Friday, May 15, 2009

जंगल कथा - भालू का बदला

पहाड़ की तेज ढलानों पर पसरी उस ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर रामसागर यत्नपूर्वक आगे बढ़ रहा था। उसकी प्रगति धीमी थी क्योंकि सड़क पहाड़ के चेहरे पर लगभग सीधी ऊपर गई थी और रामसागर की कमर भारी बोझ तले झुकी हुई थी। उसके दाहिने कंधे पर खून से सना एक बड़ा बोरा था, जिसमें उसके द्वारा उस दिन मारे गए जंगली जानवरों की लाशें ठूंस-ठूंसकर भरी थीं। बाएं कंधे पर एक पुरानी, जंग लगी देहाती बंदूक थी, जिससे उसने उन सब की हत्या की थी। उसकी कमर पर कारतूसों की पट्टी बंधी थी।

रामसागर एक पेशेवर शिकारी था--चोर शिकारी कहना अधिक सही होगा क्योंकि उसके पास अपनी बंदूक के लिए न तो लाइसेंस था, न उस संरक्षित वन में शिकार करने की अनुमति ही। वह बस एक कत्ल-प्रिय व्यक्ति था जो किसी भी प्राणि पर गोली चला देता था, चाहे वह खूबसूरत चीतल हों या धार्मिक महत्व रखनेवाले हनुमान लंगूर या वन विभाग द्वारा कड़ाई से संरक्षित राष्ट्रीय पक्षी मोर।

आज रामसागर प्रसन्नचित्त था। उसका शिकार अभियान काफी सफल रहा था और उसका बोरा छोटे-बड़े जानवरों की लाशों से भरा था। इससे भोजन की चिंता से उसे मुक्ति मिल गई थी और मांस, चर्बी, खाल आदि की बिक्री से उसे अच्छी आमदनी होने की भी संभावना थी। इस प्रकार पैसे और भोजन दोनों से निश्चिंत होकर वह खुशी-खुशी एक गीत गुनगुनाता हुआ जा रहा था।

उसके चारों ओर घना, खूबसूरत वन विशाल हरे समुद्र के समान लहरा रहा था। दुपहर का सूरज आकाश पर छाया हुआ था, पर गरमी असह्य नहीं थी क्योंकि पहाड़ी इलाके की खुनक भी हवा में थी। पगडंडी के दोनों ओर सुगंधित, रंग-बिरंगे फूलों वाली झाड़ियां थीं। जगह-जगह पर ये पगडंडी पर ही फैल गई थीं, मानो जंगल पगडंडी को अपने क्षेत्र पर अधिक्रमण मानकर उसे मिटाना चाह रहा हो। हवा फूलों की महक से सराबोर थी। खूबसूरत तितलियां, पतंगें, टिड्डे, झिंगुर व अन्य कीट इधर-उधर मंडरा रहे थे। रह-रहकर आती जंगली प्राणियों की पुकारों और पक्षियों की अनवरत चहचहाहट से सारा वातावरण खुशनुमा हो रहा था।

इस शांतिमय वातावरण का आनंद लेते हुए रामसागर अपनी धीमी चाल से बढ़ा जा रहा था। वह अपनी शिकारी नजरों से चारों ओर की हर छोटी-बड़ी चीज को ध्यानपूर्वक देखता जा रहा था क्योंकि उनमें से किसी के भी पीछे कोई पक्षी या प्राणी दुबका हो सकता था, जिसे वह अपनी बंदूक का निशाना बना सकता था।

अचानक रामसागर ठिठका और एक झाड़ी की आड़ में हो गया। जिस चीज ने उसके ध्यान को आकर्षित किया था वह पगडंडी के किनारे ही थी। पहली नजर में वह उसे किसी काली, खुरदुरी वस्तु के ढेर के समान लगी। ऐसी विचित्र चीज उसने पहले नहीं देखी थी। वह न तो कोई शिला थी न दीमकों की बांबी न ही कोई झाड़ी। काफी देर उसे विस्मय से देखते रहने के बाद रामसागर धीरे-धीरे खामोशी से उसकी ओर बढ़ा। बहुत पास जाने पर ही वह उसे पहचान सका। वह एक मादा भालू थी जो एक पेड़ की छाया में अपने झबरे पैरों से अपनी गीली और काली नाक को ढके आराम से सो रही थी। उसके साथ उसका नन्हा शावक भी था। वह भी अपनी मां के शरीर से चिपटकर सो रहा था। उन्हें सड़क के इतना निकट पाकर रामसागर को थोड़ा आश्चर्य हुआ। जब उसने देखा कि वे दोनों गहरी नींद में हैं, उसके जान में जान आई। खामोशी से उसने कंधे से बंदूक उतारी और उसमें एक कारतूस ठूंसकर निशाना साधा।

उसके बंदूक की घोड़ी दबाते ही जोर का धमाका हुआ और बंदूक के चारों ओर कारतूस के जलने से निकले घने काले धुंए का बादल छा गया। जब धुंआ छंटा तो रामसागर को बड़ी निराशा हुई। उसने रीछनी की छाती का निशाना बांधा था, परंतु बंदूक की नली की कुछ खराबी के कारण गोली उसके नियत पथ से दो चार इंच खिसककर शावक के सिर को बेध गई थी और वह बिना आवाज किए वहीं ढेर हो गया था। इसके साथ ही उस बच्चे को किसी मदारी को बेचकर मोटी रकम कमाने के रामसागर के सारे मनसूबे मिट्टी में मिल गए।

बंदूक की आवाज से रीछनी जाग गई। पर नींद के कारण वह ठीक प्रकार से समझ नहीं पाई कि आवाज कहां से आई और वह किसकी आवाज थी। तब तक रामसागर भी एक झाड़ी के पीछे छिप गया था। रीछनी को अनिश्चित सा वहीं खड़ी देखकर उसने चुपके से बंदूक में एक कारतूस और भरा और दोबारा फायर कर दिया। इस बार कारतूस ठीक तरह से नहीं फटा। बंदूक के हथोड़े के कारतूस के ढक्कन से टकराने और कारतूस के बिना फटे ही फुंस होकर जल उठने की आवाज रीछनी ने सुन ली और उस ओर घूमकर गुस्से से गुर्राने लगी।

यह देख कर रामसागर के होश उड़ गए। वह कोई बहुत बहादुर आदमी नहीं था। आमतौर पर वह जंगली मुर्गी, लंगूर, चीतल, खरगोश आदि निरापद जानवरों का ही शिकार करता था। ये सब किसी भी प्रकार से उसका नुकसान नहीं कर सकते थे। परंतु इस क्रुद्ध भालू की बात ही कुछ और थी। वह उसे एक ही तमाचे में तरबूज के समान फोड़कर रख सकती थी। रामसागर अब सोचने लगा कि उसने इतने खतरनाक जानवर पर गोली चलाकर नाहक खतरा मोल लिया।

वह इतना भयभीत हो उठा कि उसके दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया। कभी उसे लगा कि पहाड़ी पगडंडी पर तुरंत भाग चलना चाहिए। पर तभी वह सोचने लगा कि उसे भागते देखकर रीछनी तुरंत उसका पीछा करने लगेगी। उस पहाड़ी रास्ते पर तेज दौड़ना कठिन होगा और रीछनी उसे पकड़ लेगी। अंत में उसने यही तय किया कि उसका वहीं बिलकुल शांत बने रहना सबसे सुरक्षित उपाय है। यदि वह बिना हिले-ढुले, बिना आवाज किए खड़ा रहा तो शायद रीछनी उसे देख नहीं पाएगी। वह जानता था कि भालुओं की दृष्टि कमजोर होती है।

इस निर्णय पर पहुंचकर वह बुत सा निश्चल खड़ा हो गया, यहां तक कि उसने सांस लेना भी रोक दिया। उसकी किसमत अच्छी थी। हवा का बहाव रीछनी से उसकी ओर था और रीछनी उसे सूंघ नहीं पाई। थोड़ी देर गुस्से से उसकी झाड़ी को घूर-घूरकर देखकर वह पलटकर जंगल की ओर जाने लगी।

यह देखकर रामसागर का खोया हुआ साहस फिर लौट आया। उसने जल्दी से अपनी बंदूक में एक दूसरा कारतूस भरा और जब रीछनी कुछ दूर निकल गई तो उसने उस पर गोली चला दी। गोली रीछनी को लगी तो, पर वह प्राणांतक नहीं साबित हुई। बंदूक की आवाज और गोली के लगने की पीड़ा ने रीछनी की रफ्तार बढ़ा दी और वह झाड़ियों और छोटे पेड़ों से टकराती हुई तेज चाल से जंगल में विलीन हो गई। दस-पांच मिनट रुककर रामसागर भी भालू-शावक की लाश को अपने बोरे में डालकर अपने रास्ते चल दिया।

