जिन्ना पर जसवंत सिंह द्वारा लिखी गई किताब (जिन्ना – भारत विभाजन के आईने में, राजपाल एंड सन्स, रु. 599) के प्रकाशित होते ही जसवंत को भाजपा से निष्पासित कर दिया गया और गुजरात में पुस्तक पर बैन लगा दिया गया।
दोनों ही बातें हमारे वैचारिक परिपक्वता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। क्या इस देश में विभाजन जैसे महत्वपूर्ण विषय पर खुले मन से चर्चा करना अपराध है? क्या हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां इतनी असुरक्षित और कमजोर हैं कि एक किताब के प्रकाशन से ही उनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है?
विभाजन के बाद पैदा हुए भारतीयों के लिए विभाजन के समय की घटनाओं को गहराई से समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि उसके बिना उनके व्यक्तित्व को पूर्णता नहीं मिल सकती तथा देश के उद्भव की परिस्थितियों के बारे में उनके मन में अस्पष्टता बनी रहेगी।
इसलिए उन दिनों की घटनाओं पर प्रकाश डालनेवाली हर पुस्तक महत्वपूर्ण है। इस तरह की पुस्तकों पर बैन लगाकर वर्तमान पीढ़ी के लोगों को विभाजन के समय की बातों को जानने से रोका जा रहा है और इसे मैं बिलकुल ही ठीक नहीं समझता।
मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि 1947 में देश का विभाजन गलत था। इससे शायद ही किसी का फायदा हुआ है, और हुआ भी है तो भारत का अहित चाहनेवालों का, जैसे ब्रिटन, और अब चीन और अमरीका। मेरे विचार से देश का विभाजन इसलिए हुआ क्योंकि उस समय के नेता राजनीति में अकुशल थे और दीर्घदृष्टिहीन थे, और कुछ तो मौका परस्त और अंग्रेजों के हाथों के कठपुतले भी थे। जिन्ना, नेहरू आदि में भारी अहंकार भी था, जिसके चलते, वे देश हित को अपनी प्रतिष्ठा के आगे नहीं रख सके।
कोई भी ऐतिहासिक निर्णय अनिवार्य नहीं होता। यदि बाद की पीढ़ियों को लगे कि किसी निर्णय से उनका विकास अवरुद्ध हो रहा है अथवा कोई निर्णय गलत कारणों से या गलत पक्षों के फायदे के लिए लिया गया था, तो उसे पलटना जरूरी होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है प्रथम महायुद्ध के दौरान जर्मनी के गलत विभाजन के बाद पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण। इसका एक अन्य उदाहरण है समस्त यूरोप का एकीकरण, जिसकी प्रक्रिया अभी भी चल रही है। 1960-70 के वर्षों में जब सोवियत संघ शक्तिशाली था और शीत युद्ध पराकांष्ठा पर था, इन घटनाओं की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, पर 30-40 सालों में ही ये होकर रहीं।
इसी तरह भारत का विभाजन भी कोई पत्थर पर खींची गई लकीर नहीं है, जो बदल नहीं सकती। अब इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हो गए हैं कि विभाजन जिन्ना, नेहरू, पटेल, राजाजी, राजेंद्र प्रसाद आदि उन दिनों के नेताओं की राजनीतिक भूल थी। इससे न पाकिस्तान का कोई भला हुआ है न भारत का। दोनों देशों की जनता को उसके कारण अपार कष्ट ही झेलना पड़ा है और वे अब भी झेल रहे हैं। काश्मीर जैसे अनसुलझे मुद्दे, तीनों देशों में सांप्रदायिकता की बाढ़ और आतंकवाद भी उसी का परिणाम है।
देश के मूल विभाजन के चंद वर्षों बाद ही बंग्लादेश का बनना इसका अकाट्य प्रमाण है कि जिन आधारों पर देश का विभाजन किया गया था, वह खोखला था। आज पाकिस्तान में जो हो रहा है जिसके कारण वह तेजी से एक विफल राज्य बनता जा रहा है, और उसके द्वारा निरंतर आतंकवाद समर्थन देने और भारत के प्रति विद्वेषात्मक रवैया बनाए रखने से उसका भारत सहित समस्त मानव जाति के लिए एक महा खतरा बन जाना, ये सब भी इसके प्रमाण हैं कि विभाजन गलत था। भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश में सांप्रदायिक और संकीर्णतावादी ताकतों का बलवती होना भी विभाजन की विषैली विरासत है।
इसलिए हम सबको यह सोचने लगना आवश्यक है कि किस तरह विभाजन को निरस्त किया जाए। इसी में भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता की भावी खुशहाली निर्भर करती है। भारत के लिए देश का एकीकरण सामरिक दृष्टि से भी अत्यंत आवश्यक है। आज पाकिस्तान और बंग्लादेश का उपयोग करके चीन, अमरीका, ब्रिटन आदि देश भारत विरोधी कार्रवाई को अंजाम देते हैं, और भारत को कमजोर रखने का भरसक प्रयास करते हैं। इनका मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का एकीकरण आवश्यक है। भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश ऐतिहास काल से एक रहे हैं, चाहे वह चंद्रगुप्त मौर्य का समय हो या अकबर का या अंग्रेजों का। आज भी भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति है और सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक भाषाई और आर्थिक स्तरों पर अनेक समानताएं हैं, जो हजारों सालों से साथ रहने और भौगोलिक निकटता का परिणाम है। इस सहानुभूति और समानताओं के आधार पर इन तीनों देशों को पूर्ववत एक किया जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, बर्मा, अफगानिस्तान आदि भी ऐतिहासिक काल में एक ही संस्कृति से परस्पर बंधे थे।
भारत के एकीकरण को सिद्ध करने के लिए विभाजन की घटनाओं पर पुनविर्चार और उनका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है। जसवंत और उनके पहले आडवानी ने जिन्ना के पुनर्मूल्यांकन का जो प्रयास किया है, वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे हमें विभाजन के बारे में, और उसके बहाने उपमहाद्वीप के देशों के एकीकरण के बारे में, पुनः सोचने का अवसर प्रदान करते हैं।
राजनीति असंभव को संभव करने की कला है। 1942 तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि पांच ही वर्षों में भारत दो टुकड़ों में और फिर तीन टुकड़ों में बंट जाएगा। पर अंग्रेजों और जिन्ना जैसे लोगों ने, नेहरू, पटेल आदि की राजनीतिक अकुशलता से मदद लेते हुए, इसे साकार करके दिखाया।
इसी तरह आज 2009 में भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश का फिर से एक होना ख्याली पुलाव लगता है, पर यदि सही दिशा में कोशिशें की जाएं, यही पुलाव 2014 में ख्याली न रहकर वास्तविक भी बन सकता है।
पर इसके लिए भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश के लोगों को इसके बारे में गंभीरता से सोचना होगा। जसवंत सिंह की किताब का महत्व इसी में है। वह लोगों को विभाजन के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। विभाजन की घटनाओं पर पुनर्विचार करने पर उसकी अनिवार्यता की धारणा कमजोर हो जाती है, और हमें विदित होने लगता है कि वह अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल थी, भारत को कमजोर रखने की। हमें समझ में आने लगता है कि भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश का असली हित एक होने में हैं। हमें समझ में आने लगता है कि आतंकवाद, कश्मीर, सांप्रदायिकता, संकीर्णतावाद, विदेशी हस्तक्षेप आदि का सही समाधान विभाजन को पलटने में है। हमें यह भी समझ में आता है कि तीन टुकड़ों में बंटे रहकर न तो भारत, न ही पाकिस्तान या बंग्लादेश ही जनता की गरीबी, भूख, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि, से ठीक से लड़ पा रहे हैं, और इनसे लड़ने के बजाए एक-दूसरे के विरुद्ध लड़कर अपनी-अपनी शक्ति को क्षीण कर रहे हैं।
जब हमारी पीढ़ी के लोगों को ये बातें समझ में आ जाएंगी, वे विभाजन को निरस्त करने के बारे में सोचने लगेंगे। और यदि हमें कोई दूर-दृष्टिवाले कुशल नेता का मार्गदर्शन भी मिल जाए, तो यह एकीकरण संभव भी हो सकता है।
जहां तक मैं समझ सका हूं, जिन्ना तथा नेहरू-पटेल में जो वैचारिक मतभेद था, वह भारत की राजनीतिक स्वरूप को लेकर था। जिन्ना भारत को अनेक राज्यों का विशृंखलित संघ के रूप में देखते थे, जबकि नेहरू-पटेल, एक दृढ़ केंद्र वाले यूरोपीय शैली के राष्ट्र के रूप में।
यदि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश को एक करना है, तो पहले यह इन तीनों के एक विशृंखलित संघ के रूप में ही संभव हो पाएगा। इस विशृंखलित संघ को साकार करने में जिन्ना के विचार उपयोगी हो सकते हैं। इस विशृंखलित राष्ट्र संघ में हमें नेपाल और श्रीलंका को, और संभव हो, तो अफगानिस्तान और बर्मा तक को भी खींच लेना चाहिए, क्योंकि ये भी भारत विरोधी प्रयासों के अड्डे बनते जा रहे हैं, और तेजी से चीन, अमरीका आदि के प्रभाव में जा रहे हैं, जो हमारे हित में नहीं है।
