Thursday, May 28, 2009

वेद-पुराणों का गुजरात

यद्यपि पुराणों की कथाओं को सही अर्थ में ऐतिहासिक तथ्य नहीं माना जा सकता क्योंकि पुराण उनमें वर्णित घटनाओं के घटने के हजारों वर्ष बाद लिखे गए हैं और उनका मूल उद्देश्य इतिहास का वर्णन करना नहीं बल्कि धार्मिक है, फिर भी पुराणों के सूक्ष्म अध्ययन से अनेक ऐतिहासिक घटनाओं के संकेत मिलते हैं। इतना ही नहीं, आज से हजारों साल पहले की घटनाओं के बारे में जानने के लिए इन प्राचीन ग्रंथों के अलावा और कोई स्रोत हैं भी नहीं। गुजरात के प्राचीन इतिहास के संबंध में तो यह और भी अधिक सच है। इसलिए गुजरात के संबंध में पुराणों व अन्य प्राचीन ग्रंथों में जो उल्लेख आए हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व है।

पुराणों के अनुसार वैवस्वत मनु वर्तमान मन्वंतर का प्रथम राजा था। जब उसने अपने पुत्रों में अपने राज्य का बंटवारा किया तो गुजरात प्रदेश शर्याति के हिस्से में आया। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार शर्याति के पुत्रों ने भार्गव च्यवन से दुश्मनी मोल ली और च्यवन ने उनमें आपसी वैर के बीज बो दिए। बूढ़े च्यवन को प्रसन्न करने और इस दुश्मनी को खत्म करने के लिए शर्याति ने अपनी सुंदर पुत्री सुकन्या का च्यवन से ब्याह करा दिया। पुराणों में ही नहीं, ऋग्वेद में भी अश्विन देवों के अनुग्रह से च्यवन ऋषि के पुनर्यौवन प्राप्त करने की कथा आई है। पुराणों के अनुसार शर्याति वलभीपुर में रहता था और च्यवन ऋषि का आश्रम नर्मदा के किनारे था। इन सब कथाओं से इस बात का संकेत मिलता है कि सौराष्ट्र में शर्याति तथा नर्मदा किनारे भार्गवों का वर्चस्व था और इन दोनों में पहले विग्रह और बाद में संधि हुई थी।

शर्याति का अनार्त नाम का एक पुत्र था। इसी के नाम पर इस प्रदेश का नाम अनार्त पड़ा। अनार्त के पुत्र का नाम रेव था जिस पर से नर्मदा नदी का एक अन्य नाम रेवा भी है। अनार्त की संतति अनार्त पर राज करती थी और उनकी राजधानी कुशस्थली थी। रेव के पुत्र रैवत कुकुद्मी के समय में पुण्यजन राक्षसों ने कुशस्थली का नाश किया।

कृष्ण-बलराम पांडवों के समकालीन थे। पुराणों के अनुसार वैवस्वत मनु से पांडवों तक के कालखंड में उत्तर भारत में पौरव वंश में 49 राजा और यादव वंश में 58 राजा हुए। इतने लंबे काल के लिए पुराणों से हमें अनार्त के केवल चार राजाओं का पता चलता है। बाकी सबकी स्मृति काल के ग्रास हो गई है। शर्यात, अनार्त और रैवत जैसे कुलों से अनार्त में तीन अलग-अलग वंश चले। उदाहरण के लिए शर्यात आगे चलकर हैहयों की एक शाखा के रूप में जाने जाने लगे।

नर्मदा जहां समुद्र से मिलती है, वहां के भरुकच्छ प्रदेशों को भृगुओं ने अपने निवास के लिए चुना। तब से यह प्रदेश तथा उनके द्वारा वहां स्थापित नगर का नाम भृगुकच्छ (वर्तमान में भरूच) हो गया। भार्गव च्यवनों का आश्रम नर्मदा के मुख के समीप या असित पर्वत पर था, जो भी नर्मदा के मुख के पास ही था। पद्मपुराण के अनुसार च्यवन के पुत्र दधीची का आश्रम साबरमती और चंद्रभागा नदियों के संगम स्थल पर था। इसी के पास गांधी जी ने अपना साबरमती आश्रम स्थापित किया। दधीची के भाई आत्मवान के वंश में और्व, ऋचीक और जमदग्नी हुए। भरुकच्छ के पूर्व में स्थित अनूप देश में हैहय कुल के यादवों का राज था। इनकी राजधानी माहिष्मती नर्मदा के ऊपरी इलाके (आज के मध्य प्रदेश) में थी। महिष्मती के हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने भृगुकुल के ऋषि जमदग्नी के आश्रम में उपद्रव मचाया, जिसके बदले जमदग्नी के पुत्र राम ने अर्जुन का वध किया। राम की गैरहाजिरी में अर्जुन के पुत्रों ने जमदग्नी की हत्या की। अपने पिता की हत्या का बदला राम ने अर्जुन के इन पुत्रों को मौत के घाट उतारकर लिया। पुराणों में वर्णित इस कथा से लगता है कि भरुकच्छ प्रदेश के भार्गवों और अनूप देश के हैहयों के बीच लंबे समय तक भीषण संघर्ष चला था।

कौरवों के समान यादवों का वंश भी अति प्राचीन है। ऋग्वेद में यदुओं और तुर्वशुओं का अनेक बार उल्लेख हुआ है। पुराणों में यदु और तुर्वशु को ऐल वंश के राजा ययाति और राक्षसगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी की संतति बताया गया है। यदु के वंश में हैहय, विदर्भ, चेदी, सात्वत, भोज, कुकुर, अंधक, वृष्णी, शिनि आदि अनेक कुल हुए हैं। कुकुर कुल के वृद्ध राजा उग्रसेन से उसके पुत्र कंस ने सत्ता छीन ली और वृष्णी कुल के शूर के पुत्र वासुदेव को जेल में डाल दिया। वसुदेव की पत्नी देवकी उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री थी। देवकी के पुत्र कृष्ण ने जुल्मी राजा कंस को मारकर अपने माता-पिता को जेल से छुड़ाया और उग्रसेन को राज पदवी लौटाई। इससे कंस का ससुर मगध का प्रतापी राजा जरासंध ने मथुरा पर बारबार आक्रमण करना शुरू किया। इन आक्रमणों से तंग आकर यादवों ने मथुरा त्याग दी और सौराष्ट्र में आ गए। यहां उन्होंने रैवत के समय की कुशस्थली के पुण्यजनों को वहां से खदेड़कर जीर्णशीर्ण किले की मरम्मत करके वहां बस गए। उन्होंने जो नई नगरी बसाई वह द्वारवती अथवा द्वारका के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह नगरी अतिविशाल थी और उसका किला इतना अजेय था कि स्त्रियां भी उसकी रक्षा कर सकती थीं। पुराणों के अनुसार समुद्र से लगभग घिरी इस नगरी के पूर्व में रैवतक गिरि थी और वह एक बड़ी नदी के मुख के पास स्थित थी। कृष्ण के जीवनकाल के अंतिम भाग में यह नगरी समुद्र में डूब गई।

आदि शंकराचार्य ने देश के चार दिशाओं में जो चार मठ स्थापित किए, उनमें से एक, यानी पश्चिमी दिशा वाला मठ, सौराष्ट्र के प्रायद्वीप में स्थित द्वारका तीर्थ में है। लेकिन महाभारत, हरिवंश, भागवत आदि ग्रंथों में द्वारका के जो विवरण आए हैं, उनका मेल इस द्वारका से नहीं बैठता। मुख्य त्रुटि यह है कि इस द्वारका के पास कहीं भी रैवतक गिरी का पता नहीं चलता। प्रभास से भी यह काफी दूर है। पुरातात्विक खनन से पता चला है कि यहां कई प्राचीन बस्तियां रही हैं जो बाढ़ में नष्ट हुईं। परंतु इनमें से प्राचीनतम बस्ती का काल ईसापूर्व पहली-दूसरी शताब्दी से पहले का नहीं है, जबकि कृष्ण का समय इससे कई सदी पहले का है। जूनागढ़ के पास एक मजबूत किले के अवशेष मिले हैं जो रैवतक गिरि और प्रभास के समीप है। कई विद्वानों ने इसे ही मूल द्वारका बताया है। परंतु यह समुद्र से काफी दूर है।

यादव कुल के उद्धव, अक्रूर, कृतवर्मा, ययुधान आदि अनेक योद्धा थे पर ये सब कृष्ण के आधिपत्य को स्वीकार करते थे। महाभारत, हरिवंश पुराण, भागवत आदि प्राचीन ग्रंथों में कृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। बलराम और कृष्ण वसुदेव के पुत्र थे। पांडवों की माता कुंती इनकी फुई थी। कुशस्थली के रैवत राजा ने अपनी पुत्री रेवती का ब्याह बलराम से कराया था। विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी की इच्छा के विरुद्ध उसका भाई रुक्मी चेदी राज शिशुपाल से उसका ब्याह कराना चाहता था। रुक्मिणी से गुप्त संदेश मिलने पर कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण किया और उससे विवाह किया। रीछपति जांबवंत ने वृष्णीकुल के राजा सत्राजित से स्यमंतक मणि छीन लिया था। जांबवंत को हराकर कृष्ण ने सत्राजित को स्यमंतक मणि लौटाया और जांबवंत की पुत्री जांबवंती से विवाह किया। मणि वापस मिलने से प्रसन्न होकर सत्राजित ने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह कृष्ण से कराया। गंधार, अवंति, कोसल और मद्र की राजकन्याओं से भी विवाह संबंध जोड़कर कृष्ण ने भारत के अनेक शक्तिशाली कुलों को अपने अनुकूल रखा। कृष्ण ने रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न का विवाह उसके मामा रुक्मी की कन्या से कराया। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध ने शोणितपुर के राजा बाम की पुत्री उषा से ब्याह किया। बलराम ने जांबवंती के पुत्र सांब का विवाह दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा से कराया। इस प्रकार कृष्ण के कुटुंब में अनेक कुलों की राजकन्याओं का एकत्रीकरण हुआ। इनमें से उषा (ओखा) ने एक नए प्रकार के लास्य-नृत्य का विकास किया। प्रागज्योतिषपुर के नरकासुर को मारकर कृष्ण ने इसके द्वारा बंदी बनाए गए 16,000 कन्याओं को छुड़ाया। सौभनगर के राजा शाल्व ने कृष्ण की गैरहाजिरी में द्वारका पर चढ़ाई की। कृष्ण ने उसी समय शाल्व की नगरी पर आक्रमण करके उसका वध किया। अपने प्रतिस्पर्धी पौंड्रक वासुदेव को भी कृष्ण ने मारा और अपने पौत्र अनिरुद्ध को कैद करनेवाले बाणासुर को हराया।

कुरु कुल के पांडवों के साथ कृष्ण का संबंध काफी घनिष्ट था। द्रौपदी के साथ पांडवों के विवाह के अवसर पर कृष्ण ने पांडवों को भेंटें भेजीं। खांडववन को जलाकर इंद्रप्रस्थ बसाने में कृष्ण ने अर्जुन की मदद की। वनवास के दौरान अर्जुन कृष्ण से मिलने द्वारका आया। अर्जुन ने कृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया। युद्धिष्ठर को राजसूय यज्ञ करने की प्रेरणा भी कृष्ण ने ही दी और भीम से मगधराज जरासंध का वध कराकर पांडवों के दिग्विजय का मार्ग सरल बनाया। राजसूय यज्ञ में युद्धिष्ठर द्वारा कृष्ण को वरीयता देने का विरोध करनेवाले चेदिराज शिशुपाल का कृष्ण ने वध किया।

द्यूत का खेल हारकर 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष के गुप्तवास के बाद जब पांडवों ने दुर्योधन से अपना राज्य वापिस मांगा तो दुर्योधन ने राज्य देने से इन्कार कर दिया। इससे दोनों में युद्ध की नौबत आई। कृष्ण ने मध्यस्थ करके युद्ध रोकने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु जब दुर्योधन के हठ के कारण युद्ध अनिवार्य हुआ तो कृष्ण और बलराम की स्थिति कांटे की हो गई क्योंकि दोनों पांडव और कौरव उनके लिए आत्मीय थे। अंत में बलराम तटस्थ रहकर तीर्थाटन पर निकल पड़ा और कृष्ण ने शस्त्रसंन्यास लिया, यद्यपि अर्जुन के सारथी के रूप में युद्ध में भाग लेकर अपने कूट उपदेशों से उन्होंने पांडवों को विजयी बनाया। युद्ध प्रारंभ होने से पहले अर्जुन को गीता का उपदेश देकर कृष्ण ने उसका उत्साह बढ़ाया। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने जो अश्वमेध यज्ञ किया उसमें कृष्ण ने भाग लिया।

अंत में यादव वीर प्रभास के पास आपस में लड़ मरे और कृष्ण को द्वारका नगरी के डूबने का अंदेशा हुआ। इसलिए सभी यादव स्त्रियों और बच्चों को इंद्रप्रस्थ ले जाने के लिए अर्जुन को बुलाया और बूढ़े नागरिकों को वानप्रस्थ ग्रहण करने की आज्ञा दी। बूढ़े हो चले अर्जुन को रास्ते में आभीरों ने लूटा और अनेक यादव स्त्रियों को उठा ले गए। हस्तिनापुर आकर अर्जुन ने कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके कुछ ही समय बाद कृष्ण ने प्रभास के पास देहोत्सर्ग किया।

पुराणों में अर्जुन और कृष्ण को नर और नारायण के अवतार के रूप में चित्रित किया गया है। आगे चलकर वैष्णवों ने कृष्ण को भगवान विष्णु के पूर्णावतार के रूप में स्वीकारा।

यादवों में गणराज्य पद्धति का राजतंत्र चलता था। इसी कारण से राजसूय यज्ञ में शिशुपाल ने कृष्ण के राजा होने की शंका उठाई।

पुराणों के साक्ष्य पर इन यादवों के समय का निर्धारण करना टेढ़ी खीर है। पुराणों में बताया गया है कि महाभारत का युद्ध कलिकाल के आरंभ में हुआ था, यानी ई।पू। 3000 के आसपास। परंतु पुराणों में ही युधिष्ठर के उत्तराधिकारी परीक्षित का जन्म महापद्म नंद के अभिषेक से 1015 वर्ष पहले बताया है। यह नंद राजा ई।पू। चौथी सदी में हुआ था। इससे यादवों का समय ई।पू। चौदवीं-पंद्रहवीं सदी ठहरता है। पुराणों में बिंबिसार के पहले के राजाओं का जो शासनकाल बताया गया है उसके आधार पर महाभारत का समय ई पू 950 होता है। इस प्रकार द्वारका के यादवों के समय के बारे में कोई निश्चित मत प्रकट करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है।

4 Comments:

ताऊ रामपुरिया said...

आपने बिल्कुल सटीक ऐतिहासिक तथ्यों के साथ जानकारी दी. बहुत धन्यवाद.

रामराम.

Drmanojgautammanu said...

aapne ne jankari achhi di aur aap se sahamat hu ki itihas ke tathyon ka post martam karna hoga.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की कृष्णावतार श्रृंखला, लोपामुद्रा,परशुराम आदि उपन्यासों में भी उस काल की घटनाओं के बड़े जीवंत वर्णन मिलते हैं। मूल गुजराती के हिन्दी अनुवाद राजकमल प्रकाशन से छ्पे हैं। न पढ़ा हो तो अवश्य पढ़ें ।

सारी कथा को संक्षेप में कह देने के लिए साधुवाद,

Gyan Dutt Pandey said...

वाह, लगता है कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी का री-कैप कर रहे हों हम!

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