Saturday, April 04, 2009

तालिबानी इंसाफ

पाकिस्तान में उस सत्रह साल की किशोरी को अपने पड़ोसी के साथ बाहर निकलने के लिए जैसा इंसाफ मिला उस पर कोई टिप्पणी करना यहां मेरा इरादा नहीं है। इसकी खूब चर्चा टीवी चैनलों, अखबारों और ब्लोगों में हो चुकी है। उसमें कुछ भी नया जोड़ने को बाकी नहीं रह गया है।

यही दिमाग में आता है कि मध्य युग में चंगेज खान आदि जालिमों के जमाने में ऐसा ही सब हुआ होगा।

अफसोस होता है कि पाकिस्तान क्या-क्या सोचकर हमसे अलग हुआ था और आज क्या-क्या होकर रह गया है। पर पाकिस्तान की दुर्गति पर खुश होने का हमें कितना अधिकार है? यहीं मैंगलूर के पबों में लड़कियों के साथ जैसा सलूक किया गया क्या वह तालिबानी इंसाफ से जरा भी कम वहशियाना था?

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जिन्होंने अब तक टीवी या इंटरनेट में इस बर्बरता को नहीं देखा है, वे यूट्यूब के जरिए यहां उसे देख सकते हैं। हालांकि दृश्य काफी विचलित कर देने वाले हैं, पर, जैसा कि घुघूती बासूती ने उचित कहा है (टिप्पणी में देखें), हमें ऐसे कृत्यों के प्रति शून्य सहनशीलता की नीति अपनानी होगी, जिसके लिए यह आवश्यक है कि हम इस तरह की वीभत्सता को अपनी आंखों से देख लें।

3 Comments:

Gyan Dutt Pandey said...

पाकिस्तान में जो हुआ, उसपर न आश्चर्य है न शोक। पर मंगळूर में जो था, वह अवश्य निन्दनीय है।
अपनी जिन्दगी में शुचिता हो - जरूर। पर दूसरे की जिन्दगी में इस तरह की तालिबानी दखलंदाजी अशोभनीय; भारत में।

संजय बेंगाणी said...

हमें हक है या नहीं कह नहीं सकते मगर क्या भारत में कोई शरियत जैसा कानून लागू कर सकता है? लोगो को मंजूर नहीं होगा. मगर कुछ लोग ऐसा स्वप्न जरूर देखते है.

ghughutibasuti said...

हम पर भी धार्मिक उन्माद का नशा चढ़ने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं । इसीलिए यह आवश्यक है कि इस मामले में हमारे जैसे सहनशील राष्ट्र को भी शून्य सहनशक्ति रखनी होगी। यह सब अचानक नहीं होता। इसकी तैयारियाँ बरसों बरस चलती हैं। जनता की नींद तब टूटती है जब कोड़े स्वयं उसपर पड़ते हैं।
हमें याद रखना होगा कि धर्म केवल एक निजी मामला होना चाहिए और उसका प्रदर्शन भी घर तक ही सीमित रहना चाहिए।
घुघूती बासूती

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