Friday, March 20, 2009

राज ठाकरे - उत्तर भारतीयों के हितैषी

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) अध्यक्ष राज ठाकरे के बयानों के फलस्वरूप मुंबई, नासिक व महाराष्ट्र के अन्य शहरों में उत्तर भारतीयों पर जो हमले हो रहे हैं वे आजकल सभी मीडिया चैनलों की सुर्खियों पर छाए हुए हैं। अमर सिंह, लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार आदि उत्तर भारत के नेता भी अखाड़े में कूद पड़े हैं और राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। कोई राज ठाकरे को बच्चा कह रहा है, कोई शैतान। गनीमत यही है कि स्वयं अमिताभ बच्चन ने, जिन पर राज ठाकरे के आक्षेपों से सारे कांड की शुरुआत हुई थी, बुद्धिमानीपूर्वक कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई है और इस तरह मामले को तूल देने में अपनी ओर से कोई योगदान नहीं किया है, यद्यपि जया बच्चन अपने कुछ बयानों से इस कसर को काफी हद तक पूरी कर चुकी हैं। अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों को भी इस मामले में खूब मजा आ रहा है क्योंकि कहीं भी हिंदी या हिंदी भाषियों का अहित होते देखकर उनकी बांछें खिल जाती हैं। पर जरा गहराई से विचार किया जाए तो राज ठाकरे हिंदी क्षेत्र का हितैषी ठहरते हैं।

अमिताभ बच्चन जैसे हिंदी भाषियों के प्रतीक-चिह्नों पर, स्वयं हिंदी भाषियों पर तथा उनके आर्थिक हितों पर किए गए हमलों से हिंदी भाषियों को अपनी जातीय एकता का एहसास होता है। देश के सभी अन्य भाषा-जातियों की तुलना में हिंदी भाषा में इस तरह की जातीय भावना की सर्वाधिक कमी है। यहां जाति शब्द ब्राह्मण, कुम्हार, मोची, चमार, बनिया आदि संकीर्ण अर्थ में व्यवहार नहीं किया गया है, वरन अंग्रेजी शब्द नेशनैलिटी के हिंदी पर्याय के रूप में किया गया है। भारत की राष्ट्रीय चेतना अनेक भाषा-जातियों की चेतना का सम्मिलित रूप है। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी कई किताबों में इस बात को काफी मेहनत से और काफी विस्तार से समझाया है। देखिए उनकी भाषा और समाज, हिंदी भाषा की समस्याएं, आदि किताबें (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली)। जातीय भावना के अभाव में हिंदी भाषी उसी तरह संगठित तरीके से अपना हित नहीं साध पाते हैं जिस तरह तमिल, मराठी या बंगाली। हिंदी भाषी अनेक राज्यों, दलों और संप्रदायों में बंटे रहकर अपनी शक्ति गंवा बैठे हैं। हालांकि हिंदी भाषी संख्या में और भौगोलिक विस्तार में भारत का सबसे विशाल जातीय समूह हैं और उनकी भाषा का विश्व में चीनी और अंग्रेजी के बाद तीसरा स्थान है, फिर भी इस देश में उन की एक नहीं चलती – असम जैसे राज्यों में उनका कत्लेआम होता है, तथा मुंबई जैसी महानगरी में वे खुलेआम पिटते हैं। इसका मुख्य कारण हिंदी भाषियों में संगठन की कमी है, जो उनमें जातीय भावना की कमी का ही परिणाम है।

इस जातीय भावना की कमी के कारण हिंदी क्षेत्र के नेता बिना सोचे-समझे अपनी ही भाषा-जाति का अहित कर बैठते हैं। हिंदी क्षेत्र दिन पर दिन अधिकाधिक नए राज्यों में बंटकर अपनी शक्ति खोता जा रहा है। अब उत्तर प्रदेश की दलित मुख्य मंत्रि मायावती पहले से ही टूटे हुए उत्तर प्रदेश को और चार टुकड़ों में बांटने की बात कर रही हैं। इसके विपरीत डा. रामविलास शर्मा ने संपूर्ण उत्तर भारत को, यानी संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र को, एक राजनीतिक इकाई बनाने की सिफारिश की थी, उसी तरह जैसे आज संपूर्ण मराठी भाषी क्षेत्र महाराष्ट्र के अंतर्गत या संपूर्ण तमिल क्षेत्र तमिलनाड के अंतर्गत संगठित किया गया है। रामविलास जी ने इस बात पर खूब खेद प्रकट किया है कि जहां भारत के बाकी हिस्सों में तो भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की नीति अपनाई गई, लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र में नहीं। इससे हिंदी भाषियों के जातीय विकास में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न हुई है।

