Tuesday, December 23, 2008

हर ओर से हारे हम आतंक के सामने

मुंबई नरसंहार के दौरान और उसके बाद भारत की प्रतिक्रिया बहुत ही असंतोषजनक रही है, सभी स्तरों पर। सरकार की नीति ढुलमुल और दिगभ्रमित सी रही है। पहले तो आतंकी हमले का सामना करते वक्त ही बहुत से घपले किए गए। बिना पर्याप्त सुरक्षा तैयारी के महाराष्ट्र के कुछ आला पुलिस अधिकारी हथियारों से लैस आतंकियों को रोकने चल पड़े और तुरंत शहीद हो गए। उनकी बहादुरी पर तो कोई सवाल नहीं उठा सकता, पर समझदारी पर जरूर अनेक सवाल उठते हैं। क्या उन्हें बिना पर्याप्त दल-बल के इस तरह खतरा मोल लेना चाहिए था? क्या उनकी आसान मौत यह संदेश नहीं देता कि भारत का सुरक्षा तंत्र अकुशल, अपेशेवरीय और मूर्ख है? यदि पुलिस प्रमुख स्वयं इतनी आसानी से मारा जा सकता है, तो आम जनता कितनी असुरक्षित होगी। इससे यही पता चलता है कि पुलिस को भनक तक नहीं थी कि आतंकी किस हद तक हथियारबंद थे, कितनी संख्या में थे और उनकी संहारक क्षमता कितनी थी। शायद सालसकर आदि यही समझ रहे थे कि ये मुंबई के अपराधी गैंगों के गुर्गे हैं। उन्हें इस गलतफहमी की भरपाई अपनी जान देकर करनी पड़ी। इससे यही पता चलता है कि देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी जिनके हाथों में हैं, वे वास्तविक परिस्थितियों से बिलकुल कटे हुए हैं और देश के सामने उपस्थित खतरों की उन्हें न के बराबर समझ है।

हां यह दलील दिया जा सकता है कि करकरे, सलासकर, आप्टे आदि की इसमें क्या दोष है, दशकों के राजनीतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और कुशासन ने पुलिस को पंगु बना दिया है, और वह एक संगठन के रूप में पहल करने की क्षमता खो चुकी है, और किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए उसके कुछ दिलेर अफसरों को स्वयं जान हथेली पर लेकर कार्रवाई करनी पड़ती है। यदि यही सच है तो हम मध्यकाल के उन राजपूत योद्धाओं की गलतियों से कुछ भी नहीं सीख पाए हैं, जो युद्ध भूमि में खूब व्यक्तिगत वीरता तो दिखाते थे, पर रण न जीत पाते थे, क्योंकि ये आपसी तालमेल से नहीं लड़ते थे। आधुनिक युग में पुलिस, फौज या अन्य सुरक्षा बलों में व्यक्तिगत वीरता का उतना महत्व नहीं रहता, जितना संगठित शक्ति के सूझबूझपूर्ण प्रयोग का। यहीं महाराष्ट्र पुलिस हार गई। सालेसकर जरूर वीर सिपाही थे, पर समझदार सिपाही भी थे? उनकी शहादत के सामने नतमस्तक होते हुए भी, हमें पुलिस सुधार को ध्यान में रखते हुए और अपने देश और समाज की भावी सुरक्षा के लिए उपर्युक्त सवाल उठाने ही होंगे।

अब आते हैं अन्य महकमों की कोताहियों पर। आतंकियों के ताज और ट्राइडेंट होटलों में घुस जाने के नौ घंटे तक राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के जांबाज वारदात-ए-मौके पर नहीं पहुंच पाए। पहले तो उन्हें दिल्ली से मुंबई लाने के लिए हवाई जहाज मिलने में देरी हुई। फिर मुंबई हवाई अड्डे पहुंचने पर उन्हें वहां से ताज तक लाने में दो घंटे की देरी हुई। आतंकियों ने अधिकांश बंधकों और होटल कर्मचारियों की कत्ल उनके होटल पहुंचने के कुछ ही घंटों में कर दी थी। यदि राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के जांबाज तुरंत मौके पर पहुंच गए होते, तो न जाने कितनों की जानें बच जातीं। पर न तो एनएसजी जांबाजों को तुरंत बुलाया गया और न ही बुलाए जाने पर वे तुरंत ही मौके पर पहुंच सके। इतने में कई लोगों की जानें चली गईं।

इस तरह की वारदातें होने पर निर्णय लेने और आदेश देने की जिम्मेदारी किसकी हो, यही स्पष्ट नहीं था। मुंबई को शासित करने की अंतिम जिम्मेदारी महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के हाथों में है। एक तो मुख्य मंत्री और उसका गृह मंत्री निकम्मे निकले, दूसरे, इन पदाधिकारियों पर महाराष्ट्र जैसे विशाल राज्य के शासन की जिम्मेदारी होती है, इसलिए वे मुंबई की इस तात्कालिक जरूरत की ओर तुरंत ध्यान नहीं दे पाए। और इस बार तो मुख्य मंत्री मुंबई में था भी नहीं, दूर केरल के दौरे पर था। उस तक इस घटना की सूचना पहुंचाने में, स्थिति की गंभीरता का उसे बोध होने में, और उसके द्वारा सरकारी मशीनरी को सक्रिय कराने के आदेश देने में काफी वक्त लग गया।

सवाल यह है कि मुंबई जैसे बड़े-बड़े महानगरों का शासन मुख्य मंत्री के हाथों में क्यों रहे, क्या ये अपनी शासन-व्यवस्था स्वयं नहीं संभाल सकते? जरूर संभाल सकते हैं, लेकिन यहां राजनीतिज्ञों का स्वार्थ आड़े आता है। मुंबई महाराष्ट्र का सबसे समृद्ध शहर है। अधिकांश उद्योग-धंधे वहीं हैं। वहीं से महाराष्ट्र को अधिकांश राजस्व प्राप्त होता है। यदि मुंबई एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई हो जाए, तो महाराष्ट्र सरकार की आमदनी में भारी कमी आ जाए। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मुंबई की आमदनी में हाथ डालकर ही महाराष्ट्र के नेता मालामाल होते हैं, तब फिर वे मुंबई को कैसे अलग प्रशासनिक इकाई बनने देते।

हमारी शासन व्यवस्था का सच यह है कि कोई भी स्वयं निर्णय लेने का जोखिम नहीं ले सकता। सब कुछ पार्टी के आला कमान पर छोड़ दिया जाता है। कहने को तो देश लोकतंत्र है, पर यहां हर पार्टी में परिवारवाद का बोलबाला है या पार्टियों के कुछ मुट्ठी भर व्यक्ति ही सत्ता की डोर संभाले हुए हैं। वे ही सभी निर्णय लेते हैं, दूसरों को न तो निर्णय लेने दिया जाता है, न ही वे स्वयं भी निर्णय लेना चाहते हैं। चाटुकारी और निकम्मेपन का साम्राज्य गरम है और कोई भी जिम्मेदारी की आफत अपने सिर नहीं मोल लेना चाहता है। ऐसे माहौल में सामान्य स्थितियों में तो देश की गाड़ी जैसे-तैसे अपने अंदरूनी वेग से चलती जाती है, पर जब कोई आपत स्थिति आती है और तुरंत निर्णय लेने होते हैं, पल-पल पैंतरे बदलने होते हैं, तो यह सब समय पर नहीं हो पाता। यही सब हुआ, और निर्णय मुंबई शासन के ही किसी अधिकारी द्वारा न लिए जाकर, दूर बैठे मुख्य मंत्री को लेने पड़े, जो स्वयं और भी दूर दिल्ली स्थित अपने आकाओं का मुहताज था।

दूसरे, इस तरह की घटनाओं में सरकार के अनेक महकमों का तालमेल आवश्यक होता है, पुलिस, अग्निशमन दल, सेना, इत्यादी। यहां भी भारी चूक हुई और सब अलग-अलग और बहुधा परस्पर-विरोधी तरीके से काम करते रहे।

मीडीया भी भारी घपले कर बैठा। एक ओर वह पुलिस और सैनिक कार्रवाई के महत्वपूर्ण सुराग आतंकियों तक पहुंचाने का माध्यम बना, और दूसरी ओर वह सारी घटना को बहुत ही पक्षपाती और संकीर्ण नजरिए से पेश करता रहा। आतंकियों ने मुख्य रूप से तीन जगहों को निशाना बनाया था, छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन, ताज और ट्राइडेंट होटल और नरीमन हाउस। सबसे पहला हमला छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर हुआ था और सबसे ज्यादा लोग भी वहीं मरे थे, लेकिन मीडिया ने सारा ध्यान ताज और नरीमन हाउस पर ही केंद्रित रखा और इस तरह यह जाहिर कर दिया कि उसकी दृष्टि में गरीबों की मृत्यु और अमीर उद्योगपतियों और विदेशी नागरिकों की मृत्यु का वजन समान नहीं है।

मुंबई के अभिजात नागरिकों की प्रतिक्रिया भी बहुत प्रेरणादायक नहीं रही। एक तो, इस तरह के पहले के हमलों पर चुप्पी साधकर उन्होंने एक प्रकार से इस बार कुछ भी कहने का नैतिक अधिकार खो दिया था। इसलिए जब इस बार हमला स्वयं उनके वर्ग पर हुआ, तो उनका क्रोध और बौखलाहट साफ रूप से नपुंसक और अशोभाकारी लगा। जब बिहार में लाखों लोग बाढ़ से विस्थापित हो रहे थे, जब महाराष्ट्र में गरीब किसार हजारों की संख्या में गरीबी और मुफलीसी के कारण आत्महत्या कर रहे थे, या जब हिंदी भाषी छात्र-छात्राओं, गरीब खोमचेवालों और टैक्सी चालकों को मुंबई में राज ठाकरे के गुर्गे पीट रहे थे, या जब मुबई की ट्रेनों में बम विस्फोट कराए गए थे, इस अभिजात वर्ग ने कोई प्रतिक्रिया या हमदर्दी नहीं दिखाई। पर जब इस बार बंदूक उनके वर्ग के सीने पर दागी गई, तो वे अपने आलीशासन बंगलों और सुख-सुविधा संपन्न फ्लैटों से (जो अब असुरक्षित प्रतीत हो रहे थे) बाहर निकल आकर सारे देश के सामने मांगें करने लगे। अब उनको देश के समर्थन की जरूरत महसूस हो रही थी, पर अनेक अवसरों पर जब देश को उनके समर्थन की आवश्यकता थी, वे खामोश बैठे रहे थे। इस वर्ग के लोग इस देश से कितने कट से गए हैं और अमरीका आदि के साथ उनके तार किस हद तक मिलते हैं, इसके भी उन्होंने अनेक संकेत दिए। मुंबई नरसंहार को उन्होंने अमरीका के न्यूयोर्क शहर के ट्विन टावर पर ग्यारह सितंबर को हुए हमले की तर्ज पर भारत का नायन लेवन (अमरीका में दिनांक लिखते समय पहले महीना-सूचक संख्या लिखी जाती है, फिर दिन सूचक संख्या, इस तरह ग्यारह सितंबर को 9/11 के रूप में लिखा जाता है, और उसे नायन लेवन कहा जाता है) घोषित किया। ताज होटल को ग्राउंड जीरो बता दिया। अमरीकी रीति-रिवाज उन पर इतना हावी था कि वे यह भी नहीं सोच पाए नायन लेवन जैसी शब्दावली भारत के लिए बिलकुल ही अनर्गल है क्योंकि यहां तिथियां इस तरह लिखी ही नहीं जातीं। भारत के लिए तो नयन लेवन, लेवन नयन होता, क्योंकि यहां महीना-सूचक अंक दिन-सूचक अंक के बाद लिखा जाता है। उन्होंने यह नहीं सोचा कि अमरीका से हटकर भी भारत का स्वतंत्र अस्तित्व है और भारत में हो रही हर घटना को अमरीका के साथ जोड़कर या अमरीका की शब्दावली में सोचने की जरूरत नहीं है, यह शब्दावली भारत के करोड़ों लोगों को न तो समझ में आती है न ही वह उनके लिए प्रासंगिक है।

उनकी दिमागी दीवालिएपन के और भी अनेक संकेत मिलने को बाकी थे। जब न्यूयोर्क में आतंकी हमले हुए थे, तो हमले की रात वहां के नागरिकों ने एक-दूसरे को ईमेल संदेश भेजकर उसी रात ट्विन टावर के मलबे के चारों ओर इस हमले में मरे लोगों की स्मृति में मोमबत्ती जलाकर श्रद्धांजली दी थी। यह उनकी संस्कृति के प्रतीकों और शोक जाहिर करने की परिपाटी को देखते हुए एक सुंदर और गौरवपूर्ण तरीका था।

लेकिन जब मुंबई के अभिजात वर्गों ने इसी तरीके से मुंबई में भी शोक-रस्म कराना चाहा तो वही सुंदर कल्पना भोंडेपन और अमरीका की मानसिक गुलामी का सूचक हो गई। इस समारोह के आयोजक फिल्मी सितारों और अन्य अभिजात वर्गों ने इतनी ही मौलिकता दिखाई कि ईमले की जगह एसएमस के जरिए लोगों को इकट्ठा किया। आखिर मुंबई में जो मोमबत्ती समारोह किया गया, वह कृत्रिम, भावना-शून्य और अशोभन ही ज्यादा रहा। सबको स्पष्ट था कि यह अमरीकियों ने नायन लेवन के बाद न्यूय योर्क में किए गए रस्म की नकल मात्र है। मोमबत्ती समारोह में ये लोग बहुत से इश्तहार लेकर आए, जो सब अंग्रेजी में थे और टीवी कैमरों के सामने इन्हें खूब हिलाया गया, ताकि अमरीका और ब्रिटेन के लोग देख सकें कि उनके नक्काल इस देश में कितने हैं। यदि उनका मोमबत्ती समारोह देशवासियों के लिए होता तो ये इश्तहार हिंदी में होते। स्पष्ट था कि यह समारोह देशवासियों के दुख में शरीक होने के लिए नहीं आयोजित किया गया था।

अब रहती है सुरक्षा महकमे की प्रतिक्रियाओं की बात। प्रधान मंत्री से लेकर सुरक्षा सलाहकरा, और विदेश मंत्री से लेकर गृह मंत्री तक सभी विफल रहे। उनकी प्रतिक्रिया बस यही रही कि अमरीका के सामने हाथ जोड़े दीन भाव से याचना की जाए कि, माई-बाप, हमारी रक्षा करो, पाकिस्तान से कहो कि वह हमें इस तरह न सताए। यह उपनिवेशकाल के गोखले आदि नेताओं की याद दिलाता है जो अंग्रेज वाइसरायों को दीन भाव से अर्जियां भेजने को ही देश को गुलामी से बाहर निकलाने का कारगर अस्त्र मानते थे।

इतना जरूर है कि प्रधान मंत्री आदि के अमरीका के सामने इस तरह श्वान-वृत्ति अपनाने से एक ध्रुव सत्य स्पष्ट हो गया। आज भारत न तो उभरता सुपरपवर है न ही कोई सच्चे अर्थ में स्वतंत्र देश ही। उसकी हैसियत आज भी वही है जो उपनिवेश काल में थी। फर्क इतना है कि हम पहले अंग्रेजों के गुलाम थे, अब अमरीका के हो गए हैं। अंग्रेज सेना लेकर यहां डंटे हुए थे, जबकि अमरीका दूर बैठे अपने डालर निवेशों के बलबूते यहां राज करता है। लेकिन हम आज भी अपने हितों से संबंधित निर्णय लेने के लिए उतने ही स्वतंत्र हैं जितने अंग्रेजों की गुलामी के दिनों स्वतंत्र थे, यानी बिलकुल नहीं।

ये नेता यह नहीं देख पा रहे हैं कि पाकिस्तान के संबंध में अमरीका के हित और हमारे हित में जमीन आसमान का फर्क है, और वे परस्पर विरोधी भी हैं। अफगानिस्तान और तालिबान से लड़ाई में अमरीका के लिए पाकिस्तानी सेना का सहयोग आवश्यक है। दूसरे, अमरीका पाकिस्तान को चीन को घेरे रखने के लिए भी उपयोग कर रहा है, हालांकि यहां चीन ने अपनी कूटनीति का प्रयोग करके पाकिस्तान को बहुत हद तक अपने पक्ष में फोड़ लिया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अमरीका स्वयं भारत को एक भावी प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है और वह ऐसा कुछ नहीं करेगा जो भारत को इतना मजबूत कर दे कि वह अमरीका के लिए चुनौती बन जाए। भारत को कमजोर रखने के लिए पाकिस्तान को उभाड़ना उसकी रणनीति का एक अंग है। इसलिए यह सोचना कि अमरीका अपने हितों को नुकसान पहुंचाकर हमारी लड़ाई लड़ेगा, कोरी आत्म-प्रवंचना है।

मुंबई हमले का जवाब – क्या युद्ध एक विकल्प है? – 2

प्रत्यक्ष युद्ध एक विकल्प नहीं है। पर परोक्ष युद्ध एक विकल्प हो सकता है। इसके अनेक उद्देश्य होंगे –

- पाकिस्तान के भीतर घुसकर भारत के दुश्मनों का सफाया। यह नपे-तुले तरीके से करना चाहिए। केवल दुश्मन मरे, आम नागरिकों को हानि न पहुंचे। और सबसे महत्वपूर्ण भारत पर उंगली न उठे।

- जिन 20 अपराधियों की सूची भारत ने बनाई है, उन्हें गुप्त रूप से पकड़कर भारत लाने की कार्रवाई करनी चाहिए, जैसे अमरीका सद्दाम हुसैन को इराक से पकड़ लाई थी, या ओसामा को पकड़ने की कोशिश कर रही है। पाकिस्तान से उन्हें हमें दे देने की मांग करना राजनीतिक मासूमियत का परिचय देना है।

- अमरीका, ब्रिटन, चीन, साउदी अरब आदि पर गुप्त रूप से आतंकी हमले कराना चाहिए। इस तरह से कि शक की सुई पाकिस्तान की ओर घूमे। इससे वे पाकिस्तान को शह देने की अपनी नीति का खामियाजा स्वयं भरेंगे। अब तक भारत भरता आ रहा है।

- इससे वे पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बंद कर देंगे।

- भारत में ही अमरीका, ब्रिटन, चीन, साउदी अरब आदि नागरिकों और उनके आर्थिक हितों पर आतंकी हमले करवाना और जिम्मेदारी पाकिस्तान पर थोपना, इससे भी हमारा हित सध जाएगा। पर यह सब अत्यंत ही गुप्त रीति से करना चाहिए, वरना वार उल्टा भी पड़ सकता है, जैसे मालेगांव कांड में हुआ।

Monday, December 22, 2008

आतंक से कैसे निपटें

भारत का हित इसमें है कि पाकिस्तान में नासूर की तरह पनप रहा आतंक समाप्त हो, और वहां पाकिस्तानी फौज, तालिबान, मुल्ला-मौलवी और अन्य भारत-विरोधी तत्व निस्तेज हो जाएं, भारत पर हजार चोट करके उसे शिथिल करने की पाकिस्तानी नीति को निष्फल किया जाए। यह सब तभी संभव होगा जब पाकिस्तान को ऐसी स्थिति में लाया जाए कि वह भारत की बात माने। आज पाकिस्तान खुलेआम भारत को अंगूठा दिखा रहा है, इसलिए क्योंकि यह उसके लिए बिलकुल ही सस्ता अथवा मुफ्त का खेल है। यदि हम ऐसा कुछ कर सकें जिससे पाकिस्तान के लिए भारत के साथ अच्छे संबंध रखना लाजिमी और फायदेमंद हो, तभी वह इस विनाशी खेल से बाज आएगा।

हमें पाकिस्तान के ऐसे वर्गों के हाथ मजबूत करने होंगे जो भारत के साथ अच्छे संबंध चाहते हैं। इनमें वहां के व्यापारी वर्ग, आम जनता, कलाकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक आदि हैं। भारत को इनके साथ मेल-जोल बढ़ाना चाहिए और उन्हें धर्म-आधारित या सेना द्वारा संचालित समाज-व्यवस्था के बदले लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था के फायदे समझाने चाहिए। भारत में विभिन्न कौमों और धर्मों के लोगों के हजारों वर्षों के सहअस्तित्व से एक सहिष्णु, मेल-मिलाप वाली संस्कृति पनपी है जो भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की साझी संपत्ति है। इसकी रक्षा करना और इसका फायदा उठाना इन तीनों देशों की जनता की जिम्मेदारी है। यह संस्कृति भारत में तो बहुत-कुछ फल-फूल रही है, पर पाकिस्तान और बंग्लादेश में तेजी से लुप्त होती जा रही है, वहां तालिबानी वहशीपन का साया फैलता जा रहा है। वहां के नागरिकों को एहसास कराना चाहिए कि वे कितनी बड़ी निधि खोते जा रहे हैं और उसके बदले में कितना क्षुद्र कंकड़ पा रहे हैं।

यह सब अंग्रेजों की कूटनीति की सफलता है जब आजादी के वक्त उन्होंने भारत को कमजोर रखने के इरादे से उसका विरोधी गुटों में विभाजन कर डाला था। आज पाकिस्तान में जो हो रहा है और वहां जो तालिबान का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, वह सब इसी कूटनीति का फल है। बंग्लादेश में भी यह जहर फैलता जा रहा है। सौभाग्य से भारत के मुसलमान बहुत कुछ इस जहरीले प्रभाव से बचे हुए हैं। अब सब आशाएं उन्हीं पर टिकी हैं। यह उन्हीं का ऐतिहासिक कार्यभार होगा कि वे भारत के अन्य कौमों की मदद से देश के इस विभाजन को निरस्त करके देश के तीन टुकड़ों को फिर से एक कर दें। यही आतंक का सही समाधान होगा।

अभी भारत का कोई वश पाकिस्तान पर नहीं चलता क्योंकि वह एक स्वतंत्र देश है, हालांकि हजारों सालों से सांस्कृतिक रूप से वह एक ही महान देश का अंग रहा है। ब्रिटिश कूटनीति के कारण वह हाल के कुछ दशकों से स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व में रह रहा है। पर पिछले साठ सालों के अनुभव से अब यह स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान के बनने से न भारत का भला हुआ है न स्वयं पाकिस्तान की जनता का। यदि फायदा हुआ है तो चंद फौजी जनरलों का और वहां के बड़े-बड़े जमींदारों और मुल्ला-मौलवियों का। वहां की जनता आज भी घोर गरीबी, अशिक्षा और बीमारी के तले पिस रही है। वहां की फौज, जमींदारों और धर्म के ठेकेदारों का गठजोड़ पाकिस्तानी जनता के इन कष्टों का निराकरण न करके उन्हें भारत के प्रति शत्रुता बरतने की घुट्टी पिलाता जा रहा है। हालांकि सचाई यह है कि यदि भारत-पाकिस्तान-बंग्लादेश एक हो जाएं, तो जनता के असली दुश्मन - गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, बेरोजगारी आदि पर अधिक संगठित और असरकारक रूप से धावा बोला जा सकता है।

आज इन तीनों देशों का एकीकरण एक असंभव सा कार्य लगता है, पर मुंबई नरसंहार जैसी घटनाएं हमें बार-बार याद दिलाती हैं कि अब इससे बचा नहीं जा सकता। भारत पर हो रहे आतंकी हमले का सही उत्तर भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश को एक ही शासन के तले लाना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत की फौज इन देशों पर सैनिक विजय प्राप्त कर ले। यह यदि संभव भी हो, तो इससे काम नहीं बनेगा क्योंकि इससे पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता के मन में भारत के प्रति तीव्र घृणा और प्रतिशोध की भावना पनपेगी, जिसके रहते किसी भी प्रकार का सहयोग संभव न हो पाएगा।

हमें पाकिस्तान और बंग्लादेश को समझाना होगा कि यह उन्हीं के हित में है कि वे भारत में एक बार फिर विलीन हो जाएं। हमें जो नीति अपनानी होगी, वह उसी तरह की होनी चाहिए जिसके तहत यूरोप के सदियों से युद्धरत देश आज एक हो गए हैं। हम इस कार्य को चरणबद्ध रूप से पूरा कर सकते हैं। पहले तीनों देशों की संस्थाएं, जैसे स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, आदि एक-दूसरे के लिए खुल जाएं। छात्रों, अध्यापकों, डाक्टरों, नर्सों आदि का आदान-प्रदान हो। फिर तीनों देशों की कोई सामान्य मुद्रा चलाई जा सकती है। पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है। तीनों को समान नागरिकता के अधीन लाया जा सकता है, अर्थात बिना वीसा के इन तीनों देशों के लोग एक-दूसरे के क्षेत्र में आ-जा सकें। सैनिक तालमेल बढ़ाई जा सकती है, और अंततः एक सेना की ओर प्रयास करना चाहिए। अपराध, धर्मोन्माद आदि को नाथने के लिए तीनों को सम्मिलित प्रयास करना चाहिए। और जब सभी पक्षों को यकीन हो जाए कि इसमें किसी का नुकसान नहीं है, बल्कि फायदा ही फायदा है, तब तीनों की सरहदें मिटाई जा सकती हैं। इस पूरी प्रक्रिया को पूरा होने में दस, बीस या सौ साल भी लग सकते हैं, पर हमें निरंतर इस ओर कदम बढ़ाते जाना चाहिए।

अखंड भारत के विचार का अब समय आ गया है। अखंड भारत के इतिहास में मुंबई नरसंहार एक ऐसा मील का पत्थर बने, जिसने तीनों देशों के नागरिकों में विभाजन के कलंक को मिटाने की आवश्यकता का बोध कराया। तीनों देशों के हर वर्ग के लोगों को सोचने लगना चाहिए कि किस तरह इस प्राचीन और महान देश के तीनों टुकड़ों को फिर से जोड़ा जाए। यदि करोड़ों लोग सक्रिय रूप से इस दिशा में सोचें, तो ये टुकड़ें अपने आप ही एक हो जाएंगे।

मुंबई नरसंहार को लेकर बहुत जबान चली है, बहुत से पन्ने रंगे गए हैं, पर इस नजरिए से किसी ने नहीं सोचा है, कि आतंक का अंत तभी होगा जब भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश राजनीतिक, सांस्कृतिक, सैनिक और भौगोलिक रूप से एक इकाई बनें। इससे पता चलता है कि काम कितना कठिन है। अभी तो लोग आतंक के मूल कारण को भी समझ नहीं सके हैं। मूल कारण भारत का विभाजन है। मूल कारण अंग्रेजों की कूटनीति है, यहां संप्रदायवाद भड़काने और धार्मिक उन्माद को हवा देने की उनकी नीति है। हम जिन्ना, नेहरू, पटेल आदि को कोसते हैं कि उनकी विफलता और परस्पर वैमनस्य के कारण देश बंटा। पर वे मात्र अंग्रेजों के हाथ के कठपुतले थे। असली कारण अंग्रजों की देश की जनता में दरार डालने की कुटिल नीति थी, ताकि देश सदा कमजोर रहे और उनके लिए चुनौती न बने। हर बार जब भारत पर आतंकी हमला होता है या पाकिस्तान में जुलफिकर भुट्टो, बेनजीर भुट्टो, जिया उल हक और अनेकानेक नेता मारे जाते हैं, तो यह कुटिल नीति का प्रभाव स्पष्ट होता है। इस कुटिल नीति को कमजोर करने और अंततः उसे पूर्णतः मिटाने का एक ही तरीका है कि तीनों देशों को फिर एक किया जाए।

यह कैसे किया जाए, यह सोचने की बात है। पर हमें याद रखना चाहिए कि इस दुनिया में कोई भी बात असंभव नहीं होती। राजनीति की परिभाषा ही यह है वह ऐसी कला है जो असंभव को संभव कर दिखाए। जब चंद्रगुत्प मौर्य ने सिकंदरी हमले के समय के छिन्न-भिन्न भारत को चाणक्य की मदद से समेटकर एक विशाल साम्राज्य गठित किया था तब उसने ऐसे ही असंभव को संभव सिद्ध किया था। यही कार्य बाबर और अकबर ने चौदहवीं सदी में किया था। 1857 में जब हिंदू और मुसलमान एक होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े थे, तो भी हमने यही गौरवशाली प्रयास किया था। गांधी आदि नेताओं के नेतृत्व में देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए हमने जो महान संग्राम छेड़ा, वह भी ऐसा ही एक प्रयास था। अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर प्रयास करें एक महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, देश को एक करने के लिए।

यदि हम सब मान जाएं कि देश का विभाजन गलत था, देश की जनता के हित में नहीं था, और देश की जनता का असली हित देश के टुकड़ों को जोड़ने में है, तो हम कुछ ही दशकों में अखंड भारत के सपने को साकार कर लेंगे। तीनों देशों के लेखकों, कलाकारों, राजनेताओं, राजनीतिक दलों, कारोबारी लोगों, जन साधारण, सभी को गंभीरता से सोचना चाहिए कि अखंड भारत को कैसे साकार किया जाए। इस ओर छोटे-छोटे कदम अभी से उठाए जा सकते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि हम अखंड भारत को साकार करने के लिए क्या कर सकते हैं, और उसे तुरंत करने लग जाना चाहिए। अखंड भारत हममें से अधिकांश के जीवनकाल में संभव नहीं भी हो सकता है। पर हमें अपने बाल-बच्चों का खयाल करके इस ओर प्रयत्नशील रहना चाहिए। जब भरत-पाकिस्तान-बंग्लादेश फिर से एक हो जाएंगे, तो हम कितना महान देश बन जाएंगे इसकी कल्पना करके हमें अपने उत्साह को बुलंद रखना चाहिए।

Sunday, December 21, 2008

मुंबई हमले का जवाब - क्या युद्ध एक विकल्प है?

पाकिस्तान के साथ परंपरागत युद्ध शायद विकल्प नहीं है, पर परोक्ष युद्ध की नीति संभव है।

अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजकर तालिबानों के विरुद्ध मोर्चे को हम मजबूत कर सकते हैं। इससे अमरीका का पाकिस्तान पर निर्भरता कम होगी, उसी तादाद में अमरीका द्वारा पाकिस्तानी सेना को टिकाए रखने की इच्छा भी। इससे अंततः पाकिस्तानी सेना कमजोर होगी और पाकिस्तान का लोकतंत्र मजबूत होगा। तालिबान का सफाया भी संभव हो सकेगा।

Saturday, December 20, 2008

मुंबई हमले का जवाब – कूटनीतिक पहल

अब तक कूटनीति यही रही है हम अमरीका के सामने हाथ फैलाएं।

अन्य कूटनितिक पहल भी आवश्यक होंगे।

चीन पाकिस्तान को उभाड़नेवाला देश है। उसे रास्ते पर लाने के लिए भारत को ताइवान और तिब्बत की आजादी के आंदोलन को खुला समर्थन देना चाहिए। चीन के जिजियांग आदि प्रदेशों में घनी मुस्लिम आबादी है जो चीन से अलग होना चाहती है। इनमें तालिबान, अलकायदा आदि का प्रभाव बढ़ रहा है। यहां अलगाववाद फैलाने की ओर हमारी भेद नीति तेज करनी चाहिए। वहां आतंकी हमले कराने की कोशिश करनी चाहिए, पर इस तरह से कि यह लगे कि पाकिस्तान की ओर से हुआ है।

साथ ही पाकिस्तान के नागरिकों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहिए।

भारत के मुसलमानों को मुसलिम दुनिया में शीर्ष स्थान हथियाना चाहिए और साउदी अरब, ईरान, तालिबान आदि की कट्टरपंथी धारा को गैरइस्लामिक करार देना चाहिए। भारत के सहिष्णुतावादी सूफी धारा को असली इस्लाम के रूप में प्रचारित करना चाहिए। इसमें तुर्की, मलेशिया, इंदोनीशिया आदि नरम इस्लामी देशों का सहारा लेना चाहिए। इनके धर्म-गुरुओं का सम्मेलन भारत में बुलाना चाहिए। यह सरकार की ओर न करके, मुस्लिम समुदाय की ओर से होना चाहिए।

Friday, December 19, 2008

क्यों हुआ मुंबई

अब यह लगभग स्पष्ट हो चुका है कि मुंबई हमलों के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। सवाल यह है कि यह हमला क्यों कराया गया और इसके जवाब में भारत क्या करे।

भारत ने पाकिस्तान से 20 आतंकियों को सौंपने की मांग की है, जिसे पाकिस्तान ने ठुकरा दिया है। पहले के अवसरों की तरह इस बार भी पाकिस्तान की दलीलें बहुत कुछ वे ही हैं - इस हमले का पाकिस्तान से कोई ताल्लुक नहीं है; ये आतंकवादी पाकिस्तानी नागरीक हैं ही नहीं, बल्कि ये मुंबई के ही निवासी हैं, क्योंकि इन्हें मुंबई की अच्छी जानकारी थी; और, यदि फिर भी भारत को यकीन न हो, तो वह अपने पास मौजूद सारे सबूत पाकिस्तान को दे दे, पाकिस्तान उनके आधार पर अपनी अदालतों में मुंबई हमलों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों पर कार्रवाई करेगा। यह आखिरी दलील अमरीकी दबाव के फलस्वरूप किया गया है। अमरीका ने चेतावनी दी है कि यदि पाकिस्तान आतंकियों पर कार्रवाई नहीं करेगा, तो अमरीका को यह कार्रवाई करनी पड़ेगी।

पाकिस्तान ने इस बार उपर्युक्त दलीलों के अलावा एक नई दलील भी पेश की है, जो काफी रोचक है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने कहा है कि मुंबई हमले अराज्यीय कर्ताओं (नोन-स्टेट एक्टरों) की करतूत है, और पाकिस्तानी सरकार का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यदि इस दलील को माना भी जाए, तो यह बात निर्विवाद है कि इन अराज्यीय कर्ताओं को पाकिस्तान में खूब शह मिलता है, उन्हें वहां पाला-पोसा जाता है, हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, उनका मानसिक प्रक्षालन (ब्रेनवाश) करके उन्हें जेहादी बनाया जाता है, और पैसे और बमों से लैस करके भारत में उतारा जाता है। यह सब काम पाकिस्तान के अंदर से और पाकिस्तान की संस्थाओं द्वारा -- आईएसआई और पाकिस्तानी सेना द्वारा -- किया जाता है। भारत को पाकिस्तान में मौजूद ऐसे दर्जनों प्रशिक्षण शिविरों की जानकारी है। ऐसे में जरदारी का यह दलील कि पाकिस्तान का इस हमले से कोई लेना-देना नहीं है, खोखला है।

फिर भी जरदारी का वक्तव्य पाकिस्तान की असली स्थिति पर प्रकाश जरूर डालता है। आज के पाकिस्तान में पांच मुख्य शक्ति केंद्र हैं – जरदारी की सरकार, पाकिस्तानी सेना, आईएसआई, तालिबान का पाकिस्तानी रूप, और देश के पश्चिमी भागों के कबीलाई गुट, जो लगभग स्वतंत्र से हो गए हैं और जिन पर पाकिस्तानी सरकार या सेना का कोई नियंत्रण नहीं है। संभव है आनेवाले दिनों में यहां एक नए राष्ट्र बलूचिस्तान का जन्म हो जाए, या यह भी हो सकता है कि अफगानिस्तान से खदेड़ा गया तालिबान यहां अपने लिए नया राष्ट्र बना ले जिसमें अफगानिस्तान और पाकिस्तान के वे हिस्से शामिल होंगे जिन पर उसका नियंत्रण है। इस तरह दिक्षण और उत्तर कोरिया, दक्षिण और उत्तर वियतनाम आदि की तरह अफगानिस्तान के भी दो भाग हो जाएंगे, एक भाग दक्षिण कोरिया की तरह अमरीकी सैनिक शक्ति के कारण टिका रहेगा, और दूसरा भाग तालिबान और अलकायदा के नियंत्रण में रहेगा।

इन पांच शक्ति केंद्रों के अलावा पाकिस्तान में एक छठा शक्ति केंद्र अमरीकी सेना भी है जो पाकिस्तान में ओसामाबिन लादन को पकड़ने और अल कायदा को नेस्तनाबूद करने के लिए डटी हुई है। लेकिन मजे की बात यह है कि इन छह शक्ति केंद्रों में से किसी की भी सत्ता पाकिस्तान भर में नहीं चलती है।

जब हम मुंबई हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप मांग करते हैं कि पाकिस्तान यह करे, वह करे, तो हमारे लिए यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह मांग हम किससे कर रहे हैं? और हमें यह भी विचारना चाहिए कि जिससे हम यह मांग कर रहे हैं, क्या वह इस स्थिति में है भी कि वह उसे पूरा कर सके। स्पष्ट ही जब हमने पाकिस्तान से 20 आतंकवादियों को सौंपने को कहा, तब हमारे मन में यही विचार था कि यह काम पाकिस्तान की सरकार को करना है। पर असलियत यह है कि जरदारी की सरकार पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के हाथों की मात्र कठपुतली है। उसे वही करना होता है, जो उसके ये आका उससे करवाते हैं। इसके अनेक सबूत अब उपलब्ध हैं। जब मुंबई में हमला हुआ था, शुरू-शुरू में जरदारी का रवैया काफी सहानुभूतिपूर्ण रहा। जब भारत ने मांग की कि इस हमले की तहकीकात में सहयोग देने के लिए वे आईएसआई के सरगना को भारत भेजें, तो जरदारी तुरंत राजी हो गए। लेकिन दो दिन बाद ही वे मुकर गए क्योंकि उनके आका आईएसआई ने उन्हें इसके लिए फटकार बताई।

इससे पहले भी जरदारी अनेक ऐसे बयान दे चुके हैं जिनसे उन्हें कुछ ही पल बाद मुकर जाना पड़ा था क्योंकि पाकिस्तानी सेना या आईएसआई ने इन बयानों के लिए उन्हें आड़े हाथों लिया। इन बयानों में ये भी शामिल हैं -- कश्मीर के आतंकवादी फ्रीडम-फाइटर नहीं हैं; और, पाकिस्तान अपने परमाणु अस्त्रों का प्रथम प्रयोग नहीं करेगा। इससे जाहिर होता है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई पर पाकिस्तानी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, बल्कि इसकी ही अधिक संभावना है कि पाकिस्तानी सरकार की लगाम पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के हाथों में है।

तो भारत के पास क्या विकल्प हैं? क्या वह होट-पर्स्यूट की नीति अपनाकर सीमा पार के आतंकी शिविरों पर फौजी हमले करे, या हवाई हमले करके इन्हें नष्ट करे? मुंबई नरसंहार के गुस्से में हमें यह एक वाजिब कार्रवाई प्रतीत हो सकती है, पर गहराई से सोचने पर यह देश के दुश्मनों के हाथों में खेल जाना होगा।

भारत के दुश्मनों ने मुंबई नरसंहार करवाया ही इसलिए था कि भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाए। अमरीका पाकिस्तान पर निरंतर जोर डाल रहा है कि वह तालिबानों और अल कायदा पर ईमानदारी से सैनिक कार्रवाई करे। यह तालिबान पाकिस्तानी सेना का ही मानस पुत्र है और इसलिए उस पर वार करना उसे अपने ही पुत्रों को मारने जैसा प्रतीत होता है। दूसरे तालिबानी मुसलमान हैं और दो-राष्ट्र की नीति पर गठित किए गए पाकिस्तान के लिए अपने ही धर्म भाइयों पर गोली चलाना एक घिनौना कार्य है। अब तक झूठ-फरेब का सहारा लेकर पाकिस्तानी सेना अमरीकी आंखों में धूल झोंकती रही है, पर अब अमरीका का भी मूड बदल रहा है। वहां नया राषट्रपति बराक ओबामा आ गया है जिसने पाकिस्तान पर कड़ा रुख अपनाने की बात कही है। दूसरी ओर अमरीका ईराक से हाथ खींचने का मन बना चुका है और अफगानिस्तान पर अपनी पूरी ताकत लगाने वाला है।

ऐसे में तालिबान और अल कायदा पर ठोस कार्रवाई न करने के लिए पाकिस्तानी सेना के पास अब कोई बहाना नहीं बचा है। इसी परिप्रेक्ष्य में उसने मुंबई पर हमला करवाया है। वह चाहता है कि इस हमले से भारत इतना तिलमिला उठे कि दोनों देशों में युद्ध की स्थिति बन जाए, जिसका बहाना बनाकर पाकिस्तानी सेना अपने फौजियों को पश्चिमी सरहदों से हटाकर पूर्वी सरहदों में ले आ सके, और इस तरह तालिबानों से भिड़ने से बच सके। पाकिस्तान को शायद विश्वास है कि उसके परमाणु अस्त्रों के कारण भारत के साथ कोई असली युद्ध नहीं होगा, या अमरीका आदि देश युद्ध होने नहीं देंगे।

पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने यह भी हिसाब लगाया होगा कि यदि पाकिस्तान की सरकार इस नीति का विरोध करे, तो उसे हटाकर दुबारा किसी जनरल को राष्ट्रपति बना दिया जा सकेगा। चूंकि पाकिस्तानी लोगों को बरसों से भारत-विरोधी प्रचार से बहकाया गया है, वे भी इस सरकार के टूटने का ज्यादा विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें समझाया जा सकेगा कि यह सरकार भारत के प्रति नरम रुख अपना रही है जो पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए घातक है और इसलिए उसे हटाना जरूरी है। लेकिन यहां पाकिस्तानी सेना का हिसाब गलत भी हो सकता है, क्योंकि पाकिस्तान की जनता बरसों की सैनिक तानाशाही से त्रस्त हो चुकी है और लोकतांत्रिक सरकार के फायदे समझने लगी है।

इन्हीं दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पाकिस्तानी सेना ने मुंबई नरसंहार रचाया। पर पाकिस्तानी सेना यहां बहुत ही खतरनाक और आत्मघाती खेल खेल रही है। वह तालिबान और अल कायदा की शक्ति को कम आंक रही है। यह सही है कि तालिबान उसका मानस-पुत्र है पर यह राक्षसी पुत्र अब बड़ा हो गया है और अपने पिता के नियंत्रण के बाहर हो चुका है। वह अपने ही पिता को मारकर अपने हितों की रक्षा करने से भी बाज नहीं आएगा। आज तालिबान पर अमरीकी दबाव दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। अमरीकी दबाव में आकर पाकिस्तानी सेना भी तालिबान पर कार्रवाई करने को मजबूर है। ऐसे में तालिबानों की शत्रुओं की सूची में पाकिस्तानी सेना भी आ गई है। यही वजह है कि अभी हाल के दिनों में पाकिस्तान में आतंकी हमलों की बाढ़ सी आ गई है।

अफगानिस्तान से खदेड़े जाने के बाद अब तालिबान के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है कि उसके पास कोई सुरक्षित जमीन हो जहां वह अपने आपको संगठित कर सके, और जिसे वह अमरीकी और पाकिस्तानी हमलों से सुरक्षित रख सके और जहां से वह अपने क्षेत्र का शासन कर सके, लोगों से कर वसूल सके, अफीम आदि की खेती करके नशीले द्रव्य बनाकर उनकी तस्करी कर सके, और इससे आनेवाले पैसे से हथियार खरीद सके, तथा अपने नेताओं को सुरक्षित रख सके।

इसलिए तालिबान धीरे-धीरे अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरहदों के आसपास के इलाकों पर अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है। अभी तालिबान और पाकिस्तानी सेना के पलड़े बराबर हैं, लेकिन यदि पाकिस्तानी सेना अपनी सैनिकों को हटाकर भारत की सरहद पर ले आए, तो तालिबान का पलड़ा भारी हो जाएगा और वह पूरे पाकिस्तान नहीं तो उसके उत्तर-पश्चिमी इलाकों में हावी हो जाएगा और ये इलाके पाकिस्तान के हाथ से सदा के लिए निकल जाएंगे। यानी पाकिस्तान का दूसरी बार बंटवारा हो जाएगा।

बात इतने तक भी सीमित नहीं रहेगी। तालिबान के लिए अमरीकी दबाव से मुक्ति पाने का एक ही मार्ग बचा है, वह है पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर कब्जा करना। जैसे ही पाकिस्तानी सेना मोर्चे से हट जाएगी, तालिबान आगे बढ़कर पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर कब्जा कर लेगी। तब अमरीका को भी अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा।
एक बार परमाणु हथियार तालिबानों के हाथ आ जाए, तो यह समझा जा सकता है कि ये हथियार अल कायदा को मिल चुके हैं, क्योंकि दोनों में गहरी सांठ-गांठ है। तब फिर इस दुनिया का क्या होगा इसकी कल्पना करके भी दिल दहल उठता है, क्योंकि तब आतंकी आरडीएक्स के स्थान पर परमाणु हथियार इस्तेमाल करते हुए नजर आएंगे। यदि तालिबान या अलकायदा अमरीका, भारत, ब्रिटेन या इजराइल पर परमाणु अस्त्रों से हमला कर दे, अथवा ये ही देश तालिबान पर परमाणु अस्त्रों से एहतियाती हमला कर दे, तो दुनिया तीसरे महायुद्ध की कगार पर पहुंच जाएगी, और पाकिस्तान की जमीन पर यह युद्ध लड़ा जाएगा। कहना न होगा कि इस युद्ध में परमाणु हथियारों का खुलकर उपयोग होगा।

