उड़ने के बाद बिना भूले-भटके अपने घर लौट आना कबूतरों की स्वाभाविक आदत है। मनुष्य संदेश भेजने के लिए प्राचीन काल से ही इन पक्षियों की इस आदत का उपयोग करता आ रहा है। इसकी शुरुआत संभवतः भारत में ही हुई थी क्योंकि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों में चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के समय में कबूतर द्वारा संदेश भेजे जाने के उल्लेख मिलते हैं। बाद में मुगल सम्राटों ने भी कबूतरों द्वारा संदेश भेजने की विधि अपनाई। धीरे-धीरे यह प्रथा अन्य देशों में भी फैल गई। सन 1146 में बगदाद के खलीफा सुल्तान नारदीन के सारे राज्य में नियमित रूप से कबूतरों से खबर भेजने की व्यवस्था थी।
इतिहास में अनेक रोचक अवसरों पर खास-खास खबर भेजने का काम कबूतरों ने किया है। सन 1815 में वाटरलू के युद्ध में विजय का संदेश कबूतर के माध्यम से लंदन भेजा गया था। प्रथम विश्वयुद्ध में अमरीकी सेना के चिअर-एम-1 नामक पत्रवाहक कबूतर ने एक अमरीकी बटालियन को जर्मनों द्वारा पकड़े जाने से बचाने में सहायता की थी।
भारत में उड़ीसा पुलिस ने 1946 में संचार की यह प्रणाली अपनाई और वह इसका अभी हाल तक इस्तेमाल कर रही थी। आजादी के बाद उसे अंग्रेजों से 40 कबूतर उपलब्ध हुए थे। एक समय उसके पास 926 पत्रवाहक कबूतर थे, जो राज्य में अलग-अलग 17 पुलिस जिलों के नियंत्रण में रखे गए थे। कबूतरों को तीन वर्गों में बांटा जाता था और प्रत्येक वर्ग को अलग-अलग प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रथम वर्ग को एक-स्थानिक वर्ग कहा जाता था। इस वर्ग के कबूतर मुख्यालय से पास के दुर्गम क्षेत्रों में गश्त के लिए जानेवाले पुलिस के दस्ते के पास रहते थे और जब कभी मुख्यालय को सूचना देने की आवश्यकता होती थी, तो उन्हें आकाश में उड़ा दिया जाता था। वे संदेश लेकर मुख्यालय लौट आते थे। दूसरा वर्ग चलायमान वर्ग था जिसमें ऐसे कबूतर होते थे जिन्हें पुलिस विशेष गाड़ियों में रखती थी। इन गाड़ियों को पुलिस अपने साथ ले जाती थी। दूर-दूर के इलाकों में गश्त लगाने के लिए जाते समय पुलिस के कर्मचारी इन गाड़ियों से कबूतर निकालकर उन्हें भी अपने साथ ले जाते थे। जरूरत पड़ने पर इन्हें संदेश के साथ उड़ा दिया जाता था और ये उन गाड़ियों को लौट आते थे जहां उनका निवास था और इस तरह से गश्त पर निकली टुकड़ी का संदेश मिल जाता थे। तीसरे अर्थात मूलस्थानगामी कबूतरों को संदेश ले जाने और उसका उत्तर वापस ले आने का प्रशिक्षण दिया जाता था। उनके उड़ने का दायरा अधिकतम 100 किलोमीटर होता था।
भोजन और स्थान के दृष्टिकोण से कबूतरों को पालने में ज्यादा खर्च नहीं आता है। इन कबूतरों को पीने के लिए पोटाश मिला पानी और प्रतिदिन नियमित रूप से दो बार शार्क मछली के जिगर से प्राप्त तेल का एक विशेष आहार दिया जाता था। ये कबूतर 15-20 वर्ष तक जिंदा रहते थे, जिनमें से सात से दस वर्षों तक वे पत्र ले जाने का काम करते थे। इस तरह का एक स्वस्थ कबूतर लगभग 50-100 मीटर की ऊंचाई पर उड़ते हुए एक बार में 1000 किलोमीटर की दूरी तय कर सकता था। जो सूचना भेजी जानी होती थी, उसे कागज के एक छोटे टुकड़े पर लिख दिया जाता था, जिसे एक प्लास्टिक की नली में रखकर कबूतर के पैरों में बांध दिया जाता था। आमतौर पर एक जैसा संदेश लेकर एक बार में दो कबूतर उड़ाए जाते थे ताकि अगर एक भटक जाए या बाज आदि का शिकार हो जाए, तो दूसरा संदेश पहुंचाने में सफल हो जाएगा।
उड़ीसा पुलिस ने दैवी विपदा, उपद्रव आदि की स्थिति में पत्रवाहक कबूतरों का उपयोग करके उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। दिल्ली में 1954 के डाक शताब्दी समारोहों के अवसर पर उड़ीसा पुलिस के पत्रवाहक कबूतरों ने उद्घाटन का संदेश राष्ट्रपति से प्रधान मंत्री तक पहुंचाकर इस व्यवस्था का सफल प्रदर्शन किया था। एक बार जब 13 अप्रैल 1948 को सबसे लंबे हीराकुंड बांध की आधारशिला प्रधान मंत्री नेहरू द्वारा रखी जानेवाली थी, तब उन्होंने कटक में होनेवाली आम सभा में कुछ परिवर्तन करना चाहा। राज्य पुलिस के पत्रवाहक कबूतर ने 5 घंटे में संबलपुर से कटक तक 400 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए उनका संदेश पहुंचा दिया। इससे नेहरू काफी प्रसन्न हुए।
Saturday, May 23, 2009
कबूतर डाक सेवा
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: विविध
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6 Comments:
bahut achchi jaankari di hai in udne wale patrawahakon ke bare mein.
रोचक! इस युग में भी शायद किन्हीं दशाओं में यह तकनीक काम की हो।
यकीनन रोचक है।
यान्त्रिक जीवन शैली ने मानव का उसके सभी नैसर्गिक मित्रों से सम्बंध विच्छेद करा दिया है। शायद तेज से भी तेज रफ़्तार की तलाश और त्वरित फल पाने की वृति इसके लिये जिम्मेदार है।
पर सोचना होगा, ये सब पाया किस कीमत पर?
Very nice information thankyou so much
Nice bro
Nice
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