Sunday, March 08, 2009

बैंगलूर की स्त्री नुमाइश और स्त्री उन्नति

पिछले कई दिनों से अमिताभ बच्चन भारतीय संस्कृति के राजदूत की नई छवि में अपने-आपको देखने लगे हैं, हालांकि भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने से उनका तात्पर्य है कुछ फूहड़ और बेसिरपैर के गीतों का वीडियो चित्रांकन करना, भारतीय फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करना और देश-विदेश की सुंदरियों की बैंगलूर में नुमाइश करवाना।

उनके इस पिछले प्रयास को लेकर देश के महिला संगठनों ने खूब हंगामा किया है और कहा है कि इससे भारतीय संस्कृति की जड़ें खोखली हो रही हैं। इस नुमाइश को वित्तीय समर्थन देनेवाले एक औद्योगिक घराने के शोरूम में घुसकर कुछ महिलाओं ने वहां तोड़-फोड़ की और नुमाइश का विरोध करते हुए चेन्नै (मद्रास) में एक युवक ने अपने आपको जला डाला।

महिला आंदोलन के भी अनेक स्तर हैं और यह कहना उचित न होगा कि सभी ने इस नुमाइश का विरोध किया है। पश्चिमी विचारधाराओं से प्रेरित उच्च मध्यम वर्ग की महिलाओं ने इस नुमाइश का स्वागत किया है। वैसे भी यह वर्ग अब दो-एक पीढ़ियों से भारतीय संस्कृति से दूर हट चुका है और इसके आदर्श, मूल्य, नैतिकता एवं रहन-सहन काफी पश्चिमीकृत हो चुका है। सती-सावित्री का आदर्श इस वर्ग की महिलाओं को उत्साहित नहीं करता। इसके विपरीत ये महिलाएं इस तरह के आदर्शों से सख्त नफरत करती हैं और चाहती हैं कि ये आदर्श देश के मानस से जितनी जल्दी मिट जाएं उतना ही अच्छा क्योंकि ये ही आदर्श महिला-उन्नति के मार्ग का सबसे विकट रोड़ा है। जब तक ये आदर्श बने रहेंगे तब तक भारतीय महिलाएं पश्चिमी महिलाओं के समान स्वतंत्र एवं शक्तिशाली नहीं बन सकेंगी।

समृद्ध पश्चिमीकृत महिलाएं जानती हैं कि अमिताभ बच्चन द्वारा आयोजित स्त्री नुमाइश महिलाओं की स्वतंत्र छवि को उभारने में और परंपरागत आदर्शों को कमजोर करने में सहायक होगी। इसके साथ-साथ इस वर्ग की महिलाओं के लिए इस नुमाइश का आर्थिक पहलू भी महत्वपूर्ण है। आजकल मोडेलिंग एक अत्यंत मुनाफेदार पेशा बन गया है। स्त्री नुमाइश इस पेशे को काफी प्रोत्साहन देता है। स्त्री नुमाइश में भाग लेनेवाली भारतीय नारियां पश्चिमीकृत उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों की ही होती हैं। इन्हें बाद में फिल्मों में तथा मोडेलिंग पेशे में स्थान मिलने की काफी उम्मीद रहती है। बैंगलूर की नुमाइश के बाद अन्य औद्योगिक घराने भी इस तरह की नुमाइशें देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में आयोजित करेंगे, जिससे मोडेलिंग के पेशे को काफी प्रोत्साहन मिलेगा। इन नुमाइशों का आयोजन करनेवाला एक बहुत बड़ा वर्ग भी पैदा हो जाएगा, जो धीरे-धीरे एक फलते-फूलते उद्योग में बदल जाएगा। ब्राजील आदि दक्षिण अमरीकी देशों में ऐसा पहले ही हो चुका है।

देश की आर्थिक-राजनीतिक क्षितिज में बैंगलूर एक नए शक्ति केंद्र के रूप में उभर रहा है, खास करके तब से जबसे कर्णाटक राज्य, जिसकी बैंगलूर राजधानी है, का एक व्यक्ति देश का प्रधान मंत्री बन गया है। अतः बैंगलूर शहर के आर्थिक तंत्र में जिन लोगों का निहित स्वार्थ है, वे भी इस अंतरराष्ट्रीय नुमाइश को काफी तरजीह दे रहे हैं क्योंकि इससे बैंगलूर शहर को मुफ्त में अंतरराष्ट्रीय पब्लिसिटी मिलेगी, जिससे वहां नए उद्योग और विदेशी पूंजीपति आएंगे। मौजूदा उद्योगों को भी भारी फायदा होगा।