इसलिए पाकिस्तानी सेना को और वहां के लोगों को समझना चाहिए कि तालिबान, अल कायदा और आतंकवादियों पर विजय पाना उनके भी हित में है। पर पाकिस्तानी सेना कभी भी अपनी समझदारी के लिए नहीं जानी गई है। किसी ने सही ही कहा है कि यह एक ऐसी सेना है जिसने कोई भी युद्ध नहीं जीता है, हालांकि उस पर अरबों डालर हर साल खर्च किए जाते हैं।
ऐसे में भारत को अच्छी तरह समझना होगा कि उसके असली दुश्मन कौन हैं और उनसे कैसे निपटा जाए। गलत कदम से मामला नियंत्रण के बाहर हो जाएगा और भारत को भी लेने के देने पड़ जाएंगे।

Thursday, December 18, 2008

मुंबई हमला और मोमबत्ति मार्च का सच

मुंबई हमले के सूत्रधारों का खुलासा हो चुका है। हमलावर पाकिस्तान से आए, पाकिस्तान के तत्वों ने उन्हें पाकिस्तान में स्थित शिविरों में प्रशिक्षण दिया, और पाकिस्तान से ही उन्हें पैसे, हथियार, निर्देश और मार्गदर्शन मिले। स्वयं पाकिस्तान ने लश्कर-ए-तौयबा और जमात-उद-दावा को प्रतिबंधित करके और उसके सरगना को नजरबंद करके यह कबूल कर लिया है कि इस हमले में पाकिस्तान का हाथ है।

ऐसे में भारत की क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए? देश के नेताओं, अफसरों और मुंबई के कुछ नागरिकों के मन में गुस्सा है, अपमान है कि देश के बाहर का कोई आतंकी दल बेरोक देश के समृद्धतम शहर में घुस आया और नरसंहार कर गया। अभी कई वर्षों से भारत के कुछ वर्ग देश को एक उभरती विश्व शक्ति के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, हलांकि यहां अब भी अपार गरीबी, भूख, बेरोजगारी, अशिक्षा और बीमारी का बोलबाला है। फिर भी भारत को चीन और अमरीका के समकक्ष रखना इस वर्ग की मंशा है। यह हमला इस वर्ग द्वारा कल्पित भारत की छवि पर घड़ों ठंडा पानी उंडेल गया है।

पर हमले के प्रति गुस्से को इस वर्ग ने जिस रीती से व्यक्त किया है, उस पर कुछ टिप्पणी करना जरूरी लगता है। टीवी चैनल इस वर्ग का मुख्य वक्ता है, उसका दूसरा वक्ता है, अंग्रेजी अखबार। टीवी चैनलों के प्रसारणों को देखकर तो ऐसा लगता था कि सारा देश आपे से बाहर हुआ जा रहा है और तुरंत ही सेना लेकर पाकिस्तान पर चढ़ बैठने वाला है। पर यह हमारा सौभाग्य है कि टीवी चैनल देश की रग पहचानने में इस बार भी असफल रहे। हमले के दो दिन बाद ही देश के तीन-चार बड़े-बड़े राज्यों में चुनाव हुए। टीवी चैनलों ने विश्वास के साथ कहा कि आतंक इन चुनावों के नतीजों को प्रभावित करके रहेगा, और भाजपा को, जिसने शुरू से ही आतंक को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाया था, भारी लाभ पहुंचेगा। पर ऐसा नहीं हुआ, भारत की जनता ने मुंबई हमले की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, और स्थानीय मुद्दों के आधार पर उम्मीदवारों को चुना।

क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि टीवी चैनल अपनी अलग ही दुनिया में रहते हैं, जिसका देश की जमीनी हालातों से कोई ताल्लुकात नहीं है। देश गरीबी, भूख, सूखा, बेरोजगारी, अशिक्षा, कुपोषण, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार, और न जाने किन-किन विपत्तियों से जूझ रहा है, पर टीवी चैनलों ने दूध पीते सांप, नरभक्षी तांत्रिक, भुतहा महल, समलैंगिकों का विवाह, किस फिल्मी सितारे ने किस हीरोइन को तलाक दिया, या किसे चूमा, घर की बहू-बेटियों को अध-नंगी हालत में नाचने के लिए प्रोत्साहित करने वाले रियालटी शो, या बिग बोस जैसे अनैतिक सीरियलों और कार्यक्रमों को ही प्राइम टाइम में दिखाने में देश का सर्वोच्च हित समझा। समाचार चैनलों में दो मिनट इस तरह के “समाचार” दिखाए जाते हैं और अगले पांच मिनट अंग प्रदर्शन और फूहड़ता से भरे विज्ञापन। शायद टीवी चैनलों और उनके मालिकों का (जो सब बड़े-बड़े उद्योगपति या विदेशी मीडिया मुगल हैं) उद्देश्य ही यह है कि इस तरह के बेतुके और खयाली कार्यक्रम दिखा-दिखाकर लोगों के मन को सुन्न कर दिया जाए और देश की असली समस्याओं से उन्हें दूर रखा जाए ताकि लोग एक प्रकार की झूठी खुश-फहमी में रहें और टेढ़े और कठिन सवाल न पूछने लगें, जैसे, आजादी के साठ सालों के बाद भी देश से गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी क्यों दूर नहीं हुई, और किसान क्यों आत्महत्या कर रहे हैं?

अब तो इन टीवी चैनलों और उन्हें देखनेवालों की एक अजीब सा वर्ग ही बन गया है जो देश की वास्तविकताओं से बिलकुल कटा हुआ है। उनकी अवास्तविकता मुंबई हमले जैसी घटनाओं के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं से भली-भांति जाहिर होती है।

मुंबई हमले के कुछ दिन बाद ही मुंबई के गेटवे ओफ इंडिया के सामने ये लोग मोमबत्तियां लेकर इकट्ठे हुए और तरह-तरह की बेतुकी मांगें टूटी-फूटी अंग्रेजी में करने लगे। लगभग 120 लाख आबादी वाले इस विशाल महानगरी में मुट्ठी भर लोग (किसी ने 20,000 बताया है, किसी ने 10,000) ही इस “प्रदर्शन” में शरीक हुए, जो स्पष्ट करता है कि देश में इस तरह के लोग हमारे सौभाग्य से अभी इने-गिने ही हैं। और इन दस-बीस हजार लोगों में से भी कितने प्रीती जिंता और अन्य फिल्मी हस्तियों को नजदीक से देखने के लालच में वहां आए थे, यह कहना मुश्किल है, पर काफी संख्या इस तरह के तमाशबीनों की भी रही ही होगी। इसी तरह के प्रदर्शन देश के कुछ अन्य बड़े अंग्रेजीदां नगरों में भी कराए गए, जैसे बंगलूरु में।

पर इन प्रदर्शनों में कई ऐसी बातें थीं, जो इनके खोखलेपन को उजागर करती हैं। कई लोग अपने हाथों में इश्तहार लिए हुए थे, पर इन इश्तहारों पर नजर डालते ही स्पष्ट हो जाता था कि उनका लक्ष्य-समूह कौन है। इश्तहार सब अंग्रेजी में थे, और अमरीका और ब्रिटन की नजरों के लिए थे। यदि भारतीयों के लिए होते, तो वे ऐसी भाषा में क्यों लिखे होते जिसे देशवासी नहीं समझते? इसकी भी संभावना है कि इश्तहार दिखाने वाले ये लोग कोई भी भारतीय भाषा ठीक तरह से न जानते हों, क्योंकि ये सब या तो विदेशों में पले-बढ़े हैं या अंग्रेजी-दां स्कूलों में, जिसकी वजह से देशी भाषाओं के ज्ञान से ये महरूम हो चुके हैं। यह बात उनके बोले गए बयानों से और भी अधिक स्पष्ट होता था, क्योंकि ये दो वाक्य भी बिना अंग्रेजी के शब्द बीच में लाए नहीं बोल पा रहे थे।

इन्हें देखकर यह लगता है कि मराठी के चैंपियन राज ठाकरे हिंदी भाषियों को मुंबई से खदेड़ने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करके अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। उन्हें इन अंग्रेजीदां लोगों को मुंबई से बाहर करने की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इनके ही कारण मराठी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं की बाढ़ मारी जा रही है। पर राज ठाकरे ऐसा क्यों करने लगे, स्वयं उनका बेटा स्कूल में मराठी न पढ़कर जर्मन पढ़ने में लगा हुआ है।

यह वर्ग इतना पश्चिमीकृत और अंग्रेजीदां हो चुका है कि इसे इसकी बड़ी चिंता लगी रहती है कि अमरीका आदि में लोग इनके बारे में क्या सोचते हैं। इनके अपने ही देश के
भाई-बहनों की तकलीफों और परेशानियों को लेकर इनकी रात की नींद कभी नहीं खराब होती। जब बिहार में लाखों लोग बाढ़ से तबाह हो रहे थे, या महाराष्ट्र में ही हजारों किसान गरीबी और मुफलीसी के कारण आत्महत्या कर रहे थे, या मुंबई में ही ट्रेनों पर आंतकी हमले हो रहे थे, तो इनमें से किसी ने भी गेटवे ओफ इंडिया में मोमबत्ती मार्च कराने की नहीं सोची। सवाल उठना स्वाभाविक है, कि अब क्यों?

उत्तर बिलकुल सीधा है। जब अमरीका के ट्विन टावर पर 11 सितंबर (नायन लेवन) को आतंकी हमले हुए थे, तो ऐसे मोमबत्ती मार्च अमरीका में कराए गए थे। मुंबई हमले को इस वर्ग ने भारत का नायन लेवन के रूप में महिमा-मंडित कर दिया था। इसलिए यह आवश्यक था कि भारत में भी इसी तरह के प्रदर्शन हों, ताकि दुनिया देख सके कि भारत भी अमरीका जितना ही आगे बढ़ा हुआ देश है, और वह भी अपना मातम मोमबत्ती जलाकर करता है। पर रोटी-कपड़ा-मकान की झंझटों से परेशान देश की आम जनता को न तो नायन लेवन से कोई लेना-देना था, न ही मुंबई हमले से। उन बेचरों की सारी ताकत तो इस समस्या का हल करने में ही खर्च हो जाती थी कि अगली जून की रोटी कहां से आएगी।

दूसरा कारण यह था कि इस बार हमला मुख्य रूप से गरीबों द्वारा इस्तेमाल करनेवाले ट्रेनों या बाजारों में न हुआ था, बल्कि फिल्मी सितारे, अरबपति कारोबारी, विदेशी सैलानी और आला अफसर जहां शाम को जाम पीने इकट्ठे होते थे, ऐसे सात सितारा होटलों में हुआ था, और हमले में इस तरह के लोग भारी संख्या में मारे भी गए थे। कहते हैं, जब अपने लोग मरते हैं तो दर्द ज्यादा महसूस होता है। इन लोगों की मानसिकता कितनी संकीर्ण हो चुकी है कि इनके लिए "अपने लोग" देश की तमाम जनता नहीं, बल्कि सात सितारा होटलों के चंद मेहमान हैं।

और नायन लेवन के बाद अमरीका ने तुरंत अफगानिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया था, इसलिए मोमबत्ती मार्चरों ने भी गुहार लगाई कि पाकिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया जाए। न तो मामले की पर्याप्त छानबीन को, न ही युद्ध जैसे गंभीर विकल्प के नफे-नुकसान का हिसाब लगाने को इन लोगों ने जरूरी समझा। बस लगे नारे लगाने, पाकिस्तान पर युद्ध कर दो। आखिर पाकिस्तान क्या हमारे लिए गैर है जो हम उस पर हमला करने लगें? अभी साठ साल पहले तक वह इसी देश का हिस्सा था। आज भी देनों देशों के लाखों नागरिकों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता है। देश के प्रमुख धर्म के पवित्र ग्रंथ, वेद, वहीं रचे गए थे। क्या अमरीका और अफगानिस्तान के रिश्ते इस तरह के हैं? पर मोमबत्ति मार्चरों को इससे क्या लेना-देना है? वे तो अमरीका के इतिहास को स्वयं अपने देश के इतिहास से बेहतर जो समझते हैं।

उनकी एक अन्य "रणनीति" थी सारा ठीकरा राजनेताओं पर फोड़ना। लगे मांग करने कि गृह मंत्री हटे, महाराष्ट्र का मुख्यमंत्रि बदले, महाराष्ट्र का गृह मंत्रि इस्तीफा दे। वे आसान समाधान चाहते थे। राजनेताओं को बलि का बकरा बनाना आसान था, पर राजनेताओं को भ्रष्ट और निकम्मा बनाया किसने? आज देश की एक कटु सच्चाई यह है कि शासन पैसेवालों और उद्योगपतियों के हाथों का खिलौना है। इस वर्ग ने देश की प्राथमिकताएं बदल दी हैं। गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, भूख आदि से लड़ना अब देश की प्राथमिकता नहीं है। अमरीका के साथ परमाणु संधि करना, फालतू की प्रौद्योगिकियां देश में लाना जिनसे न तो लोगों को रोजगार मिलते हैं न ही उत्पादकता बढ़ती है, और विदेशी पूंजी को देश में खुला तांडव मचाने की छूट देना, ये सब देश की प्राथमिकताएं हो गई हैं।

आखिर इन मोमबत्ति मार्चरों से पूछना चाहिए कि आप नेताओं पर इतने लाल-पीले हो रहे हैं, लेकिन उन्हें चुनने के लिए आपमें से कितनों ने मतदान किया था? इससे इनकी असलियत खुल जाती। और इनके पीछे जो उद्योगपति हैं, उनसे पूछना चाहिए कि गलत नेताओं और पार्टियों को सत्ता में लाने के लिए उन्होंने कितने अरब रुपए पार्टी कोषों में दिए हैं? तो उनकी भी पोल खुल जाती।

गेटवे ओफ इंडिया में जमा 20,000 लोगों में से 19,000 लोगों ने कभी अपनी जिंदगी में मत दिया हो, तो यह आश्चर्य की बात होगी। क्या यह एक अजीब सा माजरा नहीं है कि जिन नेताओं को इन लोगों ने चुना ही नहीं, उन्हें निकाल बाहर करने में ये इतनी उछल-कूद मचा रहे हैं?

खैर छोड़िए इन मोमबत्ति मार्चरों को। इस आतंक का क्या करें, जो कैंसर की तरह देश के देह में फैलता जा रहा है?

इसका कोई आसान समाधान नहीं है। मामले की जड़ तक जाकर ही कोई कारगर समाधान किया जा सकता है। और आतंक की जड़ें आपको दो-राष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर देश के विभाजन में मिलेंगी। अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए भारत में इस सिद्धांत को जाते-जाते सफलतापूर्वक आजमाया था। द्वितीय विश्व युद्ध में साम्राज्यवादी देशों को भारी क्षति पहुंची थी और वे सामरिक, आर्थिक और सामुदायिक रूप से कमजोर हो गए थे। उनके उद्योग नष्ट हो गए थे, खजाने खाली हो गए थे, और भारी संख्या में उनके नागरिक भी मारे गए थे। उन्हें अपने समाज और अर्थव्यवस्था को नए सिरे से खड़ा करना था। यह अमरीकी मदद के बिना संभव न था, जो एकमात्र पूंजीवादी देश था जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में अपेक्षाकृत कम क्षति झेली थी। उसके प्रतिद्वंद्वी पूंजीवादी देश सब, जैसे ब्रिटन, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि युद्ध के कारण पस्त हो चुके थे। इन पिटे हुए पूंजीवादी देशों को हमेशा के लिए करारी हार देकर उनके अगुआ के रूप में उभरना अमरीका के लिए अब संभव था। लेकिन विश्व का अधिकांश भाग इन पिटे हुए पूंजीवादी देशों के कब्जे में था। इन उपनिवेशों को मुक्त कराए बगैर अमरीकी उद्योगों के लिए और अमरीकी माल के लिए नए बाजार नहीं मिल सकते थे। इसलिए अमरीका ने इन पूंजीवादी देशों की मदद करने के लिए (जिसे मार्शल प्लान के रूप में जाना जाता है) यह शर्त रखी कि उपनिवेश आजाद कर दिए जाएं। उधर उपनिवेशों में भी आजादी का आंदोलन तेज हो रहा था। मुट्ठी भर गोरे सैनिकों के लिए अब करोड़ों लोगों को दबाए रखना मुश्किल होता जा रहा था। अंग्रेजों को अपनी देशी फौज पर भी भरोसा नहीं रह गया था। यह फौज गोरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर द्वतीय विश्वयुद्ध की रणभूमियों में लड़ चुकी थी, और अब आत्मविश्वास से भरी हुई थीं। युद्ध जिन उद्देश्यों के लिए लड़ा गया था, यानी आजादी, लोकतंत्र और मानव जाति की एकता, उनसे भी वह भली-भांति परिचित हो गई थी, और अच्छी तरह समझती थी कि भारत में अंग्रेजों का रहना इन सिद्धांतों का घोर उल्लंघन है। आजादी के आंदोलन और उससे जुड़े दमन के कारण भारत पर अपना कब्जा बनाए रखना अंग्रेजों के लिए उत्तरोत्तर महंगा होता जा रहा था। एक दूसरी बात यह थी कि अब भारत में एक देशी पूंजीपति वर्ग भी बन चुका था जो अंग्रेजी पूंजीपतियों से होड़ करने लगा था। यह शक्तिशाली वर्ग भी आजादी के पक्ष में था, ताकि उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी अंग्रेज पूंजीपतियों को देश से निकाल बाहर करके विशाल भारतीय बाजारों पर स्वयं कब्जा कर सके। इन सब कारणों से भारत में अंग्रेजों की अंतिम घड़ी आ गई थी।

पर जाते-जाते उन्होंने अपनी पुरानी कूटनीतिक चाल, बांटो और राज करो, चली। इसी कूटनीति से वे दो सदी पूर्व देश के राजाओं को एक-एक करके हराकर सारे देश की छाती पर चढ़ बैठे थे, हालांकि 1857 में हिंदुस्तान ने इस कूटनीति को विफल बनाने का भरसक प्रयास किया। अंग्रेजों ने देश को दो विरोधी भागों में बांट दिया ताकि ये दोनों आपस में ही लड़ते रहें और ब्रिटन को किसी भी प्रकार की चुनौती न दे सकें। हमारे नेता अंग्रेजों की इस चाल को समझ न सके, और देश का विभाजन होने दिया। इससे भारत की कोई भी समस्या नहीं सुलझी। न भारत हिंदू राष्ट्र बना, न ही पाकिस्तान स्थिर बन सका। पच्चीस साल में ही उसके दो टुकड़े हो गए। आजकल आतंक का जो ज्वार देखने में आ रहा है, वह इसी ऐतिहासिक गलती से जुड़ा हुआ है। विभाजन अंग्रेज साम्राज्यवादियों की एक कूटनीतिक जीत थी, और हमारे समुदायों की करारी हार।

जब तक इस राष्ट्रीय विफलता को निरस्त करके देश के सभी टुकड़ों को फिर से एक न किया जाए, आतंक रहेगा। दो-राष्ट्र की नीति गलत थी, मुंबई के आतंकी हमले ने इसे सबको एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है। जब तक इस गलती को सुधारा नहीं जाएगा, आतंक का सिलसिला जारी रहेगा और कश्मीर जैसे मुद्दे जिंदा रहेंगे।

मोमबत्ती जलाकर नेताओं को इस्तीफे देने की गुहार लगाने से और अमरीकियों और ब्रिटनवासियों को इश्तहार दिखने भर से कुछ बदलने वाला नहीं है। न ही पाकिस्तान से युद्ध छेड़ने से कुछ होगा। इससे तो पाकिस्तान के लोग हमसे और भी ज्यादा दूर जा पड़ेंगे। आवश्यकता है इस बात की कि तीनों देशों के समुदायों को और निकट लाया जाए, ताकि उनके हित एक हो जाएं। यह कोई आसान काम नहीं है। इसे अंजाम देने के लिए काफी सृजनात्मक सोच, निर्लिप्त नेतृत्व, हर कौम की ओर से महान बलिदान और अपार धीरज दरकार होगा।

सैंकड़ों सालों से युद्धरत यूरोप यदि एक हो सकता है, तो अंग्रेजों की कूटनीति से साठ-सत्तर सालों से अलग हुए, पर हजारों साल साथ रहे इस प्राचीन देश के टुकड़े भी अवश्य एक हो सकते हैं। यही आतंक का सही जवाब होगा।

Wednesday, December 17, 2008

कसाब का पकड़ा जाना पहले से तय हो सकता है

मुंबई आतंकी हमले को लेकर अनेक प्रश्न अब उठने लगे हैं। यह बारीकी से सोची गई साजिश लगती है जिसके बहुत ही स्पष्ट उद्देश्य थे। सब कुछ अमरीका में बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने से शुरू होता प्रतीत होता है। ओबामा ने चुनाव प्रचार के दौरान ही स्पष्ट कर दिया था कि वे अफगानिस्तान के मसले को सुलटाने को प्राथमिकता देंगे और यदि जरूरी हुआ तो पाकिस्तान की जमीन पर अमरीकी सैनिकों को उतारेंगे। उनका यह भी संकेत था कि ईराक के युद्ध को समेटकर वहां से अमरीकी सेना वापस बुला ली जाएगी ताकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान की ओर अमरीका पूरा ध्यान दे सके।

उधर पाकिस्तान में जरदारी की सरकार सत्ता में आई और उसने भारत के साथ संबंधों को सुधारने को प्राथमिकता देना शुरू किया। इसके अलावा यह सरकार पाकिस्तानी सेना और आईएसआई को अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश भी करने लगी।
उपर्युक्त दोनों ही घटनाओं से पाकिस्तानी सेना, आईएसआई और पाकिस्तान में जमा तालिबान पर संकट गहराने लगा और उनके लिए यह आवश्यक हो गया कि वे कुछ ऐसा करें, जिससे उनके ऊपर से दबाव हटे।

मुंबई पर हमला इसी परिप्रेक्ष्य में किया गया। निशाने पर थीं, पाकिस्तान, अमरीका और उसके समर्थक देशों (जैसे इजराइल, ब्रिटन, आदि) की सरकारें। भारत निशाने पर उतना नहीं था जितनी ये सरकारें। हमले का मुख्य उद्देश्य था भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध कराना, जिससे पाकिस्तानी सेना को तालिबान पर कार्रवाई से बचने का बहाना मिले, क्योंकि वह तब यह कह सकेगी कि भारत की फौज का मुकाबला करना पाकिस्तान के लिए ज्यादा जरूरी है। भारत के साथ युद्ध का बहाना करके पाकिस्तानी सेना और आईएसआई जरदारी सरकार को भी हटा सकेगी और उसके स्थान पर किसी जनरल को राष्ट्रपति बना सकेगी, यह कहते हुए कि युद्ध के समय देश का संचालन सेना के हाथ में रहना चाहिए। इस तरह एक ओर तालिबान को राहत मिल जाती, अपनी शक्ति को संगठित करने के लिए, ताकि निकट भविष्य में होनेवाले अमरीकी हमले का वह बेहतर तरीके से सामना कर सके। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना जरदारी सरकार से मुक्ति पा जाती और पाकिस्तान में पुनः सैनिक शासन स्थापित कर पाती।

इस रणनीति का एक तीसरा पहलू भी है जो पाकिस्तान के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकता है। जैसे ही पाकिस्तानी सेना भारत के साथ युद्ध में उलझ जाती, तालिबान आगे बढ़कर पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को हड़प लेता, और इस तरह अमरीका के लिए भी उस पर युद्ध करना असंभव बना देता। परमाणु बम हाथ में आते ही तालिबान एक तरह से अजेय हो जाएगा और पाकिस्तान और अफगानिस्तान के उसके कब्जे वाले इलाके में वह अपने लिए एक नया राज्य कायम करने में सफल हो जाएगा। इसका सीधा अर्थ होगा, पाकिस्तान का एक बार फिर बंटना।

लेकिन इस रणनीति की सफलता इस पर निर्भर थी कि मुंबई हमले को असंदिग्ध रूप से पाकिस्तान के साथ जोड़ा जा सके। इसे सुनिश्चित करने के लिए हमलावरों ने जानबूझकर ऐसे कई संकेत छोड़े जो पाकिस्तान की ओर इशारा करें, और उनके एक साथी, अजमल अमीर कसाब, को भी जिंदा पकड़वा दिया। मेरे विचार से, यह भी उनकी योजना का एक महत्वपूर्ण भाग था।
कई तथ्य इस ओर इशारा करते हैं। आतंकवादियों ने विदेशियों को, खास करके अमरीकी, इजराइली और ब्रिटन के नागरिकों को, मारने की ओर विशेष ध्यान दिया। नरीमन हाउस में तो केवल इजराइली नागरिक ही बंधक थे, और आतंकियों ने एक बच्चे को छोड़कर, बाकी सभी बंधकों का कत्ल कर दिया। वे चाहते थे कि इस आतंकी हमले को भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में और खास करके अमरीका में, पब्लिसिटी मिले। हमले के लिए उन्होंने जो समय चुना, वह भी इसी ओर संकेत करता है। मुंबई के छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन के बारे में जो भी थोड़ा बहुत जानता है, उसे पता होगा कि शाम 5 से 7 बजे के बीच वहां सर्वाधिक भीड़ होती है, जब दफ्तरें छूटती हैं और लोग घर लौटने के लिए स्टेशन पर उमड़ पड़ते हैं। तब छत्रपति शिवाजी स्टेशन में तिल रखने की जगह नहीं होती, और यदि आतंकी उस समय हमला करते तो हजारों की संख्या में लोगों को आसानी से मार सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और रात 10 बजे का समय चुना, जब तक काफी भीड़ छंट जाती है। यह उनकी मेहरबानी नहीं थी, बल्कि उनका उद्देश्य ही यह था कि हमला ऐसे वक्त हो जब अमरीका में अधिकाधिक लोग टीवी देख रहे हों, ताकि इसकी खबर उन तक तुरंत पहुंचे। भारत में जब शाम के 5 बजे होते हैं, अमरीका में सुबह के 3 बजे होते हैं और वहां सभी लोग गहरी नींद में सो रहे होते हैं, और कोई भी टीवी नहीं देख रहा होता है। इसके विपरीत जब भारत में रात के 10 बजे हों, अमरीका में सुबह के 8 बजे होते हैं, और अधिकांश लोग ब्रेकफास्ट के साथ टीवी के सामने बैठे होते हैं।

आतंकियों ने विदेशियों को इसलिए भारी संख्या में मारा, और वह भी अमरीका, इजराइल और ब्रिटन के, क्योंकि वे इन देशों को अपना प्रमुख शत्रु मानते थे, और साथ ही उन्हें यह भी पता था कि केवल भारतीयों को मारने से उनके हमले को उतनी अंतर्राष्ट्रीय पब्लिसिटी नहीं मिलेगी जितनी अमरीकी या ब्रिटन के नागरिकों को मारने से।

उनकी योजना को सफल बनाने के लिए यह भी अत्यंत जरूरी था कि इस हमले के सूत्र पाकिस्तान से जुड़ें, अन्यथा भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की स्थिति पैदा न होती। इसलिए उन्होंने सोची-समझी रणनीति के तहत खूब सुराग छोड़े जिनसे तुरंत और असंदिग्ध रूप से पाकिस्तान के साथ इस हमले के तार जुड़ें। आइए देखते हैं ये सुराग क्या थे।

मुख्य सुराग ये थे - मछुआरों का जहाज कुबेर का, जिसमें ये आतंकी भारत आए थे, भारत के समुद्रों में आवारा स्थिति में मिलना; उसमें जीपीएस से लैस सैटालाइट फोन का मिलना जिससे कराची को तीन-चार फोन किए गए थे; आतंकियों के पास मोबाइल फोन होना; और सबसे महत्वपूर्ण, एक आतंकी का जिंदा पकड़ा जाना, ताकि वह असंदिग्ध रूप से यह बता सके कि आतंकी पाकिस्तान से ही आए हैं। ये सभी बातें अनेक सवाल खड़ी करती हैं।

यह योजना इतनी बारीकी से बनाई गई थी कि यदि इसके कर्ता-धर्ता चाहते, तो बड़ी आसानी से ऊपर बताए गए हर सुराग को सफाई से मिटा सकते थे। आतंकियों को मुंबई के तटों पर उतारने के बाद कुबेर जहाज को पाकिस्तानी समुद्री क्षेत्र में ले जाना क्या इनके लिए मुश्किल था? कुबेर के कप्तान की लाश को जहाज में पड़े रहने देने के बजाए उसे तथा उस जहाज में मिले सेटलाइट फोन को समुद्र में फेंक कर सभी सुरागों को मिटाने में उन्हें कितनी देर लग सकती थी? लेकिन ऐसा नहीं किया गया। वे चाहते थे कि कुबेर जहाज भारतीय अधिकारियों को मिले, और उसमें उसके भारतीय कप्तान की लाश भी, और वह सेटलाइट फोन भी, जिससे पाकिस्तान को कई फोन किए गए थे। अन्यथा हमलावरों का पाकिस्तानी स्वरूप कैसे स्पष्ट होता?
मुझे तो यह भी लगता है कि कसाब का जिंदा पकड़ा जाना भी साजिश का ही एक अंग है, क्योंकि पाकिस्तान में बैठे असली षडयंत्रकारियों की जानकारी देने के लिए कम से कम एक आतंकी का जिंदा पकड़ा जाना आवश्यक था। वरना, भारतीय अधिकारियों के लिए इस हमले का संबंध पाकिस्तान से जोड़ना मुश्किल होता, या उन्हें इसमें काफी समय लग जाता, जिससे हमले का मूल उद्देश्य पूरा न हो पाता। हमलावर चाहते थे कि तुरंत ही यह स्पष्ट हो जाए कि हमला पाकिस्तान की ओर से हुआ है, और भारत जल्दबाजी में और तुरंत ही पाकिस्तान पर युद्ध छेड़ दे। और यह युद्ध जनवरी से पहले हो, जब बराक ओबामा अमरीकी राष्ट्रपति का कार्यभार संभालेंगे और अनुमानतः अगले ही कुछ महीनों में अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सैनिक कार्रवाई तेज करेंगे। लेकिन यदि इससे पहले भारत और पाक में युद्ध छिड़ जाए, तो ओबामा की सारी योजनाएं ठप हो जाएंगी। पाकिस्तान में छिपे तालिबान की यह भी योजना रही हो सकती है कि भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तानी सेना को उल्झाकर वह पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर कब्जा कर ले, क्योंकि यदि वह ऐसा कर सके, अमरीका तक को वह अंगूठा दिख सकगा, क्योंकि तब अमरीका उस पर हमला करने का जोखिम नहीं उठा सकेगा। यदि ऐसा हुआ, तो पाकिस्तान का दुबारा बंटना भी निश्चित हो जाता और उसके पश्चिमी भागों में तालिबान का स्थायी राज्य कायम हो जाता।

कसाब जिन हालातों में पकड़ा गया, वे भी इस बात को पुष्ट ही करती हैं कि उसका जिंदा पकड़ा जाना पहले से तय था। कसाब एक स्कोड़ा कार में से पकड़ा गया था। उस कार में उसका एक साथी आतंकी भी था, जो गाड़ी चला रहा था। इन दोनों के पास भी उतने ही घातक हथियार थे, जितने ताज और ओबरोय में घुसे आतंकियों के पास थे और जिनकी मदद से वे 60 घंटे तक समस्त भारतीय सेना को रोके रख सके थे। तो क्या ये दोनों भी इन्हें पकड़ने आए सात-आठ लाठी-धारी पुलिस कर्मियों को मिनटों में भूनकर बच न निकल सकते थे? बिलकुल निकल सकते थे, पर लगता है यों निकलना उनकी रणनीति में था नहीं। कसाब कार की पिछली सीट में लेटे हुए लगभग निर्विरोध पकड़ा गया। इन आतंकियों को मिले उच्च स्तरीय सैनिक प्रशिक्षण को देखते हुए, यदि कसाब चाहता तो आसानी से बच निकल सकता था।

मुझे लगता है कि असली योजना में ही यह बात थी कि छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन में हमला करनेवाले दोनों आतंकी जिंदा पकड़े जाएं, ताकि वे भारतीय अधिकारियों को बता सकें कि हमला पाकिस्तान की ओर से हुआ है। अंततः केवल एक जिंदा पकड़ा गया, दूसरा मारा गया, पर इससे असली योजना को कोई खास फर्क नहीं पड़ा।

एक छोटी सी अन्य घटना भी इस सिद्धांत को पुष्ट करती है कि मुंबई हमले का असली मकसद भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध कराना था। जब मुंबई हमलों के कई दिनों के बाद भी भारत ने पाकिस्तान पर युद्ध छेड़ने के कोई संकेत नहीं दिए, तो षडयंत्रकारियों ने अपनी अंतिम चाल चली। यह था पाकिस्तानी राष्ट्रपति जरदारी को भारतीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की ओर से जाली फोन करवाना और कथित रूप से जरदारी को धमकाना। षडयंत्रकारी हताश हो रहे थे कि उनकी सोची-समझी साजिश अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर रही है, यानी भारत और पाक में युद्ध नहीं हो रहा है, तब उन्होंने यह हथकंडा अपनाया। उनकी सोच यही रही होगी कि भारत पाक पर हमला न करे, तो न सही, हम पाक से भारत पर हमला तो करा ही पाएंगे।
लेकिन यहां भी उनका वार खाली गया और भारत ने जाली फोन के संबंध में किसी भी प्रकार की असंदिग्धता नहीं रहने देकर पाक के लिए युद्ध के सारे रास्ते बंद कर दिए। यह अच्छा ही हुआ, वरना दोनों देशों को एक सर्वनाशी युद्ध का सामना करना पड़ता जिससे दोनों ही देशों के दुश्मनों को ही फायदा पहुंचता।

Tuesday, December 16, 2008

आतंक का उत्तर अखंड भारत

अब यह लगभग स्पष्ट हो चुका है कि मुंबई हमलों के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। सवाल यह है कि अब क्या किया जाए। भारत ने पाकिस्तान से 20 आतंकियों को सौंपने की मांग की है, जिसे पाकिस्तान ने ठुकरा दिया है। पहले के अवसरों की तरह इस बार भी पाकिस्तान की दलीलें बहुत कुछ वे ही हैं - इस हमले का पाकिस्तान से कोई ताल्लुक नहीं है; ये आतंकवादी पाकिस्तानी नागरीक हैं ही नहीं, बल्कि ये मुंबई के ही निवासी हैं, क्योंकि इन्हें मुंबई की अच्छी जानकारी थी; और, यदि फिर भी भारत को यकीन न हो, तो वह अपने पास मौजूद सारे सबूत पाकिस्तान को दे दे, पाकिस्तान उनके आधार पर अपनी अदालतों में मुंबई हमलों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों पर कार्रवाई करेगा। यह आखिरी दलील अमरीकी दबाव के फलस्वरूप किया गया है। अमरीका ने चेतावनी दी है कि यदि पाकिस्तान आतंकियों पर कार्रवाई नहीं करेगा, तो अमरीका को यह कार्रवाई करनी पड़ेगी।

पाकिस्तान ने इस बार उपर्युक्त दलीलों के अलावा एक नई दलील भी पेश की है, जो काफी रोचक है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने कहा है कि मुंबई हमले अराज्यीय कर्ताओं (नोन-स्टेट एक्टरों) की करतूत है, और पाकिस्तानी सरकार का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यदि इस दलील को माना भी जाए, तो यह बात निर्विवाद है कि इन अराज्यीय कर्ताओं को पाकिस्तान में खूब शह मिलता है, उन्हें वहां पाला-पोसा जाता है, हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, उनका मानसिक प्रक्षालन (ब्रेनवाश) करके उन्हें जेहादी बनाया जाता है, और पैसे और बमों से लैस करके भारत में उतारा जाता है। यह सब काम पाकिस्तान के अंदर से और पाकिस्तान की संस्थाओं द्वारा -- आईएसआई और पाकिस्तानी सेना द्वारा -- किया जाता है। भारत को पाकिस्तान में मौजूद ऐसे दर्जनों प्रशिक्षण शिविरों की जानकारी है। ऐसे में जरदारी का यह दलील कि पाकिस्तान का इस हमले से कोई लेना-देना नहीं है, खोखला है।

फिर भी जरदारी का वक्तव्य पाकिस्तान की असली स्थिति पर प्रकाश जरूर डालता है। आज के पाकिस्तान में पांच मुख्य शक्ति केंद्र हैं – जरदारी की सरकार, पाकिस्तानी सेना, आईएसआई, तालिबान का पाकिस्तानी रूप, और देश के पश्चिमी भागों के कबीलाई गुट, जो लगभग स्वतंत्र से हो गए हैं और जिन पर पाकिस्तानी सरकार या सेना का कोई नियंत्रण नहीं है। संभव है आनेवाले दिनों में यहां एक नए राष्ट्र बलूचिस्तान का जन्म हो जाए, या यह भी हो सकता है कि अफगानिस्तान से खदेड़े गए तालिबान यहां अपने लिए नया राष्ट्र बना लें जिसमें अफगानिस्तान और पाकिस्तान के वे हिस्से शामिल होंगे जिन पर उनका नियंत्रण है। इस तरह दिक्षण और उत्तर कोरिया, दक्षिण और उत्तर वियतनाम आदि की तरह अफगानिस्तान के भी दो भाग हो जाएंगे, एक भाग दक्षिण कोरिया की तरह अमरीकी सैनिक शक्ति के कारण टिका रहेगा, और दूसरा भाग तालिबानों और अलकायदा के नियंत्रण में रहेगा।

इन पांच शक्ति केंद्रों के अलावा पाकिस्तान में एक छठा शक्ति केंद्र अमरीकी सेना भी है जो पाकिस्तान में ओसामाबिन लादन को पकड़ने और अल कायदा को नेस्तनाबूद करने के लिए डटी हुई है। लेकिन मजे की बात यह है कि इन छह शक्ति केंद्रों में से किसी की भी सत्ता पाकिस्तान भर में नहीं चलती है।

जब हम मुंबई हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप मांग करते हैं कि पाकिस्तान यह करे, वह करे, तो हमारे लिए यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह मांग हम किससे कर रहे हैं? और हमें यह भी विचारना चाहिए कि जिससे हम यह मांग कर रहे हैं, क्या वह इस स्थिति में है भी कि वह उसे पूरा कर सके। स्पष्ट ही जब हमने पाकिस्तान से 20 आतंकवादियों को सौंपने को कहा, तब हमारे मन में यही विचार था कि यह काम पाकिस्तान की सरकार को करना है। पर असलियत यह है कि जरदारी की सरकार पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के हाथों की मात्र कठपुतली है। उसे वही करना होता है, जो उसके ये आका उससे करवाते हैं। इसके अनेक सबूत अब उपलब्ध हैं। जब मुंबई में हमला हुआ था, शुरू-शुरू में जरदारी सरकार का रवैया काफी सहानुभूतिपूर्ण रहा। जब भारत ने मांग की कि इस हमले की तहकीकात में सहयोग देने के लिए वे आईएसआई के सरगना को भारत भेजें, तो जरदारी तुरंत राजी हो गए। लेकिन दो दिन बाद ही वे मुकर गए क्योंकि उनके आका आईएसआई ने उन्हें इसके लिए फटकार बताई।

इससे पहले भी जरदारी अनेक ऐसे बयान दे चुके हैं जिनसे उन्हें कुछ ही पल बाद मुकर जाना पड़ा था क्योंकि पाकिस्तानी सेना या आईएसआई ने इन बयानों के लिए उन्हें आड़े हाथों लिया। इन बयानों में ये भी शामिल हैं -- कश्मीर के आतंकवादी फ्रीडम-फाइटर नहीं हैं; और, पाकिस्तान अपने परमाणु अस्त्रों का प्रथम प्रयोग नहीं करेगा। इससे जाहिर होता है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई पर पाकिस्तानी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, बल्कि इसकी ही अधिक संभावना है कि पाकिस्तानी सरकार की लगाम पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के हाथों में है।

तो भारत के पास क्या विकल्प हैं? क्या वह होट-पर्स्यूट की नीति अपनाकर सीमा पार के आतंकी शिविरों पर फौजी हमले करे, या हवाई हमले करके इन्हें नष्ट करे? मुंबई नरसंहार के गुस्से में हमें यह एक वाजिब कार्रवाई प्रतीत हो सकती है, पर गहराई से सोचने पर यह देश के दुश्मनों के हाथों में खेल जाना होगा।

भारत के दुश्मनों ने मुंबई नरसंहार करवाया ही इसलिए था कि भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाए। अमरीका पाकिस्तान पर निरंतर जोर डाल रहा है कि वह तालिबानों और अल कायदा पर ईमानदारी से सैनिक कार्रवाई करे। यह तालिबान पाकिस्तानी सेना का ही मानस पुत्र है और इसलिए उस पर वार करना उसे अपने ही पुत्रों को मारने जैसा प्रतीत होता है। दूसरे तालिबानी मुसलमान हैं और दो-राष्ट्र की नीति पर गठित किए गए पाकिस्तान के लिए अपने ही धर्म भाइयों पर गोली चलाना स्वाभाविक रूप से घिनौना कार्य है। अब तक झूठ-फरेब का सहारा लेकर पाकिस्तानी सेना अमरीकी आंखों में धूल झोंकती रही है, पर अब अमरीका का भी मूड बदल रहा है। वहां नया राषट्रपति ओबामा आ गया है जिसने पाकिस्तान पर कड़ा रुख अपनाने की बात कही है। दूसरी ओर अमरीका ईराक से हाथ खींचने का मन बना चुका है और अफगानिस्तान पर अपनी पूरी ताकत लगाने वाला है।

ऐसे में तालिबानों और अल कायदा पर ठोस कार्रवाई न करने के लिए पाकिस्तानी सेना के पास अब कोई बहाना नहीं बचा है। इसी परिप्रेक्ष्य में उसने मुंबई पर हमला करवाया है। वह चाहता है कि इस हमले से भारत इतना तिलमिला उठे कि दोनों देशों में युद्ध की स्थिति बन जाए, जिसका बहाना बनाकर पाकिस्तानी सेना अपने फौजियों को पश्चिमी सरहदों से हटाकर पूर्वी सरहदों में ले आ सके, और इस तरह तालिबानों से भिड़ने से बच सके। पाकिस्तान को शायद विश्वास है कि उसके परमाणु अस्त्रों के कारण भारत के साथ कोई असली युद्ध नहीं होगा, या अमरीका आदि देश ऐसा युद्ध होने नहीं देंगे।

पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने यह भी हिसाब लगाया होगा कि यदि पाकिस्तान की सरकार इस नीति का विरोध करे, तो उसे हटाकर दुबारा किसी जनरल को राष्ट्रपति बना दिया जा सकेगा। चूंकि पाकिस्तानी लोगों को बरसों से भारत-विरोधी प्रचार से बहकाया गया है, वे भी इस सरकार के टूटने का ज्यादा विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें समझाया जा सकेगा कि यह सरकार भारत के प्रति नरम रुख अपना रही है जो पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए घातक है और इसलिए उसे हटाना जरूरी है। लेकिन यहां पाकिस्तानी सेना का हिसाब गलत भी हो सकता है, क्योंकि पाकिस्तान की जनता बरसों की सैनिक तानाशाही से त्रस्त हो चुकी है और लोकतांत्रिक सरकार के फायदे समझने लगी है।

ये ही दो उद्देश्य रहे हैं पाकिस्तानी सेना के सामने, मुंबई नरसंहार रचने के लिए। पर पाकिस्तानी सेना यहां बहुत ही खतरनाक और आत्मघाती खेल खेल रही है। वह तालिबान और अल कायदा की शक्ति को कम आंक रही है। यह सही है कि तालिबान उसका मानस-पुत्र है पर यह राक्षसी पुत्र अब बड़ा हो गया है और अपनी पिता के नियंत्रण के बाहर हो चुका है। वह अपने ही पिता को मारकर अपने हितों की रक्षा करने से नहीं बाज आएगा। आज तालिबान पर अमरीकी दबाव दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। अमरीकी दबाव में आकर पाकिस्तानी सेना भी तालिबान पर कार्रवाई करने को मजबूर है। ऐसे में तालिबानों की शत्रुओं की सूची में पाकिस्तानी सेना भी आ गई है। अफगानिस्तान से खदेड़े जाने के बाद अब तालिबान के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है कि उसके पास कोई सुरक्षित जमीन हो जहां वह अपने आपको संगठित कर सके, और जिसे वह अमरीकी और पाकिस्तानी हमलों से सुरक्षित रख सके और जहां से वह अपने क्षेत्र का शासन कर सके, लोगों से कर वसूल सके और अफीम आदि की खेती करके नशीले द्रव्य बनाकर उनकी तस्करी कर सके, और इससे आनेवाले पैसे से हथियार खरीद सके, तथा अपने नेताओं को सुरक्षित रख सके।

इसलिए तालिबान धीरे-धीरे अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरहदों के आसपास के इलाकों पर अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है। अभी तालिबान और पाकिस्तानी सेना के पलड़े बराबर झूल रहे हैं, लेकिन यदि पाकिस्तानी सेना अपनी सैनिकों को हटाकर भारत की सरहद पर ले आए, तो तालिबान का पलड़ा भारी हो जाएगा और वह पूरे पाकिस्तान नहीं तो उसके उत्तर-पश्चिमी इलाकों में हावी हो जाएगा और ये इलाके पाकिस्तान के हाथ से सदा के लिए निकल जाएंगे। यानी पाकिस्तान का दूसरी बार बंटवारा हो जाएगा।

