Tuesday, December 23, 2008

हर ओर से हारे हम आतंक के सामने

मुंबई नरसंहार के दौरान और उसके बाद भारत की प्रतिक्रिया बहुत ही असंतोषजनक रही है, सभी स्तरों पर। सरकार की नीति ढुलमुल और दिगभ्रमित सी रही है। पहले तो आतंकी हमले का सामना करते वक्त ही बहुत से घपले किए गए। बिना पर्याप्त सुरक्षा तैयारी के महाराष्ट्र के कुछ आला पुलिस अधिकारी हथियारों से लैस आतंकियों को रोकने चल पड़े और तुरंत शहीद हो गए। उनकी बहादुरी पर तो कोई सवाल नहीं उठा सकता, पर समझदारी पर जरूर अनेक सवाल उठते हैं। क्या उन्हें बिना पर्याप्त दल-बल के इस तरह खतरा मोल लेना चाहिए था? क्या उनकी आसान मौत यह संदेश नहीं देता कि भारत का सुरक्षा तंत्र अकुशल, अपेशेवरीय और मूर्ख है? यदि पुलिस प्रमुख स्वयं इतनी आसानी से मारा जा सकता है, तो आम जनता कितनी असुरक्षित होगी। इससे यही पता चलता है कि पुलिस को भनक तक नहीं थी कि आतंकी किस हद तक हथियारबंद थे, कितनी संख्या में थे और उनकी संहारक क्षमता कितनी थी। शायद सालसकर आदि यही समझ रहे थे कि ये मुंबई के अपराधी गैंगों के गुर्गे हैं। उन्हें इस गलतफहमी की भरपाई अपनी जान देकर करनी पड़ी। इससे यही पता चलता है कि देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी जिनके हाथों में हैं, वे वास्तविक परिस्थितियों से बिलकुल कटे हुए हैं और देश के सामने उपस्थित खतरों की उन्हें न के बराबर समझ है।

हां यह दलील दिया जा सकता है कि करकरे, सलासकर, आप्टे आदि की इसमें क्या दोष है, दशकों के राजनीतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और कुशासन ने पुलिस को पंगु बना दिया है, और वह एक संगठन के रूप में पहल करने की क्षमता खो चुकी है, और किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए उसके कुछ दिलेर अफसरों को स्वयं जान हथेली पर लेकर कार्रवाई करनी पड़ती है। यदि यही सच है तो हम मध्यकाल के उन राजपूत योद्धाओं की गलतियों से कुछ भी नहीं सीख पाए हैं, जो युद्ध भूमि में खूब व्यक्तिगत वीरता तो दिखाते थे, पर रण न जीत पाते थे, क्योंकि ये आपसी तालमेल से नहीं लड़ते थे। आधुनिक युग में पुलिस, फौज या अन्य सुरक्षा बलों में व्यक्तिगत वीरता का उतना महत्व नहीं रहता, जितना संगठित शक्ति के सूझबूझपूर्ण प्रयोग का। यहीं महाराष्ट्र पुलिस हार गई। सालेसकर जरूर वीर सिपाही थे, पर समझदार सिपाही भी थे? उनकी शहादत के सामने नतमस्तक होते हुए भी, हमें पुलिस सुधार को ध्यान में रखते हुए और अपने देश और समाज की भावी सुरक्षा के लिए उपर्युक्त सवाल उठाने ही होंगे।

अब आते हैं अन्य महकमों की कोताहियों पर। आतंकियों के ताज और ट्राइडेंट होटलों में घुस जाने के नौ घंटे तक राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के जांबाज वारदात-ए-मौके पर नहीं पहुंच पाए। पहले तो उन्हें दिल्ली से मुंबई लाने के लिए हवाई जहाज मिलने में देरी हुई। फिर मुंबई हवाई अड्डे पहुंचने पर उन्हें वहां से ताज तक लाने में दो घंटे की देरी हुई। आतंकियों ने अधिकांश बंधकों और होटल कर्मचारियों की कत्ल उनके होटल पहुंचने के कुछ ही घंटों में कर दी थी। यदि राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के जांबाज तुरंत मौके पर पहुंच गए होते, तो न जाने कितनों की जानें बच जातीं। पर न तो एनएसजी जांबाजों को तुरंत बुलाया गया और न ही बुलाए जाने पर वे तुरंत ही मौके पर पहुंच सके। इतने में कई लोगों की जानें चली गईं।

