अब क्रिकट जनता का खेल रह ही कहां गया है, जो हमें इससे चिंता हो? पहले क्रिकेट मैच राष्ट्रीय भावना जगाते थे। लोगों को एक-दूसरे के निकट लाते थे। जब इरफान पठान, जहीर खान या हरभजन सिंह विकट लेते थे, तो सारा देश खुशी से झूम उठता था। जब सचिन, शहवाग या धोनी शतक लगाते थे, तो सबकी खुशी आसमान के पार निकल जाती थी। जब मैच होते थे, सड़कों-बाजारों में कर्फ्यू सा लग जाता था। पान के गल्लों से लेकर ड्राइंग रूम तक सब रेडियो-टीवी के आगे जम जाते थे। कुछ लोग तो दफ्तर-कालेज-स्कूल से गुल्ली तक कर जाते थे, ताकि मैच देखा जा सके। उत्सव का सा माहौल बन जाता था। हिंदू हो या मुसलमान, बच्चे हों या बूढ़े, चपरासी हो या अफसर, यहां तक कि महिलाएं भी, क्रिकेट के दीवाने हो जाते थे। सड़कों में ठेलेवाले से लेकर मजदूर तक कान में ट्रांसिस्टर लगाए कमेंट्री सुनते मिल जाते थे। जब दो अजनबी बस स्टैंड या कहीं मिलते, औपचारिकता, हैसियत, धर्म, वर्ग, जाति आदि को ताक पर रखकर बिना हिचक एक दूसरे से स्कोर पूछ लेते थे, और खिलाड़ियों के निष्पादन पर कटु अथवा उल्लसित टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी कर लेते थे। इससे देश एक होता था।
पर आईपीएल ने सब कुछ बदल दिया है। अब पता ही नहीं चलता कि कौन किसके विरुद्ध खेल रहा है। अपनी ही टीम के सदस्य अनेक टीमों में बंटे हुए और एक दूसरे से भिड़ते हुए नजर आ रहे हैं। इससे क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिल रहा है। क्रिकेट आधारित विज्ञपन भी खिलाड़ियों को अपनी क्षेत्रीय अस्मिता में पेश करके इस क्षेत्रीयता को उकसा रहे हैं। धोनी को झारखंड से जोड़कर, शेहवाग को दिल्ली से जोड़कर, पार्थिव और पठान को गुजरात से जोड़कर। पहले ऐसा नहीं होता था। पहले टीम राष्ट्रीय होती थी, खिलाड़ी सब भारतीय होते थे, चाहे वे गुजरात के हों या पंजाब के या मुंबई के। गनीमत यही है कि उन्हें विज्ञपान-कर्ताओं ने हिंदू-मुसलमान के रूप में पेश करना नहीं शुरू किया है। यदि वे ऐसा करें तो मुझे बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होगा। क्रिकेट इतना पतित हो चुका है। और जिन विदेशी प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए हमारी टीम पहले कमर कस लेती थी, वे हमारे खिलाड़ियों के सहयोगी के रूप में दिखाई दे रहे हैं। पहले एक राष्ट्रीय टीम हुआ करती थी, जो पूरे देश की रुचि को अपने में केंद्रित रख पाती थी। अब रावण के सिर की तरह दस टीमें हो गई हैं। राजस्थान की अलग, चेन्नै की अलग, दिल्ली की अलग। ये जब आपस में खेलती हैं, तो लोगों के मन में क्षेत्रीयता का गंदा विष घुलने लगता है। और टीमें भी फिल्मी अभिनेताओं, उद्योगपतियों और नेताओं के खरीदे गए गुलामों जैसे हो गए हैं। कोई प्रीती जिंटा के गुलाम बने घूम रही है, कोई शाहरुख खान के, कोई विजय मल्या के, कोई वसुंधरा सिंधिया के। पहले के क्रिकेटर लोगों की नजरों में हीरो होते थे, उनकी अपनी प्रतिष्ठा और इज्जत होती थी। अबके क्रिकेटरों में वह बात नहीं रह गई है, जहां पैसा मिला, वहीं बिछ गए।
इस आईपीएल ने तो क्रिकट की राष्ट्रीयता ही नष्ट करके रख दी है। अब यह वह खेल नहीं रहा जो पूरे देश को बांधे रखता था। अब यह कोई अभिजात वर्गीय समारोह जैसा हो गया है। व्यवसाय का पिछलग्गू बन गया है। उसके साथ कामुकता उरेकने वाली चियरिंग गर्लों से लेकर गिटपिट अंग्रेजी बकनेवाले विशेषज्ञों, और क्रिकेट की दृष्टि से अनाड़ी सुंदरियों तक क्या कुछ जोड़ दिया गया है। और खेल भी लघु से लघुतर होता जा रहा है। पहले पांच दिन से सिकुड़कर एक दिन का हुआ, अब तो केवल 20 ओवर का ही रह गया है। टीवी ने तो वैसे ही उसे 10-10 मिनटों के खंडों में बांट रखा है।
