Thursday, March 05, 2009

कलाकार की आजादी

एम एफ हुसैन को लोग जितना उनके उत्तम चित्रों के लिए जानते हैं, उतना ही उनके इर्दगिर्द समय-समय पर उठते विवादों के लिए भी। इनमें से बहुत से विवादों में जनसाधारण की सहानुभूति इस चित्रकार के साथ रही है, जैसे तब जब इन्हें किसी अभिजातीय क्लब में नंगे पैर जाने पर क्लब से बाहर निकाल दिया गया था। इस घटना को लोगों ने इसलिए पसंद किया क्योंकि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिजातीय क्लबों की उपस्थिति एक असंगति है और हुसैन ने अपने ढंग से इसी असंगति की ओर इशारा किया था।

पिछले कुछ महीनों से अस्सी वर्ष के ये कलाकार हिंदी फिल्मों की मल्लिका माधुरी दीक्षित में जो आसक्ति दर्शा रहे हैं, उसमें भी जनता ने बहुत मजा लिया है। हुसैन पिछले कई सालों से अपनी कला के जरिए धार्मिक समन्वय साधने और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के प्रयास में लगे हैं। एक ऐसे मुसलमान होने के नाते जिसने हिंदू धार्मिक भावनाओं को निकट से अनुभव किया है, हुसैन मानते हैं कि यह कार्य उनके लिए सहज एवं स्वाभाविक है।

लेकिन हुसैन जिस विवाद में अबकी बार उलझे हैं, उसके प्रति जन-साधारण ने सहानुभूति नहीं दिखाई है। हाल ही में हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाकर उन्हें एक चित्रशाला में प्रदर्शित किया। चूंकि इन देवी-देवताओं को करोड़ों लोग आस्था एवं सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए हुसैन के इस प्रयास से जनमानस को बहुत ठेस पहुंचा। इस सारे घटनाचक्र ने एक नाटकीय मोड़ तब लिया जब विश्व हिंदू परिषद-बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अहमदाबाद की एक चित्रशाला में घुसकर हुसैन के चित्रों की होली जलाई।

संचार माध्यमों ने इस घटनाक्रम पर काफी चर्चा-परिचर्चा चलाई और कलाकारों, बुद्धिजीवियों और धार्मिक नेताओं ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए। कलाकारों ने अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देकर दलील की कि हुसैन को इस प्रकार के अश्लील चित्र बनाने का अधिकार है। पश्चिमी विचारधारा वाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कहा कि भारत में और अन्य देशों में देवी-देवताओं के नग्न चित्र एवं मूत्रियां धड़ल्ले से बनती रही हैं। खजुराहो की संभोगरत मूर्तियों की ओर उन्होंने हमारा ध्यान दिलाया और बड़ी उद्विग्नता से पूछा कि बेचारे हुसैन ने ही क्या गुनाह किया है? उन्होंने संस्कृत साहित्य का भी हवाला देते हुए कहा कि पुराणों, महाकाव्यों आदि में देवी-देवताओं के शरीर के प्रत्येक अंग का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया गया है। देश के बाहर की ओर ध्यान ले जाते हुए इन बुद्धिजीवियों ने कहा कि पाश्चात्य कलाकारों ने वहां के गिरिजाघरों में धार्मिक विषयों को लेकर जो चित्र बनाए हैं, उनमें पुरुष और नारी के अनावृत्त शरीर को दर्शाया है।

इन सभी दलीलों की मुख्य कमजोरी यह है कि ये सब कला के सामंतवादी मानदंडों के आधार पर हुसैन के चित्रों के सामाजिक औचित्य को आंकते हैं। इस शताब्दी की शुरुआत से पहले के वर्षों तक कला मुख्य रूप से सामंतवर्गों के उपयोग की चीज थी। यह खासकर के चित्रकला एवं स्थापथ्यकला पर सही उतरती है। सामंतवर्ग ही इस कला का पोषक और आस्वादक था। कहने की जरूरत नहीं कि यह वर्ग विलासिता में डूबा हुआ था और इसके लिए कला का उपयोग कामुकता को उकसाने के साधन के रूप में ही था। यही कारण है कि मंदिरों के स्थापथ्य, चित्रकला व साहित्य में अश्लीलता का पुट बहुत अधिक है।