बाद में, तीस-पचाल वर्षों बाद, जब इस विशृंखलित संघ के रूप में रहते हुए सभी देशों के नेताओं और जनता को तसल्ली हो जाए, तो विशृंखलन को उत्तरोत्तर कम किया जा सकता है, और नेहरू-पटेल वाले अधिक दृढ़ केंद्रीकृत राष्ट्र की ओर बढ़ा जा सकता है। यूरोप का एकीकरण भी इसी तरीके से हो रहा है। पहले अनेक मामलों में यूरोपीय संघ के घटक देश स्वतंत्र थे। फिर धीरे-धीरे उनकी बहुत से विशेषाधिकार यूरोपीय संघ को स्थानांतरित किए गए, जैसे, सेना, विदेश नीति, मुद्रा, नागरिकता आदि।
इसी रास्ते हम भी चल सकते हैं। इसलिए 1947 के नेताओं में जो विचार-भेद था वह हमारे लिए अत्यंत उपयोगी और प्रासंगिक है, ये सब नेता अखंड भारत को दृष्टि में रखकर सोचते थे, क्योंकि तब भारत अविभाजित था।
विभाजन को इस तरह निरस्त करना एक प्रतीकात्मक कार्य भी होगा और इस महा अभियान के साथ हम अपनी अनेक अन्य सामयिक समस्याओं को भी जोड़ सकते हैं, जो सब ले-देकर अंग्रेजी राज की ही विरासतें हैं। जैसे राष्ट्रभाषा का विषय और आरक्षण का मुद्दा। आज आरक्षण की राजनीति देश को बांट रही है और इस देश में रह रहे सभी लोगों के भावनात्मक एकीकरण के आड़े आ रही है। इसी तरह राष्ट्रभाषा के विषय का आजादी आंदोलन कोई ठोस समाधान नहीं प्रस्तुत कर सका, जिसके परिणामस्वरूप हमारी सभी भाषाओं की बाढ़ रुक सी गई है और हम पर आज भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बना हुआ है। इससे देश कमजोर हुआ है और सत्ता-संपन्न (अंग्रेजी जाननेवाले) और सत्ता-विहीन (अंग्रेजी न जाननेवाले) में देश बंटता जा रहा है। राष्ट्र को जोड़े रखने और उसके विभिन्न भागों में विचार विनिमय को सुगम बनाने के लिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत इस जोड़नेवाली कड़ी के बिना अपना काम चला रहा है, क्योंकि शासन में अंग्रेजी का ही अधिक उपयोग होता है। इस तरह की विसंगतियों को भी विभाजन को निरस्त करने के महा अभियान के साथ जोड़कर आसानी से दूर किया जा सकता है।
इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का राजनीतिक एकीकरण 1857 की क्रांति या 1947 के आजादी आंदोलन के स्तर का महा प्रयास होगा, जो एक ही साथ कई समस्याओं का समाधन कर सकेगा। पर इतना बड़ा आंदोलना चलाना कोई आसान काम भी न होगा। इसके लिए हमें कांग्रेस की तरह का कोई उपकरण, गांधी जी जैसे कुशल विचारक और समन्वयवादी नेता, तथा भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, आदि के समान विचारशील और साहसी युवकों की आवश्यकता पड़ेगी।
1857 और 1947 में हमारे समक्ष शत्रु सुस्पष्ट था – अंग्रेज और अंग्रेजी राज। आज शत्रु उतना स्पष्ट नहीं है। इसी का लाभ उठाकर कुछ संकीर्णतावादी ताकतें, देशवासियों के ही एक हिस्से को अथवा अपने ही मूल देश के टुकड़ों को शत्रु का जामा पहनाकर जनता को संगठित करने का प्रयास कर रही हैं। यह प्रयास खंडित है, खराब राजनीति है और सामरिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। हमें असली शत्रु को पहचानना होगा। असली शत्रु है विभाजन के कारण पैदा हुई वैमनस्यपूर्ण परिस्थितियां। इन परिस्थितयों को शब्दों और विचारों में ऐसा परिभाषित और रूपायित करना होगा कि आम आदमी भी इन्हें शत्रु के रूप में पहचान सकें और इनके विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष में मर-मिटने के लिए तैयार हो जाएं, उसी तरह जैसे वे 1857 में या 1947 में तैयार हुए थे। इसमें कवियों, लेखकों, नाटकारों, फिल्मकारों, आदि की महत्वपूर्ण भूमिका है।
Monday, August 24, 2009
जिन्ना, जसवंत और भारत का भविष्य
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
लेबल: जसवंत सिंह, जिन्ना, राजनीति
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11 Comments:
इस खोजपरक लेख के लिए बधाई।
गुजरात में प्रतिबन्ध लगाया जाना राजनीतिक मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं. पटेल पर ऊँगली उठाना गुजरात में घातक है.
जब विमर्श होगा तभी विभाजन व्यर्थ था यह समझ आएगा. विभाजन के लिए दोनो ओर के नेता जिम्मेदार थे.
इतिहास के पुनर्पाठ की आवश्यकता है। हमे स्वतंत्रता संग्राम की हर कोण से जानकारी मिलनी चाहिए। यदि कोई इस पर नई रोशनी डाले तो इतना बवाल क्यों?
इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता............
सच क्या है ? यह सामने आना ही चाहिए..........
प्रतिबन्ध लगाने से क्या होता है ?
किताब थोड़ी महंगी मिलेगी और क्या ?
नहीं तो छपने वाले नकली नाम से छाप के बेचेंगे...
असली मुद्दा ये है कि सरदार पटेल इस देश के एक
अदम्य देशभक्त और सम्मानित नेता थे और आगे भी
सम्मानित ही रहेंगे । उनकी देश भक्ति और सूझ- बूझ पर
कोई किन्तु परन्तु नहीं होना चाहिए ...लेकिन जसवंतसिंह
भी कोई नौसिखिये रंगरूट नहीं हैं । पहले उनकी पुस्तक
को पढा जाए, तभी कोई अभिप्राय प्रकट किया जाए...........
तो बेहतर होगा।
_____आपका आलेख उम्दा और सटीक है
_____हार्दिक बधाई !
अन्ना, धर्म का नाम लूँगा तो आप भड़क जाएँगे। लेकिन यह तथ्य है कि विभाजन धर्म के आधार पर ही हुआ। उसे आधार देने में नेहरू वगैरह की सत्ता लिप्सा भी कारण रही। बाद में पाकिस्तान बन जाने के बाद जिन्ना ने भले सेकुलरिज्म को 'लिप सर्विस' दी लेकिन भस्मासुर मोहिनी के इशारों की असलियत समझ चुका था. . सो इस्लाम की नंगई नाचती रही।
धर्म एकमात्र बाइण्डिंग बल नहीं हो सकता, यह पाकिस्तान के बाद में हुए विभाजन से स्पष्ट है। भौगोलिक दूरी और पश्चिम का श्रेष्ठता दम्भ इसके कारण थे। पाकिस्तान या बाँग्लादेश की मानसिकता (जनता की भी) इसी से स्पष्ट हो जाती है कि वहाँ विभाजन के समय बच गए हिन्दुओं का क्या हुआ और उनके साथ क्या क्या हो रहा है!
दोनों ओर की जनता रोटी और समृद्धि तो चाहती है लेकिन पुन: एकीकरण चाहती है, इसमें शंका है। आपसी प्रेम वेम, भाईचारा वग़ैरह किताबी बातें हैं। एक सामान्य पाकिस्तानी से पूछिए तो हिन्दू शब्द उसके लिए गाली है और पाकिस्तानी हिन्दू के लिए मुस्लिम गुंडे। यही हक़ीकत बंगलादेश पर लागू होती है। तीनों देश जैसे हैं वैसे बने रह कर प्रगति कर सकें ऐसा मॉडल बने तो बात बने।
गान्धी को जिन्ना ने हरा दिया यह सत्य है और कृष्ण शकुनी के पासों की चाहना नहीं टाल सके यह भी सत्य है। बुराई भी एक शक्ति होती है और बहुधा विजयी होती है - चाहे परिणाम में या प्रक्रिया में, यह एक कटु सत्य है।
हमारी सफलता इससे आँकी जानी चाहिए कि हम बुराई का किस सीमा तक शमन कर सकते हैं। प्रयास होने चाहिए लेकिन उपमहाद्वीप का पुन: एकीकरण दूर का सपना है। चाणक्य, कृष्ण या गांधी रोज रोज पैदा नहीं होते। हो भी जाते हैं तो उनकी असफलताएँ बहुत बार सफलताओं पर भारी पड़ती हैं। . .
बकवास बहुत लिख गया जो शायद यहाँ प्रासंगिक भी न हो। छोटे भाई को कभी कभी बर्दास्त करना पड़ता है सो करिए। आभार।
गिरिजेश जी : यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसी, फ्रांसीसी और जर्मन, तुर्की और बाकी यूरोपीय देशों के बीच भारत-पाकिस्तान से भी ज्यादा गहरी दुशमनी एक समय हुआ करती थी। पर वे सब आज एक राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहे हैं।
आज विभाजन का जख्म ताजा है इसलिए पाकिस्तान, बंग्लादेश, भारत तथा उपमहाद्वीप के अन्य देशों का एकीकरण दूर का सपना लगता है। पर इस उपमहाद्वीप की जनता का कल्याण इसी में है।
एकीकरण के कई माडल हो सकते हैं। यह जरूरी नहीं है पाकिस्तान आदि भारत के राज्य (गुजरात, महाराष्ट्र आदि के जैसे) बन जाएं। वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखते हुए भी अधिक पास-पास आ सकते हैं। व्यापार, कला, शिक्षा, उद्योग, पर्यटन, चिकित्सा आदि अनेक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाया जा सकता है। इनके जरिए जब लोग अधिक निकट आ जाएंगे, तो अन्य दीवारें गिराई जा सकती हैं, और धीरे-धीरे, पचास-सौ वर्षों में ही सही, उपमहाद्वीप एक हो सकता है।
हमारे नेता पांच साल के आगे नहीं सोचते, न ही हम ही। पर राष्ट्र दीर्घजीवी सत्व (ऐंटिटी) होते हैं, और इसलिए आज जो असंभव लगता है, कल संभव भी हो सकता है।
मैं एक बार फिर दुहराऊंगा कि असंभव जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। यदि पर्याप्त प्रयास किए जाएं, तो असंभव को संभव बनाना पल भर का काम है।
बालसुब्रमण्यम जी,
वर्तमान में कई बार मुझे हमारे राष्ट्रीय परिपक्वता पर संशय होता हैं कि हम विभाजन और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों पर बहस से क्यों मुहं फेरते हैं. इन विषयों पर खुली बहस होनी ही चाहिए. चुनावी अखाडों में घोषणा पत्रों में भी ऐसे महत्वपूर्ण विषय अक्सर अदृश्य ही रहते हैं. नवीन राजनैतिक परिवेश में - मतदाता भी इन विषयों पर इन दलों को नहीं परखते.
इस प्रकार के संघ की बात सपा भी करती हैं किन्तु इसकी संरचना और सम्भावना दोनों ही चिंतन और सहमति का विषय हैं -जो असंभव नहीं भी हो तो भी भागीरथी प्रयास तो है ही . वर्तमान वैचारिक दर्शन और क्षीण राजनैतिक इच्छा शक्ति के कारण शायद असंभव ही... पकिस्तान की मुख्य राजनीति तो भारत विरोध से शुरू हो कर भारत विरोध पर ही समाप्त हो जाती है...
Bahut mahatvpoorn jaankaari di aapne.
Gambheer vivechan, Aabhaar.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
अत्यंत ज्ञानवर्धक और उम्दा लेख .
Sir..........Ak bar ki bat batata ku ...."may surat se benglur ka safar taren me kar raha tha .iasi bat par chrcha hui.to mere our ak admi 65 umr rahi hogi unake alava vibhajan ke bare me kisi ko kuchh nahi malum tha."Us dristi se may kahuga ki aap 100% shahi kah rahe hai......kitab par partibandh lagana bhavi pidi ko andhakar me rakhana hai...........
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