Monday, December 22, 2008

आतंक से कैसे निपटें

भारत का हित इसमें है कि पाकिस्तान में नासूर की तरह पनप रहा आतंक समाप्त हो, और वहां पाकिस्तानी फौज, तालिबान, मुल्ला-मौलवी और अन्य भारत-विरोधी तत्व निस्तेज हो जाएं, भारत पर हजार चोट करके उसे शिथिल करने की पाकिस्तानी नीति को निष्फल किया जाए। यह सब तभी संभव होगा जब पाकिस्तान को ऐसी स्थिति में लाया जाए कि वह भारत की बात माने। आज पाकिस्तान खुलेआम भारत को अंगूठा दिखा रहा है, इसलिए क्योंकि यह उसके लिए बिलकुल ही सस्ता अथवा मुफ्त का खेल है। यदि हम ऐसा कुछ कर सकें जिससे पाकिस्तान के लिए भारत के साथ अच्छे संबंध रखना लाजिमी और फायदेमंद हो, तभी वह इस विनाशी खेल से बाज आएगा।

हमें पाकिस्तान के ऐसे वर्गों के हाथ मजबूत करने होंगे जो भारत के साथ अच्छे संबंध चाहते हैं। इनमें वहां के व्यापारी वर्ग, आम जनता, कलाकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक आदि हैं। भारत को इनके साथ मेल-जोल बढ़ाना चाहिए और उन्हें धर्म-आधारित या सेना द्वारा संचालित समाज-व्यवस्था के बदले लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था के फायदे समझाने चाहिए। भारत में विभिन्न कौमों और धर्मों के लोगों के हजारों वर्षों के सहअस्तित्व से एक सहिष्णु, मेल-मिलाप वाली संस्कृति पनपी है जो भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की साझी संपत्ति है। इसकी रक्षा करना और इसका फायदा उठाना इन तीनों देशों की जनता की जिम्मेदारी है। यह संस्कृति भारत में तो बहुत-कुछ फल-फूल रही है, पर पाकिस्तान और बंग्लादेश में तेजी से लुप्त होती जा रही है, वहां तालिबानी वहशीपन का साया फैलता जा रहा है। वहां के नागरिकों को एहसास कराना चाहिए कि वे कितनी बड़ी निधि खोते जा रहे हैं और उसके बदले में कितना क्षुद्र कंकड़ पा रहे हैं।

यह सब अंग्रेजों की कूटनीति की सफलता है जब आजादी के वक्त उन्होंने भारत को कमजोर रखने के इरादे से उसका विरोधी गुटों में विभाजन कर डाला था। आज पाकिस्तान में जो हो रहा है और वहां जो तालिबान का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, वह सब इसी कूटनीति का फल है। बंग्लादेश में भी यह जहर फैलता जा रहा है। सौभाग्य से भारत के मुसलमान बहुत कुछ इस जहरीले प्रभाव से बचे हुए हैं। अब सब आशाएं उन्हीं पर टिकी हैं। यह उन्हीं का ऐतिहासिक कार्यभार होगा कि वे भारत के अन्य कौमों की मदद से देश के इस विभाजन को निरस्त करके देश के तीन टुकड़ों को फिर से एक कर दें। यही आतंक का सही समाधान होगा।

अभी भारत का कोई वश पाकिस्तान पर नहीं चलता क्योंकि वह एक स्वतंत्र देश है, हालांकि हजारों सालों से सांस्कृतिक रूप से वह एक ही महान देश का अंग रहा है। ब्रिटिश कूटनीति के कारण वह हाल के कुछ दशकों से स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व में रह रहा है। पर पिछले साठ सालों के अनुभव से अब यह स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान के बनने से न भारत का भला हुआ है न स्वयं पाकिस्तान की जनता का। यदि फायदा हुआ है तो चंद फौजी जनरलों का और वहां के बड़े-बड़े जमींदारों और मुल्ला-मौलवियों का। वहां की जनता आज भी घोर गरीबी, अशिक्षा और बीमारी के तले पिस रही है। वहां की फौज, जमींदारों और धर्म के ठेकेदारों का गठजोड़ पाकिस्तानी जनता के इन कष्टों का निराकरण न करके उन्हें भारत के प्रति शत्रुता बरतने की घुट्टी पिलाता जा रहा है। हालांकि सचाई यह है कि यदि भारत-पाकिस्तान-बंग्लादेश एक हो जाएं, तो जनता के असली दुश्मन - गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, बेरोजगारी आदि पर अधिक संगठित और असरकारक रूप से धावा बोला जा सकता है।

आज इन तीनों देशों का एकीकरण एक असंभव सा कार्य लगता है, पर मुंबई नरसंहार जैसी घटनाएं हमें बार-बार याद दिलाती हैं कि अब इससे बचा नहीं जा सकता। भारत पर हो रहे आतंकी हमले का सही उत्तर भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश को एक ही शासन के तले लाना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत की फौज इन देशों पर सैनिक विजय प्राप्त कर ले। यह यदि संभव भी हो, तो इससे काम नहीं बनेगा क्योंकि इससे पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता के मन में भारत के प्रति तीव्र घृणा और प्रतिशोध की भावना पनपेगी, जिसके रहते किसी भी प्रकार का सहयोग संभव न हो पाएगा।

हमें पाकिस्तान और बंग्लादेश को समझाना होगा कि यह उन्हीं के हित में है कि वे भारत में एक बार फिर विलीन हो जाएं। हमें जो नीति अपनानी होगी, वह उसी तरह की होनी चाहिए जिसके तहत यूरोप के सदियों से युद्धरत देश आज एक हो गए हैं। हम इस कार्य को चरणबद्ध रूप से पूरा कर सकते हैं। पहले तीनों देशों की संस्थाएं, जैसे स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, आदि एक-दूसरे के लिए खुल जाएं। छात्रों, अध्यापकों, डाक्टरों, नर्सों आदि का आदान-प्रदान हो। फिर तीनों देशों की कोई सामान्य मुद्रा चलाई जा सकती है। पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है। तीनों को समान नागरिकता के अधीन लाया जा सकता है, अर्थात बिना वीसा के इन तीनों देशों के लोग एक-दूसरे के क्षेत्र में आ-जा सकें। सैनिक तालमेल बढ़ाई जा सकती है, और अंततः एक सेना की ओर प्रयास करना चाहिए। अपराध, धर्मोन्माद आदि को नाथने के लिए तीनों को सम्मिलित प्रयास करना चाहिए। और जब सभी पक्षों को यकीन हो जाए कि इसमें किसी का नुकसान नहीं है, बल्कि फायदा ही फायदा है, तब तीनों की सरहदें मिटाई जा सकती हैं। इस पूरी प्रक्रिया को पूरा होने में दस, बीस या सौ साल भी लग सकते हैं, पर हमें निरंतर इस ओर कदम बढ़ाते जाना चाहिए।

अखंड भारत के विचार का अब समय आ गया है। अखंड भारत के इतिहास में मुंबई नरसंहार एक ऐसा मील का पत्थर बने, जिसने तीनों देशों के नागरिकों में विभाजन के कलंक को मिटाने की आवश्यकता का बोध कराया। तीनों देशों के हर वर्ग के लोगों को सोचने लगना चाहिए कि किस तरह इस प्राचीन और महान देश के तीनों टुकड़ों को फिर से जोड़ा जाए। यदि करोड़ों लोग सक्रिय रूप से इस दिशा में सोचें, तो ये टुकड़ें अपने आप ही एक हो जाएंगे।

मुंबई नरसंहार को लेकर बहुत जबान चली है, बहुत से पन्ने रंगे गए हैं, पर इस नजरिए से किसी ने नहीं सोचा है, कि आतंक का अंत तभी होगा जब भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश राजनीतिक, सांस्कृतिक, सैनिक और भौगोलिक रूप से एक इकाई बनें। इससे पता चलता है कि काम कितना कठिन है। अभी तो लोग आतंक के मूल कारण को भी समझ नहीं सके हैं। मूल कारण भारत का विभाजन है। मूल कारण अंग्रेजों की कूटनीति है, यहां संप्रदायवाद भड़काने और धार्मिक उन्माद को हवा देने की उनकी नीति है। हम जिन्ना, नेहरू, पटेल आदि को कोसते हैं कि उनकी विफलता और परस्पर वैमनस्य के कारण देश बंटा। पर वे मात्र अंग्रेजों के हाथ के कठपुतले थे। असली कारण अंग्रजों की देश की जनता में दरार डालने की कुटिल नीति थी, ताकि देश सदा कमजोर रहे और उनके लिए चुनौती न बने। हर बार जब भारत पर आतंकी हमला होता है या पाकिस्तान में जुलफिकर भुट्टो, बेनजीर भुट्टो, जिया उल हक और अनेकानेक नेता मारे जाते हैं, तो यह कुटिल नीति का प्रभाव स्पष्ट होता है। इस कुटिल नीति को कमजोर करने और अंततः उसे पूर्णतः मिटाने का एक ही तरीका है कि तीनों देशों को फिर एक किया जाए।

यह कैसे किया जाए, यह सोचने की बात है। पर हमें याद रखना चाहिए कि इस दुनिया में कोई भी बात असंभव नहीं होती। राजनीति की परिभाषा ही यह है वह ऐसी कला है जो असंभव को संभव कर दिखाए। जब चंद्रगुत्प मौर्य ने सिकंदरी हमले के समय के छिन्न-भिन्न भारत को चाणक्य की मदद से समेटकर एक विशाल साम्राज्य गठित किया था तब उसने ऐसे ही असंभव को संभव सिद्ध किया था। यही कार्य बाबर और अकबर ने चौदहवीं सदी में किया था। 1857 में जब हिंदू और मुसलमान एक होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े थे, तो भी हमने यही गौरवशाली प्रयास किया था। गांधी आदि नेताओं के नेतृत्व में देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए हमने जो महान संग्राम छेड़ा, वह भी ऐसा ही एक प्रयास था। अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर प्रयास करें एक महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, देश को एक करने के लिए।

यदि हम सब मान जाएं कि देश का विभाजन गलत था, देश की जनता के हित में नहीं था, और देश की जनता का असली हित देश के टुकड़ों को जोड़ने में है, तो हम कुछ ही दशकों में अखंड भारत के सपने को साकार कर लेंगे। तीनों देशों के लेखकों, कलाकारों, राजनेताओं, राजनीतिक दलों, कारोबारी लोगों, जन साधारण, सभी को गंभीरता से सोचना चाहिए कि अखंड भारत को कैसे साकार किया जाए। इस ओर छोटे-छोटे कदम अभी से उठाए जा सकते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि हम अखंड भारत को साकार करने के लिए क्या कर सकते हैं, और उसे तुरंत करने लग जाना चाहिए। अखंड भारत हममें से अधिकांश के जीवनकाल में संभव नहीं भी हो सकता है। पर हमें अपने बाल-बच्चों का खयाल करके इस ओर प्रयत्नशील रहना चाहिए। जब भरत-पाकिस्तान-बंग्लादेश फिर से एक हो जाएंगे, तो हम कितना महान देश बन जाएंगे इसकी कल्पना करके हमें अपने उत्साह को बुलंद रखना चाहिए।

2 Comments:

not needed said...

एक हो जाएँ, अब तो कल्पना मात्र है. स्वाट ( Swat) घाटी किसके अधीन होगी? जिस ढंग से पकिस्तान व् बंगला देश में अराजकता, धरम का उन्माद भाडा है, एक्कीकरण की सम्भावना पर पाजी ही फिर रहा है.

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

मुनीश जी, स्वात घाटी कुछ ही शताब्दी पूर्व वेद मंत्रों और बौद्ध उच्चारणों से गूंजा करती थी। यहां ऋषि मुनियों के आश्रम थे।

यहां का इतिहास हजारों साल पुराना है, तालिबान तो वहां चार-पांच साल से ही हैं।

माहौल बदलने में देर नहीं लगता।

पाकिस्तान में जो हालात आज है उसे देखकर स्वयं पाकिस्तानियों को लग रहा होगा कि विभाजन एक भारी गलती थी। यदि वे धर्मनिरपेक्ष भारत को न तोड़ते, तो वे कहीं बेहतर होते।

उनमें इतिहास की इस भूल को पलटने की ख्वाहिश पैदा करने में देर नहीं लगेगी, यदि हम यहां से सही संकेत देने लगें।

यूरोप सौ सालों से युद्धरत रहा। फ्रांस और ब्रिटन के युद्ध तो सौ-सौ सालों तक चलते थे। फ्रांस और जर्मनी भी एक दूसरे के कटु शत्रु थे। पर वे सब आज एक हो गए हैं, क्योंकि उन्हें इसी में फायदा नजर आता है।

इसी तरह भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का हित एक होने में है। जब उन्हें यह बात समझ में आ जाएगी, वे एक होकर रहेंगे।

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