Thursday, August 13, 2009

ईश्वर की उत्पत्ति

मानव निरीक्षण - 3

धर्म और दर्शन की चिरंतन गुत्थी है यह प्रश्न कि ईश्वर है या नहीं। ईश्वर को मानने का मुख्य कारण यह है कि बिना ईश्वर की कल्पना किए इस असीम ब्रह्मांड की उपस्थिति को समझना कठिन है। यही कारण है कि बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी अपनी खोजों से इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऐसी कोई शक्ति जरूर है जिसने सूरज, चांद, तारे और पृथ्वी को रचा होगा।

खैर, हमारा आज का विषय इससे थोड़ा सा हटकर है। दरअसल मनुष्य के लिए एक अन्य कारण से भी ईश्वर की कल्पना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आवश्यक है। आइए देखते हैं, कैसे।

जैसा कि अब सर्वविदित है, मनुष्य का अन्य वानरों से, और विशेषकर नरवानरों (गोरिल्ला, चिंपैंजी, ओरांग उटान) से निकट का संबंध है। वानरों में जो सामाजिक व्यवस्था पाई जाती है, उसकी कई विशेषताएं मनुष्य समाज में भी देखी जाती है।

वानर समुदाय टोलियों में बंटा होता है। हर टोली में एक ही पिता की संतानें और उसकी पत्नियां रहती हैं। इसे आदिम मानव के गणों या कबीलों के तुल्य माना जा सकता है। प्रत्येक टोली का एक नर शासक होता है। वह टोली का सबसे बलवान नर होता है। वह अन्य सभी नरों को टोली से खदेड़ देता है। ये नर उसी के बच्चे होते हैं या भाई। गोरिल्ला में इस प्रमुख नर को अल्फा मेल या सिल्वरबैक कहा जाता है, क्योंकि इसकी पीठ के बाल चांदी के जैसे चमकीले होते हैं। यह टीली के अन्य सदस्यों की तुलना में असीम बलशाली, अधिक उम्र का और अनुभव वाला होता है। वही टोली को भोजन-पानी की निरंतर तलाश में नेतृत्व करता है, और शत्रुओं से बचाता है। वह एक तनाशाह होता है। टोली के सदस्यों की जरा सी भी अनुशासन-हीनता वह बर्दाश्त नहीं करता। टोली के अन्य सदस्य उससे डरते रहते हैं, पर उसका कृपापात्र बना रहना भी उनके हित में होता है, क्योंकि उसकी छत्रछाया में वे सुरक्षित जीवन बिता सकते हैं।

आदि मानव की उस अवस्था में जब वह मुख्यतः पेड़ों पर रहता था, इससे मिलती-जुलती सामाजिक व्यवस्था होती थी। पेड़ों में रहते हुए मनुष्य की टोलियों के लिए परस्पर सहयोग की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भोजन फल-फूल-पत्ती के रूप में खूब उपलब्ध था और हाथ बढ़ाते ही मिल जाता था। भोजन के लिए कोई विशेष संगठित प्रयत्न की आवश्यकता नहीं थी। इसी तरह पेड़ों की ऊंचाई के कारण मनुष्य काफी हद तक हिंस्र पशुओं से सुरक्षित था, और बचाव के लिए भी संगठित प्रयास कम ही अपेक्षित था। इस लिए तानाशाह सरदार के लिए अपनी टोली पर नियंत्रण रखना और उसे भोजन और सुरक्षा प्रदान करना आसान और संभव था।

उसके बाद मनुष्य मैदानों में रहने लगा। इससे उसकी आदतें बदल गईं। अब भोजन का मुख्य स्रोत अन्य जानवरों का मांस हो गया। मनुष्य भैंसा, हाथी, हिरण आदि बड़े-बड़े जानवरों का शिकार करने लगा। इन्हें मारना किसी एक मनुष्य के बस की बात नहीं थी। संगठित प्रयत्न अपेक्षित था। जब बहुत सारे मनुष्य ऊंचे दर्जे के परस्पर तालमेल से काम करते थे, तभी इतने बड़े शिकारों को मार पाते थे। इसी प्रकार मैदानों में अनेक हिंस्र पशु भी थे। इनसे बचने के लिए भी एक-दूसरे की मदद अपेक्षित थी। ताल-मेल के साथ काम करने के लिए यह आवश्यक है कि गुट के सदस्यों में ऊंच-नीच की भावना न हो, और सभी को समान महत्व प्राप्त हो, अन्यथा परस्पर-वैमनम्य से गुट बिखर जाता।

इसका मतलब यह हुआ कि एक तानाशाह नेता और अनेक अधिकार-शून्य सदस्योंवाली सामाजिक व्यवस्था अब अपर्याप्त साबित होने लगी। नए मानव समाज में सभी सदस्यों का महत्व और दर्जा लगभग समान ही था। शिकार करते या हिंस्र पशुओं से बचाव करते समय जितने अधिक सदस्य साथ मिलकर काम करें, काम उतना ही आसान होता था। इसलिए सभी को समान महत्व भी मिलने लगा। टोली में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं रह गया जिसका दर्जा तनाशाह सरदार के जैसा सर्वोपरि हो।

पर मनुष्य के लिए यह एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता हो गई थी कि वह ऐसे किसी सर्वशक्तिमान, सभी अधिकारों से संपन्न सरदार के अधीन रहे, जिसके मात्र आज्ञापालन से उसकी सारी समस्याएं सुलझ जाए। नया जीवन अनेक जोखिमों, भयों और अनिश्चितताओं से भरा था। आदि मनुष्य को बारबार अपना वृक्षों वाला अधिक सरल जीवन याद हो आता था और उस सर्वशक्तिमान तानशाह नेता का भी जो उसे सुरक्षा प्रदान करता था, और जो उसकी ओर से हर निर्णय ले लेता था।

इसी कमी को पूरा करने के लिए मनुष्य ने ऐसी किसी सत्ता की कल्पना कर ली जो उसकी टोली से अलग था, और जो उसकी टोली के किसी भी सदस्य से कहीं ज्यादा शक्तिशाली और अधिकार संपन्न था, और जिसके आज्ञापालन को उसने स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया।

यही ईश्वर है। मनुष्य को ईश्वर की कल्पना करना इसलिए आवश्यक हुआ क्योंकि मैदानों में सामाजिक जीवन शुरू करने पर परस्पर सहयोग आवश्यक हो गया। सभी मनुष्य समान रूप से महत्पवूर्ण और शक्तिशाली हो गए। किसी एक मनुष्य को अन्य मनुष्यों से इतना ऊंचा स्थान देना और उसे जीवन के हर निर्णय लेने का अधिकार देना अब संभव नहीं रह गया। किसी मनुष्य के लिए ऐसा तानाशाह, सर्वशक्ति-संपन्न सरदार बनना अब मुश्किल भी था क्योंकि मानव जीवन तब तक इतना जटिल हो चुका था कि कोई एक मनुष्य समाज की सभी क्रियाकलापों को नियंत्रित नहीं कर सकता था।

पर मनुष्य को वे पुराने दिन उसकी अंतःचेतना (सबकोन्श्यस माइंड) में याद थे जब वह पेड़ों पर रहता था, जब जिंदगी अधिक सरल थी, और जब तानाशाह सरदार उसके लिए हर निर्णय ले लेता था और उसकी रक्षा करता था। उसे केवल उसका आज्ञापालन करना होता था।

इसी पुरानी परिस्थिति को मनोवैज्ञानिक धरातल पर बहाल करने के लिए मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना कर ली और उसे सर्वशक्तिमान, सर्वाधिकार-संपन्न तानाशाह सरदार की भूमिका में उतार दिया।

जैसे-जैसे मानव समाज अधिक जटिल होता गया, ईश्वर की कल्पना भी विकसित होती गई और सारे ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में ईश्वर को देखा जाने लगा। ईश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं था, उसमें सभी शक्तियां थीं, वह सब जगह था। ईश्वर की शक्ति के बढ़ने का रहस्य भी आप समझ गए होंगे। दरअसल बढ़ी थी स्वयं मनुष्य की शक्ति। मनुष्य प्रकृति पर अधिकाधिक विजय पाता जा रहा था, और प्रकृति की शक्ति को नाथने की कला सीखता जा रहा था। और जैसे-जैसे वह अधिक शक्तिमान बनता गया, और सब जगह फैलता गया, वह ईश्वर को भी अपने से कहीं अधिक शक्ति प्रदान करता गया, ताकि ईश्वर हमेशा उससे अधिक शक्तिशाली और अधिकार-संपन्न बना रहे, सब जगह व्याप्त रहे।

और इस तरह आजकल के सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, असीम शक्तिवाले ईश्वर का आविर्भाव हुआ।

4 Comments:

PN Subramanian said...

बड़ी सार्थक व्याख्या रही. चलिए आज इश्वर को ही याद किया जाय

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

पहले के दोनों लेखों के लिंक दें।

आपो नास्तिक हो गए !

हमको तो पीपल का 'बीरवा बनरा' याद आ गया।
बाउ को बड़ा पसन्द था।

परमजीत सिहँ बाली said...

विचारणीय आलेख।

Arvind Mishra said...

देज्मांड मोरिस जिंदाबाद ! यह भी देख लें
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