेपास्त्र, अंतरिक्ष उपग्रह आदि उन्नत प्रौद्योगिकियों में पारंगत होकर विश्व को यह दिखाने में लगा है कि वह भी विकसित देशों की पांती में बैठने के काबिल हो गया है। लेकिन बाल मजूरों का कलंक उसके विकसित देश होने के दंभ को झुठला देता है। अतः भारत के कर्णधारों को अब ईमानदार प्रयत्न करके बाल मजूरी के अभिशाप को जल्द से जल्द मिटाना चाहिए। इसका सबसे कारगर तरीका तो यह लगता है कि सभी बच्चों को स्कूल भेजने की पूरी व्यवस्था की जाए क्योंकि वे ही बच्चे मजूरी करते पाए जाते हैं जो स्कूल नहीं जाते। माता-पिताओं के लिए कानूनन यह जरूरी बना देना चाहिए कि वे अपनी ल़ड़कियों और लड़कों को उचित समय पर स्कूल भेजें और पूर्ण शिक्षण अवधि तक उन्हें स्कूलों में ही रखें।
माता-पिताओं को बच्चों को स्कूल भेजने की प्रेरणा देने के लिए बच्चों को स्कूलों में मुफ्त में भोजन, दूध, दवाएं आदि देने की व्यवस्था की जा सकती है। इससे बच्चों का स्वास्थ्य भी सुधरेगा। तमिलनाड, केरल आदि दक्षिणी राज्यों में इन तरकीबों को अपनाकर लगभग शतप्रतिशत साक्षरता प्राप्त की जा सकी है। दूसरी ओर व्यापक गरीबी के कारण देश में पर्याप्त अन्न होने के बावजूद लोग भूखे रहते हैं क्योंकि उनके पास अन्न खरीदने का पैसा नहीं है। विडंबना तो यह है कि करोड़ों की तादाद में भूखे लोगों के रहने के बावजूद सरकारी गोदामों में अन्न सड़ता रहता है या चूहों की भेंट चढ़ जाता है। स्कूली बच्चों को मुफ्त में भोजन देकर सरकारी गोदामों में ठुंसे अन्न का बेहतर उपयोग हो सकता है और बाल मजूरी की समस्या भी दूर की जा सकती है।
Wednesday, May 13, 2009
बाल मजूरी -- राष्ट्र पर एक कलंक
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: विविध
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3 Comments:
वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के ऊपर सवाल है यह। जो समाज अपने बच्चों की परवरिश नहीं कर सकता क्या उसे विकसित और सभ्य कहा जाना चाहिए। आपने इस संवेदनशील मुद्दे पर सारगर्भित ढंग से लिखा है। बधाई।
वास्तव में बाल मजदूरी राष्ट्र पर एक कलंक ही तो है .. बहुत सुंदर विश्लेषण के साथ आपने यह आलेख लिखा है .. पर मेरे ख्याल से इसे दूर करने में बच्चें के माता पिता को जागरूक बनाने की आवश्यकता सबसे अधिक है .. माता-पिताओं को अपने बच्चे को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए .. पर कुछ जगहों को छोडकर बाकी जगह आज सरकारी स्कूलों की भी जो दुर्गति है .. उसे देखते हुए बच्चों को स्कूल जाने में भी खास फायदा होगा .. इसमें संदेह बना रह जाता है .. पढाई नहीं होती है और बच्चे व्यस्त नहीं होते हैं .. तो स्कूल जाने के बावजूद उनका खाली दिमाग गलत दिशा में ही चला जाता है .. इसके परिणाम भी और भयावह होते हैं .. कुल मिलाकर प्राथमिक शिक्षा को जबतक सरकार गंभीरता से नहीं लेगी .. इस समस्या का समाधान मिकलना मुश्किल ही है।
संगीता जी, आपने ठीक कहा, जब तक प्राथमिक शिक्षण की ओर सरकार और समाज सजग नहीं होगा, यह समस्या हमारे समाज में बनी रहनेवाली है।
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