दिलचस्प बात यह है कि जहां हिंदी भाषी स्वयं अपनी जातीय पहचान से बेखबर हैं, अन्य भाषा बोलनेवाले हिंदी जाति के अस्तित्व से भली-भांति परिचित हैं और उससे कुछ-कुछ आतंकित भी रहते हैं। राज ठाकरे के बयान इसका नवीनतम प्रमाण हैं। हिंदी क्षेत्र के बाहर के नेता इसलिए परेशान हैं कि अन्य सभी भाषाओं की तुलना में हिंदी बोलनेवाले संख्या में तथा भौगोलिक विस्तार में बहुत ही बड़े लगते हैं। इससे उन्हें लगता है कि कहीं हिंदी उन पर हावी न हो जाए। पर यह मात्र एक हौवा है। असली डर है अंग्रेजी द्वारा सभी अन्य भाषाओं का हक मारा जाना। इस बात को ठीक तरह से न समझने के कारण ही ये नेता हिंदी के विरुद्ध आंदोलन करते रहते हैं और अंग्रेजी के विरुद्ध कभी कुछ नहीं बोलते। इससे अंग्रेजी को चुपके से उनके क्षेत्र में पांव फैलाकर उनकी भाषाओं को कमजोर करने का मौका मिल जाता है। यह कुछ-कुछ उसी तरह हो रहा है जैसे औपनिवेशिक काल में भारतीय राजा असली दुश्मन अंग्रेजों से न लड़कर आपस में लड़ते रहे थे और अंग्रेज चुपके से एक-एक करके उन्हें हराते हुए पूरे देश की छाती पर चढ़ बैठने में सफल हो गए थे। इसी तरह आज अंग्रेजी ने सभी भारतीय भाषाओं को दोयम स्तर पर उतार दिया है। किसी भी राज्य में, चाहे वह तिमलनाड हो या बंगाल या महाराष्ट्र प्रशासन, उच्च शिक्षा, व्यवसाय, न्यायालय आदि में वहां की भाषा का प्रयोग नहीं होता है। सभी जगह अंग्रेजी ही विराजमान है। रामविलास जी ने इस कटु सत्य की ओर भी अपनी पुस्तकों में इंगित किया है। उनकी सलाह है कि सभी भाषाओं को संगठित होकर अंग्रेजी के विरुद्ध मोर्चा चलाना चाहिए, तभी इस देश में अंग्रेजी का प्रभाव कम होगा।

रामविलास जी हिंदी क्षेत्र के ही नहीं समूचे भारत के इस शताब्दी के सर्वोच्च विचारक हैं। उन्हें प्राचीन काल के महान ऋषियों की परंपरा में रखना चाहिए। अट्ठासी वर्ष के दीर्घ जीवनकाल में उन्होंने निरंतर चिंतन-मनन करते हुए एक के बाद एक उत्कृष्ठ ग्रंथ रचे हैं जिनमें उन्होंने आधुनिक भारत की सभी प्रमुख समस्याओं पर गहराई से विचार करके अत्यंत व्यवहारिक और सर्वहितकारी समाधान सुझाए हैं। उनकी अचूक कसौटी रही है मार्क्सवादी दर्शन, जिसके आधार पर ही वे सभी समस्याओं को परखते हैं। मार्क्सवादी दर्शन में उनकी पैठ इतनी गहरी है कि वे स्वयं मार्क्स और ऐंजेल्स की गलतियों, खामियों और असंगतताओं पर खुलकर चर्चा करने का साहस रखते हैं। पर मार्क्स के प्रति उनकी अनन्य भक्ति है क्योंकि मार्क्स का दर्शन शक्तिहीनों को शक्ति देता है और मानव समाज की असमानताओं को दूर करता है, यही रामविलास जी के संपूर्ण जीवन का भी ध्येय रहा है।

रामविलास जी के लेखन का एक सकारात्मक पहलू यह है कि हालांकि वे समाज की बड़ी-बड़ी और असाध्य सी लगनेवाली समस्याओं पर विचार करते हैं, फिर भी कहीं भी आशाहीनता, आत्मघात, प्रतिशोध, आदि नकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा नहीं देते। सदा आशावादी रहते हुए वे व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने लगभग 80 बड़े-बड़े ग्रंथ रचे हैं जिनमें उन्होंने सांप्रदायवाद, हिंदी की जातीय अस्मिता, हिंदी उर्दू का मसला, हिंदी साहित्य, हिंदी साहित्यकारों का सही मूल्यांकन, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा नस्लवाद से प्रेरित होकर फैलाए गए अनेक भ्रांत धारणाओं का खंडन जैसे विषय लिए हैं।