जब रीछनी जंगल की ओर भागी थी तो उसने अपनी सहजवृत्ति का ही अनुसरण किया था। उसके पास दो ही विकल्प थे--हमला करना या पीठ दिखाना। पहला विकल्प संभव नहीं था, क्योंकि वह रामसागर को देख ही नहीं पाई थी, हमला किस पर करती? इसलिए उसने भागना ही मुनासिब समझा। जब उसे गोली लगी तो उसके सारे शरीर में आग सी सुलग गई। उसकी मांसपेशियों में धंसी गोली के कारण चलते समय उसे असह्य पीड़ा होने लगी। उसे यह समझ में नहीं आया कि इस पीड़ा को कैसे दूर करें। आखिर उसके पैर उसे स्वयमेव जंगल के एक तालाब की ओर ले गए। वहां पहुंचकर रीछनी तालाब के शीतल जल में खड़ी हो गई। पानी के ठंडे स्पर्श से उसके घाव के जलन को राहत मिली। वह पानी में खड़ी-खड़ी घाव को चाटती और अपने दांतों से उसके शरीर में धंसे लोहे के टुकड़े को निकालने की कोशिश करने लगी।

इस सारे दौरान उसने अपने शावक के बारे में कुछ भी नहीं सोचा था। वह स्वयं विपत्ति में यों फंस गई थी कि उसका दिमाग किसी और की चिंता करने की स्थिति में नहीं था। पानी में कुछ देर खड़े रहने से उसकी पीड़ा थोड़ी कम हुई और उसे अचानक अपने बच्चे की याद आ गई। जब वह बंदूक की गोली खाकर हड़बड़ाकर जंगल में भाग निकली थी, तब उसने यही सोचा था कि उसका शावक भी उसके पीछे चल पड़ा होगा। एकदम से उसे उसकी अनुपस्थिति का ऐहसास हुआ। उसका नटखट, गेंद-सा गोलमटोल, गुदगुदा, ऊधम मचाता, उसके पैरों के बीच में से इधर-उधर भागता, उसे लंगड़ी फंसाता, अपने पोपले, दंतहीन मुंह से उसे काटने की चेष्टा करता और बनावटी गुस्से में गुर्राता शावक उसके पास नहीं था। पहले तो वह उसकी अनुशासनहीनता पर क्रुद्ध हुई और एक आदेशात्मक गुर्राहट में उसे पुकारा। यदि वह पास कहीं होता, तो इसे सुनकर तुरंत उसके पास भाग आता। पर उसे उसके शावक से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।

उसने सोचा कि शायद वह बंदूक की आवाज से डर कर आनन-फानन जंगल में भाग गया होगा और अब रास्ता भूलकर इधर-उधर भटक रहा होगा। रीछिनी चिंतित हो उठी। उसे पता था कि जंगल अनेक खतरों से भरा है और यदि उसका शावक सचमुच भटक गया है तो उसकी जिंदगी खतरे में थी। रीछनी जल्दी से पानी से बाहर निकल आई और अपने शावक को खोजने चल पड़ी। अपने घाव के कारण उसे हर कदम पर पीड़ा हुई, पर शावक की चिंता में वह इस पीड़ा को भूल सी गई। वह तेज कदमों से उस स्थान की ओर भागी जहां कुछ देर पहले वे दोनों पेड़ की छाया में लेटे थे। इस स्थल के निकट पहुंचने पर उसके नथुनों में खून की गंध आने लगी। घबराहट में वह लगभग दौड़ने लगी। जल्द ही उसे ज्ञात हुआ कि यह उसके ही शावक के खून की गंध है। उस जगह पहुंचकर वह जमीन पर पड़े खून के धब्बों को तेज-तेज सूंघने लगी। उसे तुरंत पता चल गया कि उसके शावक को क्या हो गया है। क्रोध और संताप से उसकी आंखें सुर्ख हो गईं। दहाड़ मारकर वह उस दिशा में चल पड़ी जिस दिशा में रामसागर बढ़ा था।

उधर रामसागर पगडंडी पर चला जा रहा था। अचानक उसे एक बैलगाड़ी की आवाज सुनाई दी। यह सोचकर कि उसमें बैठकर गांव तक आराम से पहुंचा जा सकता है, वह गाड़ीवान को पुकारते हुए बेलगाड़ी की ओर दौड़ने लगा। उसके भाग्य अच्छे थे कि वह रीछनी के उस तक पहुंचने से पहले ही गाड़ी में चढ़कर बैठ गया।

यदि बैलगाड़ी वहां नहीं आती तो रीछनी रामसागर को वहीं फाड़कर रख देती। लेकिन बैलगाड़ी की उपस्थिति ने उसे निरुत्साहित कर दिया। वह झाड़ियों में छिपकर अपने बच्चे के हथियारे को बच निकलते हुए देखती रही। बैलगाड़ी पर पटके गए बोरे में उसे अपने नन्हे शिशु की मौत में खुली आंखें धुंधली सी दिखाई दे रही थीं। बैलगाड़ी के आंखों से ओझल होने तक वह उदास मन से अपने शावक को देखती रही।

इस घटना के बाद कई महीने गुजर गए। एक शाम रामसागर दोबारा इसी पगडंडी से जा रहा था। इस बार उसकी वेशभूषा एकदम बदली हुई थी। न तो उसके कंधों पर कोई खून से सना बोरा या बंदूक लटक रहा था, न ही वह शिकारियों की लिबास में था। वह एक साफ-सुथरी धोती और कुर्ता पहना हुआ था। उसके सिर पर लाल रंग का साफा बंधा था। उसके पीछे उसकी स्त्री और आठ साल का लड़का भी चल रहे थे। शाम ढलने लगी थी। रामसागर रात होने से पहले घर पहुंचना चाहता था। वह जानता था कि जंगल में अंधेरा बड़ी जल्दी घिर आता है। अभी उसे कुछ मील का रास्ता तय करना बाकी था। रात होते ही जंगल के खूंखार जानवर अपनी मांदों से शिकार की टोह में निकल आएंगे। वह उनसे कोई मुठभेड़ नहीं चाहता था। उसने अपनी पत्नी और लड़के को तेज चलने की हिदायत दी और वे तीनों लगभग भागते हुए उस पगडंडी पर बढ़ने लगे।

जैसे ही वे उस मोड़ पर पहुंचे जहां कुछ माह पहले रामसागर ने भालू के बच्चे का कत्ल किया था, एक काली परछाई उनके साथ हो गई। वह एक भालू था। भालू चुपचाप उन तीनों के पीछे चलने लगा और हर कदम पर उनके निकट आता गया। तब तक जंगल में अंधेरा लगभग पूरा-पूरा छा गया था, चेहरे के आगे बढ़ाए गए हाथ को देखना भी मुश्किल था।

अचानक भालू ने हमला कर दिया। अंधेरे के कारण रामसागर उसे तभी देख पाया जब वह उसकी चपेट में आ गया था। भालू अपने पिछले पैरों पर खड़ा हो गया और रामसागर को अपने दोनों हाथों में भींचकर उसके सिर को अपने विशाल जबड़ों में दबाकर कुचल दिया। रामसागर को इस प्रकार मार कर रीछ क्रोध से चीखता हुआ रामसागर के बेटे पर झपटा। वह बेचारा रामसागर की चीखों और भालू के दहाड़ों से घबराकर अपनी मां से लिपट गया था। रीछ ने उसे अपने जबड़ों में पकड़ कर खींचा और उसे चबा डाला। रामसागर की पत्नी इतनी भयभीत हो गई थी कि वह मूर्तिवत खड़ी होकर विस्फारित नजरों से इन सब वीभत्स दृश्यों को देखती रही। रीछ बारी-बारी से रामसागर और उसके अभागे पुत्र की लाशों की ओर बढ़-बढ़कर उन्हें चबाने और उन्हें पंजों से नोचने लगा। कुछ ही समय में सारी पगडंडी उन दोनों के मांस और खून से पुत गई। इसके बाद भालू पुनः अंधेरे में गायब हो गया। भालू के जाते ही रामसागर की विधवा को होश आया। न जाने भालू ने क्यों उसका बाल भी बांका नहीं किया था। वह पागलों की तरह चीखती-रोती हुई गांव की तरफ भागी।

एक बड़ी भीड़ मशालों और हथियारों से लैस होकर भालू की खोज में निकल पड़ी। भालू के उग्र तेवर को जानकर वे सब सहमे हुए थे। मामूली सी खोजबीन करके वे गांव लौट आए। अपने साथ रामसागर और उसके पुत्र के अवशेषों को भी दाह संस्कार के निमित्त सफेद चादरों में लपेट कर ले आए। इसके बाद कई शिकारी दलों ने कई दिनों तक भालू की खोज की, पर किसी को भी उसका कोई अता पता नहीं मिल सका।

अब तो गांववालों में उस भालू को लेकर अनेक मनगढ़ंत कहानियां चल पड़ी हैं। कोई कहता है कि यह वही रीछनी थी जिसे रामसागर ने उस दिन इतनी बेदर्दी से घायल कर दिया था। बदले की भावना उसके दिल में तभी से सुलग रही थी और रामसागर को जंगल में निहत्था पाकर उसने महीनों से अपने जेहन में दबाए हुए आक्रोश को निकाल लिया था। दूसरे कुछ लोग कहते हैं कि वह रीछनी तो उसी दिन अपने घाव और अपने शावक की मौत के दुख से मर गई थी। जिस भालू ने रामसागर पर हमला किया था, वह उसी रीछनी का प्रेत था। इस मत के समर्थक ठीक ही पूछते हैं कि यदि ऐसा नहीं है तो उसने रामसागर पर हमला करने वही स्थान क्यों चुना जहां वह कुछ महीने पहले रामसागर के हाथों घायल हुई थी और उसने रामसागर की स्त्री को क्यों बख्शा?

0 Comments:

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट