Wednesday, April 08, 2009

क्या आरक्षण हटाना चुनावी मुद्दा बन सकता है?

संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की नीति को समाज में विषमता दूर करने के एक अस्थायी औजार के रूप में ही देखा था। पर राजनीतिक कारणों से वह देश की एक स्थायी नीति बन गई है, और कोई भी उसके नुकसानों की चर्चा नहीं कर रहा है।

आरक्षण की नीति सबको समान अधिकार देने के संवैधानिक प्रावधान का खुला उल्लंघन है। इससे देश में गहरी दरारें बनती जा रही हैं, और यह राष्ट्र हित में नहीं है।

आरक्षण की नीति को वापस खींचने की आवश्यकता है। लेकिन साठ सालों से उसे लागू करने से अनेक लोगों का निहित स्वार्थ उससे जुड़ गया है। क्या वे राष्ट्र हित में इन निहित स्वार्थों से ऊपर उठ पाएंगे?

सबसे अच्छा यही होगा कि आरक्षण को दूर करने की मांग स्वयं उन लोगों से आए जिन्हें आरक्षण से अभी लाभ मिल रहा है।

उन्हें इस ओर प्रेरित करने के लिए मैं एक सुझाव देना चाहूंगा जिसके तीन अंग हैं। वे इस प्रकार हैं।

1. शिक्षण से अंग्रेजी हटाई जाए

आरक्षण को समाप्त करना चाहिए, लेकिन उसके साथ शिक्षण के समान अधिकार की भी व्यवस्था होनी चाहिए। आज एक ओर अंग्रेजी आधारित श्रेष्ठ शिक्षण तंत्र है जहां देश के अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं, और दूसरी ओर हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूल हैं जहां नाममात्र का ही शिक्षण मुहैया किया जाता है। और इन दोनों के ही बाहर वह विशाल समुदाय है जिसने स्कूल में कभी कदम ही नहीं रखा है।

ऐसी विषम परिस्थिति में आरक्षण को हटाना राजनीतिक दृष्टि से संभव न होगा।

इसे हटाने का एक कारगर उपाय होगा सबको समान कष्ट वाले सिद्धांत पर आधारित पहल, जिसमें अमीर वर्गों को भी कष्ट उठाना पड़े और गरीब वर्गों को भी।

मेरा सुझाव है कि आरक्षण की व्यवस्था को हटाने के साथ-साथ अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण देने की व्यवस्था को भी प्राथमिक शिक्षण से लेकर उच्च शिक्षण तक सभी जगह से हटाया जाए, जिसका अर्थ होगा हमारे नर्सरी-किंटरगार्टन से लेकर आईआईटी, आईआईएम, आदि अभिजातीय शिक्षण संस्थानों का शिक्षण माध्यम हिंदी कर देना। इससे मात्र अंग्रेजी के ज्ञान के कारण समृद्ध वर्गों को जो अतिरिक्त लाभ मिलता है, वह जाता रहेगा और ये संस्थाएं अधिक लोकतांत्रिक हो जाएंगी।

2. उच्च शिक्षण संस्थाओं के लिए भर्ती बोर्ड परीक्षा के नंबरों के आधार पर हो

शिक्षण सुधार के लिए दूसरा सुझाव मैं यह देना चाहूंगा कि आईआईटी, आईआईएम, और अन्य पेशेवरीय शिक्षण संस्थाओं में नए छात्रों की भर्ती के लिए जो अलग से स्पर्धात्मक परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं, जैसे एआईईईई (इंजीनियरी कालेजों के लिए), जेईई (आईआईटियों के लिए), कैट (आईआईएमों के लिए), इत्यादि को गैरकानूनी घोषित करके, इन सब संस्थाओं के लिए छात्रों की भर्ती मात्र बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे के आधार पर किया जाए। हां यदि आवश्यक हो तो छात्रों का निजी साक्षात्कार लिया जा सकता है। इससे स्कूल शिक्षण की गुणवत्ता में महत्वपूर्ण इजाफा होगा और छात्रों का जीवन भी तनावमुक्त हो जाएगा। पर इसका अधिक साधु प्रभाव निर्धन बच्चों पर पड़ेगा, जो अब आईआईटी आदि में पढ़ पाने का ख्वाव देख सकेंगे।

इस एक कदम से हमारे देश में शिक्षण अधिक समतापूर्ण और वैज्ञानिक हो जाएगा। आज गांव का बच्चा चाहे वह रामानुजम या आईनस्टाइन जितना मेधावी क्यों न हो, हमारे आईआईटी, आईआईएम में घुसने का सपना तक नहीं देख सकता है। वह इसलिए क्योंकि आईआईटी आदि की स्पर्धात्मक परीक्षाएं न केवल अंग्रेजी में हैं, बल्कि वे अस्वाभाविक रूप से इतनी कठिन रखी गई हैं कि सालों तक उनके लिए तैयारी करने के बाद ही इन परीक्षाओं में कोई पास हो सकता है। राजस्थान के कोटा आदि शहरों में इन परीक्षाओं के लिए कोचिंग सातवें दर्जे से ही शुरू हो जाते हैं, और लगातार पांच वर्षों तक चलते हैं, यानी आईआईटी के बीटेक कोर्स से भी एक साल ज्यादा, जो चार साल के होते हैं। इन कोचिंग क्लासों की फीस कई लाख रुपए है, जो स्वयं आईआईटी द्वारा ली जाने वाली फीस से भी ज्यादा है। और इन कोचिंग क्लासों में पढ़ा रहे "प्रोफेसरों" की तंख्वाह आईआईटी के प्रोफेसरों से भी ज्यादा है। सोचिए, किस हद तक हमारे देश में आईआईटी आदि मजाक बनकर रह गए हैं।

इसे तुरंत रोकना होगा। आईआईटी, आईआईएम के लोकतांत्रीकरण की आवश्यकता है। सबसे पहला काम इनका शिक्षण माध्यम हिंदी करना होगा, और इनके लिए नए छात्रों की भर्ती बारहवीं की परीक्षा के नंबरों के आधार पर करना होगा।

3. अगले पांच सालों में सर्वशिक्षा लाई जाए

तीसरा आवश्यक कदम यह है कि सरकार जल्द से जल्द एक समयबद्ध कार्यक्रम के तहत सर्वशिक्षा लाने का प्रयास करे। मेरे अनुसार इसके लिए पांच साल का समय काफी होगा, पर सरकार को युद्ध स्तर पर काम करना होगा। यहां तक कि अन्य सभी कार्यक्रमों से पैसा खींचकर इस एक बड़े काम में झोंकना होगा। मैं अगले पांच सालों तक सभी हवाई अड्डों, सड़कों, बांधों, बंदरों, नहरों आदि के निर्माण पर, हथियारों की खरीद पर, और राष्ट्रमंडल खेल जैसी फिजूल खर्चियों पर पूर्ण रोक लगाने के पक्ष में हूं। इससे बचे पैसे से गांव-गांव में अच्छे स्कूल, पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं, शौचालय आदि स्थापित करके बच्चों में शतप्रतिशत स्कूल भर्ती प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। संभव है इसके लिए राष्ट्रीय आय के 50-75 प्रतिशत को अगले पांच सालों तक हर वर्ष खर्च करना पड़े। पर इसके लिए राष्ट्र के हर तबके को संकल्प करना पड़ेगा।

सर्वशिक्षा के साथ भूख निवारण कार्यक्रम को भी जोड़ा जाए, तो इस देश से व्यापक कुपोषण दूर हो सकता है। स्कूलों में ही बच्चों को पौष्टिक आहार की भी व्यवस्था होनी चाहिए। इससे पढ़ाई पूरी होने से पहले ही बच्चों के स्कूल छोड़ने की समस्या भी दूर हो जाएगी। साथ ही बाल मजूरी जैसे राष्ट्रीय कलंक भी धुल जाएंगे।

क्या देश के उद्योगपति, अभिजात वर्ग आदि राष्ट्र हित में यह बलिदान करने को तैयार हैं? यदि हां, तो वे आरक्षण नीति को हटाने में कामयाब हो सकेंगे।

यदि उपर्युक्त तीन सुझावों को लागू करते हुए आरक्षण नीति को हटाने का प्रस्ताव रखा जाए, तो यह राजनीतिक दृष्टि से लोगों को अधिक ग्राह्य हो सकता है।

क्या आप इससे सहमत हैं?

3 Comments:

संगीता पुरी said...

सर्वशिक्षा अभियान में तेजी की आज सर्वाधिक जरूरत है ... वैसे जिस देश में कुपोषण से बच्‍चों की मौत हो रही हो ... वहां पढाई लिखाई की बात करना भी क्‍या उचित समझा जाए।

Anonymous said...

जिस दिन, ब्रह्मण और ठाकुर अपनी बेटियों के ब्याह शूद्रों से करने को राजी हो जाएँ तो उस दिन आरक्षण कि ज़रुरत नहीं रह जायेगी. पढ़े-लिखे लेकिन शूद्र IAS को तो अपनी बेटे ब्याहने की सोच नहीं सकते, सर्वशिक्षा का ढोंग भरते हैं? आरक्षण को आर्थिक मुद्दे की शक्ल देने कि कोशिश न करो बाबा, ये सामजिक मुद्दा है.

हरि जोशी said...

बेनामी जी,
सामाजिक ढांचा तेजी से बदल रहा हूं। मेरे एक ब्राह्मण मित्र ने अपनी पुत्री की शादी एक दलित से की है जो आईएएस है। लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि सभी ठाकुरों ने अपनी ठकुराई छोड़ दी है। या ब्राह्मण शूद्रों से सहज ही रोटी-बेटी का रिश्‍ता कायम कर रहे हैं लेकिन पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस बदलाव को देखा जा सकता है। अब वर्ग विभाजन जाति-धर्म की जगह शिक्षा और आर्थिक स्थिति के आधार पर होने लगा है। ये प्रक्रिया धीमी है लेकिन आने वाली पीढि़यों के काल में और तेज होगी।
ऐसा भी नहीं है कि भेदभाव मिट जाएगा लेकिन उसका पैमाना बदल जाएगा। चपरासी की नौकरी वाला शुद्र हो जाएगा, आईपीएस क्षत्रिय और आईएएस, प्रोफेसर और समकक्ष ब्राह्मण।
अब आरक्षण की बात तो सुनिए बंधुवर, आरक्षण का लाभ भी उन्‍हें मिल रहा है जो प्रभावशाली हैं। उपर उठ चुके हैं। वे पिछड़ों में अगड़े हैं।
आज जरूरत है समान शिक्षा की जिसमें राजा और रंक के साथ भेद न हो।

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