Sunday, May 17, 2009

एक चरवाहा जो वन प्रबंधक भी है

वृक्ष विहीन चट्टानों में धूप और प्यास से तड़पते पशुओं को पेड़ की छांव खोजते देखकर किसी चरवाहे द्वारा हरा-भरा जंगल बनाने की बात अक्सर लोक कथाओं में सुनने को मिलती है। परंतु अलमोड़ा जिले के असों नामक गांव में इस लोक कथा को जैसे अर्थ मिल गया है। वहां एक गरीब गड़रिया गुसाईं सिंह के वर्षों की मेहनत से पत्थरीले पहाड़ी ढलानों में हरियाली लहलहाने लगी है। 40 से अधिक प्रजातियों के करीब 30,000 वृक्षोंवाले इस सात एकड़ के जंगल से आज आसपास के ग्रामीण परिवारों को प्रत्यक्ष लाभ तो मिल ही रहा है, ग्रामीण आबादी के लिए वह वन संरक्षण का प्रेरक उदाहरण भी बन गया है।

शुरू-शुरू में गुसाईं सिंह के जंगल बनाने के प्रयत्नों को चरागाह पर अतिक्रमण ही समझा जाता रहा, यहां तक कि 15 वर्ष पहले उनकी तीसरी पत्नी की मृत्यु पर संबंधियों ने उन्हें वन का मोह छोड़कर भगवद-भजन की सलाह तक दे डाली थी। लेकिन गुसाईं सिंह इन सब विरोधों से थोड़ा भी विचलित नहीं हुए। घोर गरीबी के कारण उन्हें अपनी पत्नी की अंतिम निशानी के रूप में मौजूद कुछ आभूषण भी बेच देने पड़े। कुछ वर्ष पूर्व इसी जंगल में उनकी आठ बकरियों को बाघ ने एक साथ मार डाला था, जिससे आय का अंतिम जरिया भी जाता रहा। उनकी इस विपत्ति का फायदा उठाने के लिए कुछ लोगों ने तब उन्हें एक पेड़ के लिए 2000 रुपए तक देने का प्रलोभन दिया। पर वे पेड़ बेचने को राजी नहीं हुए। अब इस तरह के कष्टों के दिन बीत चुके हैं। आज उनकी मेहनत और दृढ़ संकल्प हरियाली बनकर फलने-फूलने लगा है।

घास, पानी और लकड़ी की समस्या से त्रस्त धूराफाट क्षेत्र के असों, मल्लाकोट, तल्लाकोट आदि गांवों के लोग इस जंगल से प्रेरणा लेने लगे हैं। इन ग्रामीणों को अब इस जंगल से वह सब मिल रहा है जिसकी उन्होंने पहले कल्पना तक नहीं की थी। तल्लाकोट गांव के भूतपूर्व सैनिक गोपाल सिंह कहते हैं, "इस जंगल ने गांव की फिजा ही बदल दी है। ग्रामीणों की घास, चारा, छाजन, बिछावन आदि की जरूरतें तो पूरी हो ही रही हैं, भूमि-कटाव और भूस्खलनों के घाव भी भर गए हैं।" इतना ही नहीं, जल स्रोतों में पानी बढ़ रहा है और कृषि की पैदावार में भी इजाफा हुआ है। पहले जंगली जानवर और पक्षी फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते थे। अब इस वन में प्रत्येक मौसम में फल-फूल, घास-पत्ती और कंद-मूल इतने उपलब्ध रहते हैं कि पशु-पक्षियों को खेत लूटने का जोखिम उठाना ही नहीं पड़ता। इससे वनों के उपयोग के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। मल्लाकोट गांव के पर्यावरण शिक्षक के. एस. मनकोटी कहते हैं, "यह जंगलों के टिकाऊ प्रबंध का प्रेरक उदाहरण बन गया है। इस वन ने सिद्ध कर दिया है कि वनाधारित जरूरतों की सतत पूर्ति और वनों का संवर्धन साथ-साथ हो सकता है।"

बिना किसी सरकारी सहायता के बनाए गए इस जंगल का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि समुद्र तट से 2900 फुट की ऊंचाई पर निम्न और मध्यम ऊंचाई में पाई जाने वाली लगभग सभी वृक्ष-प्रजातियों को गुसाईं सिंह ने स्वयं पौध तैयार करके अपने वन में सफलता से उगाया है। इस तरह इस वन ने कई लुप्त होती जातियों को भी बचा लिया है। उनके वन में आम, अमरूद, नींबू, आदि फलदार वृक्षों की अधिकता है। सानड़ जैसी कीमती लकड़ी और हरड़ जैसे औषधीय पौधे भी उसमें हैं, पर उनका व्यावसायिक उपयोग पर आंशिक रोक है। चारा-पत्ती के लिए छोटी-छोटी शाखाएं निर्धारित पेड़ों से काटी जाती हैं। कृषि-उपकरण आदि बनाने के लिए पूर्ण विकसित पेड़ों की कुछ शाखाएं काटी जाती हैं। इन नियमों का पालन न करने वालों को इस वन से वन-उत्पाद प्राप्त करने नहीं दिया जाता। गुसाईं सिंह कहते हैं, "इस जंगल से बड़े-बड़े गांवों की जरूरतें पूरी नहीं हो सकतीं। यह तो मात्र नमूना है, जो लोगों को सार्थक पहल करने की प्रेरणा दे सकता है।"

अब धीरे-धीरे इस निरक्षर लोक-प्रबंधक की यह मंशा भी साकार होने लगी है। असों के ग्राम प्रधान श्रीमती आशा असवाल कहती हैं, "गुसाईं सिंह की प्रेरणा से आस-पास के फरसोली, बीरखम आदि अनेक गांवों के किसानों ने अपनी बंजर जमीन पर छोटे-छोटे जंगल उगा लिए हैं। यदि सब लोग ऐसा प्रयास करने लगें तो गांव में किसी चीज की कमी नहीं रहेगी और लोगों को गांव छोड़कर शहर नहीं जाना पड़ेगा।"

उत्तराखंड क्षेत्र के सभी गांवों में पानी, चारा और ईंधन की विकट कमी है। यह सारा इलाका भूक्षरण और भूस्खलनों से भी बुरी तरह पीड़ित है। गुसाईं सिंह ने इन समस्याओं के समाधान का जो आत्मनिर्भर रास्ता दिखलया है, उससे आसपास के ग्रामीण तो प्रेरणा ले ही रहे हैं, सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनों तथा नीतिनिर्धारकों और नियोजकों को भी सीख लेनी चाहिए।

(सूझ-बूझ पत्रिका से)

3 Comments:

Himanshu Pandey said...

प्रेरणादायी आलेख । धन्यवाद ।

अनूप शुक्ल said...

प्रेरणाप्रद! धन्यवाद इसे पढ़वाने के लिये!

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

माना अंधेरा बहुत है मगर
एक दिया ही बहुत है रोशनी के लिए.

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट