Monday, August 10, 2009

घर की चाहरदीवारी और राष्ट्रों की सरहदें

बिना बोले बातचीत - 7

हममें से प्रत्येक को हमारे चारों ओर कुछ न्यूनतम जगह की आवश्यकता होती है। इस जगह के भीतर कोई अन्य व्यक्ति घुस आए तो हम घबराहट महसूस करने लगते हैं। किसी के निजी क्षेत्र में घुसना उस पर आक्रमण करने के बराबर है। साधारणतः यह निजी क्षेत्र हमारे शरीर के चारों ओर लगभग एक मीटर तक फैला होता है। अधिक आक्रामक स्वभाववाले लोगों में यह अधिक होता है, सरल स्वभाववाले लोगों में कम। रेलवे स्टेशन में टिकट की खिड़की के सामने पंक्ति में खड़े लोगों का निरीक्षण करने पर इस निजी क्षेत्र का हमें एहसास हो जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति उसके आगे या पीछे खड़े व्यक्ति से कुछ सेंटीमीटर की दूरी पर खड़ा रहता है। उसके आगे-पीछे खड़े व्यक्ति को इससे अधिक निकट आने नहीं देता। यदि निकट आता है तो वह या तो उसे पीछे ढकेल देगा या नाराज हो जाएगा या विचिलित होने लगेगा।

भीड़-भरे बाजार में चलते वक्त भी हमें इसी निजी क्षेत्र का एहसास होता है। हम भरसक प्रयत्न करते हैं कि हमारा शरीर किसी अन्य व्यक्ति से टकरा न जाए। यदि टकरा जाता है तो हम माफी मांग लेते हैं। रेल के डिब्बे या बस में बैठते वक्त हम सीट के कुछ हिस्से को अपना मान लेते हैं। इस हिस्से पर कोई अधिक्रमण करने लगे तो हम लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।

यह निजी क्षेत्र व्यक्तियों में ही नहीं पाया जाता, वरन परिवारों, कबीलों और राष्ट्रों में भी दृष्टिगोचर होता है। घरों के चारों ओर दीवार बनवाकर और खेतों के चारों ओर मेड़ या बाड़ा खड़ा करके हम अपने अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करते हैं। इसी प्रकार सभी राष्ट्र अपनी सीमाओं को बड़े यत्न से निर्धारित करते हैं और उसकी बड़ी कड़ाई से रक्षा करते हैं। रोचक बात तो यह है कि यह आदत हम मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है। प्राणी जगत में भी इसके चिह्न दिखाई पड़ते हैं। हमारा अत्यंत परिचित प्राणी कुत्ते को ही लीजिए। वह भी अपने अधिकार क्षेत्र को बड़े यत्न से गंध द्वारा निर्धारित करता है और उसकी रक्षा सभी अन्य कुत्तों से करता है।

मनुष्य तथा अनेक अन्य प्राणियों में आंख से आंख मिलाकर देखना आक्रामक भाव व्यक्त करता है। दैनंदिन के जीवन के अनुभवों से हम इस तथ्य को जान सकते हैं। गुस्सा होने पर हम अपने प्रतिद्वंद्वी को घूरते हैं। किसी अन्य मनुष्य को सड़क में मिलने पर हम आंखें झुका लेते हैं। उससे आंखें तभी मिलाते हैं जब वह हमारा परिचित होता है। अपरिचित व्यक्ति से गलती से आंखें मिल भी जाएं तो हम तुरंत आंखें नीची कर लेते हैं या मुसकुरा देते हैं। मुसकुराने का अर्थ होता है कि हमारे इरादे मित्रतापूर्ण हैं।

प्रत्येक समुदाय की अपनी विशिष्ट शारीरिक चेष्टाएं होती हैं जिनका सही अर्थ केवल उस समुदाय के सदस्य ठीक प्रकार से समझ सकते हैं। उस समुदाय में पैदा होनेवाला प्रत्येक शिशु इन शारीरिक चेष्टाओं को भी बड़ों की नकल करके उसी प्रकार सीखता है जैसे वह भाषा सीखता है। इसी कारण जब भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के लोग मिलते हैं तो उन्हें एक-दूसरे को समझने में कठिनाई होती है क्योंकि उनकी अनेक शारीरिक चेष्टाएं भिन्न-भिन्न होती हैं और वे उनका सही अर्थ समझ नहीं पाते।

मनुष्य केवल शब्दों के उच्चारण से ही अपने मन की बात को व्यक्त नहीं करता। शरीर के प्रत्येक अंग की चेष्टाओं से वह अपने मनोभावों को प्रकट करता है। आंख, भौंह, कान, सिर, दांत, जीभ तथा मुख की मांस-पेशियां अत्यंत वाचाल होती हैं। चेहरे की बहुत-सी मुद्राएं अत्यंत आदिम हैं, और उनसे मिलती-जुलती मुद्राएं अन्य जानवरों, विशेषकर नरवानरों (गोरिल्ला, चिंपैंजी, वनमानुष आदि) में, विद्यमान हैं। इन मुद्राओं में हंसना, रोना और मुसकुराना प्रधान हैं।

ऐसे उदाहरणों से यही बात स्पष्ट होती है कि हममें और अन्य प्राणियों में बहुत-सी बातें समान हैं। यह अलग है कि हम इन सामान्य आदतों को पहचानने की कम कोशिश करते हैं। इसीलिए जब डारविन ने यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य का विकास बंदरों से हुआ है तो अनेक ईसाई पादरियों को बुरा लगा था क्योंकि उनके धर्म-ग्रंथों के अनुसार सभी जीवों को ईश्वर ने एक सप्ताह में बना डाला था और वे सब अपरिवर्तनीय थे। जो भी हो अब विज्ञान ने यह निर्विवाद रूप से साबित कर दिया है कि मनुष्य तथा सभी जीवधारियों का वर्तमान रूप लाखों वर्षों के विकास क्रम का परिणाम है। यह भी सिद्ध हो गया है कि मनुष्य तथा अन्य जीवों में उतना अंतर नहीं है जितना धर्मावलंबी पंडे बतलाना चाहते हैं।

इस लेख के साथ ही यह लेख-माला एक तरह से समाप्त जाती है। इसमें हमने देखा कि कैसे हम शब्दों के जरिए ही नहीं बोलते, बल्कि संपूर्ण शरीर से अपने विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं। इस लेखमाला की सामग्री इस विषय पर डेसमंड मोरिस नामक अंग्रेज वैज्ञानिक ने जो दो-एक अच्छी किताबें लिखी हैं, उससे ली है। जो पाठक अंग्रेजी पढ़ लेते हों वे इन दो पुस्तकों को पढ़ें –

द नेकेड एप

अर्थात, नंगा नरवानर, जिसमें मनुष्य व्यवहार का अच्छा विश्लेषण है। पुस्तक का नाम नंगा नरवानर इसलिए रखा गया है क्योंकि नरवानरों में (गोरिल्ला, चिंपैंजी, उरांगउटान और मनुष्य) केवल मनुष्य ऐसा नरवानर है जिसके शरीर पर बाल नदारद है। पुस्तक में यह भी बताया गया है कि ऐसा क्यों हुआ है।

मैन-वाचिंग

इस पुस्तक का नामकरण बर्ड-वाचिंग (पक्षी निरीक्षण) की तर्ज पर किया गया है, और इसमें मनुष्यों पर वैज्ञानिक सूक्ष्म दृष्टि वैसे ही डाली गई है जैसे पक्षी-निरीक्षण में पक्षियों पर डाली जाती है, यानी, इस पुस्तक में मनुष्य को कुतूहल का विषय मानकर उसकी हर छोटी-बड़ी गतिविधियों और आदतों का बारीक अध्ययन और विश्लेषण का अत्यंत रोचक रिपोर्ट है। पुस्तक पढ़ते हुए, अपने को वैज्ञानिक वीक्षण के केंद्र में पाकर बड़ा अजीब लगता है, पर हमारी अनेक आदतों और व्यवहारों का रहस्य भी खुलता जाता है। इसलिए यह पुस्तक बहुत ही रोचक है।

अगले कुछ लेखों में इन पुस्तकों के कुछ ऐसे अंशों की चर्चा करेंगे, जो मनुष्य-व्यवहार पर प्रकाश डालते हैं।

3 Comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उपयोगी जानकारी।
बधाई।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

डारविन, गेलिलियो आदि जैसे विज्ञानिकों को उस समय की धर्मांधता का शिकार होना पड़ा था। आज भी कुछ धर्म ऐसे हैं जो विज्ञान की किसी बात को अपने धर्म के विरुद्ध जाने पर नकार देते हैं:)

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

देरी से आ पाया।

इतना सुन्दर लेख ! एकदम संतुष्ट हो गया।

डार्विन ने विकास 'बन्दर' से नहीं शायद वन मानुष से बताया था।

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