Sunday, March 29, 2009

लालू, मुलायम पासवन का एक होना हिंदी के लिए हितकारी

हिंदी प्रदेश के दो प्रमुख और विशाल राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश के नेता मुलायम, लालू और पासवान का इस चुनाव के लिए एक जुट होना हिंदी के लिए हितकारी हो सकता है।

दोनों कांग्रेस और भाजपा अंग्रेजी परस्त पार्टियां हैं। आजादी के बाद के 60 सालों में इन्हीं पार्टियों का राज रहा है और इन्होंने अंग्रेजी संस्कृति को फैलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। संपूर्ण उच्च शिक्षा जगत, प्रशासन, व्यवसाय और न्यायतंत्र में अंग्रेजी हावी है। अब तो वहां से उसे डिगाने की बात होनी भी बंद हो गई है। इसका मुख्य कारण यह है, अपने 60 साल के राज में इन पार्टियों ने और उनको पैसा देनेवाली ताकतों ने अपने लोगों का ऐसा जाल इन सभी तंत्रों में ऐसा बिछा दिया है कि वहां कोई परिवर्तन की गुंजाईश ही नहीं है। इन दोनों पार्टियों के सत्ता से हटने पर ही नए शक्ति समीकरण स्थापित किए जा सकेंगे, और इन तंत्रों पर से अंग्रेजी का वर्चस्व हटाया जा सकेगा।

अंग्रेजी को हटाना इन तीनों ही नेताओं की पार्टियों और उनके समर्थकों के लिए महत्वपूर्ण है। यदि पिछड़े वर्ग के लोगों का देश के उच्च शिक्षा संस्थानों, व्यवसायों, सरकारी नौकरियों और न्यायतंत्र में प्रवेश नहीं हो पा रहा है तो इसका मुख्य कारण है इन सबमें प्रेवेश अंग्रेजी की छलनी से निश्चित किया जाना। निम्न वर्गीय और निर्धन लोगों में, जो सरकारी विद्यालयों में पढ़े होते हैं, अंग्रेजी का ज्ञान नहीं होता है और वे इस छलनी को पार नहीं कर पाते हैं।

इसलिए यदि सत्ता पर ये नेता काबिज हो पाते हैं, तो उन्हें सबसे पहले अंग्रेजी की छलनी को दूर करने का प्रयास करना होगा। इससे शिक्षा संस्थाएं, सरकारी नौकरियां और निजी क्षेत्र की नौकरियां आम आदमी के लिए खुल जाएंगी।

जब लालू-मुलायम-पासवान का नया सत्ता-पुंज सत्ता पर आएगा, तो उसे सत्ता में पहुंचानेवाले लोगों को पुरस्कृत करने की जरूरत पड़ेगी। वह अपने लोगों को सत्ता के महत्वपूर्ण जगहों पर रखवाने की कोशिश करेगा। सभी दल यह प्रयास करते हैं। जब भाजपा सत्ता पर आई थी, तो उसने सब महत्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को रखवाया था, पाठ्यक्रम, इतिहास लेखन आदि तक को अपनी दृष्टि के अनुसार करने की कोशिश की थी। कांग्रेस ने भी यही किया, पर उसकी ओर हमारा कम ध्यान जाता है, क्योंकि वह शुरू से ही सत्ता में रही है। लेकिन जब वर्तमान लोक सभा पर कांग्रेस का कब्जा हुआ, तो सबसे पहला काम जो उसने अर्जुन सिंह के जरिए किया, वह यह था कि भाजपा के लोगों को सभी शिक्षा संस्थाओं से हटाकर अपने लोगों को वहां सब बैठाना और भाजपा ने पाठ्य पुस्तक आदि में जो परिवर्तन कराए थे, उन सबको खारिज करना और पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से अपनी सोच के अनुसार लिखवाना। जब लालू-मुलायम-पासवान अपने लोगों को शिक्षा संस्थाओं, न्यायतंत्र, नौकरशाही, व्यावसाय (संरकारी उद्यम) आदि में रखने लगेगा, तो वहां सब एक हद तक हिंदी का बीजारोपण हो सकेगा, क्योंकि ये लोग अंग्रेजी के बजाए, हिंदी को अधिक समझते होंगे और चाहेंगे कि जिन संस्थाओं का नियंत्रण उनके हाथ में आ गया है, वह ऐसी भाषा में काम करे, जिसमें उन्हें सहूलियत हो। भाषा की यह खासियत होती है कि सत्तारूढ़ पक्ष की भाषा ही हमेशा प्रचलन में आती है। अंग्रेजी भी ऐसे ही हमारे ऊपर हावी हुई थी। वह शासक वर्ग की भाषा थी और सत्ताहीन लोग (यानी भारतीय) उसे अपनाने को बाध्य हुए। इसी तरह जब हिंदी सत्ता की भाषा बनेगी, लोग (यानी अंग्रेजीदां लोग) उसे अपनाने को मजबूर हो जाएंगे।

मान लीजिए कि मुलायम चुनाव के बाद विदेश मंत्री बन जाते हैं और अमरीकी यात्रा पर निकलते हैं। अब मुलायम जी वाशिंगटन में जो भी बातें करेंगे, वह हिंदी में ही करेंगे। इसी प्रकार जब मुलायम जी अमरीका के नेताओं से वार्तालाप करेंगे तो उन्हें हिंदी दुभाषिए की जरूरत पड़ेगी। इस तरह हमारे विदेश मंत्रालय में हिंदी की जानकारी रखनेवालों की मांग बढ़ेगी, और वहां से अंग्रेजी का एकाधिकार टूट जाएगा।

यह तो बिना प्रयास होगा। अब यदि ये पार्टियां राजनीतिक सूझ-बूझ और दूरदृष्टि का परिचय भी दें, तो ये सारे देश में राष्ट्र भाषा हिंदी के सवाल पर जनमत तैयार करके अंग्रेजी को हटाने का उपक्रम भी कर सकती हैं।

आज यदि आरक्षण की नीति से निम्न वर्गों को कोई खास फायदा नहीं पहुंच रहा है, तो इसका करण यह है कि नौकरियां तो उनके लिए आरक्षित कर दी गई हैं, लेकिन नौकरी के लिए लोगों को चुनने की कसौटियां वही अंग्रेजी-परस्त हैं। चूंकि अंग्रेजी देश के थोड़े लोग ही जानते हैं, नौकरियां इन थोड़े लोगों में ही आरक्षित होकर रह गई हैं। कहना न होगा कि इन थोड़े लोगों में निम्न वर्ग के लोग नहीं के बराबर हैं।

यदि सभी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं (जैसे आईआईएम, आईआईटी, आदि) में प्रेवश की कसौटियां और वहां का कामकाजी और शिक्षण माध्यम हिंदी हो जाए, तो इससे निम्न वर्गों का बहुत फायदा होगा।

अंग्रेजी सीखना एक खर्चीला और दुस्साध्य मामला है जो निम्न वर्गों के बूते की बात नहीं है। इसलिए आईआईएम, आईआईटी जैसे उच्च शिक्षण संस्थाओं के द्वार निम्न वर्गों के लिए उसी तरह बंद हैं जिस तरह आजादी से पहले दक्षिण भारत के कुछ बड़े-बड़े मंदिरों के द्वार उनके लिए बंद थे।

मंदिरों में प्रवेश न मिलने से निम्न वर्गों का कोई खास आर्थिक नुकसान नहीं होता है, लेकिन उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश न मिलने से उनका काफी आर्थिक नुकसान होता है।

यदि कोई निम्न वर्गीय छात्र बहुत कुशाग्र बुद्धि का निकले और इन उच्च शिक्षाओं में प्रवेश पा ही जाए, तो वहां शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी होने से उसे अपार कठिनाई का सामना करना पड़ता है। आईआईटियों में ऐसे एक दो किस्से हुए भी हैं जहां आरक्षित सीटों पर आए छात्रों ने खुदखुशी तक कर डाली थी क्योंकि वे अंग्रेजी में शिक्षण के कारण वहां की पढ़ाई में पीछे पड़ते जा रहे थे। कहा यही गया कि ये बच्चे आईआईटी के स्तर के नहीं थे, चूंकि ये आरक्षित सीटों पर आए थे, पर असल बात यह है कि अंग्रेजी के कारण ही उन्हें इन संस्थाओं की पढ़ाई के समकक्ष रहने में कठिनाई हुई थी, न कि इसलिए कि उनकी बुद्धी का स्तर कम था।

लालू-मुलायम-पासवान के सत्ता में आने पर निम्न वर्गों की एक अन्य मांग पर भी शायद कार्रवाई हो सकेगी। यह है निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण नीति लागू करना। इससे निम्न वर्गों के लिए बहुत सारी नौकरियां उपलब्ध हो सकेंगी। यदि लालू आदि स्पष्ट बहुमत से चुनाव जीतकर आ सके, तो इसे लागू करना उनके लिए संभव होगा। पर केवल नियम बना देने भर से कुछ न होगा। निजी व्यवसाय अंग्रेजी ज्ञान के आधार पर ही नौकरियां देते हैं। यदि इसे न बदला गया, तो निम्न वर्गीय उम्मीदवारों को कोई फायदा नहीं पहुंच पाएगा।

आज भी सरकारी महकमों में जहां आरक्षण नीति लागू है, कई आरक्षित सीटें यह कहकर नहीं भरी जातीं कि अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जनजातियों में से योग्य व्यक्ति मिलते नहीं हैं। योग्य की यहां परिभाषा “जिन्हें अंग्रेजी आती हो” होती है। यदि सरकारी तंत्रों में प्रेवश के लिए अंग्रेजी की आवश्यकता को हटाया जा सके, तो ढेरों योग्य उम्मीदार पैदा हो जाएंगे।

