Thursday, December 18, 2008

मुंबई हमला और मोमबत्ति मार्च का सच

मुंबई हमले के सूत्रधारों का खुलासा हो चुका है। हमलावर पाकिस्तान से आए, पाकिस्तान के तत्वों ने उन्हें पाकिस्तान में स्थित शिविरों में प्रशिक्षण दिया, और पाकिस्तान से ही उन्हें पैसे, हथियार, निर्देश और मार्गदर्शन मिले। स्वयं पाकिस्तान ने लश्कर-ए-तौयबा और जमात-उद-दावा को प्रतिबंधित करके और उसके सरगना को नजरबंद करके यह कबूल कर लिया है कि इस हमले में पाकिस्तान का हाथ है।

ऐसे में भारत की क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए? देश के नेताओं, अफसरों और मुंबई के कुछ नागरिकों के मन में गुस्सा है, अपमान है कि देश के बाहर का कोई आतंकी दल बेरोक देश के समृद्धतम शहर में घुस आया और नरसंहार कर गया। अभी कई वर्षों से भारत के कुछ वर्ग देश को एक उभरती विश्व शक्ति के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, हलांकि यहां अब भी अपार गरीबी, भूख, बेरोजगारी, अशिक्षा और बीमारी का बोलबाला है। फिर भी भारत को चीन और अमरीका के समकक्ष रखना इस वर्ग की मंशा है। यह हमला इस वर्ग द्वारा कल्पित भारत की छवि पर घड़ों ठंडा पानी उंडेल गया है।

पर हमले के प्रति गुस्से को इस वर्ग ने जिस रीती से व्यक्त किया है, उस पर कुछ टिप्पणी करना जरूरी लगता है। टीवी चैनल इस वर्ग का मुख्य वक्ता है, उसका दूसरा वक्ता है, अंग्रेजी अखबार। टीवी चैनलों के प्रसारणों को देखकर तो ऐसा लगता था कि सारा देश आपे से बाहर हुआ जा रहा है और तुरंत ही सेना लेकर पाकिस्तान पर चढ़ बैठने वाला है। पर यह हमारा सौभाग्य है कि टीवी चैनल देश की रग पहचानने में इस बार भी असफल रहे। हमले के दो दिन बाद ही देश के तीन-चार बड़े-बड़े राज्यों में चुनाव हुए। टीवी चैनलों ने विश्वास के साथ कहा कि आतंक इन चुनावों के नतीजों को प्रभावित करके रहेगा, और भाजपा को, जिसने शुरू से ही आतंक को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाया था, भारी लाभ पहुंचेगा। पर ऐसा नहीं हुआ, भारत की जनता ने मुंबई हमले की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, और स्थानीय मुद्दों के आधार पर उम्मीदवारों को चुना।

क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि टीवी चैनल अपनी अलग ही दुनिया में रहते हैं, जिसका देश की जमीनी हालातों से कोई ताल्लुकात नहीं है। देश गरीबी, भूख, सूखा, बेरोजगारी, अशिक्षा, कुपोषण, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार, और न जाने किन-किन विपत्तियों से जूझ रहा है, पर टीवी चैनलों ने दूध पीते सांप, नरभक्षी तांत्रिक, भुतहा महल, समलैंगिकों का विवाह, किस फिल्मी सितारे ने किस हीरोइन को तलाक दिया, या किसे चूमा, घर की बहू-बेटियों को अध-नंगी हालत में नाचने के लिए प्रोत्साहित करने वाले रियालटी शो, या बिग बोस जैसे अनैतिक सीरियलों और कार्यक्रमों को ही प्राइम टाइम में दिखाने में देश का सर्वोच्च हित समझा। समाचार चैनलों में दो मिनट इस तरह के “समाचार” दिखाए जाते हैं और अगले पांच मिनट अंग प्रदर्शन और फूहड़ता से भरे विज्ञापन। शायद टीवी चैनलों और उनके मालिकों का (जो सब बड़े-बड़े उद्योगपति या विदेशी मीडिया मुगल हैं) उद्देश्य ही यह है कि इस तरह के बेतुके और खयाली कार्यक्रम दिखा-दिखाकर लोगों के मन को सुन्न कर दिया जाए और देश की असली समस्याओं से उन्हें दूर रखा जाए ताकि लोग एक प्रकार की झूठी खुश-फहमी में रहें और टेढ़े और कठिन सवाल न पूछने लगें, जैसे, आजादी के साठ सालों के बाद भी देश से गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी क्यों दूर नहीं हुई, और किसान क्यों आत्महत्या कर रहे हैं?

