अपने इकलौते बेटे की सफेद चादर में लिपटी लाश को हाथों में लिए दरोगाजी मरघट की ओर बढ़ रहे थे। उनकी लाल-लाल आंखों से अनवरत बहती अश्रु-धाराओं से उनकी बड़ी-बड़ी मूंछों का एक-एक बाल पोर-पोर तक भीग गया था।
वे पल भर के लिए भूल गए थे कि जिस पर वे अपना हाथ चला रहे हैं, वह जेल का कोई मुजरिम नहीं बल्की स्वयं उनकी अपनी संतान है। उनके पूरे हाथ की मार लगते ही पांच साल के उस लड़के का सिर तरबूज की तरह फट गया था और वह कटे पेड़ के समान उनके सामने गिर कर मर गया था।
Tuesday, March 31, 2009
पहचान की चूक
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: लघु कथा
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1 Comment:
उसने अपनी आदत के मुताबिक ही अपना हाथ चलाया होगा. हाथ तो conditioned रहा होगा.
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