इस तरह की वारदातें होने पर निर्णय लेने और आदेश देने की जिम्मेदारी किसकी हो, यही स्पष्ट नहीं था। मुंबई को शासित करने की अंतिम जिम्मेदारी महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के हाथों में है। एक तो मुख्य मंत्री और उसका गृह मंत्री निकम्मे निकले, दूसरे, इन पदाधिकारियों पर महाराष्ट्र जैसे विशाल राज्य के शासन की जिम्मेदारी होती है, इसलिए वे मुंबई की इस तात्कालिक जरूरत की ओर तुरंत ध्यान नहीं दे पाए। और इस बार तो मुख्य मंत्री मुंबई में था भी नहीं, दूर केरल के दौरे पर था। उस तक इस घटना की सूचना पहुंचाने में, स्थिति की गंभीरता का उसे बोध होने में, और उसके द्वारा सरकारी मशीनरी को सक्रिय कराने के आदेश देने में काफी वक्त लग गया।

सवाल यह है कि मुंबई जैसे बड़े-बड़े महानगरों का शासन मुख्य मंत्री के हाथों में क्यों रहे, क्या ये अपनी शासन-व्यवस्था स्वयं नहीं संभाल सकते? जरूर संभाल सकते हैं, लेकिन यहां राजनीतिज्ञों का स्वार्थ आड़े आता है। मुंबई महाराष्ट्र का सबसे समृद्ध शहर है। अधिकांश उद्योग-धंधे वहीं हैं। वहीं से महाराष्ट्र को अधिकांश राजस्व प्राप्त होता है। यदि मुंबई एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई हो जाए, तो महाराष्ट्र सरकार की आमदनी में भारी कमी आ जाए। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मुंबई की आमदनी में हाथ डालकर ही महाराष्ट्र के नेता मालामाल होते हैं, तब फिर वे मुंबई को कैसे अलग प्रशासनिक इकाई बनने देते।

हमारी शासन व्यवस्था का सच यह है कि कोई भी स्वयं निर्णय लेने का जोखिम नहीं ले सकता। सब कुछ पार्टी के आला कमान पर छोड़ दिया जाता है। कहने को तो देश लोकतंत्र है, पर यहां हर पार्टी में परिवारवाद का बोलबाला है या पार्टियों के कुछ मुट्ठी भर व्यक्ति ही सत्ता की डोर संभाले हुए हैं। वे ही सभी निर्णय लेते हैं, दूसरों को न तो निर्णय लेने दिया जाता है, न ही वे स्वयं भी निर्णय लेना चाहते हैं। चाटुकारी और निकम्मेपन का साम्राज्य गरम है और कोई भी जिम्मेदारी की आफत अपने सिर नहीं मोल लेना चाहता है। ऐसे माहौल में सामान्य स्थितियों में तो देश की गाड़ी जैसे-तैसे अपने अंदरूनी वेग से चलती जाती है, पर जब कोई आपत स्थिति आती है और तुरंत निर्णय लेने होते हैं, पल-पल पैंतरे बदलने होते हैं, तो यह सब समय पर नहीं हो पाता। यही सब हुआ, और निर्णय मुंबई शासन के ही किसी अधिकारी द्वारा न लिए जाकर, दूर बैठे मुख्य मंत्री को लेने पड़े, जो स्वयं और भी दूर दिल्ली स्थित अपने आकाओं का मुहताज था।

दूसरे, इस तरह की घटनाओं में सरकार के अनेक महकमों का तालमेल आवश्यक होता है, पुलिस, अग्निशमन दल, सेना, इत्यादी। यहां भी भारी चूक हुई और सब अलग-अलग और बहुधा परस्पर-विरोधी तरीके से काम करते रहे।

मीडीया भी भारी घपले कर बैठा। एक ओर वह पुलिस और सैनिक कार्रवाई के महत्वपूर्ण सुराग आतंकियों तक पहुंचाने का माध्यम बना, और दूसरी ओर वह सारी घटना को बहुत ही पक्षपाती और संकीर्ण नजरिए से पेश करता रहा। आतंकियों ने मुख्य रूप से तीन जगहों को निशाना बनाया था, छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन, ताज और ट्राइडेंट होटल और नरीमन हाउस। सबसे पहला हमला छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर हुआ था और सबसे ज्यादा लोग भी वहीं मरे थे, लेकिन मीडिया ने सारा ध्यान ताज और नरीमन हाउस पर ही केंद्रित रखा और इस तरह यह जाहिर कर दिया कि उसकी दृष्टि में गरीबों की मृत्यु और अमीर उद्योगपतियों और विदेशी नागरिकों की मृत्यु का वजन समान नहीं है।

मुंबई के अभिजात नागरिकों की प्रतिक्रिया भी बहुत प्रेरणादायक नहीं रही। एक तो, इस तरह के पहले के हमलों पर चुप्पी साधकर उन्होंने एक प्रकार से इस बार कुछ भी कहने का नैतिक अधिकार खो दिया था। इसलिए जब इस बार हमला स्वयं उनके वर्ग पर हुआ, तो उनका क्रोध और बौखलाहट साफ रूप से नपुंसक और अशोभाकारी लगा। जब बिहार में लाखों लोग बाढ़ से विस्थापित हो रहे थे, जब महाराष्ट्र में गरीब किसार हजारों की संख्या में गरीबी और मुफलीसी के कारण आत्महत्या कर रहे थे, या जब हिंदी भाषी छात्र-छात्राओं, गरीब खोमचेवालों और टैक्सी चालकों को मुंबई में राज ठाकरे के गुर्गे पीट रहे थे, या जब मुबई की ट्रेनों में बम विस्फोट कराए गए थे, इस अभिजात वर्ग ने कोई प्रतिक्रिया या हमदर्दी नहीं दिखाई। पर जब इस बार बंदूक उनके वर्ग के सीने पर दागी गई, तो वे अपने आलीशासन बंगलों और सुख-सुविधा संपन्न फ्लैटों से (जो अब असुरक्षित प्रतीत हो रहे थे) बाहर निकल आकर सारे देश के सामने मांगें करने लगे। अब उनको देश के समर्थन की जरूरत महसूस हो रही थी, पर अनेक अवसरों पर जब देश को उनके समर्थन की आवश्यकता थी, वे खामोश बैठे रहे थे। इस वर्ग के लोग इस देश से कितने कट से गए हैं और अमरीका आदि के साथ उनके तार किस हद तक मिलते हैं, इसके भी उन्होंने अनेक संकेत दिए। मुंबई नरसंहार को उन्होंने अमरीका के न्यूयोर्क शहर के ट्विन टावर पर ग्यारह सितंबर को हुए हमले की तर्ज पर भारत का नायन लेवन (अमरीका में दिनांक लिखते समय पहले महीना-सूचक संख्या लिखी जाती है, फिर दिन सूचक संख्या, इस तरह ग्यारह सितंबर को 9/11 के रूप में लिखा जाता है, और उसे नायन लेवन कहा जाता है) घोषित किया। ताज होटल को ग्राउंड जीरो बता दिया। अमरीकी रीति-रिवाज उन पर इतना हावी था कि वे यह भी नहीं सोच पाए नायन लेवन जैसी शब्दावली भारत के लिए बिलकुल ही अनर्गल है क्योंकि यहां तिथियां इस तरह लिखी ही नहीं जातीं। भारत के लिए तो नयन लेवन, लेवन नयन होता, क्योंकि यहां महीना-सूचक अंक दिन-सूचक अंक के बाद लिखा जाता है। उन्होंने यह नहीं सोचा कि अमरीका से हटकर भी भारत का स्वतंत्र अस्तित्व है और भारत में हो रही हर घटना को अमरीका के साथ जोड़कर या अमरीका की शब्दावली में सोचने की जरूरत नहीं है, यह शब्दावली भारत के करोड़ों लोगों को न तो समझ में आती है न ही वह उनके लिए प्रासंगिक है।

उनकी दिमागी दीवालिएपन के और भी अनेक संकेत मिलने को बाकी थे। जब न्यूयोर्क में आतंकी हमले हुए थे, तो हमले की रात वहां के नागरिकों ने एक-दूसरे को ईमेल संदेश भेजकर उसी रात ट्विन टावर के मलबे के चारों ओर इस हमले में मरे लोगों की स्मृति में मोमबत्ती जलाकर श्रद्धांजली दी थी। यह उनकी संस्कृति के प्रतीकों और शोक जाहिर करने की परिपाटी को देखते हुए एक सुंदर और गौरवपूर्ण तरीका था।

लेकिन जब मुंबई के अभिजात वर्गों ने इसी तरीके से मुंबई में भी शोक-रस्म कराना चाहा तो वही सुंदर कल्पना भोंडेपन और अमरीका की मानसिक गुलामी का सूचक हो गई। इस समारोह के आयोजक फिल्मी सितारों और अन्य अभिजात वर्गों ने इतनी ही मौलिकता दिखाई कि ईमले की जगह एसएमस के जरिए लोगों को इकट्ठा किया। आखिर मुंबई में जो मोमबत्ती समारोह किया गया, वह कृत्रिम, भावना-शून्य और अशोभन ही ज्यादा रहा। सबको स्पष्ट था कि यह अमरीकियों ने नायन लेवन के बाद न्यूय योर्क में किए गए रस्म की नकल मात्र है। मोमबत्ती समारोह में ये लोग बहुत से इश्तहार लेकर आए, जो सब अंग्रेजी में थे और टीवी कैमरों के सामने इन्हें खूब हिलाया गया, ताकि अमरीका और ब्रिटेन के लोग देख सकें कि उनके नक्काल इस देश में कितने हैं। यदि उनका मोमबत्ती समारोह देशवासियों के लिए होता तो ये इश्तहार हिंदी में होते। स्पष्ट था कि यह समारोह देशवासियों के दुख में शरीक होने के लिए नहीं आयोजित किया गया था।

अब रहती है सुरक्षा महकमे की प्रतिक्रियाओं की बात। प्रधान मंत्री से लेकर सुरक्षा सलाहकरा, और विदेश मंत्री से लेकर गृह मंत्री तक सभी विफल रहे। उनकी प्रतिक्रिया बस यही रही कि अमरीका के सामने हाथ जोड़े दीन भाव से याचना की जाए कि, माई-बाप, हमारी रक्षा करो, पाकिस्तान से कहो कि वह हमें इस तरह न सताए। यह उपनिवेशकाल के गोखले आदि नेताओं की याद दिलाता है जो अंग्रेज वाइसरायों को दीन भाव से अर्जियां भेजने को ही देश को गुलामी से बाहर निकलाने का कारगर अस्त्र मानते थे।

इतना जरूर है कि प्रधान मंत्री आदि के अमरीका के सामने इस तरह श्वान-वृत्ति अपनाने से एक ध्रुव सत्य स्पष्ट हो गया। आज भारत न तो उभरता सुपरपवर है न ही कोई सच्चे अर्थ में स्वतंत्र देश ही। उसकी हैसियत आज भी वही है जो उपनिवेश काल में थी। फर्क इतना है कि हम पहले अंग्रेजों के गुलाम थे, अब अमरीका के हो गए हैं। अंग्रेज सेना लेकर यहां डंटे हुए थे, जबकि अमरीका दूर बैठे अपने डालर निवेशों के बलबूते यहां राज करता है। लेकिन हम आज भी अपने हितों से संबंधित निर्णय लेने के लिए उतने ही स्वतंत्र हैं जितने अंग्रेजों की गुलामी के दिनों स्वतंत्र थे, यानी बिलकुल नहीं।

ये नेता यह नहीं देख पा रहे हैं कि पाकिस्तान के संबंध में अमरीका के हित और हमारे हित में जमीन आसमान का फर्क है, और वे परस्पर विरोधी भी हैं। अफगानिस्तान और तालिबान से लड़ाई में अमरीका के लिए पाकिस्तानी सेना का सहयोग आवश्यक है। दूसरे, अमरीका पाकिस्तान को चीन को घेरे रखने के लिए भी उपयोग कर रहा है, हालांकि यहां चीन ने अपनी कूटनीति का प्रयोग करके पाकिस्तान को बहुत हद तक अपने पक्ष में फोड़ लिया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अमरीका स्वयं भारत को एक भावी प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है और वह ऐसा कुछ नहीं करेगा जो भारत को इतना मजबूत कर दे कि वह अमरीका के लिए चुनौती बन जाए। भारत को कमजोर रखने के लिए पाकिस्तान को उभाड़ना उसकी रणनीति का एक अंग है। इसलिए यह सोचना कि अमरीका अपने हितों को नुकसान पहुंचाकर हमारी लड़ाई लड़ेगा, कोरी आत्म-प्रवंचना है।

1 Comment:

not needed said...

बहुत अच्छी समीक्षा है.

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