सन 2031 के दिसंबर का एक दिन।
डरबन एयरलाइंस की विशाल राकेटयान में एक आरामदायक सीट पर बैठा मैं अपने कंप्यूटर पर इंटरनेट की सहायता से भारत की राजधानी नागपुर से प्रकाशित होनेवाले देश के सबसे बड़े अखबार हिंद समाचार के पृष्ठ खोले हुए था। तभी यान की सुंदर, सांवली परिचारिका ने यात्रियों को अफ्रीका की संपर्क भाषा स्वाहिली में और फिर हिंदी में बारी-बारी से संबोधित करते हुए कहा, "हम कुछ ही देर में भारत की राजधानी नागपुर के हवाई अड्डे पर उतरने वाले हैं। आप सब कृपा करके सुरक्षा पेटियां पहन लें। नागपुर में इस समय सुबह के ठीक नौ बज रहे हैं और दिन का तापमान 5 डिग्री सेलसियस है।"
मैंने कंप्यूटर बंद कर दिया और सुरक्षा पेटी पहन ली। तत्पश्चात अपनी जेब से टेलिविजनफोन निकालकर अपने घर का नंबर मिलाया। कुछ ही समय में फोन के स्क्रीन पर डरबन स्थित मेरे घर की बैठक का दृश्य धीरे-धीरे उभरा और मेरे पिताजी अपनी पसंदीदा आराम कुर्सी पर बैठे नजर आए। अपने फोन के स्क्रीन पर मेरा चेहरा देखकर वे मुस्कुराए और बोले, "सब कुशल तो है न बेटे, कहां से बोल रहे हो?"
उनका स्वस्थ, खुशनुमा, वयोवृद्ध चेहरा देखकर मैं आनंदविभोर हो उठा, "पापा मैं यान से ही बोल रहा हूं। चंद मिनटों में हम भारत पर उतरने वाले हैं। मैं तो बहुत ही उत्साहित हूं। अपनी जिंदगी में प्रथम बार अपने पूर्वजों की मिट्टी पर पदार्पण करने वाला हूं। यह मेरे लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा है। आप मेरी चिंता बिलकुल न करें, मैं समय-समय पर आपसे संपर्क करता रहूंगा।" इतना कहकर मैंने धीरे से फोन को मोड़कर बंद कर दिया। मेरे कानों में पिताजी की "अपना खयाल रखना बेटे" की ध्वनि गूंज रही थी।
रोकेटयान धीरे-धीरे जमीन की ओर उतरने लगा। यह यान भी विज्ञान की एक अद्भुत उपलब्धि है। हाइड्रोजन से चलने वाले इस विशाल यान को दक्षिण अफ्रीका के एक वैज्ञानिक संगठन ने इस सदी के प्रारंभिक वर्षों में विकसित किया था। विश्व भर में तेल के भंडार खाली होते जा रहे थे और हवाई जहाजों को चलाने के लिए वैकल्पिक ईंधन की खोज सभी उन्नत देशों में हो रही थी। इसमें दक्षिण अफ्रीका को सर्वप्रथम सफलता मिली। यह यान रोकट दागने की प्रौद्योगिकी पर आधारित है और इसमें तरल हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है। यह ऊपरी वायुमंडल में उड़ान भरता है जहां वायुदाब और घर्षण कम होने से इसकी रफ्तार ध्वनि से कई गुना अधिक होती है। इसका आकार पेंसिल जैसा है और इसके पेट में एक साथ दो हजार आदमी समा सकते हैं। इनके अलावा यह कई हजार टन सामान भी ढो सकता है। इस तरह के विमानों के आ जाने से यातायात अत्यंत सरल और सस्ता हो गया है। इसका आविष्कार और आम उपयोग वैसा ही क्रांतिकारी था जैसा उन्नीसवीं सदी में रेल का आविष्कार था। इसने यातायात की परिकल्पना ही बदल कर रख दी। अब इस तरह के यान लगभग सभी देशों के एयरलाइनों ने अपना लिए हैं। इन विमानों को स्वाहिली भाषा में माबोंगो कहा जाता है, जिसका अर्थ है "गरुड़ राकेट"। यह शब्द अब लगभग सभी भाषाओं में प्रचलित हो गया है क्योंकि रोकेटयान इक्कीसवीं सदी की प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों का ज्वलंत प्रतीक है।
भारत की राजधानी नागपुर के हवाई अड्डे पर रोकेटयान से जब मैं उतरा तो मेरे रोम-रोम पुलकित हो रहे थे। अपने पूर्वजों की भूमि में मैं पहली बार आया था। दिसंबर 2031 की सर्द सुबह थी। मैंने अपने ओवरकोट को अपने शरीर पर और मजबूती से लपेट लिया और लौंज में जाकर अपना सामान ले आया।
हालांकि मेरे पूर्वज इसी देश के थे, पर मैं दक्षिण अफ्रीका का नागरिक था। इसकी कहानी भी लंबी है।
मेरे माता-पिता उन सहस्रों मध्यम वर्गीय भारतीयों में से एक थे जिन्हें सन 2000-2005 के उन काले दिनों में देश छोड़कर अन्यत्र बसना पड़ा था। विदेश में रहते हुए भी मेरे माता-पिता ने मुझमें अपने मूल देश के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भर दी थी। उनके मन में अपने देश को लेकर एक बहुत गहरी लज्जा एवं वितृष्णा की भावना थी जिसे अनायास ही मैंने भी आत्मसात कर ली थी। मेरे माता-पता ने मुझसे अनेक बार ओपरेशन ब्लैकस्टार का जिक्र किया था, जिसने इस देश के इतिहास को ही बदलकर रख दिया था। वह उनकी जिंदगी की सबसे अहम घटना थी।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, अपने मूल देश के बारे में मेरी जिज्ञासा बढ़ी। यद्यपि मैं जन्म से दक्षिण अफ्रीका का नागरिक था, पर मेरे माता-पिता के भारतीय संस्कारों का भी मेरे विकास में एक बहुत बड़ा हाथ था। इन संस्कारों को समझे बगैर मैं स्वयं अपने आपको ठीक प्रकार से समझ नहीं सकता था। मैं भारत आया भी इसी उद्देश्य से था कि मैं अपने मूल देश को समझ सकूं। भारत आने के लिए मैंने जो अवसर चुना वह भी इस ओपरेशन ब्लैकस्टार से जुड़ा था। हर साल 23 दिसंबर को भारत अपनी दूसरी आजादी का पर्व मनाता था। इस वर्ष इस दूसरी आजादी की पच्चीसवीं जयंती थी और देश भर में समारोह हो रहे थे।
आज से ठीक पच्चीस साल पहले ओपरेशन ब्लैकस्टार को अंजाम दिया गया था, जिससे भारत को यह दूसरी आजादी हासिल हुई थी। मेरा इरादा था कि इन समारोहों में भाग लेकर मैं न केवल उस संस्कृति को ठीक प्रकार से समझूं जो मुझे घुट्टी में घुलाकर पिलाई गई थी बल्कि इस ओपरेशन ब्लैकस्टार के ऐतिहासिक महत्व के बारे में भी कुछ अधिक जानूं।
अगले ही दिन कुछ अन्य देशी-विदेशी पर्यटकों के साथ मैं राजधानी नागपुर से दिल्ली रवाना हुआ, वही दिल्ली, जो पहले भारत की राजधानी हुआ करती थी, और जो उसी ओपरेशन ब्लैकस्टार में तबाह हो गई थी। हमारे गाइड ने इस नगर के इतिहास का विहंगम चित्र प्रस्तुत किया। मालूम पड़ा कि यह शहर हजारों साल पुराना था और वह सच्चे अर्थों में खंडहरों का शहर था। यहां महाभारत के कौरव-पांडवों से लेकर मुगल, मराठा, ब्रिटिश, नेहरू आदि अनेक राजवंशों ने शासन किया था और उन सबने भरपूर मात्रा में अपने भवनों और महलों के खंडहर छोड़े थे।
