Tuesday, December 16, 2008

आतंक का उत्तर अखंड भारत

अब यह लगभग स्पष्ट हो चुका है कि मुंबई हमलों के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। सवाल यह है कि अब क्या किया जाए। भारत ने पाकिस्तान से 20 आतंकियों को सौंपने की मांग की है, जिसे पाकिस्तान ने ठुकरा दिया है। पहले के अवसरों की तरह इस बार भी पाकिस्तान की दलीलें बहुत कुछ वे ही हैं - इस हमले का पाकिस्तान से कोई ताल्लुक नहीं है; ये आतंकवादी पाकिस्तानी नागरीक हैं ही नहीं, बल्कि ये मुंबई के ही निवासी हैं, क्योंकि इन्हें मुंबई की अच्छी जानकारी थी; और, यदि फिर भी भारत को यकीन न हो, तो वह अपने पास मौजूद सारे सबूत पाकिस्तान को दे दे, पाकिस्तान उनके आधार पर अपनी अदालतों में मुंबई हमलों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों पर कार्रवाई करेगा। यह आखिरी दलील अमरीकी दबाव के फलस्वरूप किया गया है। अमरीका ने चेतावनी दी है कि यदि पाकिस्तान आतंकियों पर कार्रवाई नहीं करेगा, तो अमरीका को यह कार्रवाई करनी पड़ेगी।

पाकिस्तान ने इस बार उपर्युक्त दलीलों के अलावा एक नई दलील भी पेश की है, जो काफी रोचक है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने कहा है कि मुंबई हमले अराज्यीय कर्ताओं (नोन-स्टेट एक्टरों) की करतूत है, और पाकिस्तानी सरकार का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यदि इस दलील को माना भी जाए, तो यह बात निर्विवाद है कि इन अराज्यीय कर्ताओं को पाकिस्तान में खूब शह मिलता है, उन्हें वहां पाला-पोसा जाता है, हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, उनका मानसिक प्रक्षालन (ब्रेनवाश) करके उन्हें जेहादी बनाया जाता है, और पैसे और बमों से लैस करके भारत में उतारा जाता है। यह सब काम पाकिस्तान के अंदर से और पाकिस्तान की संस्थाओं द्वारा -- आईएसआई और पाकिस्तानी सेना द्वारा -- किया जाता है। भारत को पाकिस्तान में मौजूद ऐसे दर्जनों प्रशिक्षण शिविरों की जानकारी है। ऐसे में जरदारी का यह दलील कि पाकिस्तान का इस हमले से कोई लेना-देना नहीं है, खोखला है।

फिर भी जरदारी का वक्तव्य पाकिस्तान की असली स्थिति पर प्रकाश जरूर डालता है। आज के पाकिस्तान में पांच मुख्य शक्ति केंद्र हैं – जरदारी की सरकार, पाकिस्तानी सेना, आईएसआई, तालिबान का पाकिस्तानी रूप, और देश के पश्चिमी भागों के कबीलाई गुट, जो लगभग स्वतंत्र से हो गए हैं और जिन पर पाकिस्तानी सरकार या सेना का कोई नियंत्रण नहीं है। संभव है आनेवाले दिनों में यहां एक नए राष्ट्र बलूचिस्तान का जन्म हो जाए, या यह भी हो सकता है कि अफगानिस्तान से खदेड़े गए तालिबान यहां अपने लिए नया राष्ट्र बना लें जिसमें अफगानिस्तान और पाकिस्तान के वे हिस्से शामिल होंगे जिन पर उनका नियंत्रण है। इस तरह दिक्षण और उत्तर कोरिया, दक्षिण और उत्तर वियतनाम आदि की तरह अफगानिस्तान के भी दो भाग हो जाएंगे, एक भाग दक्षिण कोरिया की तरह अमरीकी सैनिक शक्ति के कारण टिका रहेगा, और दूसरा भाग तालिबानों और अलकायदा के नियंत्रण में रहेगा।

इन पांच शक्ति केंद्रों के अलावा पाकिस्तान में एक छठा शक्ति केंद्र अमरीकी सेना भी है जो पाकिस्तान में ओसामाबिन लादन को पकड़ने और अल कायदा को नेस्तनाबूद करने के लिए डटी हुई है। लेकिन मजे की बात यह है कि इन छह शक्ति केंद्रों में से किसी की भी सत्ता पाकिस्तान भर में नहीं चलती है।

जब हम मुंबई हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप मांग करते हैं कि पाकिस्तान यह करे, वह करे, तो हमारे लिए यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह मांग हम किससे कर रहे हैं? और हमें यह भी विचारना चाहिए कि जिससे हम यह मांग कर रहे हैं, क्या वह इस स्थिति में है भी कि वह उसे पूरा कर सके। स्पष्ट ही जब हमने पाकिस्तान से 20 आतंकवादियों को सौंपने को कहा, तब हमारे मन में यही विचार था कि यह काम पाकिस्तान की सरकार को करना है। पर असलियत यह है कि जरदारी की सरकार पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के हाथों की मात्र कठपुतली है। उसे वही करना होता है, जो उसके ये आका उससे करवाते हैं। इसके अनेक सबूत अब उपलब्ध हैं। जब मुंबई में हमला हुआ था, शुरू-शुरू में जरदारी सरकार का रवैया काफी सहानुभूतिपूर्ण रहा। जब भारत ने मांग की कि इस हमले की तहकीकात में सहयोग देने के लिए वे आईएसआई के सरगना को भारत भेजें, तो जरदारी तुरंत राजी हो गए। लेकिन दो दिन बाद ही वे मुकर गए क्योंकि उनके आका आईएसआई ने उन्हें इसके लिए फटकार बताई।

इससे पहले भी जरदारी अनेक ऐसे बयान दे चुके हैं जिनसे उन्हें कुछ ही पल बाद मुकर जाना पड़ा था क्योंकि पाकिस्तानी सेना या आईएसआई ने इन बयानों के लिए उन्हें आड़े हाथों लिया। इन बयानों में ये भी शामिल हैं -- कश्मीर के आतंकवादी फ्रीडम-फाइटर नहीं हैं; और, पाकिस्तान अपने परमाणु अस्त्रों का प्रथम प्रयोग नहीं करेगा। इससे जाहिर होता है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई पर पाकिस्तानी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, बल्कि इसकी ही अधिक संभावना है कि पाकिस्तानी सरकार की लगाम पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के हाथों में है।

तो भारत के पास क्या विकल्प हैं? क्या वह होट-पर्स्यूट की नीति अपनाकर सीमा पार के आतंकी शिविरों पर फौजी हमले करे, या हवाई हमले करके इन्हें नष्ट करे? मुंबई नरसंहार के गुस्से में हमें यह एक वाजिब कार्रवाई प्रतीत हो सकती है, पर गहराई से सोचने पर यह देश के दुश्मनों के हाथों में खेल जाना होगा।

भारत के दुश्मनों ने मुंबई नरसंहार करवाया ही इसलिए था कि भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाए। अमरीका पाकिस्तान पर निरंतर जोर डाल रहा है कि वह तालिबानों और अल कायदा पर ईमानदारी से सैनिक कार्रवाई करे। यह तालिबान पाकिस्तानी सेना का ही मानस पुत्र है और इसलिए उस पर वार करना उसे अपने ही पुत्रों को मारने जैसा प्रतीत होता है। दूसरे तालिबानी मुसलमान हैं और दो-राष्ट्र की नीति पर गठित किए गए पाकिस्तान के लिए अपने ही धर्म भाइयों पर गोली चलाना स्वाभाविक रूप से घिनौना कार्य है। अब तक झूठ-फरेब का सहारा लेकर पाकिस्तानी सेना अमरीकी आंखों में धूल झोंकती रही है, पर अब अमरीका का भी मूड बदल रहा है। वहां नया राषट्रपति ओबामा आ गया है जिसने पाकिस्तान पर कड़ा रुख अपनाने की बात कही है। दूसरी ओर अमरीका ईराक से हाथ खींचने का मन बना चुका है और अफगानिस्तान पर अपनी पूरी ताकत लगाने वाला है।

ऐसे में तालिबानों और अल कायदा पर ठोस कार्रवाई न करने के लिए पाकिस्तानी सेना के पास अब कोई बहाना नहीं बचा है। इसी परिप्रेक्ष्य में उसने मुंबई पर हमला करवाया है। वह चाहता है कि इस हमले से भारत इतना तिलमिला उठे कि दोनों देशों में युद्ध की स्थिति बन जाए, जिसका बहाना बनाकर पाकिस्तानी सेना अपने फौजियों को पश्चिमी सरहदों से हटाकर पूर्वी सरहदों में ले आ सके, और इस तरह तालिबानों से भिड़ने से बच सके। पाकिस्तान को शायद विश्वास है कि उसके परमाणु अस्त्रों के कारण भारत के साथ कोई असली युद्ध नहीं होगा, या अमरीका आदि देश ऐसा युद्ध होने नहीं देंगे।

पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने यह भी हिसाब लगाया होगा कि यदि पाकिस्तान की सरकार इस नीति का विरोध करे, तो उसे हटाकर दुबारा किसी जनरल को राष्ट्रपति बना दिया जा सकेगा। चूंकि पाकिस्तानी लोगों को बरसों से भारत-विरोधी प्रचार से बहकाया गया है, वे भी इस सरकार के टूटने का ज्यादा विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें समझाया जा सकेगा कि यह सरकार भारत के प्रति नरम रुख अपना रही है जो पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए घातक है और इसलिए उसे हटाना जरूरी है। लेकिन यहां पाकिस्तानी सेना का हिसाब गलत भी हो सकता है, क्योंकि पाकिस्तान की जनता बरसों की सैनिक तानाशाही से त्रस्त हो चुकी है और लोकतांत्रिक सरकार के फायदे समझने लगी है।

ये ही दो उद्देश्य रहे हैं पाकिस्तानी सेना के सामने, मुंबई नरसंहार रचने के लिए। पर पाकिस्तानी सेना यहां बहुत ही खतरनाक और आत्मघाती खेल खेल रही है। वह तालिबान और अल कायदा की शक्ति को कम आंक रही है। यह सही है कि तालिबान उसका मानस-पुत्र है पर यह राक्षसी पुत्र अब बड़ा हो गया है और अपनी पिता के नियंत्रण के बाहर हो चुका है। वह अपने ही पिता को मारकर अपने हितों की रक्षा करने से नहीं बाज आएगा। आज तालिबान पर अमरीकी दबाव दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। अमरीकी दबाव में आकर पाकिस्तानी सेना भी तालिबान पर कार्रवाई करने को मजबूर है। ऐसे में तालिबानों की शत्रुओं की सूची में पाकिस्तानी सेना भी आ गई है। अफगानिस्तान से खदेड़े जाने के बाद अब तालिबान के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है कि उसके पास कोई सुरक्षित जमीन हो जहां वह अपने आपको संगठित कर सके, और जिसे वह अमरीकी और पाकिस्तानी हमलों से सुरक्षित रख सके और जहां से वह अपने क्षेत्र का शासन कर सके, लोगों से कर वसूल सके और अफीम आदि की खेती करके नशीले द्रव्य बनाकर उनकी तस्करी कर सके, और इससे आनेवाले पैसे से हथियार खरीद सके, तथा अपने नेताओं को सुरक्षित रख सके।

इसलिए तालिबान धीरे-धीरे अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरहदों के आसपास के इलाकों पर अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है। अभी तालिबान और पाकिस्तानी सेना के पलड़े बराबर झूल रहे हैं, लेकिन यदि पाकिस्तानी सेना अपनी सैनिकों को हटाकर भारत की सरहद पर ले आए, तो तालिबान का पलड़ा भारी हो जाएगा और वह पूरे पाकिस्तान नहीं तो उसके उत्तर-पश्चिमी इलाकों में हावी हो जाएगा और ये इलाके पाकिस्तान के हाथ से सदा के लिए निकल जाएंगे। यानी पाकिस्तान का दूसरी बार बंटवारा हो जाएगा।

बात इतने तक भी सीमित नहीं रहेगी। तालिबान के लिए अमरीकी दबाव से मुक्ति पाने का एक ही मार्ग बचा है, वह है पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर कब्जा करना। जैसे ही पाकिस्तानी सेना मोर्चे से हट जाएगी, तालिबान आगे बढ़कर पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर कब्जा कर लेगी। तब अमरीका को भी अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा।
एक बार परमाणु हथियार तालिबानों के हाथ आ जाए, तो यह समझा जा सकता है कि ये हथियार अल कायदा को मिल चुके हैं, क्योंकि दोनों में गहरी सांठ-गांठ है। तब फिर इस दुनिया का क्या होगा इसकी कल्पना करके भी दिल दहल उठता है। यदि तालिबान या अलकायदा अमरीका, भारत, ब्रिटेन या इजराइल पर परमाणु अस्त्रों से हमला कर दे, अथवा ये ही देश तालिबानों पर परमाणु अस्त्रों से एहतियाती हमला कर दे, तो दुनिया तीसरे महायुद्ध की कगार पर पहुंच जाएगी, और पाकिस्तान की जमीन पर यह युद्ध लड़ा जाएगा।

इसलिए पाकिस्तानी सेना को और वहां के लोगों को समझना चाहिए कि तालिबान, अल कायदा और आतंकवादियों पर विजय पाना उनके भी हित में है। पर पाकिस्तानी सेना कभी भी अपनी समझदारी के लिए नहीं जानी जाती है। किसी ने सही ही कहा है कि यह एक ऐसी सेना है जिसने कोई भी युद्ध नहीं जीता है, हालांकि उस पर अरबों डालर हर साल खर्च किए जाते हैं।
ऐसे में भारत को अच्छी तरह समझना होगा कि उसके असली दुश्मन कौन हैं और उनसे कैसे निपटा जाए। गलत कदम से मामला नियंत्रण के बाहर हो जाएगा और भारत को भी लेने के देने पड़ जाएंगे।

आखिर देश के असली दुश्मन है कौन? कुछ हद तक यह सही है कि पाकिस्तान भारत की जड़ खोदने में अपने जन्मकाल से लगा हुआ है। यह राष्ट्र इस झूठे सिद्धांत पर ही रचा गया था कि हिंदू और मुसलमान अलग-अलग कौम हैं और साथ-साथ नहीं रह सकते। पर भारत इस सिद्धांत के झूठ का पर्दाफाश बड़े ही असरकारक रूप से कर रहा है। यहां सदियों से मुसलमान और हिंदू साथ-साथ रहते आ रहे हैं और उन्होंने एक मिली-जुली सांस्कृतिक सभ्यता की रचना की है जिसकी चरम उपलब्धियां हैं अकबर जैसे सहिष्णु बादशाह, ताजमहल जैसी सर्वोत्कृष्ठ वास्तुशिल्पीय नमूने, भारतीय संगीत के घराने और इस्लाम और हिंदू धर्म का मिला-जुला रूप जिसके प्रबल प्रवक्ता हैं कबीर आदि हिंदी के कवि और सूफी संत। यहां के मुसलमान इस देश की विभिन्न भाषाएं बोलते हैं, जैसे तमिल, मलयालम, गुजराती, बंगाली, हिंदी आदि और देश के हर भाग में रहते हुए वहां की संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। चाहे फिल्म उद्योग हो, या व्यापार, खेल की दुनिया हो, या विज्ञान, या राजनीति ही, मुसलमानों का योगदान स्पष्ट है। क्या नसीरुद्दीन शाह, शाहरुख खान, सलमान खान, फिरोज खान, यूसुफ खान (दिलीप कुमार), वहीदा रहमान, शबाना आजमी, मोहम्मद रफी आदि के बिना बोलीवुड की कल्पना भी की जा सकती है? आज भारत के सबसे अमीर और सफल व्यवसायियों में विप्रो के अजिम प्रेमजी गिने जाते हैं। भारतीय क्रिकेट में नई जान यदि किसी ने फूंका है तो इरफान पटेल और उसके भाई ने। सानिया मिर्जा ने टेनिस में भारत का नाम रोशन किया है। भारत के परमाणु अस्त्र योजना के पिता तिमिल भाषी मुसलमान वैज्ञानिक अब्दुल कलाम हैं, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति भी बने। भारत की अनेक भाषाओं के साहित्य में मुसलमानों का योगदान रहा है, जैसे मलयलाम में वैकम मुहम्मद बशीर का। आज भी भारत मुस्लिम आबादी वाला बड़ा राष्ट्र है जिसमें इंदोनेशिया के बाद मुसलमानों की सबसे अधिक संख्या है। अनेक छिट-पुट कौमी दंगों के बाद भी ले-देकर भारत एक धर्म-निरपेक्ष, बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, लोकतांत्रिक देश है।

इसके विपरीत पाकिस्तान, जो धर्म के नाम से बनाया गया था, पच्चीस वर्षों में दो में बंट गया, और अभी एक बार फिर बंटने की कगार पर है। बंग्लादेश के उदय ने दो कौमों के सिद्धांत की पोल खोलकर रख दी है, हालांकि पहले भी प्रबुद्ध लोगों को यह अच्छी तरह पता था कि यह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की चाल है कि आजादी के बाद भारत दो विरोधी कौमों में बंटा रहे और आपस में ही लड़ता रहे ताकि उपनिवेशी और साम्राज्यवादी काल में ब्रिटन द्वारा भारत पर किए गए अत्याचारों का गुस्सा ब्रिटन की ओर न उमड़े। इस नीति की काट उस समय के देशी नेताओं के पास नहीं थी, हालांकि गांधी जी ने भरसक प्रयत्न किया था कि बंटवारा न हो। पर वे सुधारवादी किस्म के नेता थे, और देशी उद्योगपतियों के हितपोषक थे, जो हिंसा से घबराते थे। केवल भारत की जनता की सशस्त्र पहल ही देश को एक-जुट रख सकती थी, और अंग्रेजों की चाल को विफल कर सकती थी। लेकिन गांधी जी ने जन-उभार को बारबार रोका और अपनी अहिंसा वाली नीति सामने रखी। उन्होंने माना कि शांतिपूर्ण तरीके से लोगों का हृदय परिवर्तन करके देश की समस्याओं का निराकरण हो सकता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जहां निजी स्वार्थ आड़े आते हों, वहां मात्र नसीहत देकर, अनशन करके और अनुरोध करके लोगों का व्यवहार कभी नहीं बदला जा सकता है, शक्ति-प्रयोग अनिवार्य होता है। जब रावण ने सीता का अपहरण किया तब राम ने न तो अनशन रखा, न रावण के हृदय परिवर्तन की कोशिश की, बल्कि वानरों की सेना लेकर लंका पर चढ़ बैठे। इसी प्रकार लेनिन और उनके साथियों ने रूस के जारों के सामने भूख हड़ताल नहीं की, बल्कि सशस्त्र विरोध से सत्ता पलट की। यही भारत को भी अंग्रेजों के विरुद्ध करना चाहिए था, तब भारत का इतिहास कुछ और ही होता, पर यह नहीं किया गया और अंग्रेजों की कूटनीति सफल हुई, और आज हम आतंकवाद के एक नए कांड से जूझ रहे हैं। दुख की बात यह है कि कहा नहीं जा सकता है कि ऐसे कांड भविष्य में नहीं घटेंगे।

खैर, पाकिस्तिन एक ऐतिहासिक भूल के कारण पैदा हुआ और उसे इस मस्कद से पैदा किया गया कि भारत को उलझाकर रखा जाए। यह काम पिछले साठ सालों से वह बखूबी करता आ रहा है और इसे देखकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को अपनी नीति की सफलता पर गर्व महसूस हो रहा होगा। मुंबई नरसंहार इसी सिलसिले की नवीनतम कड़ी है, इसलिए जिन लोगों ने भारत के बंटवारे को स्वीकारा था उनके वंशजों को इसमें कोई भी आश्चर्य की बात नहीं दिखनी चाहिए। आज यदि युवा पीढ़ी में मुंबई नरसंहार को लेकर इतना आक्रोश नजर आ रहा है, तो इसका मुख्य कारण यह है कि यह नई पीढ़ी काफी हद तक पैसे और अच्छे जीवन के पीछे बिक चुकी है और उसे किसी अन्य बात की तब तक परवाह नहीं होती जब तक उस पर आंच न आए, और अब उस पर आंच आ गई है और इसलिए वह बौखला उठी है। इस पीढ़ी के लोगों ने भारतीय इतिहास के अहम पहलुओं का पर्याप्त अध्ययन नहीं किया है, और भारत विभाजन की असली साजिश को वे नहीं समझ सके हैं। हालांकि, उनके गुस्से के कुछ अन्य कारण भी हैं - इस बार हमला मुख्य रूप से गरीबों के मुहल्लों, बाजारों, अस्पतालों और ट्रेनों और बसों में नहीं हुआ है, बल्कि देश के चोटी के नेता, कारोबारी, फिल्म अभिनेता, कलाकार और विदेशी शाम को दो जाम पीने जहां निकलते थे, उन सात सितारे होटलों में हुआ है। जब तक यह वर्ग आतंकी हमलों से बचा रहा और हमले देश के गरीबों और आम जनता पर होती रही, उन्हें कोई परवाह नहीं थी, पर जैसे ही हमला उन पर हुआ, उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया। पर क्या उनके पास इस मसले का कोई समाधान है? यही कि कुछ नेताओं को बदल दिया जाए, नए कमांडो दस्ते बनाए जाएं, सैनिकों के हाथों में अधिक संहारक हथियार थमाए जाए, इत्यादि। पर इनसे मूल समस्या ठस से मस नहीं होती है। यदि इन आतंकी हमलों के सिलसिले को तोड़ना है तो अधिक बुनियादी ढंग से सोचने की आवश्यकता है।

भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सह्राब्दियों से एक सभ्यता के अंग रहे हैं। उनकी संस्कृति, भाषाएं और समुदाय एक हैं। भौगिलिक दृष्टि से भी उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है, इन तीनों का प्रदेश एक भौगोलिक इकाई के अंतर्गत आता है, नक्शे में सरहदें खींचकर इन देशों में रह रहे लोगों को अलग करना अस्वाभिक है। इनके हित परस्पर जुड़े हुए हैं। जिस आसानी से आंतवादी मुंबई में घुस आए, या जिस आसानी से आतंवादी जम्मू-कश्मीर में घुस आते हैं, और पहले पंजाब में घुस आते थे, या बंग्लादेश के लोग भारत में घुस आते हैं, ये सब इस बात को भली-भांति स्पष्ट करते हैं कि तीनों देश भौगौलिक रूप से एक हैं।

इन तीनों देशों को एक बार फिर एक करके ही आतंकवाद की समस्या का स्थायी हल पाया जा सकता है। यह एक महती राजनीतिक परियोजना होगी, पर इसे अंजाम देना होगा। तीनों देशों को अपने दीर्घकालिक हितों को पहचानना होगा और पुनः एक सम्मिलित राष्ट्र के रूप में विश्व मंच में उभरना होगा।

मेरे विचार से यदि कोई इन तीनों राष्ट्रों को मिला सकता है, वह है भारत की मुस्लिम जनता। देश के बंटवारे का सबसे बड़ा खामियाजा इसी मुस्लिम कौम ने भरा है। देश को बांटने के कलंक का सेहरा भी इस कौम के मत्थे पर बंध गया है, हालांकि यह बिलकुल ही बेइन्साफ है क्योंकि भारतीय मुसलमानों ने पाकिस्तान पलायन न करके और भारत में ही रहना कुबूल करके दो देशों के सिद्धांत को अस्वीकार ही किया है, इसलिए देश को उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। इस कलंक को उतार फेंकने का सुनहरा अवसर आज मुसलिम कौम के सामने है।

भारतीय मुसलमानों की बात पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता सुनेगी, जबकि यदि भारतीय सरकार या भारतीय जनता (जिसे ये देश हिंदू जनता के रूप में देखते हैं, हालांकि भारत एक बहुधार्मिक देश है) एकता का प्रस्ताव लेकर आए, इन पड़ौसी देशों की जनता उसे शक्की नजरों से देखेगी।

तीनों देशों की जनता को यह स्वीकारना होगा कि देश का बंटवारा एक गलती थी, जिससे किसी का भी भला नहीं हुआ है। यदि हुआ भी है तो पाकिस्तान के चंद बड़े-बड़े जमींदारों और मुल्ला-मौलवियों का और भारत को कमजोर रखने में रुचि रखनेवाली विदेशी ताकतों का, जैसे ब्रिटन, अमरीका और चीन।

सबसे ज्यादा नुकसान भारत के मुसलमानों को हुआ है। इसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के उन मुसलमानों को हुआ है जो जिन्ना आदि के बहकावे में आकर देश छोड़कर पाकिस्तान में बसने के लिए गए। आज भी इन्हें पाकिस्तान में दूसरे दर्जे के नागरिकों का ही स्थान प्राप्त है और ये अधिकतर कराची की गंदी बस्तियों में दिन गुजारने को मजबूर हैं।
तीन अलग-अलग देशों में बंट जाने के कारण भारतीय मुसलमानों की शक्ति भी खंडित हो गई। दूसरे, वह नेतृत्व विहीन हो गया। पढ़े-लिखे और समृद्ध मुसलमान जिन पर अंग्रेजी प्रभाव सबसे अधिक था, जिनके प्रतिनिधि स्वयं जिन्ना थे, पाकिस्तान चले गए, और पीछे छोड़ गए अपने निरक्षर और बेकसूर भाइयों को जिन पर बंटवारे का कलंक लग गया और आज भी लगा हुआ है।

अब समय आ गया है कि तीनों देशों के मुसलमान समुदाय इस भारी गलती को समझें और आगे आकर उसे सुधारने के लिए सक्रिय हो जाएं, क्योंकि देश के इस तरह तीन टुकड़ों में बंटे रहने का सबसे बड़ा नुकसान उन्हें ही उठाना पड़ रहा है।
देश को बांटने का कलंक इतना बड़ा है कि उसे किसी बड़ी उपलब्धि या कुर्बानी से ही धोया जा सकता है। तीनों देशों को जोड़कर अखंड भारत को अस्तित्व में लाना ऐसी एक महान उपलब्धि होगी जिसके लिए अनेक कुर्बानियां भी देनी पड़ सकती हैं। देश को फिर से जोड़ने के इस भगीरथ कार्य को यदि कोई कर सकता है, तो वह भारत की मुसलमान जनता ही। आज मुसलमान जनता पर हर दिन इस बहाने हमले होते हैं कि वे देश के अपराधी हैं जिन्होंने देश को बांटा था। मुसलमान भी परोक्ष रूप से इस अपराध को कबूल कर लेते हैं (हालांकि जैसा कि ऊपर बताया गया है, भारतीय मुसलमान बिलकुल बेकसूर हैं), जिससे उनका सिर शर्म से झुक-झुक जाता है और उनके पास इन आरोपों का कोई जवाब नहीं रहता। कुछ युवा मुसलमान जरूर प्रति हिंसा का मार्ग अपनाते हैं, पर इससे मुसलमान उल्टे और बदनाम होते हैं। आज दुनिया भर में मुसलमानों को और इस्लाम धर्म को एक बेरहम, हिंसक और बर्बर कौम और धर्म के रूप में देखा जाने लगा है और मुसलमान कहने से लोगों के मनों में ओसामा बिन लादन जैसे किसी हत्यारे की छवि ही उभरती है।

यदि मुसलमानों और इस्लाम धर्म को इस नकारात्मक छवि से उभरना है, तो उन्हें आतंकियों को नाथना होगा। इसका सबसे कारगर मार्ग है तीनों देशों को दुबारा जोड़ना।

यह काम आज इतना मुश्किल लगता है कि अधिकांश लोगों ने इसे असंभव सा मान लिया है और इस ओर प्रयास भी नहीं कर रहे हैं। पर यदि मुसलमान जनता मन बना ले, और इस ओर जी-जान से प्रयास करने लग जाए, तो उन्हें अवश्य ही देश के अन्य कौमों का पूरा-पूरा समर्थन मिलेगा, और सब मिलकर इस असंभव सी परियोजना को संभव कर सकेंगे।
पर उन्हें विरोध के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। अभी तीनों देशों में वे शक्तियां मजबूत हैं जिन्होंने देश को बांटने में मुख्य भूमिका निभाई थी। पाकिस्तान और बंग्लादेश में इन शक्तियों की नुमाइंदगी वहां की सेना, खुफिया संगठन और मुल्ला-मौलवी कर रहे हैं। भारत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े संगठन, जिनमें बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और भारतीय जनता पार्टी शामिल हैं, यह काम कर रहे हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी अखंड भारत के सपने देखता है, हालांकि इस सपने को साकार करने का उसका तरीका तीनों देशों से मुस्लिम जनता का सफाया करके सैनिक रीति से देश के सभी खंडों को जोड़ना है, जो कभी भी सफल नहीं होगा। पर संघ परिवार भी, यदि उसके सामने भारत को जोड़ने का एक अलग मार्ग रखा जाए, इस प्रयास का समर्थन कर सकता है।

अधिक मुशकिल होगा पाकिस्तान और बंग्लादेश की सेना और खुफिया एजेंसियों को रास्ते पर लाना। इनके निहित स्वार्थ काफी गहरे हैं और तीनों देशों को अलग रखने और उनमें शत्रुता बढ़ाने पर ही उनका अस्तित्व ठिका है। यदि भारत और पाकिस्तान में मैत्री स्थापित हो जाए और राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से वे एक हो जाएं, तो पाकिस्तानी सेना और आईएसआई जैसी खुफिया एजेंसियों की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। इसलिए वे इस प्रयास का हर तरीके से विरोध करेंगे। सच तो यह है कि मुंबई में उन्होंने हमला ही इसलिए करवाया था कि जरदारी सरकार भारत के प्रति कुछ अधिक ही मित्रतापूर्ण रवैया अपना रही थी, जिसमें उन्हें अपने लिए खतरा दिखाई दे गया। यहां हमें इन देशों में लोकतांत्रिक शासन को मजबूत करनेवाले कदम उठाने चाहिए और वहां की जनता के साथ सीधा संपर्क करना चाहिए और उन्हें अखंड भारत के विचार से आलोकित करना चाहिए। वे भी आतंक के जुए के तले उसी तरह पिस रहे हैं, जैसे भारत की जनता पिस रही है, और अखंड भारत की कल्पना से उन्हें इस जुए से मुक्ति मिल सकती है। यह विचार उन्हें जरूर आकर्षित करेगा, यदि उसे सही लोग (यानी भारतीय मुसलमान) सही तरीके से पेश करे।

तीसरा विरोध अमरीका, ब्रिटन, चीन, आदि से आएगा। उनका हित भी पाकिस्तान और भारत के बीच के वैर को बढ़ाने से सधता है। अमरीका नहीं चाहता कि विश्व में उसे चुनौती देने की क्षमता रखनेवाली कोई शक्ति उभरे। यदि भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देश एक हो जाएं, निश्चय ही वे एक महाशक्ति के रूप में उभरेंगे और विश्व की अन्य शक्तियों, यानी अमरीका और चीन को चुनौती देंगे। इसलिए न अमरीका, न ही चीन, इस परियोजना को सफल होने देंगे। चीन पहले से ही पाकिस्तानी सेना से और वहां के राजनीतिक तबकों से गहरी सांठ-गांठ कर चुका है, और परोक्ष रूप से पाकिस्तान पर नियंत्रण रखता है। इसी प्रकार अमरीका भी पाकिस्तान को भारी सैनिक और आर्थिक सहायता देकर उसे अपने अंगूठे के नीचे रखता है। इसी तरह चीन बंग्लादेश को भी फुसलाने में लगा हुआ है।

परंतु अमरीका अब पहले जैसा ताकतवर नहीं रह गया है। ईराक और अफगानिस्तान के युद्धों ने उसके हौसले को काफी हद तक पस्त कर दिया है। अभी हाल के आर्थिक संकट ने उसे किसी तृतीय विश्व के देश जैसा बना दिया है। उसे इस आर्थिक संकट से उभरने के लिए अभी बहुत प्रयत्न करना होगा। उसका सारा ध्यान और धन अभी कुछ वर्षों तक इसी मे लग जाएगा। रहा चीन, वह अभी महाशक्ति के रूप में उभर ही रहा है। आर्थिक संकट का उस पर भी प्रभाव पड़ेगा की क्योंकि वह मुख्य रूप से निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था है।

भारतीय मुसलमान तीनों देशों को एक करने के लिए क्या कर सकते हैं? सबसे पहले तो उन्हें अपने अपराध बोध से बाहर आना होगा, और स्वीकार करना होगा कि देश का बंटवारा एक गलती थी, जिसे दुरुस्त करना आवश्यक है। इस गलती को दुरुस्त करने में उनकी भूमिक सबसे बड़ी है, केवल इसलिए नहीं कि बांटने के काम को उनके पूर्वजों ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और हिंदू पुनरुत्थानवादियों की मदद से अंजाम दिया था, बल्कि इसलिए भी कि यह काम और कोई नहीं कर सकता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पिछले कई दशकों से अखंड भारत का सपना देख रहा है, पर सफल नहीं हो पाया है, क्योंकि उसका सपना अधूरा है क्योंकि उसमें केवल हिंदुओं को स्थान दिया गया है। भारत एक बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषीय राष्ट्र है। यहां राष्ट्र की कोई ऐसी कल्पना ही सफल हो सकती है, जो सभी धर्मों, संस्कृतियों और भाषाओं के पनपने के लिए सही परिवेश बना सके। आजादी की लड़ाई के समय और उससे भी पहले 1857 के संग्राम के दौरान ऐसे ही एक भारत का सपना देखा गया था, पर कुटिल अंग्रेजों ने अपने बांटो और राज करो नीति के तहत इस सपने को मिटा दिया और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गहरी खाई खुदवा दी। इसी खाई को अब पाटना होगा, अन्यथा मुंबई हमले की पुनरावृत्ति होती रहेगी, और कारगिल जैसे युद्ध होते रहेंगे और इनके बावजूद समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी, और देश भी आपस में उलझकर कमजोर, गरीब और निस्सहाय बना रहेगा।

दूसरा काम भारतीय मुसलमानों को यह करना होगा कि वे देश की मुख्यधारा में लौट आएं। अपने बच्चों को सही शिक्षण दें। मदरसों आदि में इतिहास को तोड़-मरोड़कर नफरत की जो शिक्षा दी जाती है, उसे बंद करवाना होगा। यह काम उन्हें भारत के साथ-साथ पाकिस्तान और बंग्लादेश में भी करना होगा, जहां स्थिति और भी अधिक विकट है। वहां के सरकारी स्कूल तक में झूठा इतिहास पढ़ाया जाता है।

तीसरे, उन्हें अखंड भारत के विचार को पुष्पित-पल्लवित करना होगा, और बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषीय भारत की सुंदर कल्पना को आगे लाना होगा, और उसे साकार करने के लिए ठोस, समयबद्ध कार्यक्रम बनाना होगा।
संक्षेप में भारतीय मुसलमानों को नेतृत्व स्वीकार करना होगा। उनके पूर्वज एक समय यहां राज किया करते थे, और बहुत अच्छी तरह राज करते थे। अक्बर, शेर शाह, रजिया सुल्तान आदि बादशाह-बेगम और 1857 के दिलेर मुसलमान सिपाहियों के नाम से हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा होता है। भारतीय मुसलमानों को एक बार फिर देश की बागडोर संभालनी होगी।
यह किसी प्रतिस्पर्धी विचार से नहीं करना है, वरना उनमें और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में क्या फर्क रह जाएगा, बल्कि एक सर्वसमावेशी ढंग से करना है, जिसमें हर भारतीय, भले ही वह किसी भी धर्म, संस्कृति या भाषा का हो, पूरे उत्साह से शामिल हो सके।

यह एक महान राष्ट्र निर्माण योजना होगी जो अपने स्वरूप और भव्यता में भारत की आजादी की लड़ाई अथवा रूस की 1917 की साम्यवादी क्रांति या 1949 में चीन में माओ की विजय से होड़ कर सकती है।

अनेक प्रबुद्ध मुसलमान इस ओर विचार करने लगे हैं, जैसे सुप्रसिद्ध पत्रकार एम जे अकबर, या शायर जावेद अख्तर, या फिल्म अभिनेता शाहरुख खान। अन्य मुसलमानों और अखंड भारत में विश्वास करनेवाले अन्य लोगों को भी आगे आना चाहिए, और उन लोगों को भी जिनका मन मुंबई हमले से गुस्से से उबल रहा है और चाहते हैं कि इस हमले का कोई कारगर जवाब दिया जाए। कारगर जवाब यही है कि अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल को निरस्त करके भारत को फिर एक किया जाए। इससे कश्मीर आदि अनेक समस्याएं भी सुलझ जाएंगी, और आतंक का सिलसिला भी थम जाएगा। भारत एक महाशक्ति के रूप में उभरेगा और अपनी शक्ति का प्रयोग पड़ोसी देशों से युद्ध करने और हथियारों के बड़े-बड़े जखीरे इकट्ठे करने में नहीं करेगा, जिससे बड़े हथियार-निर्माता देशों (जैसे अमरीका, फ्रांस, ब्रिटन आदि) का ही फायदा होता है, बल्कि दुनिया के इस भाग से भूख, निरक्षरता और गरीबी हटाने और जनता के चौमुखी विकास के लिए रास्ता साफ करने के लिए करेगा।

इस तरह तीनों देशों को एक करके, एक महान बहुराष्ट्रीय, बहुधार्मिक, बहुंसांस्कृतिक और बहुभाषीय देश का निर्माण करके, हम वे सब वादे भी पूरे कर सकेंगे जो आजादी के समय किए गए थे, पर बाद में ताक पर रख दिए गए, क्योंकि भारत और पाक के बीच के वैमनस्य की आड़ लेकर दोनों देशों में इन वादों को भुला दिया गया। यह विश्व शांति के लिए भी भारत का भारी योगदान होगा।

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