इस शताब्दी के आरंभ से विश्वभर में सामंतवर्ग का अंत होने लगा और सभी जगह लोकतांत्रिक-पूंजीवादी/साम्यवादी व्यवस्था फैल गई। इसके आदर्श और नैतिकता सामंती युग के आदर्श और नैतिकता से भिन्न हैं। साहित्य में जो परिवर्तन पिछले डेढ़-दो सदियों में दिखाई देता है, वह इस अंतर को बखूबी दर्शाता है। न केवल साहित्य के रूप एवं विषयवस्तु में परिवर्तन हुआ है, बल्कि उसके उपयोगकर्ता भी आज सामंतवर्ग नहीं बल्कि जनसाधारण है। परिणामतः साहित्य के आदर्श एवं नैतिकता लोकोन्मुख हो गई है।

इस हद तक परिवर्तन चित्रकला में देखने में नहीं आया है। चूंकि यह कला व्ययसाध्य है, इसलिए बहुत हद तक इसके पोषक अब भी समृद्ध वर्ग ही है। परंतु इसके उपयोगकर्ताओं की सूची में अब जनसाधारण भी शामिल हो गया है। एक उत्कृष्ठ कलाकृति की कीमत लाखों रुपए हो सकती है, जिसे कोई रईस ही अपनी बैठक की शोभा बढ़ाने के लिए खरीद सकता है। लेकिन इस कलाकृति की सस्ती प्रतिलिपियां पत्र-पत्रिकाओं, कैलेंडरों और टीवी के जरिए घर-घर तक पहुंच सकती हैं। दूसरी ओर सार्वजनिक चित्रशालाओं में जाकर जनसाधारण भी अमूल्य कृतियों का आस्वादन कर सकता है।

इतना होने पर भी आज तक कोई जन-चितेरा नहीं हुआ है, जैसे कि साहित्य में लोककवि हुए हैं, जिनका पोषण जनसमुदाय करता हो। इसलिए चित्रकारों को अपने आश्रयदाताओं की अभिरुचियों का ख्याल रखना पड़ता है। लेकिन उनके चित्रों को संग्रहालयों, पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, टीवी आदि के जरिए हर कोई देखता है और जब ये चित्र उन सबकी अभिरुचियों के अनुकूल नहीं होते, तो वे क्षुब्ध हो उठते हैं। हुसैन द्वारा बनाए गए देवी-देवताओं के नग्न चित्रों के साथ भी यही हुआ है। यदि ये चित्र अमीरों के घरों की ही शोभा बढ़ाते तो किसी को आपत्ति न होती, क्योंकि ये चित्र अमीरों के आदर्शों और नैतिकता के अनुकूल हैं, परंतु जनसाधारण के लिए देवी-देवता विलासिता के विषय नहीं, आस्था के विषय हैं। इस आस्था को ठेस पहुंचाने से उन्हें मानसिक कष्ट होता है। लोकतंत्र इस आक्रोश को प्रकट करने का अधिकार उन्हें देता है। हां, आक्रोश प्रकट करने के रूप को लेकर कुर्सीदां बुद्धिजीवी विवाद कर सकते हैं, लेकिन विरोध करने के उनके अधिकार को नकार नहीं सकते।

इस प्रकार यहां टकराहट तीन चीजों में हैं:- अमीर वर्गों की अभिरुचि, कलाकार की आजादी और जनसाधारण की आस्था। इनमें से किसको तरजीह देनी चाहिए, इसका निर्णय करना सरल नहीं है। यह जरूर कहा जा सकता है कि लोकतंत्र के इस युग में जनसाधारण की सुविधा को ध्यान में रखना ही युगानुकूल लगता है। इस दृष्टि से देखने पर हुसैन आदि कलाकारों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि अपने ऊपर आत्मनियंत्रण लाकर ऐसी कला कृतियों की सृष्टि न करें जिनसे आम जनता को मानसिक अथवा सांस्कृतिक आघात पहुंचे, और यदि उन्हें ऐसी कलाओं का सृजन करना ही है, तो उन्हें सार्वजनिक माध्यमों से प्रदर्शित न करें।

4 Comments:

चौहान said...

क्या कहू आपके मानसिकता को किसी के देवी-देवता का नंगा चित्र बनाना गलत नही तो एम.एफ.हुसैन की जवान बेटी है उसने उसकी तस्विर क्यों नही बनायी। और क्यों सिर्फ हिन्दु देवी देवता का ही नंगा चित्र क्यों बनाया अल्ला का पैगम्बर का क्यों नही बनाया। बुरा मत मानना लेकिन सच्ची बातें कहता हू अगर किसी का नंगा चित्र बनाना गलत नही है तो क्या आप अपने घर की महिलाओं का नंगा चित्र बनवा सकते और बाजार में बेच सकते हो सोच कर देखो फोकट का ब्लाग मिल गया है तो कुछ भी मत लिख दे थोडा़ समझदारी दिखाओ। मेरा मेल आईडी है ckshindu@gmail.com मुझे आप मेल भी भेज सकते हो।

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

नंगे चित्र तो खजराहो में भी हैं। उन्हें हिंदू राजाओं ने ही बनवाया था। समस्त रीतिकीलीन हिंदी साहित्य में नंगापन भरा पड़ा है। इनके आस्वादक हिंदू राजा, सामंत आदि ही थे। इंटरनेट पर अश्लील साहित्य की भरमार है, जिसे अधिकतर हिंदू आंखें ही देखती हैं, और हिंदू हाथ ही उन्हें लिखते भी हैं।

आप देवी-देवताओं के नंगे चित्रों की बात कर रहे हैं। कालिदास ने अपनी रचनाओं में पार्वती आदि के हर अंग का विशद वर्णन किया है। कहते हैं इन वर्णनों को पढ़कर वे स्वयं ही कामुक हो उठे थे!

यह भी न भूलें कि कामशास्त्र की रचना इसी धरती में हुई थी।

स्वयं पुराणों को ही लें, जिसे ब्राह्मणों ने ही रचा है। उसमें ऐसी-ऐसी अश्लील कथाएं भरी पड़ी हैं कि आज उन्हें पढ़कर हम लजा जाते हैं। अहल्या का ही किस्सा ले लीजिए। इंद्र ने उनके साथ क्या किया था? अब इंद्र तो मुसलमान थे नहीं।

मैं यह नहीं कह रहा कि हुसैन साहब ने जो किया वह ठीक था या गलत। केवल बात को सही परिप्रेक्ष्य में ला रहा हूं।

यह कोई तरीका नहीं है किसी कलाकार की कला में हस्तक्षेप करने का। अगर यही तरीका है तो तालिबान और आपमें फर्क ही क्या है?

रही बात फोकट के ब्लोग की। आपने क्या अपना ब्लोग हीरे-जवाहरात देकर खरीदा है? दुनिया के 99 प्रतिशत ब्लोग फोकट के ही होते हैं।

not needed said...

देखिये, दुसरे के धरम पर टिपण्णी करने में सदा सयम बरतना चाएह, हुसैन साहेब के इन कार्यो को अगर आप " पिछले कई सालों से अपनी कला के जरिए धार्मिक समन्वय साधने और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के प्रयास में लगे हैं।" की संज्ञा दें , तो मुझे थोडा अचरज होगा. पेगेम्बेर मोहम्मद साहेब का एक फोटो बना दें, तो पता चले. हिन्दू समाज के देवी देवताओं के नगन चित्रों पर में टिपण्णी नहीं करूंगा, बस यही मालूम करना चाहूँगा की इसलाम धरम को लेकर ऐसे चित्र - बिलकुल इसी तर्ज़ पर- कोई चित्र बनाये क्या उन्होंने? बस यही एक मात्र प्रशन है मेरा.

निर्झर'नीर said...

mai chandan chauhan or munish ji ki baat se sahmat hun ..

maine khajuraho bhi dekha hai..

ye loktantra hai ..tanashahi nahi

khajuraho ya or kai jagah jab mandir bane vahan tanashahi thii..

aaj bhi koi takatvar insan kisi ki kanapti pe pistan laga ke uska sab kuch loot leta hai ..par kya ye sahi hai ..
ye udaharan sahi nahi ki kisne kya kiya or unhe kyu nahi roka gaya ..

sochna ye hai ki ..itna lachilapan hai hamare dharm mein ki koi kuch bhi kar lo hume koi fark nahi padta ..

jabki takatvar or samarpit log is baat ki swatantra ka adhikar kisi ko nahi dete..

agar kagaj ke kisi tukde par kuran ki koi aayat likhi ho or uspe koi samosha rakh ke kha le to dunia mein baval mach jayega ..jabki khane vale us lipi or bhasha se unjaan ye jaanta hi nahi hoga ki uspe kya likha hai..

hum sudhrenge to yug sudhrega ..

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