गाइड के साथ हम संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सर्वोच्च न्यायालय आदि के खंडहर देखने गए। सन 1947 को मिली प्रथम आजादी के बाद के लगभग पचपन वर्षों तक इस विशाल देश का शासन यहीं से होता रहा था। एक में प्रधान मंत्री और सांसदों का कार्यालय था, दूसरे में राष्ट्रपति का और तीसरे में देश के सर्वोच्च न्यायाधीश का। ओपरेशन ब्लैकस्टार से जुड़ी घटनाओं में ये तीनों ही संस्थाएं ध्वस्त हो गई थीं।
संसद भवन के खंडहरों से ही स्पष्ट हो रहा था कि अपने समय वह एक अत्यंत भव्य और कलात्मक इमारत रहा होगा। हमारे गाइड ने बताया कि वह सैकड़ों स्तंभों पर टिकी एक गोल इमारत थी, जिसे ब्रिटिश शासकों ने बनाया था। मेरे हाथ में जो सूचना पुस्तक थी, उसमें इस इमारत का एक चित्र था।
उसकी सहायता से मैं अपनी कल्पना की आंखों से इस खंडहर को अपने मूल रूप में देखने की चेष्टा करने लगा। एक समय इसकी दीर्घाओं और सभाकक्षों में देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों की रौबीली आवाजें गूंजा करती होंगी। आज वहां कौओं की कांव-कांव और कुत्तों का रुदन ही सुनाई पड़ रहा था।
संसद भवन की टूटी-फूटी दीवारों पर कई जगह ओपरेशन ब्लैकस्टार के मूक गवाह स्वरूप टैंकों के गोलों के आघात से बने कोटर नजर आ रहे थे। सामने एक पट्ट पर पुरातत्व विभाग का एक नीला साइन बोर्ड लगा हुआ था जिसमें इस ऐतिहासिक खंडहर के बारे में कुछ जानकारी दी गई थी। मैं उठा और उस तक गया। उसमें संसद भवन और ओपरेशन ब्लैकस्टार का संक्षिप्त विवरण दिया गया था।
संसद भवन के विशाल खंभे इधर-उधर बिखरे पड़े थे। उनमें से एक पर बैठकर मैं इस भव्य खंडहर को बड़े गौर से देखने लगा। मेरे माता-पिता और उनकी पीढ़ी के करोड़ों लोगों के लिए यह एक महत्वपूर्ण प्रतीक रहा था। उनके इस देश से पलायन करने के पीछे भी इसका पराभव एक मुख्य कारण था। मेरे माता-पिता से जो संस्कार मुझे मिले थे, उसके जरिए यह खंडहर मेरी अपनी जिंदगी से भी जुड़ा था।
यह खंडहर एक प्रकार से मेरे माता-पिता की पीढ़ी की समस्त आशाओं, विश्वासों और सपनों का खंडहर था। उनके मन की कुंठा को मैंने भी अनायास ही अपने जेहन में उतार लिया था। इस कुंठा से मुक्ति पाने के लिए मेरे लिए यह आवश्यक था कि मैं संसद भवन के खंडहर में बदलने के पीछे की परिघटनाओं को, जिनमें से प्रमुख स्वयं ओपरेशन ब्लैकस्टार था, ठीक प्रकार से समझूं। इससे मुझे स्वयं अपने आपको समझने में भी मदद मिलेगी।
अपने भारत प्रवास के दौरान मैं बहुत से भारतीय इतिहासकारों, लेखकों, पत्रकारों, संपादकों आदि से मिला और उन सबसे ओपरेशन ब्लैकस्टार के बारे में पूछा। मैंने देखा कि वे सब उसकी जिक्र मात्र से लज्जा एवं अपराध बोध महसूस करते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ, क्योंकि यही भाव मैंने अफ्रीका में बसे अपने माता-पिता की पीढ़ी के लोगों में भी देखा था। तो क्या जिस कुंठा से मैं और मेरे माता-पिता ग्रस्त थे, वह समस्त भारतवासियों को साल रही है?
इस सब खोजबीन से मुझे ओपरेशन ब्लैकस्टार और उससे जुड़ी घटनाओं की सही-सही जानकारी मिल गई...
