मैं मुन्नी को वर्णमाला सिखा रहा था। स्लेट पर अ लिखकर मैंने कहा, "यह अ है। अ बोल बेटी, अ से अलगाववादी।"
बेटी ने कहा, "अ, अ से अलगाववादी।"
"शबाश। यह है आ। आ से आतंकवादी।"
"आ से आतंकवादी।"
"अच्छा, अब बोल इ। इ से इमरजेंसी।"
"इ। इ से इमरजेंसी।"
"यह उ है। उ से उठाईगीर।"
"उ से उठाईगीर।"
"यह क्या ऊंटपटांग बातें सिखा रहे हो बच्ची को। दिमाग तो नहीं खराब हो गया है?" श्रीमती जी तूफान के समान कमरे में घुस आईं और मुझ पर बरस पड़ीं।
मैंने कहा, "इसमें ऊंटपटांग की क्या बात है? क्या तुम नहीं चाहतीं कि मुन्नी वर्तमान परिस्थितियों से वाकिफ हो? क्या उसे खतरनाक खुशफहमी में रखना ठीक होगा? नहीं, उसे सच्चाई मालूम होनी ही चाहिए। तभी वह आने वाले कठिन दिनों में अपनी हिफाजत कर पाएगी।"
और मैंने मुन्नी की पढ़ाई जारी रखी, "यह है क। बोल बेटी, क से कत्लेआम।"
Monday, March 30, 2009
क से कत्लेआम
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: लघु कथा
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2 Comments:
saarthak vyangy....bahut sahi kaha.
कठोर पर प्रासंगिक !
निदा फाज़ली का एक शेर याद आता है :
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं पकर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये ...
ये बात सच है कि आज हम बुराइयों से घिरे हैं पर बच्चे जब तक इस सब से दूर रहें अच्छा है .
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