बात इतने तक भी सीमित नहीं रहेगी। तालिबान के लिए अमरीकी दबाव से मुक्ति पाने का एक ही मार्ग बचा है, वह है पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर कब्जा करना। जैसे ही पाकिस्तानी सेना मोर्चे से हट जाएगी, तालिबान आगे बढ़कर पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर कब्जा कर लेगी। तब अमरीका को भी अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा।
एक बार परमाणु हथियार तालिबानों के हाथ आ जाए, तो यह समझा जा सकता है कि ये हथियार अल कायदा को मिल चुके हैं, क्योंकि दोनों में गहरी सांठ-गांठ है। तब फिर इस दुनिया का क्या होगा इसकी कल्पना करके भी दिल दहल उठता है। यदि तालिबान या अलकायदा अमरीका, भारत, ब्रिटेन या इजराइल पर परमाणु अस्त्रों से हमला कर दे, अथवा ये ही देश तालिबानों पर परमाणु अस्त्रों से एहतियाती हमला कर दे, तो दुनिया तीसरे महायुद्ध की कगार पर पहुंच जाएगी, और पाकिस्तान की जमीन पर यह युद्ध लड़ा जाएगा।

इसलिए पाकिस्तानी सेना को और वहां के लोगों को समझना चाहिए कि तालिबान, अल कायदा और आतंकवादियों पर विजय पाना उनके भी हित में है। पर पाकिस्तानी सेना कभी भी अपनी समझदारी के लिए नहीं जानी जाती है। किसी ने सही ही कहा है कि यह एक ऐसी सेना है जिसने कोई भी युद्ध नहीं जीता है, हालांकि उस पर अरबों डालर हर साल खर्च किए जाते हैं।
ऐसे में भारत को अच्छी तरह समझना होगा कि उसके असली दुश्मन कौन हैं और उनसे कैसे निपटा जाए। गलत कदम से मामला नियंत्रण के बाहर हो जाएगा और भारत को भी लेने के देने पड़ जाएंगे।

आखिर देश के असली दुश्मन है कौन? कुछ हद तक यह सही है कि पाकिस्तान भारत की जड़ खोदने में अपने जन्मकाल से लगा हुआ है। यह राष्ट्र इस झूठे सिद्धांत पर ही रचा गया था कि हिंदू और मुसलमान अलग-अलग कौम हैं और साथ-साथ नहीं रह सकते। पर भारत इस सिद्धांत के झूठ का पर्दाफाश बड़े ही असरकारक रूप से कर रहा है। यहां सदियों से मुसलमान और हिंदू साथ-साथ रहते आ रहे हैं और उन्होंने एक मिली-जुली सांस्कृतिक सभ्यता की रचना की है जिसकी चरम उपलब्धियां हैं अकबर जैसे सहिष्णु बादशाह, ताजमहल जैसी सर्वोत्कृष्ठ वास्तुशिल्पीय नमूने, भारतीय संगीत के घराने और इस्लाम और हिंदू धर्म का मिला-जुला रूप जिसके प्रबल प्रवक्ता हैं कबीर आदि हिंदी के कवि और सूफी संत। यहां के मुसलमान इस देश की विभिन्न भाषाएं बोलते हैं, जैसे तमिल, मलयालम, गुजराती, बंगाली, हिंदी आदि और देश के हर भाग में रहते हुए वहां की संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। चाहे फिल्म उद्योग हो, या व्यापार, खेल की दुनिया हो, या विज्ञान, या राजनीति ही, मुसलमानों का योगदान स्पष्ट है। क्या नसीरुद्दीन शाह, शाहरुख खान, सलमान खान, फिरोज खान, यूसुफ खान (दिलीप कुमार), वहीदा रहमान, शबाना आजमी, मोहम्मद रफी आदि के बिना बोलीवुड की कल्पना भी की जा सकती है? आज भारत के सबसे अमीर और सफल व्यवसायियों में विप्रो के अजिम प्रेमजी गिने जाते हैं। भारतीय क्रिकेट में नई जान यदि किसी ने फूंका है तो इरफान पटेल और उसके भाई ने। सानिया मिर्जा ने टेनिस में भारत का नाम रोशन किया है। भारत के परमाणु अस्त्र योजना के पिता तिमिल भाषी मुसलमान वैज्ञानिक अब्दुल कलाम हैं, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति भी बने। भारत की अनेक भाषाओं के साहित्य में मुसलमानों का योगदान रहा है, जैसे मलयलाम में वैकम मुहम्मद बशीर का। आज भी भारत मुस्लिम आबादी वाला बड़ा राष्ट्र है जिसमें इंदोनेशिया के बाद मुसलमानों की सबसे अधिक संख्या है। अनेक छिट-पुट कौमी दंगों के बाद भी ले-देकर भारत एक धर्म-निरपेक्ष, बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, लोकतांत्रिक देश है।

इसके विपरीत पाकिस्तान, जो धर्म के नाम से बनाया गया था, पच्चीस वर्षों में दो में बंट गया, और अभी एक बार फिर बंटने की कगार पर है। बंग्लादेश के उदय ने दो कौमों के सिद्धांत की पोल खोलकर रख दी है, हालांकि पहले भी प्रबुद्ध लोगों को यह अच्छी तरह पता था कि यह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की चाल है कि आजादी के बाद भारत दो विरोधी कौमों में बंटा रहे और आपस में ही लड़ता रहे ताकि उपनिवेशी और साम्राज्यवादी काल में ब्रिटन द्वारा भारत पर किए गए अत्याचारों का गुस्सा ब्रिटन की ओर न उमड़े। इस नीति की काट उस समय के देशी नेताओं के पास नहीं थी, हालांकि गांधी जी ने भरसक प्रयत्न किया था कि बंटवारा न हो। पर वे सुधारवादी किस्म के नेता थे, और देशी उद्योगपतियों के हितपोषक थे, जो हिंसा से घबराते थे। केवल भारत की जनता की सशस्त्र पहल ही देश को एक-जुट रख सकती थी, और अंग्रेजों की चाल को विफल कर सकती थी। लेकिन गांधी जी ने जन-उभार को बारबार रोका और अपनी अहिंसा वाली नीति सामने रखी। उन्होंने माना कि शांतिपूर्ण तरीके से लोगों का हृदय परिवर्तन करके देश की समस्याओं का निराकरण हो सकता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जहां निजी स्वार्थ आड़े आते हों, वहां मात्र नसीहत देकर, अनशन करके और अनुरोध करके लोगों का व्यवहार कभी नहीं बदला जा सकता है, शक्ति-प्रयोग अनिवार्य होता है। जब रावण ने सीता का अपहरण किया तब राम ने न तो अनशन रखा, न रावण के हृदय परिवर्तन की कोशिश की, बल्कि वानरों की सेना लेकर लंका पर चढ़ बैठे। इसी प्रकार लेनिन और उनके साथियों ने रूस के जारों के सामने भूख हड़ताल नहीं की, बल्कि सशस्त्र विरोध से सत्ता पलट की। यही भारत को भी अंग्रेजों के विरुद्ध करना चाहिए था, तब भारत का इतिहास कुछ और ही होता, पर यह नहीं किया गया और अंग्रेजों की कूटनीति सफल हुई, और आज हम आतंकवाद के एक नए कांड से जूझ रहे हैं। दुख की बात यह है कि कहा नहीं जा सकता है कि ऐसे कांड भविष्य में नहीं घटेंगे।

खैर, पाकिस्तिन एक ऐतिहासिक भूल के कारण पैदा हुआ और उसे इस मस्कद से पैदा किया गया कि भारत को उलझाकर रखा जाए। यह काम पिछले साठ सालों से वह बखूबी करता आ रहा है और इसे देखकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को अपनी नीति की सफलता पर गर्व महसूस हो रहा होगा। मुंबई नरसंहार इसी सिलसिले की नवीनतम कड़ी है, इसलिए जिन लोगों ने भारत के बंटवारे को स्वीकारा था उनके वंशजों को इसमें कोई भी आश्चर्य की बात नहीं दिखनी चाहिए। आज यदि युवा पीढ़ी में मुंबई नरसंहार को लेकर इतना आक्रोश नजर आ रहा है, तो इसका मुख्य कारण यह है कि यह नई पीढ़ी काफी हद तक पैसे और अच्छे जीवन के पीछे बिक चुकी है और उसे किसी अन्य बात की तब तक परवाह नहीं होती जब तक उस पर आंच न आए, और अब उस पर आंच आ गई है और इसलिए वह बौखला उठी है। इस पीढ़ी के लोगों ने भारतीय इतिहास के अहम पहलुओं का पर्याप्त अध्ययन नहीं किया है, और भारत विभाजन की असली साजिश को वे नहीं समझ सके हैं। हालांकि, उनके गुस्से के कुछ अन्य कारण भी हैं - इस बार हमला मुख्य रूप से गरीबों के मुहल्लों, बाजारों, अस्पतालों और ट्रेनों और बसों में नहीं हुआ है, बल्कि देश के चोटी के नेता, कारोबारी, फिल्म अभिनेता, कलाकार और विदेशी शाम को दो जाम पीने जहां निकलते थे, उन सात सितारे होटलों में हुआ है। जब तक यह वर्ग आतंकी हमलों से बचा रहा और हमले देश के गरीबों और आम जनता पर होती रही, उन्हें कोई परवाह नहीं थी, पर जैसे ही हमला उन पर हुआ, उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया। पर क्या उनके पास इस मसले का कोई समाधान है? यही कि कुछ नेताओं को बदल दिया जाए, नए कमांडो दस्ते बनाए जाएं, सैनिकों के हाथों में अधिक संहारक हथियार थमाए जाए, इत्यादि। पर इनसे मूल समस्या ठस से मस नहीं होती है। यदि इन आतंकी हमलों के सिलसिले को तोड़ना है तो अधिक बुनियादी ढंग से सोचने की आवश्यकता है।

भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सह्राब्दियों से एक सभ्यता के अंग रहे हैं। उनकी संस्कृति, भाषाएं और समुदाय एक हैं। भौगिलिक दृष्टि से भी उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है, इन तीनों का प्रदेश एक भौगोलिक इकाई के अंतर्गत आता है, नक्शे में सरहदें खींचकर इन देशों में रह रहे लोगों को अलग करना अस्वाभिक है। इनके हित परस्पर जुड़े हुए हैं। जिस आसानी से आंतवादी मुंबई में घुस आए, या जिस आसानी से आतंवादी जम्मू-कश्मीर में घुस आते हैं, और पहले पंजाब में घुस आते थे, या बंग्लादेश के लोग भारत में घुस आते हैं, ये सब इस बात को भली-भांति स्पष्ट करते हैं कि तीनों देश भौगौलिक रूप से एक हैं।

इन तीनों देशों को एक बार फिर एक करके ही आतंकवाद की समस्या का स्थायी हल पाया जा सकता है। यह एक महती राजनीतिक परियोजना होगी, पर इसे अंजाम देना होगा। तीनों देशों को अपने दीर्घकालिक हितों को पहचानना होगा और पुनः एक सम्मिलित राष्ट्र के रूप में विश्व मंच में उभरना होगा।

मेरे विचार से यदि कोई इन तीनों राष्ट्रों को मिला सकता है, वह है भारत की मुस्लिम जनता। देश के बंटवारे का सबसे बड़ा खामियाजा इसी मुस्लिम कौम ने भरा है। देश को बांटने के कलंक का सेहरा भी इस कौम के मत्थे पर बंध गया है, हालांकि यह बिलकुल ही बेइन्साफ है क्योंकि भारतीय मुसलमानों ने पाकिस्तान पलायन न करके और भारत में ही रहना कुबूल करके दो देशों के सिद्धांत को अस्वीकार ही किया है, इसलिए देश को उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। इस कलंक को उतार फेंकने का सुनहरा अवसर आज मुसलिम कौम के सामने है।

भारतीय मुसलमानों की बात पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता सुनेगी, जबकि यदि भारतीय सरकार या भारतीय जनता (जिसे ये देश हिंदू जनता के रूप में देखते हैं, हालांकि भारत एक बहुधार्मिक देश है) एकता का प्रस्ताव लेकर आए, इन पड़ौसी देशों की जनता उसे शक्की नजरों से देखेगी।

तीनों देशों की जनता को यह स्वीकारना होगा कि देश का बंटवारा एक गलती थी, जिससे किसी का भी भला नहीं हुआ है। यदि हुआ भी है तो पाकिस्तान के चंद बड़े-बड़े जमींदारों और मुल्ला-मौलवियों का और भारत को कमजोर रखने में रुचि रखनेवाली विदेशी ताकतों का, जैसे ब्रिटन, अमरीका और चीन।

सबसे ज्यादा नुकसान भारत के मुसलमानों को हुआ है। इसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के उन मुसलमानों को हुआ है जो जिन्ना आदि के बहकावे में आकर देश छोड़कर पाकिस्तान में बसने के लिए गए। आज भी इन्हें पाकिस्तान में दूसरे दर्जे के नागरिकों का ही स्थान प्राप्त है और ये अधिकतर कराची की गंदी बस्तियों में दिन गुजारने को मजबूर हैं।
तीन अलग-अलग देशों में बंट जाने के कारण भारतीय मुसलमानों की शक्ति भी खंडित हो गई। दूसरे, वह नेतृत्व विहीन हो गया। पढ़े-लिखे और समृद्ध मुसलमान जिन पर अंग्रेजी प्रभाव सबसे अधिक था, जिनके प्रतिनिधि स्वयं जिन्ना थे, पाकिस्तान चले गए, और पीछे छोड़ गए अपने निरक्षर और बेकसूर भाइयों को जिन पर बंटवारे का कलंक लग गया और आज भी लगा हुआ है।

अब समय आ गया है कि तीनों देशों के मुसलमान समुदाय इस भारी गलती को समझें और आगे आकर उसे सुधारने के लिए सक्रिय हो जाएं, क्योंकि देश के इस तरह तीन टुकड़ों में बंटे रहने का सबसे बड़ा नुकसान उन्हें ही उठाना पड़ रहा है।
देश को बांटने का कलंक इतना बड़ा है कि उसे किसी बड़ी उपलब्धि या कुर्बानी से ही धोया जा सकता है। तीनों देशों को जोड़कर अखंड भारत को अस्तित्व में लाना ऐसी एक महान उपलब्धि होगी जिसके लिए अनेक कुर्बानियां भी देनी पड़ सकती हैं। देश को फिर से जोड़ने के इस भगीरथ कार्य को यदि कोई कर सकता है, तो वह भारत की मुसलमान जनता ही। आज मुसलमान जनता पर हर दिन इस बहाने हमले होते हैं कि वे देश के अपराधी हैं जिन्होंने देश को बांटा था। मुसलमान भी परोक्ष रूप से इस अपराध को कबूल कर लेते हैं (हालांकि जैसा कि ऊपर बताया गया है, भारतीय मुसलमान बिलकुल बेकसूर हैं), जिससे उनका सिर शर्म से झुक-झुक जाता है और उनके पास इन आरोपों का कोई जवाब नहीं रहता। कुछ युवा मुसलमान जरूर प्रति हिंसा का मार्ग अपनाते हैं, पर इससे मुसलमान उल्टे और बदनाम होते हैं। आज दुनिया भर में मुसलमानों को और इस्लाम धर्म को एक बेरहम, हिंसक और बर्बर कौम और धर्म के रूप में देखा जाने लगा है और मुसलमान कहने से लोगों के मनों में ओसामा बिन लादन जैसे किसी हत्यारे की छवि ही उभरती है।

यदि मुसलमानों और इस्लाम धर्म को इस नकारात्मक छवि से उभरना है, तो उन्हें आतंकियों को नाथना होगा। इसका सबसे कारगर मार्ग है तीनों देशों को दुबारा जोड़ना।

यह काम आज इतना मुश्किल लगता है कि अधिकांश लोगों ने इसे असंभव सा मान लिया है और इस ओर प्रयास भी नहीं कर रहे हैं। पर यदि मुसलमान जनता मन बना ले, और इस ओर जी-जान से प्रयास करने लग जाए, तो उन्हें अवश्य ही देश के अन्य कौमों का पूरा-पूरा समर्थन मिलेगा, और सब मिलकर इस असंभव सी परियोजना को संभव कर सकेंगे।
पर उन्हें विरोध के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। अभी तीनों देशों में वे शक्तियां मजबूत हैं जिन्होंने देश को बांटने में मुख्य भूमिका निभाई थी। पाकिस्तान और बंग्लादेश में इन शक्तियों की नुमाइंदगी वहां की सेना, खुफिया संगठन और मुल्ला-मौलवी कर रहे हैं। भारत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े संगठन, जिनमें बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और भारतीय जनता पार्टी शामिल हैं, यह काम कर रहे हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी अखंड भारत के सपने देखता है, हालांकि इस सपने को साकार करने का उसका तरीका तीनों देशों से मुस्लिम जनता का सफाया करके सैनिक रीति से देश के सभी खंडों को जोड़ना है, जो कभी भी सफल नहीं होगा। पर संघ परिवार भी, यदि उसके सामने भारत को जोड़ने का एक अलग मार्ग रखा जाए, इस प्रयास का समर्थन कर सकता है।

अधिक मुशकिल होगा पाकिस्तान और बंग्लादेश की सेना और खुफिया एजेंसियों को रास्ते पर लाना। इनके निहित स्वार्थ काफी गहरे हैं और तीनों देशों को अलग रखने और उनमें शत्रुता बढ़ाने पर ही उनका अस्तित्व ठिका है। यदि भारत और पाकिस्तान में मैत्री स्थापित हो जाए और राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से वे एक हो जाएं, तो पाकिस्तानी सेना और आईएसआई जैसी खुफिया एजेंसियों की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। इसलिए वे इस प्रयास का हर तरीके से विरोध करेंगे। सच तो यह है कि मुंबई में उन्होंने हमला ही इसलिए करवाया था कि जरदारी सरकार भारत के प्रति कुछ अधिक ही मित्रतापूर्ण रवैया अपना रही थी, जिसमें उन्हें अपने लिए खतरा दिखाई दे गया। यहां हमें इन देशों में लोकतांत्रिक शासन को मजबूत करनेवाले कदम उठाने चाहिए और वहां की जनता के साथ सीधा संपर्क करना चाहिए और उन्हें अखंड भारत के विचार से आलोकित करना चाहिए। वे भी आतंक के जुए के तले उसी तरह पिस रहे हैं, जैसे भारत की जनता पिस रही है, और अखंड भारत की कल्पना से उन्हें इस जुए से मुक्ति मिल सकती है। यह विचार उन्हें जरूर आकर्षित करेगा, यदि उसे सही लोग (यानी भारतीय मुसलमान) सही तरीके से पेश करे।

तीसरा विरोध अमरीका, ब्रिटन, चीन, आदि से आएगा। उनका हित भी पाकिस्तान और भारत के बीच के वैर को बढ़ाने से सधता है। अमरीका नहीं चाहता कि विश्व में उसे चुनौती देने की क्षमता रखनेवाली कोई शक्ति उभरे। यदि भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देश एक हो जाएं, निश्चय ही वे एक महाशक्ति के रूप में उभरेंगे और विश्व की अन्य शक्तियों, यानी अमरीका और चीन को चुनौती देंगे। इसलिए न अमरीका, न ही चीन, इस परियोजना को सफल होने देंगे। चीन पहले से ही पाकिस्तानी सेना से और वहां के राजनीतिक तबकों से गहरी सांठ-गांठ कर चुका है, और परोक्ष रूप से पाकिस्तान पर नियंत्रण रखता है। इसी प्रकार अमरीका भी पाकिस्तान को भारी सैनिक और आर्थिक सहायता देकर उसे अपने अंगूठे के नीचे रखता है। इसी तरह चीन बंग्लादेश को भी फुसलाने में लगा हुआ है।

परंतु अमरीका अब पहले जैसा ताकतवर नहीं रह गया है। ईराक और अफगानिस्तान के युद्धों ने उसके हौसले को काफी हद तक पस्त कर दिया है। अभी हाल के आर्थिक संकट ने उसे किसी तृतीय विश्व के देश जैसा बना दिया है। उसे इस आर्थिक संकट से उभरने के लिए अभी बहुत प्रयत्न करना होगा। उसका सारा ध्यान और धन अभी कुछ वर्षों तक इसी मे लग जाएगा। रहा चीन, वह अभी महाशक्ति के रूप में उभर ही रहा है। आर्थिक संकट का उस पर भी प्रभाव पड़ेगा की क्योंकि वह मुख्य रूप से निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था है।

भारतीय मुसलमान तीनों देशों को एक करने के लिए क्या कर सकते हैं? सबसे पहले तो उन्हें अपने अपराध बोध से बाहर आना होगा, और स्वीकार करना होगा कि देश का बंटवारा एक गलती थी, जिसे दुरुस्त करना आवश्यक है। इस गलती को दुरुस्त करने में उनकी भूमिक सबसे बड़ी है, केवल इसलिए नहीं कि बांटने के काम को उनके पूर्वजों ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और हिंदू पुनरुत्थानवादियों की मदद से अंजाम दिया था, बल्कि इसलिए भी कि यह काम और कोई नहीं कर सकता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पिछले कई दशकों से अखंड भारत का सपना देख रहा है, पर सफल नहीं हो पाया है, क्योंकि उसका सपना अधूरा है क्योंकि उसमें केवल हिंदुओं को स्थान दिया गया है। भारत एक बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषीय राष्ट्र है। यहां राष्ट्र की कोई ऐसी कल्पना ही सफल हो सकती है, जो सभी धर्मों, संस्कृतियों और भाषाओं के पनपने के लिए सही परिवेश बना सके। आजादी की लड़ाई के समय और उससे भी पहले 1857 के संग्राम के दौरान ऐसे ही एक भारत का सपना देखा गया था, पर कुटिल अंग्रेजों ने अपने बांटो और राज करो नीति के तहत इस सपने को मिटा दिया और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गहरी खाई खुदवा दी। इसी खाई को अब पाटना होगा, अन्यथा मुंबई हमले की पुनरावृत्ति होती रहेगी, और कारगिल जैसे युद्ध होते रहेंगे और इनके बावजूद समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी, और देश भी आपस में उलझकर कमजोर, गरीब और निस्सहाय बना रहेगा।

दूसरा काम भारतीय मुसलमानों को यह करना होगा कि वे देश की मुख्यधारा में लौट आएं। अपने बच्चों को सही शिक्षण दें। मदरसों आदि में इतिहास को तोड़-मरोड़कर नफरत की जो शिक्षा दी जाती है, उसे बंद करवाना होगा। यह काम उन्हें भारत के साथ-साथ पाकिस्तान और बंग्लादेश में भी करना होगा, जहां स्थिति और भी अधिक विकट है। वहां के सरकारी स्कूल तक में झूठा इतिहास पढ़ाया जाता है।

तीसरे, उन्हें अखंड भारत के विचार को पुष्पित-पल्लवित करना होगा, और बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषीय भारत की सुंदर कल्पना को आगे लाना होगा, और उसे साकार करने के लिए ठोस, समयबद्ध कार्यक्रम बनाना होगा।
संक्षेप में भारतीय मुसलमानों को नेतृत्व स्वीकार करना होगा। उनके पूर्वज एक समय यहां राज किया करते थे, और बहुत अच्छी तरह राज करते थे। अक्बर, शेर शाह, रजिया सुल्तान आदि बादशाह-बेगम और 1857 के दिलेर मुसलमान सिपाहियों के नाम से हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा होता है। भारतीय मुसलमानों को एक बार फिर देश की बागडोर संभालनी होगी।
यह किसी प्रतिस्पर्धी विचार से नहीं करना है, वरना उनमें और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में क्या फर्क रह जाएगा, बल्कि एक सर्वसमावेशी ढंग से करना है, जिसमें हर भारतीय, भले ही वह किसी भी धर्म, संस्कृति या भाषा का हो, पूरे उत्साह से शामिल हो सके।

यह एक महान राष्ट्र निर्माण योजना होगी जो अपने स्वरूप और भव्यता में भारत की आजादी की लड़ाई अथवा रूस की 1917 की साम्यवादी क्रांति या 1949 में चीन में माओ की विजय से होड़ कर सकती है।

अनेक प्रबुद्ध मुसलमान इस ओर विचार करने लगे हैं, जैसे सुप्रसिद्ध पत्रकार एम जे अकबर, या शायर जावेद अख्तर, या फिल्म अभिनेता शाहरुख खान। अन्य मुसलमानों और अखंड भारत में विश्वास करनेवाले अन्य लोगों को भी आगे आना चाहिए, और उन लोगों को भी जिनका मन मुंबई हमले से गुस्से से उबल रहा है और चाहते हैं कि इस हमले का कोई कारगर जवाब दिया जाए। कारगर जवाब यही है कि अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल को निरस्त करके भारत को फिर एक किया जाए। इससे कश्मीर आदि अनेक समस्याएं भी सुलझ जाएंगी, और आतंक का सिलसिला भी थम जाएगा। भारत एक महाशक्ति के रूप में उभरेगा और अपनी शक्ति का प्रयोग पड़ोसी देशों से युद्ध करने और हथियारों के बड़े-बड़े जखीरे इकट्ठे करने में नहीं करेगा, जिससे बड़े हथियार-निर्माता देशों (जैसे अमरीका, फ्रांस, ब्रिटन आदि) का ही फायदा होता है, बल्कि दुनिया के इस भाग से भूख, निरक्षरता और गरीबी हटाने और जनता के चौमुखी विकास के लिए रास्ता साफ करने के लिए करेगा।

इस तरह तीनों देशों को एक करके, एक महान बहुराष्ट्रीय, बहुधार्मिक, बहुंसांस्कृतिक और बहुभाषीय देश का निर्माण करके, हम वे सब वादे भी पूरे कर सकेंगे जो आजादी के समय किए गए थे, पर बाद में ताक पर रख दिए गए, क्योंकि भारत और पाक के बीच के वैमनस्य की आड़ लेकर दोनों देशों में इन वादों को भुला दिया गया। यह विश्व शांति के लिए भी भारत का भारी योगदान होगा।

Monday, December 15, 2008

राज ठाकरे भी जिम्मेदार हैं मुंबई कांड के लिए

एक तरह से यह अच्छा ही हुआ कि राज ठाकरे ने पिछले कुछ महीनों में मुंबई में हिंदी भाषियों पर हमले करके देश में अपनी साख लगभग मिटा ली, और सभी प्रबुद्ध वर्गों द्वारा - देश भर के, महाराष्ट्र के और मुंबई के भी - नकार दिए गए। वरना, वे इन आतंकी घटनाओं को लेकर भी राजनीतिक रोटियां सेंकने बाहर निकल आते और शायद 1992 के मुंबई दंगों के जैसी कुछ परिस्थितियां खड़ी करके सारे मामले को सांप्रदायिक स्वरूप दे डालते।
बिहार रेजिमेंट के संदीप उण्णिकृष्णन और हिंदी भाषी कमांडो गजेंद्र सिंह की शहादत ने और लाठी और आदम के जमाने की एक बंदूक के सहारे छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन में बहादुरी से आतंकियों का सामने करनेवाले हिंदी भाषी पुलिस कर्मियों ने राज ठाकरे के नफरत और क्षेत्रवाद के एजेंडे को आगे नहीं बढ़ने दिया।
टीवी पर सारे घटनाक्रम को देखते समय मन ही मन राज ठाकरे इन शहीदों और वीरों को जरूर कोसते रहे होंगे कि ये हिंदी भाषी कहां से आ टपके इन कमांडो दस्तों में और पुलिस बल में। काश सारे कमांडो मराठी भाषी होते! यह भी संभव है कि इनके संकीर्ण मन में यह ख्याल भी उठा हो कि आगे यह राजनीतिक मांग भी की जाए कि भविष्य में मुंबई पर होनेवाले आतंकी हमलों से निपटने के लिए केवल मराठी कमांडो ही भेजे जाएं, ताकि उनकी शहादत से राज ठाकरे को मराठों की बहादुरी और वीरता की डींगें हांकने और अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने का अवसर मिल सके।
एक बात जरूर सामने आई इस सारे घटनाचक्र से। राज ठाकरे और उनके पार्टी कारिंदे दिल से बड़े कायर हैं। उनकी बहादुरी और जांबाजी निहत्थे और निर्दोष हिंदी भाषी टैक्सी चालकों, खोमचेवालों और नौकरी की उम्मीद में परीक्षा देने मुंबई आए मासूम हिंदी भाषी किशोर-किशोरियों को पीटने तक सीमित है। जब आतंकवादी खुलेआम मुंबई में कहर बरपा रहे थे, तब कहां थे राज ठाकरे और उनके दिलेर गुंडे? जब ये आतंकी महीनों से ताज और ओबरोय होटलों पर हमले की साजिश रच रहे थे और दर्जनों बार मुंबई आकर स्थिति का मुआयना कर रहे थे, तब कहां थे ये महाराष्ट्र के लाल? मुंबई के हिंदी भाषियों पर सीनाजोरी करने के स्थान पर यदि राज ठाकरे अपने गुंडों को मुंबई के अंडरवर्ल्ड और अपराधी तत्वों पर नजर रखने का काम देते, तो इसे सच्ची देशभक्ति कहा जाता।
मुझे डर है कि राज ठाकरे द्वारा उकसाए गए आंदोलन के कारण मुंबई और महाराष्ट्र के कई भागों में पिछले कुछ महीनों में जो अशांति और अराजकता फैली थी, और जिस पर नियंत्रण पाने में महाराष्ट्र के पुलिस विभाग का सारा समय लग गया था, उसका दहशतगर्दों ने मुंबई में गोली-बारूद लाने, नरीमन हाउस में मकान किराए पर लेने, ताज और ओबराय में अपने साथियों को कर्मचारी और इंटर्न के रूप में रखवाने के लिए जरूर फायदा उठाया होगा। चूंकि महाराष्ट्र पुलिस का ध्यान राज ठाकरे और उनके गुंडों की करतूतों के कारण बंटा हुआ था, संभव है कि पुलिस से इन आतंकी गतिविधियों की अनदेखी हो गई हो। इस नजरिए से देखें, तो राज ठाकरे और उनके गुंडे भी मुंबई दहशत कांड के लिए जिम्मेदार हैं और देश और मुंबई वासियों को उनसे जवाब तलब करना चाहिए।

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