Friday, May 29, 2009

एक खोजी किसान की दारुण गाथा

अन्निगिरी धारवाड़ जिले के नवलगुंड तालुके का एक गांव है जिसकी आबादी लगभग 20,000 है। यह गांव शुष्क क्षेत्र के अंतर्गत आता है। अन्निगिरी में काली मिट्टी पाई जाती है, जो मिर्ची और चने के लिए बहुत उपयुक्त है। यह गांव 16 एकड़ जमीन पर फैली इमली के एक विशाल बाग के लिए भी मशहूर है। इस बाग में लगभग 1800 इमली के पेड़ हैं। इस बाग के जन्मदाता नडाकटिन नामक एक अद्भुत स्वभाव के किसान हैं।

कहते हैं, जब नडाकटिन बालक थे, उन्हें एक तकलीफ थी, वे सुबह जल्दी नहीं उठ पाते थे। लाख कोशिश करने पर भी उनकी आंख खुलती नहीं थी। उन्होंने तरह-तरह की अलार्म घड़ियों का इस्तेमाल करके देखा, पर अलार्म की ऊंची से ऊंची आवाज भी उनकी नींद में खलल न डाल सकी। उनका आविष्कारशील मन इस समस्या का समाधान खोजने लगा। काफी दीमागी मशक्कत के बाद उन्होंने एक जल अलार्म विकसित किया, जो उनका पहला आविष्कार था। उन्होंने एक धागा अलार्म घड़ी से इस तरह बांधा ताकि जब आलार्म की चाबी घूमने लगती है, तो वह उसके दूसरे सिरे के साथ बंधी पानी से भरी बोतल को उलट देती है। यह बोतल ठीक उनके सिर के ऊपर टंगा होता था, इससे उसका पानी उनके सिर पर आ गिरता था और उनकी नींद खुल जाती थी।

आज नडाकटिन 46 साल के हैं और उनका खोजी स्वभाव बरकरार है। उन्हें 60 एकड़ की जमीन उनके पिता से मिली थी। उनके इलाके में खेती शुष्क वातावरण, अनियमित वर्षा और अपर्याप्त भूजल के कारण काफी जोखिम भरा कार्य है। इसलिए उन्होंने खेती के स्थान पर बागवानी करने की सोची। उन्होंने आम, सपोटा और बेर बो दिए और उनके साथ मिर्च के पौधे भी बो दिए। यह प्रयोग उन्होंने 16 एकड़ में किया। सपोटा और बेर को बारी-बारी से आम के पेड़ों की कतारों के बीच रोपा। पानी की कमी के कारण उनका यह प्रयोग विफल हुआ और अधिकांश पौधे मर गए। जो बचे रहे, उनका विकास भी कुंठित रहा और उन्हें इन पौधों को भी उखाड़ फेंकना पड़ा।

तब वे अपने खेत की विशेषताओं के मुताबिक किसी पेड़ की खोज में लग गए। उनके घर के पास एक उपवन था जिसमें बहुत सारे इमली के पेड़ थे। उनकी कोई विशेष देखभाल नहीं करता था, फिर भी पेड़ स्वस्थ थे और उनमें इमलियां भी खूब उत्पन्न होती थीं। नडाकटिन ने सोचा कि शायद इमली ही वह पेड़ है जिसकी उन्हें इतने दिनों खोज थी। सन 1985 में उन्होंने अपनी जमीन में 20 फुट के अंतर पर 600 इमली के पौधे रोपे। इस वर्ष सारा इलाका भयंकर सूखे की चपेट में आ गया और नडाकटिन को इन पेड़ों के लिए 2-3 किलोमीटर की दूरी से पानी ढोना पड़ा। अच्छी देखभाल से इमली के अधिकांश पौधे बड़े हुए, यद्यपि स्वयं नडाकटिन को काफी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा। तीन साल बाद, उन्होंने इन पेड़ों की सफलता से प्रेरणा ग्रहण करके 10 एकड़ जमीन में इमली के 1,100 और पौधे रोप दिए।

कम मात्रा में उपलब्ध पानी, और वह भी खारा पानी, की सहायता से इमली के पेड़ उगाना अपने आपमें एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। पानी की कमी को दूर करने के लिए नडाकटिन ने पानी छानने की एक तीन-स्तरीय विधि विकसित की और 11 नलकूप भी खोदे, जिसमें उन्हें 2 लाख रुपए खर्च करने पड़े। इनमें से केवल 2 में से पानी मिल सका। बाद में उन्होंने वर्षा जल के संग्रह के लिए 6 तालाब खोदे। बारिश के मौसम के बाद इन्हीं तालाबों में उन्होंने नलकूपों का पानी भरा और वहां से उन्होंने उसे इमली के पेड़ों की ओर मोड़ा। उन्होंने इमली के गूदे को संरक्षित करने के लिए भूमिगत टंकियां भी विकसित कीं। इनमें रखा गया गूदा बहुत दिनों तक सुरक्षित रहता है और उनका गुण भी ज्यों का त्यों बना रहता है। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी की सहायता से इमली से अचार और जैम तैयार किए और इन्हें हैदराबाद शहर में बेचने की व्यवस्था की।

अचार बनाते समस्य आई एक समस्या का भी उन्होंने एक अच्छा समाधान ढूंढ़ लिया। अचार बनाने का काम काफी श्रमसाध्य था। पहले पेड़ों से इमली की फलियों को तोड़ना होता था, फिर इन फलियों के छिलके और बीजों को अलग करके गूदा निकालना था। यह सब काम हाथ से ही किया जाता था। सन 1994 में इस काम में उन्हें 6 महीने में 3 लाख रुपए खर्च करने पड़े। तब उन्होंने सोचा कि क्या यह काम यंत्रीकृत नहीं किया जा सकता। बस, उनके आविष्कारशील बुद्धि ने यह चुनौती स्वीकार कर ली और एक यंत्र बना ही डाला। यह यंत्र फलियों से बीज अलग कर सकता है और नडाकटिन उसका बराबर उपयोग करते आ रहे हैं। यह यंत्र एक दिन में 500 मजदूरों का काम कर सकता है। इसमें एक तकली के आकार का पुर्जा है जो इमली की फली के ऊपर दबाव डालता है। इससे बीज फली से दबकर निकल आता है। उनका मानना है कि यह मशीन अपने सरल पुर्जों और कार्यक्षमता के कारण इमली उगानेवाले अन्य किसानों के लिए भी वरदान साबित हो सकती है।

अगला काम इमली की कच्ची फलियों को काटने के यंत्र का विकास था। यह यंत्र एक घंटे में 250 किलो इमली काट सकता है।

उन्होंने एक ऐसी मशीन भी बनाई है जो पेड़ों से इमली की फलियां उतार सकता है। एक दिन में वह 1,000 मजदूरों का काम कर सकता है। इस मशीन का प्रारूप उन्होंने 1994 में ही तैयार कर लिया था, पर उसे पूरा नहीं कर सके क्योंकि इसके लिए 5 लाख रुपए की आवश्यकता थी।

नडाकटिन कृषि को अधिक कार्यक्षम बनाने के कार्य में निरंतर प्रयत्नशील रहे हैं। उन्होंने खेती में सहायक होनेवाले अनेक सस्ते और कार्यक्षम उपकरण विकसित किए हैं। स्कूल छोड़ने के तुरंत बाद ही, 1994 में उन्होंने खेत जोतने का एक ऐसा हल विकसित किया जो काफी गहराई तक जोत सकता था। इसे बैल खींचते थे। पैसे की कमी के कारण वे इस हल को बाजार में नहीं उतार सके। इसके बाद उन्होंने हल की एक ऐसी फलक तैयार की जिसकी धार को बारबार बनाना नहीं पड़ता था। इससे हल का फलक बहुत दिनों तक चलता था। उसे ट्रैक्टर के साथ भी जोड़ा जा सकता था। सन 1985 में उन्होंने इमली की बागवानी शुरू की, और तब उन्होंने बीज बोने का एक बहुउपयोगी उपकरण विकसित किया। इसकी सहायता से विभिन्न आकारों के बीजों को आवश्यक अंतर पर बोया जा सकता है। जवार से लेकर मूंगफली तक के बीज इसकी सहायता से बोए जा सकते हैं। लगभग इन्हीं दिनों उन्होंने पानी गरम करने का एक यंत्र भी बनाया जो केवल 5 मिनट में 5 किलो लकड़ी जलाकर 20 लोगों के नहाने का पानी गरम कर सकता था। इतना ही नहीं, इस यंत्र के पात्र में पानी 24 घंटे तक गरम बना रहता है।