ओपरेशन ब्लैकस्टार की पृष्ठभूमि की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी थी सन 1999 में संसद द्वारा पारित किया गया वह विधेयक, जिसने सांसदों को देश के न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र से मुक्त कर दिया। अब किसी भी आपराधिक मामले में किसी विधायक के विरुद्ध देश की किसी भी अदालत में मुकदमा नहीं चल सकता था, न ही कोई अदालत उसे सजा सुना सकती थी। सांसद केवल संसद को जवाबदेह थे। उन्हें यह विधेयक इसलिए लाना पड़ा था क्योंकि पिछले कुछ सालों से बहुत से सांसद अनेक प्रकार के वित्तीय घोटालों में उलझ गए थे और उनमें से कई को न्यायालयों ने कड़ी सजा दी थी। कई सरकारें भी इन घोटालों के कारण गिरीं और कई उभरते नेताओं और सांसदों का भविष्य न्यायालय की इन कार्रवाइयों से धूल में मिल गया। इससे परेशान होकर सांसदों ने यह विधेयक पारित किया ताकि आगे से उनके विरुद्ध किसी भी प्रकार की न्यायिक कार्रवाई न हो सके, भले ही उनका अपराध कितना ही जघन्य क्यों न हो।
परंतु इस विधेयक का एक नकारात्मक नतीजा यह निकला कि आपराधिक जगत की अनेक हस्तियों के लिए संसद अब सबसे सुरक्षित स्थल प्रतीत होने लगा, क्योंकि सांसद बनकर वे देश के कानून से ऊपर हो सकते थे। तब इसमें आश्चर्य ही क्या कि इस विधेयक के आने के कुछ ही दिनों में आपराधिक ताकतों ने सभी राजनीतिक दलों पर धीरे-धीरे अपना कब्जा जमा लिया। नेताओं और माफिया डोनों के बीच चोली-दामन का संबंध तो पहले से ही चला आ रहा था। अब फर्क इतना ही हुआ कि माफिया तत्वों ने नेताओं को धीरे-धीरे राजनीतिक प्रक्रिया के हाशिए पर ढकेल दिया और स्वयं नेता की भूमिका भी निभाने लगे, या फिर नेता स्वयं माफिया डोन बन गए।
जनवरी 2000 में हुआ आम चुनाव भारत के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। इसमें पहली बार संसद पर आपराधिक तत्वों का पूर्ण कब्जा हो गया। उनकी कोई अलग पार्टी नहीं थी, वरन वे सभी पार्टियों में घुसे हुए थे। चुनाव के बाद संसद में आए सदस्यों में से एक अच्छी खासी तादाद माफिया डोनों या उनके नुमाइंदों की थी। इन सांसदों में आपसी तालमेल था और इस कारण वे संसद की हर गतिविधि को प्रभावित करने की स्थिति में थे।
इस नई माफिया सरकार के प्रथम तीन-चार महीनों में संसद ने ऐसे अनेक विधेयक पारित किए जिससे माफिया की स्थिति और अधिक मजबूत हो उठी। इसी दौरान माफिया सांसदों का विरोध करने वाले अनेक अन्य सांसद मारे गए। कुछ की हत्या तो सरेआम संसद भवन के सभा कक्ष में ही हुई और दूरदर्शन के कैमरों के जरिए सारे देश ने इन हत्याओं को होते हुए देखा, मानो वे कोई हिंदी चलचित्र देख रहे हों।
इन सब हत्याओं से संसद के भीतर माफिया सांसदों का विरोध लगभग समाप्त हो गया।
उन दिनों श्री देवी प्रसाद देश के प्रधान मंत्री थे। वे बेचारे एक सीधे-सादे कालेज प्रोफेसर थे। माफिया सांसदों ने उन्हें यही सोचकर प्रधान मंत्री बनाया था कि वे उनके हाथ की कठपुतली बने रहेंगे। पर चार-पांच महीनों बाद देश की सर्वोच्च संस्था में हो रही इस धांधली से देवी प्रसाद की अंतरात्मा कुलबुलाने लगी और वे माफिया सांसदों के आदेशों का पालन करने से इन्कार करने लगे।