अब तो इन टीवी चैनलों और उन्हें देखनेवालों की एक अजीब सा वर्ग ही बन गया है जो देश की वास्तविकताओं से बिलकुल कटा हुआ है। उनकी अवास्तविकता मुंबई हमले जैसी घटनाओं के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं से भली-भांति जाहिर होती है।

मुंबई हमले के कुछ दिन बाद ही मुंबई के गेटवे ओफ इंडिया के सामने ये लोग मोमबत्तियां लेकर इकट्ठे हुए और तरह-तरह की बेतुकी मांगें टूटी-फूटी अंग्रेजी में करने लगे। लगभग 120 लाख आबादी वाले इस विशाल महानगरी में मुट्ठी भर लोग (किसी ने 20,000 बताया है, किसी ने 10,000) ही इस “प्रदर्शन” में शरीक हुए, जो स्पष्ट करता है कि देश में इस तरह के लोग हमारे सौभाग्य से अभी इने-गिने ही हैं। और इन दस-बीस हजार लोगों में से भी कितने प्रीती जिंता और अन्य फिल्मी हस्तियों को नजदीक से देखने के लालच में वहां आए थे, यह कहना मुश्किल है, पर काफी संख्या इस तरह के तमाशबीनों की भी रही ही होगी। इसी तरह के प्रदर्शन देश के कुछ अन्य बड़े अंग्रेजीदां नगरों में भी कराए गए, जैसे बंगलूरु में।

पर इन प्रदर्शनों में कई ऐसी बातें थीं, जो इनके खोखलेपन को उजागर करती हैं। कई लोग अपने हाथों में इश्तहार लिए हुए थे, पर इन इश्तहारों पर नजर डालते ही स्पष्ट हो जाता था कि उनका लक्ष्य-समूह कौन है। इश्तहार सब अंग्रेजी में थे, और अमरीका और ब्रिटन की नजरों के लिए थे। यदि भारतीयों के लिए होते, तो वे ऐसी भाषा में क्यों लिखे होते जिसे देशवासी नहीं समझते? इसकी भी संभावना है कि इश्तहार दिखाने वाले ये लोग कोई भी भारतीय भाषा ठीक तरह से न जानते हों, क्योंकि ये सब या तो विदेशों में पले-बढ़े हैं या अंग्रेजी-दां स्कूलों में, जिसकी वजह से देशी भाषाओं के ज्ञान से ये महरूम हो चुके हैं। यह बात उनके बोले गए बयानों से और भी अधिक स्पष्ट होता था, क्योंकि ये दो वाक्य भी बिना अंग्रेजी के शब्द बीच में लाए नहीं बोल पा रहे थे।

इन्हें देखकर यह लगता है कि मराठी के चैंपियन राज ठाकरे हिंदी भाषियों को मुंबई से खदेड़ने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करके अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। उन्हें इन अंग्रेजीदां लोगों को मुंबई से बाहर करने की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इनके ही कारण मराठी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं की बाढ़ मारी जा रही है। पर राज ठाकरे ऐसा क्यों करने लगे, स्वयं उनका बेटा स्कूल में मराठी न पढ़कर जर्मन पढ़ने में लगा हुआ है।

यह वर्ग इतना पश्चिमीकृत और अंग्रेजीदां हो चुका है कि इसे इसकी बड़ी चिंता लगी रहती है कि अमरीका आदि में लोग इनके बारे में क्या सोचते हैं। इनके अपने ही देश के
भाई-बहनों की तकलीफों और परेशानियों को लेकर इनकी रात की नींद कभी नहीं खराब होती। जब बिहार में लाखों लोग बाढ़ से तबाह हो रहे थे, या महाराष्ट्र में ही हजारों किसान गरीबी और मुफलीसी के कारण आत्महत्या कर रहे थे, या मुंबई में ही ट्रेनों पर आंतकी हमले हो रहे थे, तो इनमें से किसी ने भी गेटवे ओफ इंडिया में मोमबत्ती मार्च कराने की नहीं सोची। सवाल उठना स्वाभाविक है, कि अब क्यों?

उत्तर बिलकुल सीधा है। जब अमरीका के ट्विन टावर पर 11 सितंबर (नायन लेवन) को आतंकी हमले हुए थे, तो ऐसे मोमबत्ती मार्च अमरीका में कराए गए थे। मुंबई हमले को इस वर्ग ने भारत का नायन लेवन के रूप में महिमा-मंडित कर दिया था। इसलिए यह आवश्यक था कि भारत में भी इसी तरह के प्रदर्शन हों, ताकि दुनिया देख सके कि भारत भी अमरीका जितना ही आगे बढ़ा हुआ देश है, और वह भी अपना मातम मोमबत्ती जलाकर करता है। पर रोटी-कपड़ा-मकान की झंझटों से परेशान देश की आम जनता को न तो नायन लेवन से कोई लेना-देना था, न ही मुंबई हमले से। उन बेचरों की सारी ताकत तो इस समस्या का हल करने में ही खर्च हो जाती थी कि अगली जून की रोटी कहां से आएगी।

दूसरा कारण यह था कि इस बार हमला मुख्य रूप से गरीबों द्वारा इस्तेमाल करनेवाले ट्रेनों या बाजारों में न हुआ था, बल्कि फिल्मी सितारे, अरबपति कारोबारी, विदेशी सैलानी और आला अफसर जहां शाम को जाम पीने इकट्ठे होते थे, ऐसे सात सितारा होटलों में हुआ था, और हमले में इस तरह के लोग भारी संख्या में मारे भी गए थे। कहते हैं, जब अपने लोग मरते हैं तो दर्द ज्यादा महसूस होता है। इन लोगों की मानसिकता कितनी संकीर्ण हो चुकी है कि इनके लिए "अपने लोग" देश की तमाम जनता नहीं, बल्कि सात सितारा होटलों के चंद मेहमान हैं।

और नायन लेवन के बाद अमरीका ने तुरंत अफगानिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया था, इसलिए मोमबत्ती मार्चरों ने भी गुहार लगाई कि पाकिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया जाए। न तो मामले की पर्याप्त छानबीन को, न ही युद्ध जैसे गंभीर विकल्प के नफे-नुकसान का हिसाब लगाने को इन लोगों ने जरूरी समझा। बस लगे नारे लगाने, पाकिस्तान पर युद्ध कर दो। आखिर पाकिस्तान क्या हमारे लिए गैर है जो हम उस पर हमला करने लगें? अभी साठ साल पहले तक वह इसी देश का हिस्सा था। आज भी देनों देशों के लाखों नागरिकों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता है। देश के प्रमुख धर्म के पवित्र ग्रंथ, वेद, वहीं रचे गए थे। क्या अमरीका और अफगानिस्तान के रिश्ते इस तरह के हैं? पर मोमबत्ति मार्चरों को इससे क्या लेना-देना है? वे तो अमरीका के इतिहास को स्वयं अपने देश के इतिहास से बेहतर जो समझते हैं।

उनकी एक अन्य "रणनीति" थी सारा ठीकरा राजनेताओं पर फोड़ना। लगे मांग करने कि गृह मंत्री हटे, महाराष्ट्र का मुख्यमंत्रि बदले, महाराष्ट्र का गृह मंत्रि इस्तीफा दे। वे आसान समाधान चाहते थे। राजनेताओं को बलि का बकरा बनाना आसान था, पर राजनेताओं को भ्रष्ट और निकम्मा बनाया किसने? आज देश की एक कटु सच्चाई यह है कि शासन पैसेवालों और उद्योगपतियों के हाथों का खिलौना है। इस वर्ग ने देश की प्राथमिकताएं बदल दी हैं। गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, भूख आदि से लड़ना अब देश की प्राथमिकता नहीं है। अमरीका के साथ परमाणु संधि करना, फालतू की प्रौद्योगिकियां देश में लाना जिनसे न तो लोगों को रोजगार मिलते हैं न ही उत्पादकता बढ़ती है, और विदेशी पूंजी को देश में खुला तांडव मचाने की छूट देना, ये सब देश की प्राथमिकताएं हो गई हैं।

आखिर इन मोमबत्ति मार्चरों से पूछना चाहिए कि आप नेताओं पर इतने लाल-पीले हो रहे हैं, लेकिन उन्हें चुनने के लिए आपमें से कितनों ने मतदान किया था? इससे इनकी असलियत खुल जाती। और इनके पीछे जो उद्योगपति हैं, उनसे पूछना चाहिए कि गलत नेताओं और पार्टियों को सत्ता में लाने के लिए उन्होंने कितने अरब रुपए पार्टी कोषों में दिए हैं? तो उनकी भी पोल खुल जाती।

गेटवे ओफ इंडिया में जमा 20,000 लोगों में से 19,000 लोगों ने कभी अपनी जिंदगी में मत दिया हो, तो यह आश्चर्य की बात होगी। क्या यह एक अजीब सा माजरा नहीं है कि जिन नेताओं को इन लोगों ने चुना ही नहीं, उन्हें निकाल बाहर करने में ये इतनी उछल-कूद मचा रहे हैं?

खैर छोड़िए इन मोमबत्ति मार्चरों को। इस आतंक का क्या करें, जो कैंसर की तरह देश के देह में फैलता जा रहा है?

इसका कोई आसान समाधान नहीं है। मामले की जड़ तक जाकर ही कोई कारगर समाधान किया जा सकता है। और आतंक की जड़ें आपको दो-राष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर देश के विभाजन में मिलेंगी। अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए भारत में इस सिद्धांत को जाते-जाते सफलतापूर्वक आजमाया था। द्वितीय विश्व युद्ध में साम्राज्यवादी देशों को भारी क्षति पहुंची थी और वे सामरिक, आर्थिक और सामुदायिक रूप से कमजोर हो गए थे। उनके उद्योग नष्ट हो गए थे, खजाने खाली हो गए थे, और भारी संख्या में उनके नागरिक भी मारे गए थे। उन्हें अपने समाज और अर्थव्यवस्था को नए सिरे से खड़ा करना था। यह अमरीकी मदद के बिना संभव न था, जो एकमात्र पूंजीवादी देश था जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में अपेक्षाकृत कम क्षति झेली थी। उसके प्रतिद्वंद्वी पूंजीवादी देश सब, जैसे ब्रिटन, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि युद्ध के कारण पस्त हो चुके थे। इन पिटे हुए पूंजीवादी देशों को हमेशा के लिए करारी हार देकर उनके अगुआ के रूप में उभरना अमरीका के लिए अब संभव था। लेकिन विश्व का अधिकांश भाग इन पिटे हुए पूंजीवादी देशों के कब्जे में था। इन उपनिवेशों को मुक्त कराए बगैर अमरीकी उद्योगों के लिए और अमरीकी माल के लिए नए बाजार नहीं मिल सकते थे। इसलिए अमरीका ने इन पूंजीवादी देशों की मदद करने के लिए (जिसे मार्शल प्लान के रूप में जाना जाता है) यह शर्त रखी कि उपनिवेश आजाद कर दिए जाएं। उधर उपनिवेशों में भी आजादी का आंदोलन तेज हो रहा था। मुट्ठी भर गोरे सैनिकों के लिए अब करोड़ों लोगों को दबाए रखना मुश्किल होता जा रहा था। अंग्रेजों को अपनी देशी फौज पर भी भरोसा नहीं रह गया था। यह फौज गोरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर द्वतीय विश्वयुद्ध की रणभूमियों में लड़ चुकी थी, और अब आत्मविश्वास से भरी हुई थीं। युद्ध जिन उद्देश्यों के लिए लड़ा गया था, यानी आजादी, लोकतंत्र और मानव जाति की एकता, उनसे भी वह भली-भांति परिचित हो गई थी, और अच्छी तरह समझती थी कि भारत में अंग्रेजों का रहना इन सिद्धांतों का घोर उल्लंघन है। आजादी के आंदोलन और उससे जुड़े दमन के कारण भारत पर अपना कब्जा बनाए रखना अंग्रेजों के लिए उत्तरोत्तर महंगा होता जा रहा था। एक दूसरी बात यह थी कि अब भारत में एक देशी पूंजीपति वर्ग भी बन चुका था जो अंग्रेजी पूंजीपतियों से होड़ करने लगा था। यह शक्तिशाली वर्ग भी आजादी के पक्ष में था, ताकि उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी अंग्रेज पूंजीपतियों को देश से निकाल बाहर करके विशाल भारतीय बाजारों पर स्वयं कब्जा कर सके। इन सब कारणों से भारत में अंग्रेजों की अंतिम घड़ी आ गई थी।

पर जाते-जाते उन्होंने अपनी पुरानी कूटनीतिक चाल, बांटो और राज करो, चली। इसी कूटनीति से वे दो सदी पूर्व देश के राजाओं को एक-एक करके हराकर सारे देश की छाती पर चढ़ बैठे थे, हालांकि 1857 में हिंदुस्तान ने इस कूटनीति को विफल बनाने का भरसक प्रयास किया। अंग्रेजों ने देश को दो विरोधी भागों में बांट दिया ताकि ये दोनों आपस में ही लड़ते रहें और ब्रिटन को किसी भी प्रकार की चुनौती न दे सकें। हमारे नेता अंग्रेजों की इस चाल को समझ न सके, और देश का विभाजन होने दिया। इससे भारत की कोई भी समस्या नहीं सुलझी। न भारत हिंदू राष्ट्र बना, न ही पाकिस्तान स्थिर बन सका। पच्चीस साल में ही उसके दो टुकड़े हो गए। आजकल आतंक का जो ज्वार देखने में आ रहा है, वह इसी ऐतिहासिक गलती से जुड़ा हुआ है। विभाजन अंग्रेज साम्राज्यवादियों की एक कूटनीतिक जीत थी, और हमारे समुदायों की करारी हार।

जब तक इस राष्ट्रीय विफलता को निरस्त करके देश के सभी टुकड़ों को फिर से एक न किया जाए, आतंक रहेगा। दो-राष्ट्र की नीति गलत थी, मुंबई के आतंकी हमले ने इसे सबको एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है। जब तक इस गलती को सुधारा नहीं जाएगा, आतंक का सिलसिला जारी रहेगा और कश्मीर जैसे मुद्दे जिंदा रहेंगे।

मोमबत्ती जलाकर नेताओं को इस्तीफे देने की गुहार लगाने से और अमरीकियों और ब्रिटनवासियों को इश्तहार दिखने भर से कुछ बदलने वाला नहीं है। न ही पाकिस्तान से युद्ध छेड़ने से कुछ होगा। इससे तो पाकिस्तान के लोग हमसे और भी ज्यादा दूर जा पड़ेंगे। आवश्यकता है इस बात की कि तीनों देशों के समुदायों को और निकट लाया जाए, ताकि उनके हित एक हो जाएं। यह कोई आसान काम नहीं है। इसे अंजाम देने के लिए काफी सृजनात्मक सोच, निर्लिप्त नेतृत्व, हर कौम की ओर से महान बलिदान और अपार धीरज दरकार होगा।

सैंकड़ों सालों से युद्धरत यूरोप यदि एक हो सकता है, तो अंग्रेजों की कूटनीति से साठ-सत्तर सालों से अलग हुए, पर हजारों साल साथ रहे इस प्राचीन देश के टुकड़े भी अवश्य एक हो सकते हैं। यही आतंक का सही जवाब होगा।

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