नडाकटिन ने ऐसे अनगिनत आविष्कारों को जन्म दिया है। वे कहते हैं, "मैंने हमेशा ऐसे उपकरण विकसित करने की कोशिश की है जो सस्ते हों और जो कृषि की कार्यक्षमता में वृद्धि करते हों। मेरे प्रयत्नों से काफी फायदा हुआ है, पर मेरी सीमित आय से इन सबको जनसाधारण तक पहुंचाना मेरी बस की बात नहीं है। इन आविष्कारों में मैंने अपनी संपत्ति का तीन-चौथाई भाग खर्च कर डाला है और मैं विपन्नता की कगार में पहुंच गया हूं।"

नडाकटिन पर अब 15 लाख रुपए से भी अधिक का कर्जा चढ़ गया है। उन्हें 40 एकड़ जमीन बेचनी पड़ी है। अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए उन्हें उनके द्वारा विकसित 10 उपकरणों की प्रौद्योगिकी को उन लोगों के हाथों बेच देना पड़ा है जो उन्हें व्यावसायिक आधार पर बेचना चाहते हैं। वे अपनी बची हुई जमीन और उनका अत्यंत प्रिय इमली के बाग को बचाने के लिए ऐड़ी चोटी का पसीना एक कर रहे हैं। एक कर्ज के एवज में इन सबका नीलाम हो जाने की संभावना है। यद्यपि नेताओं, वैज्ञानिकों और पत्रकारों ने उनकी खोजों की खूब सराहना की है, उन्होंने उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कुछ नहीं किया है। वे सरकार से मदद मांगने कई बार दिल्ली भी हो आए हैं, पर हर बार खाली हाथ लौटे हैं। यहां तक कि उन्होंने और उनकी पत्नी और लड़कियों ने अनशन भी करके देख लिया है, पर कोई लाभ नहीं हुआ है। अंत में, तंग आकर उन्होंने कर्णाटक के मुख्य मंत्री को लिख दिया था कि यदि उनकी सहायता नहीं की गई तो वे आत्महत्या कर लेंगे। उन्होंने मुख्यमंत्री महोदय से याचना की कि उन्हें सम्मानजनक जिंदगी बसर करने के लिए मदद मिले ताकि वे अपने आविष्कारों की कड़ी जारी रख सकें। इन आविष्कारों से जनसाधारण को भी खूब लाभ होता है और कृषि की उत्पादकता भी बढ़ती है, जिससे देश को भी फायदा होता है।

(सूझ-बूझ पत्रिका से)

6 Comments:

Udan Tashtari said...

बताईये, एक प्रतिभा का कैसे अंत हो रहा है. दुखद!!

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

क्या किया जा सकता है? कोई सम्भावना है ब्लॉग समाज के द्वारा एक कोश/संगठन स्थापित करने की ताकि ऐसे लोगों की थोड़ी ही सही सहायता हो सके?

धन तो मेरे पास इतना नहीं है लेकिन और कोई जिम्मेदारी दी गई तो सँभाल लूँगा । कुछ करना चाहिए।

आत्महत्या तो हरगिज समाधान नहीं है। आत्महत्या की प्रवृत्ति कर्क रेखा के दक्षिण कुछ अधिक ही है। ऐसा क्यों है?

ताऊ रामपुरिया said...

अत्यंत दुखद है.

रामराम.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बालसुब्रमण्यम जी, मौजूदा व्यवस्था में उन्हीं उपकरणों मे निवेश संभव है जो उत्पादन और विक्रय के उपरांत अच्छा मुनाफा दे सकते हों। किसानों की मदद करने वाले इन उपकरणों में लगाई गई पूंजी उतना मुनाफा नहीं दे सकती जितना अन्य उद्योग दे सकते हैं। इन उपकरणों का उत्पादन केवल और केवल किसानों को कठोर श्रम से बचा सकता है। जिन का किसी समाजवादी राज्य में तो राज्य कर सकता है लेकिन हमारे राज्य में ऐसे उपकरणों के उत्पादन के लिए कोई प्रश्रय नहीं है। अधिक से अधिक खादी और ग्रामोद्योग के नाम से संस्था बना कर इन के उत्पादन के लिए कुछ सहायता प्राप्त की जा सकती है। उस का प्रयास करना चाहिए। और सब से पहले तो नडाकटिन की भूमि बचाने का प्रयास होना चाहिए।

P.N. Subramanian said...

बड़ी दुखद स्थिति है.

Gyan Dutt Pandey said...

नडाकटिन की उर्वर प्रतिभा को किसी ऑन्त्रेपिन्योर का बैक-अप नहीं मिल पाया। यह दुखद है।
पत्रिका में छपने के बाद किसी की नजर पड़े, इसकी आशा की जाये।

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