तब वह घटना घटी जिससे संसद भवन का ध्वस्त होना अवश्यंभावी हो गया। माफिया सांसदों ने प्रधानमंत्रि और उनके समर्थकों का अपहरण कर लिया और यह घोषित कर दिया कि देश पर उनका कब्जा है। उन्होंने संसद भवन को ही अपना अड्डा बना लिया और रातों-रात उसे आधुनिक हथियारों से घेर कर उसकी किलेबंदी कर ली। उन्होंने यह भी धमकी दी कि यदि भारतीय सेना उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई करेगी तो वे दिल्ली पर परमाणु बम गिरा देंगे। सांसदों की इस धमकी से सारा देश दंग रह गया। दिल्लीवासियों ने तो तुरंत ही दिल्ली खाली कर दी। अपनी धमकी को सिद्ध करने के लिए सांसदों ने राष्ट्रपति भवन और सर्वोच्च न्यायालय पर दो एक प्रक्षेपास्त्र भी दाग दिए, जिससे ये दोनों ही खंडहर में बदल गए और तत्कालीन राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायाधीश मारे गए। फिर माफिया सांसद धीरे-धीरे देश पर अपना वर्चस्व बढ़ाने लगे। प्रधान मंत्री देवी प्रसाद और अन्य विरोधी सांसदों की हत्या कर दी गई और इस तरह संसद में माफिया सांसदों का पूरा बहुमत हो गया। इससे उनके द्वारा पारित अनेक विधेयकों को कानूनी हैसियत भी प्राप्त हो गई क्योंकि वे अब संसद में बहुमत में थे।
इन माफिया गुटों में से सबसे प्रबल गुट वह था जो इस सदी के प्रारंभिक वर्षों में प्रकट हुए नए देश तमिल ईलम की राष्ट्रीय सेना तमिल व्याघ्र से जुड़ा था। तमिल व्याघ्रों ने दशाब्दियों की लड़ाई के बाद भारत के दक्षिण में स्थित टापू श्री लंका के लगभग आधे हिस्से पर एक नया देश कायम कर लिया था।
इसकी राजधानी प्रभाकरपुरम था जो तमिल व्याघ्रों के शक्तिशाली सर्वेसर्वा और तमिल ईलम के प्रथम राष्ट्रपति वेलुप्पल्लि प्रभाकरन के नाम पर बना नया शहर था। प्रभाकरन ने ईलम पर आजीवन राज किया।
श्री लंका के आधे हिस्से पर एक नया तमिल राज्य स्थापित करना वृहद तमिल ईलम स्थापित करने की उसकी योजना का मात्र पहला चरण था। वह चाहता था कि अंततः ईलम में संपूर्ण श्री लंका, दक्षिणपूर्व एशिया के कुछ हिस्से और दक्षिण भारत का तमिलनाड और केरल प्रदेश भी शामिल हों। अपने जीवनकाल में तो वह इस सपने को पूरा होता नहीं देख पाया, पर उसने कभी हार नहीं मानी और इस वृहद ईलम की स्थापना की ओर निरंतर प्रयासरत रहा। उसके देहावसान के बाद वेलुत्तंपी नया राष्ट्रपति बना। वह प्रभाकरन से भी ज्यादा दृढ़ निश्चयी था और उसने धीरे-धीरे एक शक्तिशाली माफिया संगठन स्थापित करके भारतीय राजनीतिज्ञों को खरीदने लगा। जब भारत में माफिया सरकार स्थापित हो गई तो उसने मौका अच्छा देखकर समस्त दक्षिण भारत में तोड़फोड़ आरंभ कर दिया और भारतीय सेना के अनेक अड्डों को नष्ट कर दिया। तत्पश्चात उसने भारतीय संसद से एक विधेयक पास करवाकर एक मामूली रकम के बदले तमिलनाड और केरल के प्रदेशों को खरीद कर ईलम में मिला लिया। माफिया सरकार के कार्यकाल के दौरान हुई सबसे दुखद एवं हृदयविदारी घटना देश का यह विभाजन थी। देश के अन्य भागों में भी हालात तेजी से बिगड़ रहे थे। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई तो माफिया सरकार के बनने से पहले ही माफिया के पूर्ण नियंत्रण में थी। उसका वास्तविक संचालन दुबई से होता था। दुबई में माफिया गैंगों के रहनुमाओं की संसद लगती थी जिसके अध्यक्ष सबसे शक्तिशाली गैंग का सरगना दाऊद था। इसने भारत सरकार के साथ एक समझौता कर लिया था जिसके अंतर्गत मुंबई में शांति बनाए रखने के बदले भारत सरकार माफिया को सालाना दो अरब रुपए की अदायगी करती थी।
यह रकम भारत सरकार मुंबई के औद्योगिक घरानों पर विशेष कर लगाकर इकट्ठा करती थी। पिछले कुछ सालों से यह व्यवस्था संतोषजनक रही थी और समझौते के पहले के वर्षों की तुलना में मुंबई में शांति थी।
दिल्ली की माफिया सरकार पर दुबई स्थित इस माफिया संसद का भी एक हद तक नियंत्रण था, जो इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि इस सरकार के सत्ता में आते ही मुंबई में शांति बनाए रखने के एवज में दाऊद को दी जानेवाली रकम बढ़ाकर पांच अरब रुपए कर दी गई।
देश के भीतरी भागों में भी स्थिति धीरे-धीरे बिगड़ती जा रही थी। समस्त उत्तर पूर्व को पड़ौसी महाशक्ति चीन अपने में मिलाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा था। पटना, लखनऊ, इंदौर आदि में उद्योगपति, किसान और दलित अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए निजी सेनाएं रखने लगे थे। माफिया पुलिस के अत्याचारों से छुटकारा पाने के लिए इनकी छत्रछाया में रहना आवश्यक था। इनमें से कुछ सेनाएं इतनी प्रबल हो गई थीं कि उनका अपना निश्चित अधिकार-क्षेत्र था जहां केवल उन्हीं का जोर चलता था।
उदाहरण के लिए लखनऊ की यादव सेना का लखनऊ, कानपुर, तथा उसके आसपास के इलाकों में राज था। पटना की लाल सेना की तूती नेपाल तक में बोलती थी। इंदौर की संथाल सेना का मध्य प्रदेश के समस्त आदिवासी इलाकों में वर्चस्व था।
लेकिन यह सब अनर्थ हमेशा के लिए तो चल नहीं सकता था। जब माफिया सरकार के पांच साल पूरे हुए और जनता की आशाओं के विपरीत नए चुनाव कराने की ओर सरकार या निर्वाचन आयोग ने कोई पहल नहीं की तो धीरे-धीरे जनता का संयम टूटने लगा। देश में जगह-जगह विरोधी स्वर उठने लगे।
शुरू-शुरू में तो इन्हें माफिया पुलिस ने बड़ी निर्ममता से दबा दिया, पर धीरे-धीरे विरोधी स्वर ने एक देशव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया। आंदोलन का केंद्र नागपुर था, जहां तमिलनाड और केरल के देश से अलग होने से विक्षुब्ध हुए देशभक्त एकत्र हुए थे। उन्होंने देश को पुनः एकीकृत करने के लिए एक गुप्त संगठन स्थापित कर लिया। इस संगठन का नाम था अखंड भारत दल (अभाद)। जनता का आक्रोश इतना तीव्र था कि कुछ ही समय में अभाद को देश के कोने-कोने से जनसमर्थन प्राप्त होने लगा।
सन 2006 को माफिया सरकार के दो गुटों के बीच किसी बात को लेकर तकरार हो गई और उनकी लड़ाई खुलकर बाहर आ गई। दोनों गुटों ने दूसरे गुट के विरुद्ध सैनिक हमला शुरू कर दिया जिसके बढ़ने से देश में गृहयुद्ध की सी परिस्थिति हो गई। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर अभाद ने अपनी रणनीति बदल दी और खुली लड़ाई का मार्ग अपनाया। उसने भारतीय संसद और वर्तमान संविधान को रद्द घोषित कर दिया और सभी भारतवासियों से आह्वान किया कि देश की छाती पर चढ़ आए इन राक्षसों के दलन में वे उसकी खुलकर सहायता करें।
सौभाग्य से इस जन आंदोलन को सेना का पूरा-पूरा समर्थन मिला। इस समर्थन के बिना अभाद के लिए सांसदों को हराना संभव न हो पाता क्योंकि सांसद सभी प्रकार के आधुनिक हथियारों से लैस थे। सेना को भी सांसदों से कई दिनों तक युद्ध करना पड़ा, जिसमें सभी आधुनिक हथियारों का उपयोग दोनों पक्षों ने किया। सांसदों से हुई इस लड़ाई में सैकड़ों नागरिक और सैनिक मारे गए, जिन्हें सब आज भारत में शहीदों की तरह पूजा जाता है।
आखिर सेना को संसद भवन को ही बारूद से उड़ा देना पड़ा क्योंकि सांसदों ने आत्मसमर्पण करने से इन्कार कर दिया और उन्होंने परमाणु अस्त्रों के उपयोग की अपनी धमकी दुहराई। सेना के इस हमले में, जिसे ही ओपरेशन ब्लैकस्टार नाम दिया गया है, सारे सांसद तो मारे ही गए, उनके साथ संसद भवन भी खंडहर में बदल गया।
संसद के नष्ट होने के बाद बहुत दिनों तक देश में अराजकता रही। फिर धीरे-धीरे अभाद के मार्गदर्शन में स्थिति सामान्य होती गई। सेना की सैद्धांतिकता की दाद देनी चाहिए कि इस कठिन दौर में उसने देश की बागडोर छीनने की कोशिश नहीं की, बल्कि देश को बाहरी ताकतों से बचाने की ओर ध्यान लगाया। उसने एक जबर्दस्त मुहिम छेड़कर तमिल व्याघ्रों को देश के दक्षिणी हिस्सों से खदेड़ दिया और देश के खोए हुए हिस्सों को पुनः प्राप्त कर लिया। सेना की इस तटस्थता का मुख्य कारण यह हो सकता है कि ओपरेशन ब्लैकस्टार में जनता और सैनिकों ने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ा था।
धीरे-धीरे नई जनतांत्रिक संस्थाओं का गठन हुआ। देश की राजधानी नागपुर बनाई गई। संसद की जगह जनसभा ने ले ली। इसका गठन 23 दिसंबर 2006 को हुआ था। इसी दिन सभी नागरिकों ने वह ऐतिहासिक प्रण भी लिया कि भविष्य में वे राजनीति का अपराधीकरण नहीं होने देंगे। इस प्रण को नागपुर घोषणा के रूप में भी जाना जाता है और वह एक प्रकार से देश का नया संविधान है। पिछले पच्चीस वर्षों से इसी 23 दिसंबर को भारत अपनी दूसरी आजादी का पर्व मनाता आ रहा है...
भारत की दूसरी आजादी के पच्चीसवें साल के समारोहों में भाग लेने के बाद मैं अपने देश लौट चला। डरबन जानेवाली रोकटयान पर बैठे मैं सोचता गया कि क्या आजादी का भारत का यह दूसरा प्रयोग पहले से अधिक सफल हो सकेगा, और भारतीयों की कंगाली, भूख और अशिक्षा दूर हो सकेगी, या जनसभा का भी आज से पच्चीस-पचास वर्ष बाद वही हस्र होगा जो संसद का हुआ था? न जाने क्यों मुझे इस बात से बड़ी राहत मिल रही थी कि मैं इस अभागे देश का नागरिक नहीं हूं। भारत पर पदार्पण करते समय जो उल्लास मेरे मन में था, वह अब वितृष्णा में बदल गया था। मुझे अपने देश दक्षिण अफ्रीका के प्रति बड़ा नाज और अपनापन महसूस होने लगा। यह भाव मुझमें इससे पहले कभी नहीं हुआ था। मैंने देखा कि मैं भारत की केंचुली उतार फेंकने में सफल हो गया हूं और सच्ची दृष्टि में, दिलो-दिमाग से, दक्षिण अफ्रीकी हो गया हूं। भारत को लेकर जो कुंठा मेरे जेहन में बैठी हुई थी, उससे भी मैं मुक्त हो गया था। अब मेरा भारत से कोई सरोकार नहीं रह गया था।
(रचना काल 1999)
Thursday, May 07, 2009
ओपरेशन ब्लैकस्टार
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: कहानी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 Comment:
अच्छा ही है कि:
- वेलुप्पल्लि प्रभाकरन मारा गया.
- चुनावों के बाद यादव दल की कोई खास शक्ति नहीं बची.
- . . . .
- . . . .
और आप आज तक भारत में ही हैं
Post a Comment