यह भी देखा गया है कि निजी क्षेत्र हमारे देश के लाखों, करोड़ों ग्रेजुएटों और पोस्ट-ग्रेजुएटों को नौकरी देने से इसलिए इन्कार करता है क्योंकि उसकी दृष्टि में ये अनऐंप्लोएबल होते हैं, यानी ये नौकरी देने लायक नहीं होते। यहां भी ऐंप्लोएबल की परिभाषा यही होती है कि ये गिटपिट अंग्रेजी बोल सकें। यदि ऐंप्लोएबिलिटी की कसौटियों में से अंग्रेजी ज्ञान को हटाया जाए, इन करोड़ों ग्रेजुएटों आदि में वे सब काबिलियतें और कुशलताएं विद्यमान हैं जो सरकारी दफ्तरों और निजी क्षेत्रों के किसी भी ओहदे पर सफलतापूर्वक नौकरी बजाने के लिए आवश्यक हैं।

असल बात यह है कि देश अब बिना दिशा के आगे बढ़ रहा है। एक ही वर्ग के लोगों के इतने सालों से सत्ता पर बने रहने से देश को उनके हितों और निहित स्वार्थों के लिए चलाया जा रहा है। इन निहित स्वार्थों में से प्रमुख है, उच्च शिक्षा, निजी व्यवसाय, न्यायतंत्र, प्रशासन आदि में अंग्रेजी को बनाए रखना। इस वस्तुस्थिति को बदलने के लिए नए सत्ता वर्गों को दिल्ली में बागडोर संभालनी होगी।

इस चुनाव में इसकी संभावना नजर आ रही है, और यदि हम सब निश्चय कर लें, कि हमें देश में बदलाव लाना है और देश के फंडमेंटेल्स (बुनियादी तत्वों) को नए सिरे से निश्चित करना है, तो इस संभावना को वास्तविकता में भी बदल सकते हैं।

7 Comments:

निर्मला कपिला said...

apki baat se mai sahmat nahi avsarvadi netaon ke gungaan karna kahan ki samajhdari hai/ vikas ki baat karen to 60 saal pahle aur ab ki tulana kar len theek hai bahut kuchh achha bhi nahi hai lekin jitna bhi vikaas hua hai usme congress ke shassankaal me hi adhik vikas hua hai BJP ko chunav me ram ke gun gane ke siva,logon ki bhavnaayen bhadkaane ke siva kuchh ata hi nahi hai laloo mulayam ji ko jab kursi milti hai to congress achhi lagti hai apni kursi bachane ke liye congress ke virodh ki baat karte hain aise neta desh ka kya bhala kar sakte hain

Arun Arora said...

आपकी बात १००% सही है पर इन टुच्चो से उम्मीद मत रखिये ये सिर्फ़ घृणा ही फ़ैला सकते है अपनी जेब भरना और जनता को बेवेकूफ़ बनाने के अलावा इन से कोई उम्मीद रखना बेमानी है

निर्मला कपिला said...

laloo mulayam aur pasvan ne hindi me kya kya hai unke apne bache to inglish school me padhte hain kam se kam hindi ke parchar ke liye kisi aise aadmi ka udahran to dete jisne hindi ka khud koi samman kya ho badi ni

निर्मला कपिला said...

rasha hui ki hindi ab un netaaon ki mohtaj ho gayee hai jinhen shayad hindi ka sahi arth bhi maloom nahi ya jo hindi ko sirf vote ke liye istemaal karna chahte hain sir aise naaron se hi BJP ne desh ka beda gark kar dya hai ap to bacholaloo mulayam aur pasvan ne hindi me kya kya hai unke apne bache to inglish school me padhte hain kam se kam hindi ke parchar ke liye kisi aise aadmi ka udahran to dete jisne hindi ka khud koi samman kya ho mafi chahti hoon lekin desh ko dharam jati aur bhasha ke naam par baantane valon ki ninda na karen to desh ke saath gaddaree hai

इरशाद अली said...

अच्छी जानकारी, इतने सुन्दर और सटीक लेखन के लिये। बहुत-बहुत बधाई

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप से सहमत। घृणा फैलाने का काम भारत में जितना रा से संघ ने किया है किसी और ने नहीं किया। उन का तो एक मात्र काम ही यही है।

Anil Kumar said...

खैर मैं लालू-मुलायम के सत्ता में आने के "राजनैतिक" सु/दु: ष्परिणामों के बारे में तो बुद्धि नहीं चलाता, लेकिन केवेल "भाषा" के बारे में सोचा जाये तो आपकी सभी बातों से सहमत हूँ. आज जितने देश "विकसित" हैं वे सभी अपनी ही भाषा इस्तेमाल करके विकसित हुये हैं. चाहे वह फ्रांस हो या जर्मनी, इंग्लैंड हो या जापान. चीनी लोग भी अब अपनी ही भाषा का इस्तेमाल करके हमसे कहीं आगे निकलते जा रहे हैं. और हम अंग्रेजी की ही बीन बजाकर खुश हैं.

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