इस तरह इस नुमाइश का विरोध पश्चिमीकृत महिला संगठनों या उद्योगों से नहीं हो रहा। इसका विरोध कर रहे हैं, कुछ राजनीतिक संगठनों से जुड़े महिला संगठन। दक्षिण में हिंदुत्व पार्टियां अब तक जम नहीं पाई हैं, यद्यपि कर्णाटक में उनकी स्थिति अन्य दक्षिणी राज्यों से कुछ बेहतर है। इसलिए ये पार्टियां हमेशा ऐसे किसी मुद्दे की तलाश में रहती हैं जिसके इर्दगिर्द कोई जोरदार जन आंदोलन शुरू किया जा सके। इन आंदोलनों के जरिए ये चुनावों में अपनी पार्टी के लिए मत बटोरने की आशा रखती हैं। इन पार्टियों के लिए बैंगलूर की स्त्री नुमाइश एक अच्छा मुद्दा है क्योंकि यह बहुत से रूढ़िग्रस्त लोगों के लिए एक बहुत ही संवेदनशील विषय है।

इस प्रकार नुमाइश के सामाजिक नफे-नुक्सान की समीक्षा इसका समर्थन करनेवालों अथवा विरोध करनेवालों के दृष्टिकोणों से करना उचित न होगा, क्योंकि इन दोनों वर्गों के निहित स्वार्थ इस नुमाइश से ऐसे घुलमिल गए हैं कि उनसे निष्पक्षता की आशा नहीं की जा सकती। अतः देखना यह है कि इस नुमाइश का देश की महिलाओं की स्थिति को सुधारने में क्या प्रभाव पड़ेगा। यहां महिलाओं से तात्पर्य संपन्नवर्ग की पश्चिमीकृत महिलाएं ही नहीं, वरन देश के सभी वर्गों की महिलाएं हैं, जैसे मध्यम वर्ग की रूढ़िग्रस्त हिंदू महिलाएं, अल्पसंख्यक वर्गों की महिलाएं, गरीब तबकों की महिलाएं, ग्रामीण महिलाएं आदि।

भारतीय महिलाओं की मुख्य समस्या सामाजिक एवं आर्थिक है। जब तक महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता का रास्ता नहीं खुल जाता, तब तक उनकी व्यक्तिगत विकास एवं आजादी की बात करना बेकार है। यह आर्थिक स्वतंत्रता तभी आ सकती है जब स्त्रियां पढ़-लिखकर नौकरियां संभालेंगी या स्वतंत्र धंधों में लगेंगी। ऐसा तभी होगा जब लड़कियों एवं महिलाओं के प्रति परिवारों का दृष्टिकोण बदलेगा और वे लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की ओर ध्यान देंगे तथा बहनों, बेटियों और बीवियों को नौकरी पर जाने देंगे। दूसरी ओर पर्याप्त आर्थिक विकास का होना भी आवश्यक है, अन्यथा पर्याप्त संख्या में विद्यालय खोलना और रोजगार के नए अवसर पैदा करना संभव न होगा। इस प्रकार महिलाओं की समस्या बहुत कुछ महिलाओं के बारे में समाज की वर्तमान मान्यताओं को बदलने और देश के आर्थिक विकास से जुड़ी है। सामाजिक मान्यताओं को बदलने में बैंगलूर में आयोजित स्त्री नुमाइस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है क्योंकि इस प्रकार की घटनाएं वर्तमान विश्वासों को झकझोरने की क्षमता रखती हैं और इससे लोग अपनी मान्यताओं को अधिक निकट से देखने पर मजबूर होते हैं और इन मान्यताओं की असंगतता लोगों के लिए स्पष्ट हो जाती है।

महिलाओं के बारे में लोगों की वर्तमान मान्यताओं ने महिलाओं का कोई भला नहीं किया है। अतः इन मान्यताओं को बदलना आवश्यक है। इसमें संदेह नहीं कि बैंगलूर की स्त्री नुमाइश महिलाओं के बारे में पश्चिमी मान्यताओं को उजागर करती है, लेकिन महिलाओं के प्रति पश्चिम की मान्यताओं के बारे में भी लोगों को अवगत होना आवश्यक है। यह जानकारी महिलाओं के प्रति स्वस्थ मानसिकता विकसित करने में सहायक रहेगी। पश्चिमी महिलाओं की स्थिति भी निर्दोष नहीं है। उन्हें आर्थिक आजादी जरूर है, परंतु वे पुरुष के नियंत्रण से पूर्णरूप से मुक्त नहीं हैं। वहां भी महिलाएं पण्य वस्तु के रूप में ही देखी जाती हैं। इन सबसे छुटकारा पाने के लिए वहां की महिलाएं भी संघर्षरत हैं। कहने का मतलब यह है कि पश्चिमी महिलाओं की स्थिति भारतीय महिलाओं के लिए कोई अंतिम आदर्श नहीं है। वह केवल एक नए दृष्टिकोण की ओर इशारा करती है।

दूसरी आवश्यकता आर्थिक विकास है। महिलाओं की बहुत सी समस्याएं गरीबी और आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ी हैं। परिवार में केवल लड़के को पढ़ाना, लड़कियों के स्वास्थ्य की ओर कम ध्यान दिया जाना आदि के पीछे मुख्य कारण आर्थिक तंगी है। अधिकांश परिवारों के पास केवल एक संतान को पढ़ाने-लिखाने की आर्थिक सामर्थ्य होती है और उन्हें चुनना पड़ता है कि लड़के को पढ़ाएं या लड़की को। शादी के बाद लड़कियां उनके पति के घर चली जाती हैं, इसलिए सामान्यतः लड़कों के पक्ष में ही अधिकांश परिवार निर्णय लेते हैं। एक दूसरा कारण यह है कि देश में वृद्ध जनों की देखभाल न तो समाज करता है न सरकार। यह जिम्मा भी परिवार पर ही आता है। इसलिए भी परिवार लड़कों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देते हैं, क्योंकि बुढ़ापे में ये ही परिवारजनों की देखभाल करेंगे और इन्हें आर्थिक दृष्टि से संपन्न बनाने में ही परिवार का हित है।

यदि आर्थिक विकास के फलस्वरूप देश में खुशहाली आती है, तो परिवारों के लिए सभी बच्चों की पर्याप्त देखभाल करना संभव हो सकेगा। दूसरी बात यह है कि देशभर में छोटे परिवारों की ओर रुझान बढ़ रहा है। इससे प्रत्येक परिवार में बच्चों की परवरिश पर खर्च कम होने लगा है। दक्षिण भारत में, खास तौर से केरल और तमिलनाड में, इस तरह का सामाजिक परिवर्तन आरंभ हो चुका है और शतप्रतिशत साक्षरता की ओर वहां का समाज बढ़ रहा है। इसका सबसे अच्छा प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ा है। वे अधिक पढ़ी-लिखी, स्वस्थ एवं लंबी आयुवाली हो रही हैं।

आर्थिक विकास से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे और महिलाओं को स्वतंत्र आमदनी प्राप्त हो सकेगी। इससे पुरुषों और परिवारों पर उनकी निर्भरता कम होगी और वे अपने जीवन पर अधिक नियंत्रण पा सकेंगी।

इस प्रकार बैंगलूर की स्त्री नुमाइश को भारतीय नारी की सभी समस्याओं के समाधान के रूप में अथवा भारतीय संस्कृति को जमीनदोस्त करनेवाली विकराल राक्षसी के रूप में देखकर बात का बतंगड़ बनाने में कोई तुक नहीं है। किसी भी प्रौढ़ एवं लोकतांत्रिक समाज में इस प्रकार की विरोधी विचारों को झेलने की क्षमता होती है। हिंदुत्ववादी पार्टियां इस नुमाइश का हिंसक विरोध करके समाज की इस क्षमता पर अनुचित शंका कर रही हैं। ये पार्टियां भारतीय संस्कृति की बात-बात पर दुहाई देती हैं और उसे विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति सिद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं रखतीं। इसे देखते हुए समाज की नैसर्गिक शक्तियों के प्रति इनका यह अविश्वास जरा अटपटा लगता है। इस नुमाइश की उपयोगिता इसी में है कि यह महिलाओं के प्रति समाज की मान्यताओं पर नए सिरे से विचार करने के लिए सभी को मजबूर करती है। यह विचार-मंथन उपयोगी हो सकता है और समाज में परिवर्तन की शीतल बयार उड़ा सकता है।

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