आजकल के खिलाड़ियों के रूप में आम आदमी अपने आपको देख ही नहीं सकता। क्रिकेट का असली जादू इसी में था – मैदान पर सचिन, पठान, धोनी या शहवाग नहीं खेल रहे होते, बल्कि आम आदमी अपने आपको खेलता हुआ महसूस करता था। पहले के सचिन, कांबले, पठान, जहीर, कुंबले आदि हमारे ही बीच से निकले हुए लगते थे, इसलिए उनके साथ आम आदमी सरलता से साधारणीकरण कर लेता था। पर आजकल के नए खिलाड़ी ऐसे प्लेबोय बने हुए नजर आते हैं कि आम आदमी के लिए वे बेगाने से हो गए हैं। उनके विज्ञापनी रूप देखकर तो आम आदमी उनसे और भी कट-कट जाता है। खुछ क्रिकेटरों ने तो क्रिकेट के मैदान और फिल्मों-सीरियलों के सेटों का अंतर ही मिटा दिया है और बाकायदा फिल्मस्टार या टीवी स्टार हो गए हैं। अब कहना मुश्किल होता जा रहा है कि फलाना व्यक्ति क्रिकेट का खिलाड़ी है या अभिनेता। आम आदमी को दुविधा होती है कि उनके साथ क्रेकेटर के रूप में जुड़े या अभिनेता के रूप में।
यह खेद की बात है, क्योंकि क्रिकट का महत्व हमारे देश के लिए यह भी है कि वह वर्गों, धर्मों, सामाजिक स्तरों आदि विभेदक ताकतों को लांघकर लोगों को जोड़ता था। क्रिकेट के आईपीएल वाले स्वरूप ने क्रिकट के इस पहलू को ही नष्ट कर दिया है। और चिंता की बात यह है कि सब कुछ बिना किसी विरोध के हो गया। कहीं भी अखबारों, टीवी बेहसों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, ब्लोगों में किसी ने इसका विरोध नहीं किया। शायद सब कुछ इतनी जल्दी हो गया है कि लोगों का ध्यान इस ओर गया ही नहीं।
क्या विश्व भर में सभी खेलों का यही हस्र हो रहा है? शायद नहीं। फुटबोल को ले लीजिए। जब ब्राजील, इंग्लैंड या फ्रांस की टीमें खेलती हैं, तो उनके देश के नागरिकों में अब भी जोश भर देती हैं। क्रिकेट भी पहले ऐसा करता था हमारे देश में, पर अब वह बात नहीं रही है।
शायद पैसा घुसने से यह खेल बर्बाद हो गया है। अब क्रिकेट इसलिए खेला जाता है कि विज्ञापनदाता करोड़ों दर्शकों को अपनी गिरफ्त में ले सकें। क्रिकेटर का मूल्य अब इसमें नहीं रह गया है कि उसके खेल की टेकनीक कितनी दुरुस्त है, बल्कि इसमें कि वह विज्ञापनों में कितना प्रभावशाली दिख सकता है। क्रिकेट की आत्मा ही मार दी गई है। क्रिकेट का केंद्रीय तत्व क्रिकेट न रहकर विज्ञापन हो गया है।
धीरे-धीरे देश को एक करनेवाले परिबल कमजोर पड़ते जा रहे हैं। क्रिकेट की करुण स्थिति इसकी नवीनतम मिसाल है। देश को बांटनेवाले परिबल उसी अनुपात में मजबूत होते जा रहे हैं, जैसे धर्म, राजनीति, जातीयता, आर्थिक विषमताएं, इत्यादि। यह और भी ज्यादा खेद की बात है। यह देश की एकता और समृद्धि के लिए बहुत ही हानिकारक है। हर चीज का व्यवसायीकरण होता जा रहा है। पता नहीं यह कहां जाकर रुकेगा।
मुझे यह भी शंका है कि यह सब सोची-समझी साजिश के तहत हो रहा है। क्रिकट के राष्ट्र-निर्माता, लोगों को जोड़नेवाली भूमिका देखकर देश का अहित चाहनेवालों ने कहीं उसे पंगु तो नहीं कर डाला है? देश में बिखराव लाने का इससे अच्छा क्या उपाय हो सकता था कि क्रिकेट जैसे लोगों को मिलानेवाले खेल को ही नपुंसक बना डाला जाए। अब आप ही सोच लीजिए कि देश का अहित चाहनेवाले ये कौन हो सकते हैं।
इसलिए यदि आईपीएल सात समंदर पार जाए, तो मेरी बला से, वहां से न लौटकर वहीं का होकर रह जाए, तो यह और भी अच्छा होगा।
Tuesday, March 24, 2009
आईपीएल देश के बाहर जाए तो मेरी बला से
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: खेल
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1 Comment:
khelon ka 'club-i-karan' hona anuchit nahi, ab footbaal ko hi lijiye...
...kitna famus hai...
world cup to 4 saal main hota hai par premiure league hote rehte hain...
....aur kaafi famus hain...
...khel main accha paisa aaye to khel ka vikas hi hota hai...
....pata nahi hockey premiure league band ho gai ya famus nahi ho paiiye....
...haan magar apki baat se sehmat ho ki khelon ka bazarikaran hone se bachna chahiye.
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