Monday, May 25, 2009

लोथल : सिंधु घाटी सभ्यता का महत्वपूर्ण केंद्र


भारत में कई स्थलों पर से ताम्र-कांस्य युग की अनेक नगर-संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। इनमें से सिंधु घाटी में हड़प्पा, मोहेंजोदडो आदि स्थलों पर मिली संस्कृति के अवशेषों को सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया गया है। जैसे-जैसे पुरातात्विक अन्वेषण आगे बढ़ा है, यह स्पष्ट होता गया है कि यह सभ्यता सिंधु घाटी तक सीमित नहीं थी और ठेठ पश्चिम भारत तक फैली थी। गुजरात में पहले-पहल इस सभ्यता के अवशेष 1935 में सुरेंद्रनगर जिले के रंगपुर नामक स्थान पर मिले। उत्खनन के दौरान रंगपुर में प्राग-हड़प्पीय काल के लघुपाषाण युग के औजार भी मिले हैं। इसी प्रकार सोमनाथ, लोथल और देसलपर से प्राग-ऐतिहासिक काल के विभिन्न प्रकार के मृदभांड मिले हैं। इन सभी स्थलों में रहनेवालों का यहां स्थायी निवास था। वे चक्के के उपयोग से मिट्टी के बर्तन बनाते थे तथा तांबे के औजारों का उपयोग करते थे। सिंधु घाटी के लोग बाद में इन सभी स्थानों में बस गए। इतना ही नहीं यहां से वे कच्छ, सौराष्ट्र व गुजरात के अनेक अन्य भागों में भी फैल गए।

भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के जो केंद्र हैं, उन सबमें से अधिक महत्वपूर्ण है अहमदाबाद जिले के धोलका तालुके के सरगवावा गांव की सीमा में स्थित लोथल का टीला। पुराने खंडहरों के रूप में यह टीला बहुत समय से प्रसिद्ध था पर इसके असली स्वरूप की जानकारी तब मिली जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पश्चिम विभाग के अध्यक्ष श्री एस रंगनाथ राव ने 1954 में यहां खुदाई की।

स्थानीय लोगों का विश्वास था कि इस टीले पर कोई प्राचीन नगरी हुआ करती थी। लोथल शब्द के पूर्वांश "लोथ" का अर्थ शायद शव है। द्रष्टव्य है कि मोहेंजोदड़ो का अर्थ भी मृतकों का टीला है। शायद लोथल शब्द भी इससे मिलता-जुलता अर्थ रखता है। यह टीला आज खंभात की खाड़ी से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके पश्चिम में पांच-छह किलोमीटर की दूरी पर भोगावो नदी और पूर्व में दस-एक किलोमीटर पर साबरमती नदी है। परंतु आद्य-ऐतिहासिक काल में समुद्र इस टीले से 5 किलोमीटर से अधिक दूर नहीं था और उक्त नदियों का मुख भी लोथल के निकट ही था। लोथल के आसपास की जमीन की ऊंचाई समुद्र सतह से 9-12 मीटर है। लोथल का टीला इससे लगभग 4 मीटर और ऊंचा है।

लोथल से सिंधु घाटी सभ्यता के समय की नगरी के भग्नावशेष मिलने से यह स्थल भारत के पुरातात्विक महत्व के स्थलों में से प्रमुख बन गया है। चूंकि हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो जैसे स्थल देश की वर्तमान सीमाओं के बाहर चले गए हैं, लोथल पर पुरातत्वविदों और इतिहासकारों द्वारा भारी खोज चल रही है। आज इस टीले का विस्तार 580-300 मीटर है, पर इस पर बसी नगरी का मूल विस्तार अवश्य ही इससे कहीं अधिक रहा होगा। उत्खनन से मानव बस्ती के तीन स्तरों का पता चला है। सबसे नीचे वाले स्तर की नगरी में मकान सीधे जमीन की सतह पर से ही उठाए गए हैं। इस कारण से लगभग ई पू 2350 में बाढ़ का पानी इनमें भर जाने से इस नगरी का नाश हो गया। बाद में नगरी पुनः बसाई गई। इस बार नगरी को बाढ़ से बचाने के लिए कई उपाय किए गए। नगरी के चारों ओर कच्ची ईंटों की दीवार बनाई गई और मकान कच्ची ईंट अथवा मिट्टी के चबूतरों के ऊपर बनाए गए। इस समय की नगरी में नगर आयोजन के उन्नत तत्व देखने में आते हैं। पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण दिशा में चौड़ी सड़कें बनी हैं और इनके समांतर छोटी गलियां हैं। मकान सड़कों के दोनों किनारे बनाए गए हैं। कुछ मकान कच्ची ईंट के हैं और कुछ पकी हुई ईंट के। प्रत्येक मकान में स्नानगृह है तथा जल के निकलने के लिए घर के सामने मोरी की व्यवस्था है।

रहने के मकान सादे और दो-तीन मंजिलों के हैं। दक्षिणपूर्व में शासक का बड़ा प्रासाद है। पूर्वी क्षेत्र में मिट्टी के बर्तन पकाने की एक बहुत बड़ी भट्टी के अवशेष मिले हैं। टीले में से बहुत से शव भी मिले हैं। इनमें से अधिकांश को उत्तर की दिशा में सिर रखकर दफनाया गया है। शव के पास खाने-पीने के सामान भी रखे गए हैं। कई बार शवों की जोड़ी मिली है जो शायद स्त्री-पुरुष के शव हैं। संभवतः उस काल में भी सती प्रथा प्रचलित थी। एक बालक की खोपड़ी में छिद्र बना हुआ मिला है, जो शायद शल्य-क्रिया का परिणाम है।

लोथल के पूर्वी छोर पर निचाईवाले भाग में जलपोतों को ठहराने के लिए कृत्रिम बंदर जैसी आयताकार इमारत के अवशेष मिले हैं। इसकी पश्चिमी दीवार 212 मीटर, पूर्वी दीवार 209 मीटर, उत्तरी दीवार 36 मीटर और दक्षिणी दीवार 34 मीटर लंबी है। दीवारों की अधिकतम ऊंचाई 4 मीटर है। उत्तरी दीवार में 12.5 मीटर चौड़ा प्रवेशद्वार है। ज्वार-भाटे के समय इस द्वार से जलपोत भीतर घुसते थे। रेत भर जाने से जब नदी का प्रवाह बदल गया, तब पूर्वी दीवार पर 6.5 मीटर चौड़ा एक दूसरा द्वार बनाया गया।

लोथल से मिली अनेक मुद्राओं और मुहरों का बहुत अधिक ऐतिहासिक महत्व है। ये पत्थर, पकी हुई मिट्टी अथवा तांबे के बने हैं। बहुत सी मुद्राएं चौरस आकार की हैं, लगभग 2.5 से 2.5 सेंटीमीटर की। इनके एक ओर बैल, हाथी, बाघ आदि कोई पशु का चित्र बना है और दूसरी ओर कुछ अक्षर कुरेदे गए हैं। एक मुद्रा में तीन-चार पशुओं का समुच्चय दिखाई देता है। बहुत-सी आयताकार मुद्राएं भी मिली हैं। इनमें केवल लिखावट है। ये सब मुद्राएं हड़प्पा-मोहेंजोदड़ो से मिली मुद्राओं जैसी ही हैं। इन मुद्राओं पर अंकित अक्षरों को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। यदि इन अक्षरों को पढ़ने के प्रयास सफल हो जाएं, तो सिंधु सभ्यता की सामाजिक व्यवस्था, धर्म, तथा आर्य सभ्यता से इसके संबंधों के बारे में काफी कुछ जानने को मिलेगा।

मिट्टी के बर्तन भी बहुतायत से मिले हैं। इनका भी मुद्राओं जितना ही महत्व है। इन बर्तनों में प्याले, रकाबी, कान वाले प्याले, भरणी, थाली, तगारे आदि शामिल हैं। इन बर्तनों पर लाल अथवा पीले रंग की पट्टियां हैं। कुछ में काले रंग के चित्र बने हैं। ये सब कुम्हार के चक्के पर बने हैं और भट्टी में पकाए गए हैं। इसी प्रकार के बर्तन हड़प्पा-मोहेंजोदड़ो से भी मिले हैं।

बर्तनों के अलावा देवी की मिट्टी से बनी और भट्टी में पकाई गई छोटी मूर्तियां, पशु-पक्षियों की आकृतिवाले खिलौने आदि, पत्थर से बने तराजू के बाट, हथोड़े, मनके आदि, शंख और सीपी से बनी चीजें, कांच की चूड़ियां, हाथीदांत की सुइयां और मापदंड आदि अनेक वस्तुएं मिली हैं। इस सभ्यता के लोग शायद दशमलव पद्धति से परिचित थे क्योंकि लोथल व अन्य स्थलों से मिले मापदंडों में दशमलव पद्धति के अनुसार निशान काटे गए हैं। खनन के दौरान धातुओं से बने औजारों और हथियार भी मिले हैं, जैसे कुल्हाड़ी की फलक, बाणशीर्ष, भाले की नोक, मछली पकड़ने के कांटे, चूड़ियां, मनके, बर्तन, मुद्राएं, खिलौने, बारीक कलाकारी वाले सुंदर आभूषण आदि। इन सबसे स्पष्ट है कि लोथल सिंधु सभ्यता का एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र था। इसका सिंधु घाटी के नगरों, मिस्र और पश्चिम एशिया के साथ व्यापारिक संबंध था। यह व्यापार मुख्यरूप से जलमार्ग के जरिए चलता था।

यह नगरी ई पू 1900 के आसपास एक बार फिर बाढ़ के कारण नष्ट हुई। यद्यपि नगरी को लगभग तीन सौ साल बाद ई पू 1600 के लगभग पुनः बसाया गया, पर तीसरी बार बसाई गई नगरी में उतना विस्तार एवं समृद्धि देखने में नहीं आता। यह नगरी भी कुछ समय बाद नष्ट हो गई।

लोथल के अलावा रंगपुर, सोमनाथ, श्रीनाथगढ़, कच्छ, दक्षिण गुजरात आदि अनेक स्थलों से भी सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मिले हैं, जिससे स्पष्ट है कि यह सभ्यता गुजरात के लगभग सभी भागों में फैली थी।

6 Comments:

P.N. Subramanian said...

महत्वपूर्ण जानकारी. आभार.

रंजन said...

बहुत रोचक ्जानकारी लोथल के बारे में.. कुछ फोटो है क्या?

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत महत्व की जानकारियाँ मिलीं इस आलेख से। आभार!

शरद कोकास said...

क्या कहूँ.. अपनी लम्बी कविता पुरातत्ववेत्त्ता में लोथल पर लिखी यह पंक्तियाँ भेंट कर रहा हूँ.."चल देगी फिर पनिहारिन पनघट पर/टुकडे टुकडे जोडकर बनाया मृद्भांड उठाकर/गीले वस्त्रों मे निकल आयेगी मोहनजोदडो के स्नानागार से /कोई सद्यप्रसूता नहा कर/अभी लोथल के बन्दरगाह पर लंगर डालेगा/चान्दी और मसालों से लदा कोई जहाज/अभी इकतारे के टूटे तार से आयेगी इक आवाज़."

Deepmala said...

उत्तम जानकारीयुक्त लेख एवं चित्र तो अद्भुत हैं|

Unknown said...

Bahut achhi jankari hai yaha sindhughati sabhyata ke bare me

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