पाश्चात्य विद्वानों ने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के लिए नैतिक आधार तैयार करने की दृष्टि से तथा नस्लवादी विचारधारा से अंधे होकर भारत, भारत की भाषाएं, भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में अनेक भ्रांत धारणाएं फैलाई थीं। ये धारणाएं आज भी हमारे चिंतन, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों तथा विचारकों को गुमराह कर रही हैं। इन भ्रांत धारणाओं से छुटकारा पाकर नए सिरे से हमारी भाषाओं, सभ्यता, संस्कृति आदि पर विचार करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। रामविलास जी पिछले 60-70 वर्षों से यही करते आ रहे थे।

हमारे देश में आज भी बच्चे स्कूलों में ऐसी भ्रांत धारणाएं सीखते हैं, जैसे, आर्य बाहर से भारत में आए, आर्यों ने द्रविड़ों को जीतकर उन्हें गुलाम बनाया, दक्षिण और उत्तर भारत में नस्लीय वैमनस्य है, हिंदी आदि भाषाएं संस्कृत की पुत्रियां हैं, संस्कृत लैटिन, ग्रीक आदि यूरोपीय भाषाओं से प्रभावित हुई है, ऋग्वेद भारत के बाहर कहीं लिखा गया था, आर्यों का मूल स्थान कहीं मध्य एशिया में था, इत्यादि। रामविलास जी ने इन सब तथा इस तरह की अनेक अन्य धारणाओं को भ्रांत, नस्लवाद-प्रेरित और भारतीय सभ्यता के समुचित विकास के लिए हानिकारक सिद्ध किया है।

उदाहरण के लिए, रामविलास जी ने अनेक अकाट्य तर्कों से प्रमाणित किया है कि आर्य लोग कहीं और से भारत नहीं आए हैं, बल्कि भारत के ही मूल निवासी हैं। रामविलास जी ने अंतिम दस वर्ष भाषा-विज्ञान पर गहन अध्ययन करते हुए बिताया। उन्होंने भाषा-विज्ञान को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त करके पाणिनी, किशोरीदास वाजपेयी जैसे भारतीय विद्वानों द्वारा प्रशस्त किए गए देशी मार्गों की ओर पुनः मोड़ने का भरसक प्रयास किया है। रामविलास जी मानते हैं कि ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि समेत अनेक यूरोपीय भाषाएं संस्कृत, हिंदी, तमिल आदि भारतीय भाषाओं से खूब प्रभावित हुई हैं। जर्मन की तुलना में रूसी तथा अन्य स्लाव भाषाएं संस्कृत और भारत की अन्य भाषाओं के अधिक निकट हैं। उनके अनुसार यह धारणा गलत है कि भारत की आधुनिक भाषाएं संस्कृत की पुत्रियां हैं। इसके विपरीत रामविलास जी कहते हैं कि संस्कृत तथा सभी भारतीय भाषाएं एक ही स्तर की भाषाएं हैं, यानी अन्य भारतीय भाषाएं भी संस्कृत जितनी ही पुरानी हैं। जिस तरह हिंदी क्षेत्र की अनेक बोलियों (ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, अवधी, आदि) में से निकलकर हिंदी समस्त हिंदी क्षेत्र की संपर्क भाषा बन गई है, उसी तरह संस्कृत भी उत्तर भारत की अनेक बोलियों में से एक थी जो समस्त क्षेत्र की प्रमुख भाषा बन गई है। इसी तरह आधुनिक यूरोपीय भाषाएं लैटिन की पुत्रियां न होकर स्वतंत्र भाषाएं हैं जिनका अस्तित्व उतना ही पुराना है जितना लैटिन का है।

ऋग्वेद के संबंध में भी रामविलास जी की अपनी धारणाएं हैं। वे उसे आध्यात्मिक कम और सामाजिक दस्तावेज अधिक मानते हैं। उसमें उन्हें आदिम समाजवाद के स्पष्ट लक्षण मिलते हैं। ऋग्वेद के ऋषि शारीरिक मेहनत से परहेज न करते थे, और उनमें जातिभेद न था। वे कुम्हार, कृषक, लुहार, बढ़ई आदि सभी पेशे में संल्गन रहते हुए ऋचाएं रचते हैं। स्वयं ऋषि शब्द की रामविलास जी ने बहुत ही रोचक व्युत्पत्ति बताई है। उनके अनुसार यह कृष धातु से बना है जिसका मतलब होता है, खींचना, अर्थात खेत में हल खींचना। जो यह काम करता है वह हुआ ऋषि, अर्थात, ऋषि का मतलब है किसान! ऋग्वेद के सर्वहारापन का इससे बढ़कर क्या प्रमाण हो सकता है!

आजकल के संकीर्णदृष्टिवाले नेता देश को धर्म, संप्रदाय, भाषा, जाति आदि के नाम पर बांटने पर तुले हैं। रामविलास जी ने सही दिशा दिखाई है कि देश के विभिन्न धर्मों, भाषाओं, संप्रदायों और जातियों को एक करके मजबूत राष्ट्र का निर्माण करने का एकमात्र तरीका भाषा-जातियों के आधार पर समुदायों को संगठित करना है। धर्म, संप्रदाय, जाति आदि संकीर्ण दायरों को लांघकर भाषा लोगों को जोड़ती है। उदाहरण के लिए, हिंदी बोलनेवालों में हिंदू भी हैं, मुसलमान भी, सिक्ख भी, इसाई भी, किसान भी उद्योगपति भी, महिलाएं भी पुरुष भी, अमीर भी गरीब भी। इस तरह हिंदी के मंच पर इन सबको संगठित किया जा सकता है। यही एकमात्र शक्ति है जो आजकल की राजनीतिक दलों द्वारा फैलाए जा रहे सांप्रदायिक विष को निरस्त कर सकती है।

तमिल, बंगला आदि भाषाओं ने भाषा के आधार पर अपनी जाति का संगठन भली-भांति कर लिया है। पीछे रह गया है सिर्फ हिंदी जाति का क्षेत्र, जो अज्ञान, फूट, अशिक्षा, कुस्वास्थ आदि के कुहरे तले तड़प रहा है। उसे ऊपर उठाने के लिए सभी हिंदी भाषियों में जातीय चेतना जगाना बहुत जरूरी है। आज हिंदी भाषियों को बिहारी, हरियाणवी, उत्तर प्रदेशी, झारखंडी आदि अनेक खेमों में बांटकर उनको कमजोर करने की साजिश रची जा रही है। जरूरत है सभी हिंदी भाषियों को एक करने की। यदि पचास करोड़ हिंदी भाषी एक हो जाएं, तो दुनिया की कोई भी ताकत भारत को कमजोर नहीं कर पाएगी।

राज ठाकरे ने हिंदी भाषियों की जातीय चेतना जगाकर उन्हें एक करने में योगदान किया है। इसके लिए हमें उनके प्रति आभार प्रकट करना चाहिए।

2 Comments:

कुन्नू सिंह said...

मै अपना हिन्दी नही सूधार सकता। असमर्थ हूं।

मैने ब्लाग डीलीट कर दिया था और पोस्ट के बैकप बना लीये थे पर कमेंट के नही बना पाया। और मै अपने 80 पोस्ट भी खो दिये :(

कई सालो से लोग कहते आए हैं की सूधार लो और मैने कई बार सोचा की हिन्दी सूधार लूं पर कूछ नही कर सका।


एसे ही लिखते रहीये कभी ना कभी लोगो की आख खूलेगी और राज ठाकरे जैसे नेताओ को देश के बाहर काली घाटी के पास जो जंगल है वहां उनहे छोड के आएंगे।

कुन्नू सिंह said...

आज मै आपका ईमेल पढ कर बहुत प्रभावीत हूवा।
मैने आपका लेख पहले ही पढ लीया था। मै कमेंट लीख रहा था उसके बाद प्रकाशित पर क्लिक करने पर कूछ भी नही आ रहा था।

फीर मै परेसान हो कर ईंगलीस मे लीख दिया।

मै आपके ब्लाग का फिड डाल लेता हूं ताकी मै और अन्य लोग आपका लेख पढ सके।

बहुत बढीया, और ईंगलीस या अन्य भाषा को टिप्पणी मे नही दिखाने वाला नियम भी मूझे बहुत अच्छा लगा। मै बता नही सकता, आपका ईमेल पढ कर सच मे मेरा दिमाग बदल गया है।

आप सही कह रहे हैं की अन्य भाषा वाले लोग अपनी भाषा को बहुत ज्यादा पसंद करते हैं।


वरूण के उप्पर भी लिख सकते हैं क्यो की कोई तो नेता आया जिसने हिन्दू का खूल कर समर्थन किया।

अंग्रेजी तो दूनीया भर मे छा गई है। अब सायद कूछ नही कर सकते हैं। अंग्रेजो ने ही तो भारत को तोडा। पर उनको भी धन्यवाद देना चाहीये क्यो की अगर भारत गूलाम नही बनता तो सायद आज हमारी हालत बांगला देश से भी बेकार होता

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट