डाल्टोनिजम किसी दर्शन या वाद का नाम नहीं है। वह रंगांधता की बीमारी का नाम है। इसमें व्यक्ति की आंखें रंगों की पहचान करने की शक्ति खो देती हैं।
जान डाल्टन नामक वैज्ञानिक को यह बीमारी थी, इसलिए इस रोग का नाम उन्हीं के नाम पर डाल्टोनिजम रखा गया।
Sunday, May 31, 2009
दर्शन नहीं बीमारी
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
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वातानुकूलक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
क्या आप गरमी से परेशान हैं? लेकिन वातानुकूलक को चालू करने से पहले जरा एक बार फिर सोच लें। अमेरिकन लंग ऐसोसिएशन के अनुसार वातानुकूलक अनेक प्रकार के जीवाणु, फफूंदी आदि हानिकारक जीवों के भंडार होते हैं। इसके अलावा वातानुकूलित कमरों में खिड़की-दरवाजे आदि सदा बंद रहने से वहां ताजी हवा का बहाव नहीं हो पाता और कोनों और दरारों में बासी हवा सदा मौजूद रहती है। यह भी स्वास्थ्य के लिए नुकसानकारक होती है क्योंकि इन दरारों और कोनों में, खासकर रसोईघर, प्रयोगशाला आदि स्थानों में, अनेक प्रकार के जहरीले पदार्थ व गैसें रहती हैं।
वातानुकूलक के कारण होने वाले नुकसान को कम करने के लिए समय-समय पर उसके फिल्टरों को साफ करते रहना चाहिए ताकि वे अवरुद्ध न हो जाएं और उन पर धूल-गंदगी इक्ट्ठी न हो सके, क्योंकि इन्हीं पर रोगाणु पनपते हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
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Saturday, May 30, 2009
बैलों से बिजली
गुजरात के वडोदरा जिले के छोटाउदयपुर क्षेत्र के 24 जनजातीय गांवों में एक अनोखा प्रयोग चल रहा है, जिसके अंतर्गत बैलों की शक्ति को बिजली में बदला जा रहा है।
बिजली निर्माण की यह नई तकनीक श्री कांतिभाई श्रोफ के दिमाग की उपज है और इसे श्रोफ प्रतिष्ठान का वित्तीय समर्थन प्राप्त है। श्री कांतिभाई एक सफल उद्योगपति एवं वैज्ञानिक हैं।
इस खोज से एक नया नवीकरणीय उर्जा स्रोत प्रकट हुआ है। इस विधि में बैल एक अक्ष के चारों ओर एक दंड को घुमाते हैं। यह दंड एक गियर-बक्स के जरिए जनित्र के साथ जुड़ा होता है। इस विधि से बनी बिजली की प्रति इकाई लागत लगभग चार रुपया है जबकि धूप-पैनलों से बनी बिजली की प्रित इकाई लागत हजार रुपया होता है और पवन चक्कियों से बनी बिजली का चालीस रुपया होता है। अभी गियर बक्से का खर्चा लगभग 40,000 रुपया आता है, पर इसे घटाकर लगभग 1500 रुपया तक लाने की काफी गुंजाइश है, जो इस विधि के व्यापक पैमाने पर अपनाए जाने पर संभव होगा।
बारी-बारी से काम करते हुए यदि चार बैल प्रतिदिन 50 इकाई बिजली पैदा करें, तो साल भर में 15,000 इकाई बिजली उत्पन्न हो सकती है। इस दर से देश के सभी बैल मिलकर 20,000 मेगावाट बिजली पैदा कर सकते हैं, और इससे देश में बिजली की किल्लत बीते दिनों की बात हो जाएगी।
बैलों से बिजली निर्माण की पहली परियोजना गुजरात के कलाली गांव में चल रही है। बैलों से निर्मित बिजली से यहां चारा काटने की एक मशीन, धान कूटने की एक मशीन और भूजल को ऊपर खींचने का एक पंप चल रहा है।
कृषि में साधारणतः बैलों की जरूरत साल भर में केवल 90 दिनों के लिए ही होती है। बाकी दिनों उन्हें यों ही खिलाना पड़ता है। यदि इन दिनों उन्हें बिजली उत्पादन में लगाया जाए तो उनकी खाली शक्ति से बिजली बनाकर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जा सकता है।
बैलों से बिजली निर्माण में मुख्य समस्या यह आती है कि इस बिजली को संचित करने का कोई कारगर उपाय नहीं है। यदि अनुसंधान को इस ओर केंद्रित करके इस कमी को दूर किया जा सके, तो स्वायत्त गांवों का गांधी जी का सपना साकार हो सकता है, और आयातित तेल पर देश की निर्भरता कुछ कम हो सकती है। पर्यावरण पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
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Friday, May 29, 2009
एक खोजी किसान की दारुण गाथा
अन्निगिरी धारवाड़ जिले के नवलगुंड तालुके का एक गांव है जिसकी आबादी लगभग 20,000 है। यह गांव शुष्क क्षेत्र के अंतर्गत आता है। अन्निगिरी में काली मिट्टी पाई जाती है, जो मिर्ची और चने के लिए बहुत उपयुक्त है। यह गांव 16 एकड़ जमीन पर फैली इमली के एक विशाल बाग के लिए भी मशहूर है। इस बाग में लगभग 1800 इमली के पेड़ हैं। इस बाग के जन्मदाता नडाकटिन नामक एक अद्भुत स्वभाव के किसान हैं।
कहते हैं, जब नडाकटिन बालक थे, उन्हें एक तकलीफ थी, वे सुबह जल्दी नहीं उठ पाते थे। लाख कोशिश करने पर भी उनकी आंख खुलती नहीं थी। उन्होंने तरह-तरह की अलार्म घड़ियों का इस्तेमाल करके देखा, पर अलार्म की ऊंची से ऊंची आवाज भी उनकी नींद में खलल न डाल सकी। उनका आविष्कारशील मन इस समस्या का समाधान खोजने लगा। काफी दीमागी मशक्कत के बाद उन्होंने एक जल अलार्म विकसित किया, जो उनका पहला आविष्कार था। उन्होंने एक धागा अलार्म घड़ी से इस तरह बांधा ताकि जब आलार्म की चाबी घूमने लगती है, तो वह उसके दूसरे सिरे के साथ बंधी पानी से भरी बोतल को उलट देती है। यह बोतल ठीक उनके सिर के ऊपर टंगा होता था, इससे उसका पानी उनके सिर पर आ गिरता था और उनकी नींद खुल जाती थी।
आज नडाकटिन 46 साल के हैं और उनका खोजी स्वभाव बरकरार है। उन्हें 60 एकड़ की जमीन उनके पिता से मिली थी। उनके इलाके में खेती शुष्क वातावरण, अनियमित वर्षा और अपर्याप्त भूजल के कारण काफी जोखिम भरा कार्य है। इसलिए उन्होंने खेती के स्थान पर बागवानी करने की सोची। उन्होंने आम, सपोटा और बेर बो दिए और उनके साथ मिर्च के पौधे भी बो दिए। यह प्रयोग उन्होंने 16 एकड़ में किया। सपोटा और बेर को बारी-बारी से आम के पेड़ों की कतारों के बीच रोपा। पानी की कमी के कारण उनका यह प्रयोग विफल हुआ और अधिकांश पौधे मर गए। जो बचे रहे, उनका विकास भी कुंठित रहा और उन्हें इन पौधों को भी उखाड़ फेंकना पड़ा।
तब वे अपने खेत की विशेषताओं के मुताबिक किसी पेड़ की खोज में लग गए। उनके घर के पास एक उपवन था जिसमें बहुत सारे इमली के पेड़ थे। उनकी कोई विशेष देखभाल नहीं करता था, फिर भी पेड़ स्वस्थ थे और उनमें इमलियां भी खूब उत्पन्न होती थीं। नडाकटिन ने सोचा कि शायद इमली ही वह पेड़ है जिसकी उन्हें इतने दिनों खोज थी। सन 1985 में उन्होंने अपनी जमीन में 20 फुट के अंतर पर 600 इमली के पौधे रोपे। इस वर्ष सारा इलाका भयंकर सूखे की चपेट में आ गया और नडाकटिन को इन पेड़ों के लिए 2-3 किलोमीटर की दूरी से पानी ढोना पड़ा। अच्छी देखभाल से इमली के अधिकांश पौधे बड़े हुए, यद्यपि स्वयं नडाकटिन को काफी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा। तीन साल बाद, उन्होंने इन पेड़ों की सफलता से प्रेरणा ग्रहण करके 10 एकड़ जमीन में इमली के 1,100 और पौधे रोप दिए।
कम मात्रा में उपलब्ध पानी, और वह भी खारा पानी, की सहायता से इमली के पेड़ उगाना अपने आपमें एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। पानी की कमी को दूर करने के लिए नडाकटिन ने पानी छानने की एक तीन-स्तरीय विधि विकसित की और 11 नलकूप भी खोदे, जिसमें उन्हें 2 लाख रुपए खर्च करने पड़े। इनमें से केवल 2 में से पानी मिल सका। बाद में उन्होंने वर्षा जल के संग्रह के लिए 6 तालाब खोदे। बारिश के मौसम के बाद इन्हीं तालाबों में उन्होंने नलकूपों का पानी भरा और वहां से उन्होंने उसे इमली के पेड़ों की ओर मोड़ा। उन्होंने इमली के गूदे को संरक्षित करने के लिए भूमिगत टंकियां भी विकसित कीं। इनमें रखा गया गूदा बहुत दिनों तक सुरक्षित रहता है और उनका गुण भी ज्यों का त्यों बना रहता है। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी की सहायता से इमली से अचार और जैम तैयार किए और इन्हें हैदराबाद शहर में बेचने की व्यवस्था की।
अचार बनाते समस्य आई एक समस्या का भी उन्होंने एक अच्छा समाधान ढूंढ़ लिया। अचार बनाने का काम काफी श्रमसाध्य था। पहले पेड़ों से इमली की फलियों को तोड़ना होता था, फिर इन फलियों के छिलके और बीजों को अलग करके गूदा निकालना था। यह सब काम हाथ से ही किया जाता था। सन 1994 में इस काम में उन्हें 6 महीने में 3 लाख रुपए खर्च करने पड़े। तब उन्होंने सोचा कि क्या यह काम यंत्रीकृत नहीं किया जा सकता। बस, उनके आविष्कारशील बुद्धि ने यह चुनौती स्वीकार कर ली और एक यंत्र बना ही डाला। यह यंत्र फलियों से बीज अलग कर सकता है और नडाकटिन उसका बराबर उपयोग करते आ रहे हैं। यह यंत्र एक दिन में 500 मजदूरों का काम कर सकता है। इसमें एक तकली के आकार का पुर्जा है जो इमली की फली के ऊपर दबाव डालता है। इससे बीज फली से दबकर निकल आता है। उनका मानना है कि यह मशीन अपने सरल पुर्जों और कार्यक्षमता के कारण इमली उगानेवाले अन्य किसानों के लिए भी वरदान साबित हो सकती है।
अगला काम इमली की कच्ची फलियों को काटने के यंत्र का विकास था। यह यंत्र एक घंटे में 250 किलो इमली काट सकता है।
उन्होंने एक ऐसी मशीन भी बनाई है जो पेड़ों से इमली की फलियां उतार सकता है। एक दिन में वह 1,000 मजदूरों का काम कर सकता है। इस मशीन का प्रारूप उन्होंने 1994 में ही तैयार कर लिया था, पर उसे पूरा नहीं कर सके क्योंकि इसके लिए 5 लाख रुपए की आवश्यकता थी।
नडाकटिन कृषि को अधिक कार्यक्षम बनाने के कार्य में निरंतर प्रयत्नशील रहे हैं। उन्होंने खेती में सहायक होनेवाले अनेक सस्ते और कार्यक्षम उपकरण विकसित किए हैं। स्कूल छोड़ने के तुरंत बाद ही, 1994 में उन्होंने खेत जोतने का एक ऐसा हल विकसित किया जो काफी गहराई तक जोत सकता था। इसे बैल खींचते थे। पैसे की कमी के कारण वे इस हल को बाजार में नहीं उतार सके। इसके बाद उन्होंने हल की एक ऐसी फलक तैयार की जिसकी धार को बारबार बनाना नहीं पड़ता था। इससे हल का फलक बहुत दिनों तक चलता था। उसे ट्रैक्टर के साथ भी जोड़ा जा सकता था। सन 1985 में उन्होंने इमली की बागवानी शुरू की, और तब उन्होंने बीज बोने का एक बहुउपयोगी उपकरण विकसित किया। इसकी सहायता से विभिन्न आकारों के बीजों को आवश्यक अंतर पर बोया जा सकता है। जवार से लेकर मूंगफली तक के बीज इसकी सहायता से बोए जा सकते हैं। लगभग इन्हीं दिनों उन्होंने पानी गरम करने का एक यंत्र भी बनाया जो केवल 5 मिनट में 5 किलो लकड़ी जलाकर 20 लोगों के नहाने का पानी गरम कर सकता था। इतना ही नहीं, इस यंत्र के पात्र में पानी 24 घंटे तक गरम बना रहता है।
नडाकटिन ने ऐसे अनगिनत आविष्कारों को जन्म दिया है। वे कहते हैं, "मैंने हमेशा ऐसे उपकरण विकसित करने की कोशिश की है जो सस्ते हों और जो कृषि की कार्यक्षमता में वृद्धि करते हों। मेरे प्रयत्नों से काफी फायदा हुआ है, पर मेरी सीमित आय से इन सबको जनसाधारण तक पहुंचाना मेरी बस की बात नहीं है। इन आविष्कारों में मैंने अपनी संपत्ति का तीन-चौथाई भाग खर्च कर डाला है और मैं विपन्नता की कगार में पहुंच गया हूं।"
नडाकटिन पर अब 15 लाख रुपए से भी अधिक का कर्जा चढ़ गया है। उन्हें 40 एकड़ जमीन बेचनी पड़ी है। अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए उन्हें उनके द्वारा विकसित 10 उपकरणों की प्रौद्योगिकी को उन लोगों के हाथों बेच देना पड़ा है जो उन्हें व्यावसायिक आधार पर बेचना चाहते हैं। वे अपनी बची हुई जमीन और उनका अत्यंत प्रिय इमली के बाग को बचाने के लिए ऐड़ी चोटी का पसीना एक कर रहे हैं। एक कर्ज के एवज में इन सबका नीलाम हो जाने की संभावना है। यद्यपि नेताओं, वैज्ञानिकों और पत्रकारों ने उनकी खोजों की खूब सराहना की है, उन्होंने उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कुछ नहीं किया है। वे सरकार से मदद मांगने कई बार दिल्ली भी हो आए हैं, पर हर बार खाली हाथ लौटे हैं। यहां तक कि उन्होंने और उनकी पत्नी और लड़कियों ने अनशन भी करके देख लिया है, पर कोई लाभ नहीं हुआ है। अंत में, तंग आकर उन्होंने कर्णाटक के मुख्य मंत्री को लिख दिया था कि यदि उनकी सहायता नहीं की गई तो वे आत्महत्या कर लेंगे। उन्होंने मुख्यमंत्री महोदय से याचना की कि उन्हें सम्मानजनक जिंदगी बसर करने के लिए मदद मिले ताकि वे अपने आविष्कारों की कड़ी जारी रख सकें। इन आविष्कारों से जनसाधारण को भी खूब लाभ होता है और कृषि की उत्पादकता भी बढ़ती है, जिससे देश को भी फायदा होता है।
(सूझ-बूझ पत्रिका से)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
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Thursday, May 28, 2009
वेद-पुराणों का गुजरात
यद्यपि पुराणों की कथाओं को सही अर्थ में ऐतिहासिक तथ्य नहीं माना जा सकता क्योंकि पुराण उनमें वर्णित घटनाओं के घटने के हजारों वर्ष बाद लिखे गए हैं और उनका मूल उद्देश्य इतिहास का वर्णन करना नहीं बल्कि धार्मिक है, फिर भी पुराणों के सूक्ष्म अध्ययन से अनेक ऐतिहासिक घटनाओं के संकेत मिलते हैं। इतना ही नहीं, आज से हजारों साल पहले की घटनाओं के बारे में जानने के लिए इन प्राचीन ग्रंथों के अलावा और कोई स्रोत हैं भी नहीं। गुजरात के प्राचीन इतिहास के संबंध में तो यह और भी अधिक सच है। इसलिए गुजरात के संबंध में पुराणों व अन्य प्राचीन ग्रंथों में जो उल्लेख आए हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व है।
पुराणों के अनुसार वैवस्वत मनु वर्तमान मन्वंतर का प्रथम राजा था। जब उसने अपने पुत्रों में अपने राज्य का बंटवारा किया तो गुजरात प्रदेश शर्याति के हिस्से में आया। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार शर्याति के पुत्रों ने भार्गव च्यवन से दुश्मनी मोल ली और च्यवन ने उनमें आपसी वैर के बीज बो दिए। बूढ़े च्यवन को प्रसन्न करने और इस दुश्मनी को खत्म करने के लिए शर्याति ने अपनी सुंदर पुत्री सुकन्या का च्यवन से ब्याह करा दिया। पुराणों में ही नहीं, ऋग्वेद में भी अश्विन देवों के अनुग्रह से च्यवन ऋषि के पुनर्यौवन प्राप्त करने की कथा आई है। पुराणों के अनुसार शर्याति वलभीपुर में रहता था और च्यवन ऋषि का आश्रम नर्मदा के किनारे था। इन सब कथाओं से इस बात का संकेत मिलता है कि सौराष्ट्र में शर्याति तथा नर्मदा किनारे भार्गवों का वर्चस्व था और इन दोनों में पहले विग्रह और बाद में संधि हुई थी।
शर्याति का अनार्त नाम का एक पुत्र था। इसी के नाम पर इस प्रदेश का नाम अनार्त पड़ा। अनार्त के पुत्र का नाम रेव था जिस पर से नर्मदा नदी का एक अन्य नाम रेवा भी है। अनार्त की संतति अनार्त पर राज करती थी और उनकी राजधानी कुशस्थली थी। रेव के पुत्र रैवत कुकुद्मी के समय में पुण्यजन राक्षसों ने कुशस्थली का नाश किया।
कृष्ण-बलराम पांडवों के समकालीन थे। पुराणों के अनुसार वैवस्वत मनु से पांडवों तक के कालखंड में उत्तर भारत में पौरव वंश में 49 राजा और यादव वंश में 58 राजा हुए। इतने लंबे काल के लिए पुराणों से हमें अनार्त के केवल चार राजाओं का पता चलता है। बाकी सबकी स्मृति काल के ग्रास हो गई है। शर्यात, अनार्त और रैवत जैसे कुलों से अनार्त में तीन अलग-अलग वंश चले। उदाहरण के लिए शर्यात आगे चलकर हैहयों की एक शाखा के रूप में जाने जाने लगे।
नर्मदा जहां समुद्र से मिलती है, वहां के भरुकच्छ प्रदेशों को भृगुओं ने अपने निवास के लिए चुना। तब से यह प्रदेश तथा उनके द्वारा वहां स्थापित नगर का नाम भृगुकच्छ (वर्तमान में भरूच) हो गया। भार्गव च्यवनों का आश्रम नर्मदा के मुख के समीप या असित पर्वत पर था, जो भी नर्मदा के मुख के पास ही था। पद्मपुराण के अनुसार च्यवन के पुत्र दधीची का आश्रम साबरमती और चंद्रभागा नदियों के संगम स्थल पर था। इसी के पास गांधी जी ने अपना साबरमती आश्रम स्थापित किया। दधीची के भाई आत्मवान के वंश में और्व, ऋचीक और जमदग्नी हुए। भरुकच्छ के पूर्व में स्थित अनूप देश में हैहय कुल के यादवों का राज था। इनकी राजधानी माहिष्मती नर्मदा के ऊपरी इलाके (आज के मध्य प्रदेश) में थी। महिष्मती के हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने भृगुकुल के ऋषि जमदग्नी के आश्रम में उपद्रव मचाया, जिसके बदले जमदग्नी के पुत्र राम ने अर्जुन का वध किया। राम की गैरहाजिरी में अर्जुन के पुत्रों ने जमदग्नी की हत्या की। अपने पिता की हत्या का बदला राम ने अर्जुन के इन पुत्रों को मौत के घाट उतारकर लिया। पुराणों में वर्णित इस कथा से लगता है कि भरुकच्छ प्रदेश के भार्गवों और अनूप देश के हैहयों के बीच लंबे समय तक भीषण संघर्ष चला था।
कौरवों के समान यादवों का वंश भी अति प्राचीन है। ऋग्वेद में यदुओं और तुर्वशुओं का अनेक बार उल्लेख हुआ है। पुराणों में यदु और तुर्वशु को ऐल वंश के राजा ययाति और राक्षसगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी की संतति बताया गया है। यदु के वंश में हैहय, विदर्भ, चेदी, सात्वत, भोज, कुकुर, अंधक, वृष्णी, शिनि आदि अनेक कुल हुए हैं। कुकुर कुल के वृद्ध राजा उग्रसेन से उसके पुत्र कंस ने सत्ता छीन ली और वृष्णी कुल के शूर के पुत्र वासुदेव को जेल में डाल दिया। वसुदेव की पत्नी देवकी उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री थी। देवकी के पुत्र कृष्ण ने जुल्मी राजा कंस को मारकर अपने माता-पिता को जेल से छुड़ाया और उग्रसेन को राज पदवी लौटाई। इससे कंस का ससुर मगध का प्रतापी राजा जरासंध ने मथुरा पर बारबार आक्रमण करना शुरू किया। इन आक्रमणों से तंग आकर यादवों ने मथुरा त्याग दी और सौराष्ट्र में आ गए। यहां उन्होंने रैवत के समय की कुशस्थली के पुण्यजनों को वहां से खदेड़कर जीर्णशीर्ण किले की मरम्मत करके वहां बस गए। उन्होंने जो नई नगरी बसाई वह द्वारवती अथवा द्वारका के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह नगरी अतिविशाल थी और उसका किला इतना अजेय था कि स्त्रियां भी उसकी रक्षा कर सकती थीं। पुराणों के अनुसार समुद्र से लगभग घिरी इस नगरी के पूर्व में रैवतक गिरि थी और वह एक बड़ी नदी के मुख के पास स्थित थी। कृष्ण के जीवनकाल के अंतिम भाग में यह नगरी समुद्र में डूब गई।
आदि शंकराचार्य ने देश के चार दिशाओं में जो चार मठ स्थापित किए, उनमें से एक, यानी पश्चिमी दिशा वाला मठ, सौराष्ट्र के प्रायद्वीप में स्थित द्वारका तीर्थ में है। लेकिन महाभारत, हरिवंश, भागवत आदि ग्रंथों में द्वारका के जो विवरण आए हैं, उनका मेल इस द्वारका से नहीं बैठता। मुख्य त्रुटि यह है कि इस द्वारका के पास कहीं भी रैवतक गिरी का पता नहीं चलता। प्रभास से भी यह काफी दूर है। पुरातात्विक खनन से पता चला है कि यहां कई प्राचीन बस्तियां रही हैं जो बाढ़ में नष्ट हुईं। परंतु इनमें से प्राचीनतम बस्ती का काल ईसापूर्व पहली-दूसरी शताब्दी से पहले का नहीं है, जबकि कृष्ण का समय इससे कई सदी पहले का है। जूनागढ़ के पास एक मजबूत किले के अवशेष मिले हैं जो रैवतक गिरि और प्रभास के समीप है। कई विद्वानों ने इसे ही मूल द्वारका बताया है। परंतु यह समुद्र से काफी दूर है।
यादव कुल के उद्धव, अक्रूर, कृतवर्मा, ययुधान आदि अनेक योद्धा थे पर ये सब कृष्ण के आधिपत्य को स्वीकार करते थे। महाभारत, हरिवंश पुराण, भागवत आदि प्राचीन ग्रंथों में कृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। बलराम और कृष्ण वसुदेव के पुत्र थे। पांडवों की माता कुंती इनकी फुई थी। कुशस्थली के रैवत राजा ने अपनी पुत्री रेवती का ब्याह बलराम से कराया था। विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी की इच्छा के विरुद्ध उसका भाई रुक्मी चेदी राज शिशुपाल से उसका ब्याह कराना चाहता था। रुक्मिणी से गुप्त संदेश मिलने पर कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण किया और उससे विवाह किया। रीछपति जांबवंत ने वृष्णीकुल के राजा सत्राजित से स्यमंतक मणि छीन लिया था। जांबवंत को हराकर कृष्ण ने सत्राजित को स्यमंतक मणि लौटाया और जांबवंत की पुत्री जांबवंती से विवाह किया। मणि वापस मिलने से प्रसन्न होकर सत्राजित ने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह कृष्ण से कराया। गंधार, अवंति, कोसल और मद्र की राजकन्याओं से भी विवाह संबंध जोड़कर कृष्ण ने भारत के अनेक शक्तिशाली कुलों को अपने अनुकूल रखा। कृष्ण ने रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न का विवाह उसके मामा रुक्मी की कन्या से कराया। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध ने शोणितपुर के राजा बाम की पुत्री उषा से ब्याह किया। बलराम ने जांबवंती के पुत्र सांब का विवाह दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा से कराया। इस प्रकार कृष्ण के कुटुंब में अनेक कुलों की राजकन्याओं का एकत्रीकरण हुआ। इनमें से उषा (ओखा) ने एक नए प्रकार के लास्य-नृत्य का विकास किया। प्रागज्योतिषपुर के नरकासुर को मारकर कृष्ण ने इसके द्वारा बंदी बनाए गए 16,000 कन्याओं को छुड़ाया। सौभनगर के राजा शाल्व ने कृष्ण की गैरहाजिरी में द्वारका पर चढ़ाई की। कृष्ण ने उसी समय शाल्व की नगरी पर आक्रमण करके उसका वध किया। अपने प्रतिस्पर्धी पौंड्रक वासुदेव को भी कृष्ण ने मारा और अपने पौत्र अनिरुद्ध को कैद करनेवाले बाणासुर को हराया।
कुरु कुल के पांडवों के साथ कृष्ण का संबंध काफी घनिष्ट था। द्रौपदी के साथ पांडवों के विवाह के अवसर पर कृष्ण ने पांडवों को भेंटें भेजीं। खांडववन को जलाकर इंद्रप्रस्थ बसाने में कृष्ण ने अर्जुन की मदद की। वनवास के दौरान अर्जुन कृष्ण से मिलने द्वारका आया। अर्जुन ने कृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया। युद्धिष्ठर को राजसूय यज्ञ करने की प्रेरणा भी कृष्ण ने ही दी और भीम से मगधराज जरासंध का वध कराकर पांडवों के दिग्विजय का मार्ग सरल बनाया। राजसूय यज्ञ में युद्धिष्ठर द्वारा कृष्ण को वरीयता देने का विरोध करनेवाले चेदिराज शिशुपाल का कृष्ण ने वध किया।
द्यूत का खेल हारकर 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष के गुप्तवास के बाद जब पांडवों ने दुर्योधन से अपना राज्य वापिस मांगा तो दुर्योधन ने राज्य देने से इन्कार कर दिया। इससे दोनों में युद्ध की नौबत आई। कृष्ण ने मध्यस्थ करके युद्ध रोकने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु जब दुर्योधन के हठ के कारण युद्ध अनिवार्य हुआ तो कृष्ण और बलराम की स्थिति कांटे की हो गई क्योंकि दोनों पांडव और कौरव उनके लिए आत्मीय थे। अंत में बलराम तटस्थ रहकर तीर्थाटन पर निकल पड़ा और कृष्ण ने शस्त्रसंन्यास लिया, यद्यपि अर्जुन के सारथी के रूप में युद्ध में भाग लेकर अपने कूट उपदेशों से उन्होंने पांडवों को विजयी बनाया। युद्ध प्रारंभ होने से पहले अर्जुन को गीता का उपदेश देकर कृष्ण ने उसका उत्साह बढ़ाया। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने जो अश्वमेध यज्ञ किया उसमें कृष्ण ने भाग लिया।
अंत में यादव वीर प्रभास के पास आपस में लड़ मरे और कृष्ण को द्वारका नगरी के डूबने का अंदेशा हुआ। इसलिए सभी यादव स्त्रियों और बच्चों को इंद्रप्रस्थ ले जाने के लिए अर्जुन को बुलाया और बूढ़े नागरिकों को वानप्रस्थ ग्रहण करने की आज्ञा दी। बूढ़े हो चले अर्जुन को रास्ते में आभीरों ने लूटा और अनेक यादव स्त्रियों को उठा ले गए। हस्तिनापुर आकर अर्जुन ने कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके कुछ ही समय बाद कृष्ण ने प्रभास के पास देहोत्सर्ग किया।
पुराणों में अर्जुन और कृष्ण को नर और नारायण के अवतार के रूप में चित्रित किया गया है। आगे चलकर वैष्णवों ने कृष्ण को भगवान विष्णु के पूर्णावतार के रूप में स्वीकारा।
यादवों में गणराज्य पद्धति का राजतंत्र चलता था। इसी कारण से राजसूय यज्ञ में शिशुपाल ने कृष्ण के राजा होने की शंका उठाई।
पुराणों के साक्ष्य पर इन यादवों के समय का निर्धारण करना टेढ़ी खीर है। पुराणों में बताया गया है कि महाभारत का युद्ध कलिकाल के आरंभ में हुआ था, यानी ई।पू। 3000 के आसपास। परंतु पुराणों में ही युधिष्ठर के उत्तराधिकारी परीक्षित का जन्म महापद्म नंद के अभिषेक से 1015 वर्ष पहले बताया है। यह नंद राजा ई।पू। चौथी सदी में हुआ था। इससे यादवों का समय ई।पू। चौदवीं-पंद्रहवीं सदी ठहरता है। पुराणों में बिंबिसार के पहले के राजाओं का जो शासनकाल बताया गया है उसके आधार पर महाभारत का समय ई पू 950 होता है। इस प्रकार द्वारका के यादवों के समय के बारे में कोई निश्चित मत प्रकट करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: गुजरात का इतिहास
Wednesday, May 27, 2009
पालक के गुण
पोपआई कार्टून शो के दर्शक पालक के जादुई गुणों से भली-भांति परिचित होंगे। पर अब वैज्ञानिकों ने भी इस पत्तेदार सब्जी का गुणगान शुरू कर दिया है। उनके अनुसार पालक में शरीर के लिए आवश्यक अनेक अमीनो अम्ल, विटामिन ए, फोलिक अम्ल, प्रोटीन और लौह तत्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं।
पालक में बीटा केरोटिन नामक विटामिन की भरमार रहती है। यह दृष्टि को सलामत रखने के लिए बहुत आवश्यक है। पालक में लोहे का अंश भी बहुत अधिक रहता है, 100 ग्राम पालक में 10.9 ग्राम जितना। पालक में मौजूद लोहा शरीर द्वारा आसानी से सोख लिया जाता है। इसलिए पालक खाने से खून के लाल कणों की संख्या बढ़ती है। इन लाल कणों में हैमोग्लोबिन नामक तत्व रहता है जो लोहे से बनता है। खून की कमी से पीड़ित व्यक्तियों को पालक खाने से काफी फायदा पहुंचता है। गर्भवती स्त्रियों में फोलिक अम्ल की कमी पाई जाती है। उनके लिए भी पालक का सेवन लाभदायक होता है।
पालक में कैल्शियम भी बहुत अधिक रहता है। इसलिए बढ़ते बच्चों, बूढ़े व्यक्तियों और गर्भवती स्त्रियों के लिए वह बहुत फायदेमंद है। पालक खाने से स्तनपान करानेवाली माताओं के स्तनों में अधिक दूध बनता है। पालक का रस पीने से दांत मजबूत होते हैं और मसूड़ों से खून रिसने की बीमारी दूर होती है। पालक श्वसन तंत्र की बीमारियों को भी दूर करता है।
पालक को कच्चा ही खाना चाहिए। कच्चे पालक में पके पालक से कहीं अधिक पौष्टिकता पाई जाती है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
लेबल: स्वास्थ्य
Tuesday, May 26, 2009
होम्योपैथी - आपके मर्जों का कोमल इलाज
होम्योपैथी अब विश्वभर में एक ऐसी विश्वसनीय और प्रभावशाली चिकित्सा पद्धति के रूप में ख्याति अर्जित कर चुकी है जो शरीर पर कोई दुष्प्रभाव नहीं छोड़ती।
होम्योपैथी की खोज अठारहवीं सदी में डा. सैम्यूल हेहनमैन नामक चिकित्सक ने की। उन्हें विश्वास हो गया था कि ऐलोपैथी फायदा कम करती है और नुकसान अधिक। वे उसके कोई ऐसे विकल्प की खोज में जुट गए जो सुरक्षित, कोमल और असरकारक हो। वे मानते थे कि मानव शरीर में अपने आपको ठीक करने की असीम क्षमता होती है और चिकित्सा के प्रति ऐलोपैथी का रुख गलत है क्योंकि वह रोग के लक्षणों को दबाने की कोशिश करती है। चूंकि ये लक्षण वास्तव में इस बात के सूचक होते हैं कि शरीर रोग से लड़ने की कोशिश कर रहा है, दरअसल इन लक्षणों को उभारने की आवश्यकता है।
हेहनमैन ने अपनी खोज का आधार इस सिद्धांत को बनाया कि लोहा ही लोहे को काट सकता है, यानी जो पदार्थ रोग लाता है, वही रोग का इलाज भी होता है। उन्होंने देखा कि वे अनेक बीमारियों का इलाज रोगी को सूक्ष्म मात्रा में ये बीमारियां लानेवाले पदार्थ खिलाकर कर सकते हैं। अधिक मात्रा में लेने पर ये पदार्थ विष होते हैं, लेकिन बहुत ही सूक्ष्म मात्रा में रोग का निवारण करते हैं। हेहनमैन पहले ही जान चुके थे कि तंदुरुस्त व्यक्ति को क्विनीन की अत्यल्प मात्रा देने से उसमें मलेरिया के जैसे लक्षण प्रकट होते हैं। इसके बाद उन्होंने तथा उनके सहयोगियों ने विभिन्न प्रकार के पदार्थों का सूक्ष्म मात्रा में सेवन किया और इन पदार्थों के कारण उनके शरीर में प्रकट होनेवाले लक्षणों का बारीकी से लेखा-जोखा रखा। तत्पश्चात उन्होंने इन पदार्थों का उपयोग वास्तविक मरीजों के इलाज के लिए किया। उन्होंने पाया कि अधिकांश मामलों में मरीजों को राहत मिली।
होम्योपैथी के विकास का अगला पड़ाव था हर औषधि की न्यूनतम असरकारक खुराक की खोज। इस दिशा में काम करते हुए हैहनमैन को अनायास ही होम्योपैथी का मूलभूत सिद्धांत हाथ लग गया कि औषधि की खुराक जितनी अधिक सूक्ष्म रखी जाएगी, वह उतनी ही अधिक असरकारक होगी। इस प्रकार उन्होंने एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति खोज निकाली।
होम्योपैथी मर्ज का नहीं मरीज का इलाज करती है। उसका एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि रोग के लक्षण हर व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार अलग-अलग होते हैं। इसलिए होम्योपैथी का चिकित्सक मरीज को बिना देखे कभी भी दवा नहीं देगा। चूंकि होम्योपैथी में मरीज का इलाज होता है, न कि मर्ज का, एक ही रोग से पीड़ित व्यक्तियों को अलग-अलग दवा दी जा सकती है। इसी प्रकार अलग-अलग रोगों से पीड़ित व्यक्तियों को एक ही औषधि से लाभ पहुंच सकता है।
जहां मर्ज उग्र स्वरूप का हो, वहां कभी-कभी होम्योपैथी से तुरंत लाभ मिल जाता है, लेकिन यदि मरीज की जिजीविषा कमजोर हो, तो लाभ मिलने में देर लग सकती है। लंबे समय से चली आ रही बीमारियों से पीड़ित मरीजों को भी धीरज रखना चाहिए क्योंकि होम्योपैथी धीमे-धीमे असर करती है। मरीज को खूब सारा आराम और अच्छा भोजन देना चाहिए और उसे शांत और शुद्ध वातावरण में चिंतामुक्त अवस्था में रखना चाहिए। यदि शरीर का कोई अंग खराब हो गया हो, या भंग हो गया हो, तो शल्य-चिकित्सा जैसी कोई अन्य चिकित्सा पद्धति का सहारा लेना पड़ सकता है। लेकिन इन चिकित्सा पद्धतियों से इलाज कराने के बाद मरीज को होम्योपैथी का कोमल स्पर्श जल्द ही स्वास्थ्य की राह में ले आ सकता है।
होम्योपैथी का सबसे अच्छा प्रभाव बच्चों में देखा जाता है। वह नवजात शिशुओं तक के लिए निरापद है क्योंकि वह बिलकुल ही दुष्प्रभावहीन होती है। चूंकि बच्चों की जीवनीशक्ति बुलंद होती है, उन पर होम्योपैथी का असर भी बहुत जल्द होता है। कुछ लोग कहते हैं कि होम्योपैथी का असर वास्तविक न होकर मात्र मानसिक होता है, पर बच्चों में देखा जाता उसका आश्चर्यजनक प्रभाव इसका खंडन करता है।
होम्योपैथी यह दावा नहीं करती कि उसके पास हर मर्ज का रामबाण इलाज है। दरअसल वह व्यक्ति और उसके स्वास्थ्य के प्रति एक नया दृष्टिकोण भर है। वह मानती है कि व्यक्ति और उसके परिवेश के प्रति सामरस्य लाने से आरोग्य बढ़ता है। होम्योपैथी आधुनिक विज्ञान और चिकित्सा पद्धतियों को नकारती नहीं है, वह केवल उनके व्यावसायीकरण और दुरुपयोग को चुनौती देती है। बहुत बार होम्योपैथी आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों का सहचरी बनकर मरीज को फायदा पहुंचाती है। आज होम्योपैथी समय की परीक्षा में खरी उतर चुकी है। विकसित देशों तक में लोग उसे एक सुरक्षित एवं कारगर चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार चुके हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: स्वास्थ्य
Monday, May 25, 2009
शांत मन से ही निर्णय लेना चाहिए
एक बार महात्मा बुद्ध को रात के विश्राम के लिए एक घने वन में रुकना पड़ा। वे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और उनका एक शिष्य पानी लाने के लिए पास के जलकुंड की ओर गया। वहां पहुंचकर उसने देखा कि जंगली हाथियों का यूथ अभी-अभी वहां आया था और उन्होंने पानी को गंदला कर दिया है। शिष्य पानी के लिए अन्यत्र जाने लगा।
यह देखकर महात्मा बुद्ध ने उसे बुलाया और पूछा कि क्या बात है। जब शिष्य ने कारण बताया तो महात्मा बुद्ध बोले, "थोड़ी देर ठहर जाओ, कीचड़ अपने-आप नीचे बैठ जाएगा।" और उन्होंने इस प्रसंग का उपयोग करते हुए शिष्य को समझाया, "हमारा मन भी इस पानी के समान है। क्रोद्ध, द्वेष, ईर्ष्या आदि मनोवृत्तियों से वह कभी-कभी कलुषित हो जाता है। जब हमारा मन ऐसी दशा में हो, हमें कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। मन के शांत होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।"
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: प्रेरक प्रसंग
लोथल : सिंधु घाटी सभ्यता का महत्वपूर्ण केंद्र
भारत में कई स्थलों पर से ताम्र-कांस्य युग की अनेक नगर-संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। इनमें से सिंधु घाटी में हड़प्पा, मोहेंजोदडो आदि स्थलों पर मिली संस्कृति के अवशेषों को सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया गया है। जैसे-जैसे पुरातात्विक अन्वेषण आगे बढ़ा है, यह स्पष्ट होता गया है कि यह सभ्यता सिंधु घाटी तक सीमित नहीं थी और ठेठ पश्चिम भारत तक फैली थी। गुजरात में पहले-पहल इस सभ्यता के अवशेष 1935 में सुरेंद्रनगर जिले के रंगपुर नामक स्थान पर मिले। उत्खनन के दौरान रंगपुर में प्राग-हड़प्पीय काल के लघुपाषाण युग के औजार भी मिले हैं। इसी प्रकार सोमनाथ, लोथल और देसलपर से प्राग-ऐतिहासिक काल के विभिन्न प्रकार के मृदभांड मिले हैं। इन सभी स्थलों में रहनेवालों का यहां स्थायी निवास था। वे चक्के के उपयोग से मिट्टी के बर्तन बनाते थे तथा तांबे के औजारों का उपयोग करते थे। सिंधु घाटी के लोग बाद में इन सभी स्थानों में बस गए। इतना ही नहीं यहां से वे कच्छ, सौराष्ट्र व गुजरात के अनेक अन्य भागों में भी फैल गए।
भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के जो केंद्र हैं, उन सबमें से अधिक महत्वपूर्ण है अहमदाबाद जिले के धोलका तालुके के सरगवावा गांव की सीमा में स्थित लोथल का टीला। पुराने खंडहरों के रूप में यह टीला बहुत समय से प्रसिद्ध था पर इसके असली स्वरूप की जानकारी तब मिली जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पश्चिम विभाग के अध्यक्ष श्री एस रंगनाथ राव ने 1954 में यहां खुदाई की।
स्थानीय लोगों का विश्वास था कि इस टीले पर कोई प्राचीन नगरी हुआ करती थी। लोथल शब्द के पूर्वांश "लोथ" का अर्थ शायद शव है। द्रष्टव्य है कि मोहेंजोदड़ो का अर्थ भी मृतकों का टीला है। शायद लोथल शब्द भी इससे मिलता-जुलता अर्थ रखता है। यह टीला आज खंभात की खाड़ी से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके पश्चिम में पांच-छह किलोमीटर की दूरी पर भोगावो नदी और पूर्व में दस-एक किलोमीटर पर साबरमती नदी है। परंतु आद्य-ऐतिहासिक काल में समुद्र इस टीले से 5 किलोमीटर से अधिक दूर नहीं था और उक्त नदियों का मुख भी लोथल के निकट ही था। लोथल के आसपास की जमीन की ऊंचाई समुद्र सतह से 9-12 मीटर है। लोथल का टीला इससे लगभग 4 मीटर और ऊंचा है।
लोथल से सिंधु घाटी सभ्यता के समय की नगरी के भग्नावशेष मिलने से यह स्थल भारत के पुरातात्विक महत्व के स्थलों में से प्रमुख बन गया है। चूंकि हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो जैसे स्थल देश की वर्तमान सीमाओं के बाहर चले गए हैं, लोथल पर पुरातत्वविदों और इतिहासकारों द्वारा भारी खोज चल रही है। आज इस टीले का विस्तार 580-300 मीटर है, पर इस पर बसी नगरी का मूल विस्तार अवश्य ही इससे कहीं अधिक रहा होगा। उत्खनन से मानव बस्ती के तीन स्तरों का पता चला है। सबसे नीचे वाले स्तर की नगरी में मकान सीधे जमीन की सतह पर से ही उठाए गए हैं। इस कारण से लगभग ई पू 2350 में बाढ़ का पानी इनमें भर जाने से इस नगरी का नाश हो गया। बाद में नगरी पुनः बसाई गई। इस बार नगरी को बाढ़ से बचाने के लिए कई उपाय किए गए। नगरी के चारों ओर कच्ची ईंटों की दीवार बनाई गई और मकान कच्ची ईंट अथवा मिट्टी के चबूतरों के ऊपर बनाए गए। इस समय की नगरी में नगर आयोजन के उन्नत तत्व देखने में आते हैं। पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण दिशा में चौड़ी सड़कें बनी हैं और इनके समांतर छोटी गलियां हैं। मकान सड़कों के दोनों किनारे बनाए गए हैं। कुछ मकान कच्ची ईंट के हैं और कुछ पकी हुई ईंट के। प्रत्येक मकान में स्नानगृह है तथा जल के निकलने के लिए घर के सामने मोरी की व्यवस्था है।
रहने के मकान सादे और दो-तीन मंजिलों के हैं। दक्षिणपूर्व में शासक का बड़ा प्रासाद है। पूर्वी क्षेत्र में मिट्टी के बर्तन पकाने की एक बहुत बड़ी भट्टी के अवशेष मिले हैं। टीले में से बहुत से शव भी मिले हैं। इनमें से अधिकांश को उत्तर की दिशा में सिर रखकर दफनाया गया है। शव के पास खाने-पीने के सामान भी रखे गए हैं। कई बार शवों की जोड़ी मिली है जो शायद स्त्री-पुरुष के शव हैं। संभवतः उस काल में भी सती प्रथा प्रचलित थी। एक बालक की खोपड़ी में छिद्र बना हुआ मिला है, जो शायद शल्य-क्रिया का परिणाम है।
लोथल के पूर्वी छोर पर निचाईवाले भाग में जलपोतों को ठहराने के लिए कृत्रिम बंदर जैसी आयताकार इमारत के अवशेष मिले हैं। इसकी पश्चिमी दीवार 212 मीटर, पूर्वी दीवार 209 मीटर, उत्तरी दीवार 36 मीटर और दक्षिणी दीवार 34 मीटर लंबी है। दीवारों की अधिकतम ऊंचाई 4 मीटर है। उत्तरी दीवार में 12.5 मीटर चौड़ा प्रवेशद्वार है। ज्वार-भाटे के समय इस द्वार से जलपोत भीतर घुसते थे। रेत भर जाने से जब नदी का प्रवाह बदल गया, तब पूर्वी दीवार पर 6.5 मीटर चौड़ा एक दूसरा द्वार बनाया गया।
लोथल से मिली अनेक मुद्राओं और मुहरों का बहुत अधिक ऐतिहासिक महत्व है। ये पत्थर, पकी हुई मिट्टी अथवा तांबे के बने हैं। बहुत सी मुद्राएं चौरस आकार की हैं, लगभग 2.5 से 2.5 सेंटीमीटर की। इनके एक ओर बैल, हाथी, बाघ आदि कोई पशु का चित्र बना है और दूसरी ओर कुछ अक्षर कुरेदे गए हैं। एक मुद्रा में तीन-चार पशुओं का समुच्चय दिखाई देता है। बहुत-सी आयताकार मुद्राएं भी मिली हैं। इनमें केवल लिखावट है। ये सब मुद्राएं हड़प्पा-मोहेंजोदड़ो से मिली मुद्राओं जैसी ही हैं। इन मुद्राओं पर अंकित अक्षरों को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। यदि इन अक्षरों को पढ़ने के प्रयास सफल हो जाएं, तो सिंधु सभ्यता की सामाजिक व्यवस्था, धर्म, तथा आर्य सभ्यता से इसके संबंधों के बारे में काफी कुछ जानने को मिलेगा।
मिट्टी के बर्तन भी बहुतायत से मिले हैं। इनका भी मुद्राओं जितना ही महत्व है। इन बर्तनों में प्याले, रकाबी, कान वाले प्याले, भरणी, थाली, तगारे आदि शामिल हैं। इन बर्तनों पर लाल अथवा पीले रंग की पट्टियां हैं। कुछ में काले रंग के चित्र बने हैं। ये सब कुम्हार के चक्के पर बने हैं और भट्टी में पकाए गए हैं। इसी प्रकार के बर्तन हड़प्पा-मोहेंजोदड़ो से भी मिले हैं।
बर्तनों के अलावा देवी की मिट्टी से बनी और भट्टी में पकाई गई छोटी मूर्तियां, पशु-पक्षियों की आकृतिवाले खिलौने आदि, पत्थर से बने तराजू के बाट, हथोड़े, मनके आदि, शंख और सीपी से बनी चीजें, कांच की चूड़ियां, हाथीदांत की सुइयां और मापदंड आदि अनेक वस्तुएं मिली हैं। इस सभ्यता के लोग शायद दशमलव पद्धति से परिचित थे क्योंकि लोथल व अन्य स्थलों से मिले मापदंडों में दशमलव पद्धति के अनुसार निशान काटे गए हैं। खनन के दौरान धातुओं से बने औजारों और हथियार भी मिले हैं, जैसे कुल्हाड़ी की फलक, बाणशीर्ष, भाले की नोक, मछली पकड़ने के कांटे, चूड़ियां, मनके, बर्तन, मुद्राएं, खिलौने, बारीक कलाकारी वाले सुंदर आभूषण आदि। इन सबसे स्पष्ट है कि लोथल सिंधु सभ्यता का एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र था। इसका सिंधु घाटी के नगरों, मिस्र और पश्चिम एशिया के साथ व्यापारिक संबंध था। यह व्यापार मुख्यरूप से जलमार्ग के जरिए चलता था।
यह नगरी ई पू 1900 के आसपास एक बार फिर बाढ़ के कारण नष्ट हुई। यद्यपि नगरी को लगभग तीन सौ साल बाद ई पू 1600 के लगभग पुनः बसाया गया, पर तीसरी बार बसाई गई नगरी में उतना विस्तार एवं समृद्धि देखने में नहीं आता। यह नगरी भी कुछ समय बाद नष्ट हो गई।
लोथल के अलावा रंगपुर, सोमनाथ, श्रीनाथगढ़, कच्छ, दक्षिण गुजरात आदि अनेक स्थलों से भी सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मिले हैं, जिससे स्पष्ट है कि यह सभ्यता गुजरात के लगभग सभी भागों में फैली थी।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: गुजरात का इतिहास
Sunday, May 24, 2009
तपेदिक के शिकंजे में कसता भारत
तपेदिक भारत में एक महत्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्या के रूप में उभर रहा है। आई.सी.एम.आर. द्वारा किए गए राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत की कुल आबादी का लगभग 1.5 प्रतिशत तपेदिक का शिकार है। लगभग 40 प्रतिशत आबादी में तपेदिक जीवाणु मौजूद है, यद्यपि यह आबादी बीमारी की चपेट में अभी नहीं आई है। हर साल 25-30 लाख नए तपेदिक के रोगी होते हैं। अनुमानतः 5 लाख व्यक्ति हर साल तपेदिक के कारण मरते हैं। ऐड्स बीमारी के तेजी से फैलने से तपेदिक और विकराल रूप धारण कर रहा है। आज भारत में जितने भी ऐड्स के मरीज हैं, उनमें से 60 प्रतिशत तपेदिक के भी शिकार हैं।
नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संक्रामक रोग संस्थान के निदेशक श्री के।के। दत्ता हेल्थ मानिटर नामक पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में कहते हैं कि देश में 1-1.5 करोड़ तपेदिक के रोगियों का होना संभव है। तपेदिक के मरीज शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में समान रूप से पाए जाते हैं।
राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम 1962 से सक्रिय है, लेकिन इससे तपेदिक को नियंत्रण में लाने में सफलता नहीं मिली है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत देश के हर जिले में कम-से-कम एक तपेदिक केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है। अब तक 85 प्रतिशत जिलों में, यानी 480 जिलों में से 391 में तपेदिक केंद्र स्थापित किए जा चुके हैं। इनके अलावा 330 तपेदिक दवाखाने भी देश के अनेक शहरों और कसबों में कार्य कर रहे हैं। देश के अस्पतालों में तपेदिक के मरीजों के इलाज के लिए 47,000 बिस्तरों की क्षमता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: स्वास्थ्य
कैसे करें फलाहार
फलों को हमेशा दूध के साथ ही खाना चाहिए। फलों को हरी सब्जियों (सलाड) के साथ नहीं खाना चाहिए। सूखे मेवे के साथ फल खाए जा सकते हैं। खाली पेट पर फलाहार करने से सबसे अधिक फायदा होता है। यदि आप भोजन के बाद फल खाना पसंद करते हों, तो आपको अधिक मात्रा में फल खाना होगा। यह भी ध्यान रखें कि जब पेट भोजन से भरा हो, तो फल उस पर अतिरिक्त भार डालेगा और इससे पाचन मुश्किल हो सकता है और आपको वायु आदि की तकलीफ हो सकती है। एक बार में केवल एक प्रकार का फल ही खाना चाहिए।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
लेबल: स्वास्थ्य
Saturday, May 23, 2009
कबूतर डाक सेवा
उड़ने के बाद बिना भूले-भटके अपने घर लौट आना कबूतरों की स्वाभाविक आदत है। मनुष्य संदेश भेजने के लिए प्राचीन काल से ही इन पक्षियों की इस आदत का उपयोग करता आ रहा है। इसकी शुरुआत संभवतः भारत में ही हुई थी क्योंकि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों में चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के समय में कबूतर द्वारा संदेश भेजे जाने के उल्लेख मिलते हैं। बाद में मुगल सम्राटों ने भी कबूतरों द्वारा संदेश भेजने की विधि अपनाई। धीरे-धीरे यह प्रथा अन्य देशों में भी फैल गई। सन 1146 में बगदाद के खलीफा सुल्तान नारदीन के सारे राज्य में नियमित रूप से कबूतरों से खबर भेजने की व्यवस्था थी।
इतिहास में अनेक रोचक अवसरों पर खास-खास खबर भेजने का काम कबूतरों ने किया है। सन 1815 में वाटरलू के युद्ध में विजय का संदेश कबूतर के माध्यम से लंदन भेजा गया था। प्रथम विश्वयुद्ध में अमरीकी सेना के चिअर-एम-1 नामक पत्रवाहक कबूतर ने एक अमरीकी बटालियन को जर्मनों द्वारा पकड़े जाने से बचाने में सहायता की थी।
भारत में उड़ीसा पुलिस ने 1946 में संचार की यह प्रणाली अपनाई और वह इसका अभी हाल तक इस्तेमाल कर रही थी। आजादी के बाद उसे अंग्रेजों से 40 कबूतर उपलब्ध हुए थे। एक समय उसके पास 926 पत्रवाहक कबूतर थे, जो राज्य में अलग-अलग 17 पुलिस जिलों के नियंत्रण में रखे गए थे। कबूतरों को तीन वर्गों में बांटा जाता था और प्रत्येक वर्ग को अलग-अलग प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रथम वर्ग को एक-स्थानिक वर्ग कहा जाता था। इस वर्ग के कबूतर मुख्यालय से पास के दुर्गम क्षेत्रों में गश्त के लिए जानेवाले पुलिस के दस्ते के पास रहते थे और जब कभी मुख्यालय को सूचना देने की आवश्यकता होती थी, तो उन्हें आकाश में उड़ा दिया जाता था। वे संदेश लेकर मुख्यालय लौट आते थे। दूसरा वर्ग चलायमान वर्ग था जिसमें ऐसे कबूतर होते थे जिन्हें पुलिस विशेष गाड़ियों में रखती थी। इन गाड़ियों को पुलिस अपने साथ ले जाती थी। दूर-दूर के इलाकों में गश्त लगाने के लिए जाते समय पुलिस के कर्मचारी इन गाड़ियों से कबूतर निकालकर उन्हें भी अपने साथ ले जाते थे। जरूरत पड़ने पर इन्हें संदेश के साथ उड़ा दिया जाता था और ये उन गाड़ियों को लौट आते थे जहां उनका निवास था और इस तरह से गश्त पर निकली टुकड़ी का संदेश मिल जाता थे। तीसरे अर्थात मूलस्थानगामी कबूतरों को संदेश ले जाने और उसका उत्तर वापस ले आने का प्रशिक्षण दिया जाता था। उनके उड़ने का दायरा अधिकतम 100 किलोमीटर होता था।
भोजन और स्थान के दृष्टिकोण से कबूतरों को पालने में ज्यादा खर्च नहीं आता है। इन कबूतरों को पीने के लिए पोटाश मिला पानी और प्रतिदिन नियमित रूप से दो बार शार्क मछली के जिगर से प्राप्त तेल का एक विशेष आहार दिया जाता था। ये कबूतर 15-20 वर्ष तक जिंदा रहते थे, जिनमें से सात से दस वर्षों तक वे पत्र ले जाने का काम करते थे। इस तरह का एक स्वस्थ कबूतर लगभग 50-100 मीटर की ऊंचाई पर उड़ते हुए एक बार में 1000 किलोमीटर की दूरी तय कर सकता था। जो सूचना भेजी जानी होती थी, उसे कागज के एक छोटे टुकड़े पर लिख दिया जाता था, जिसे एक प्लास्टिक की नली में रखकर कबूतर के पैरों में बांध दिया जाता था। आमतौर पर एक जैसा संदेश लेकर एक बार में दो कबूतर उड़ाए जाते थे ताकि अगर एक भटक जाए या बाज आदि का शिकार हो जाए, तो दूसरा संदेश पहुंचाने में सफल हो जाएगा।
उड़ीसा पुलिस ने दैवी विपदा, उपद्रव आदि की स्थिति में पत्रवाहक कबूतरों का उपयोग करके उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। दिल्ली में 1954 के डाक शताब्दी समारोहों के अवसर पर उड़ीसा पुलिस के पत्रवाहक कबूतरों ने उद्घाटन का संदेश राष्ट्रपति से प्रधान मंत्री तक पहुंचाकर इस व्यवस्था का सफल प्रदर्शन किया था। एक बार जब 13 अप्रैल 1948 को सबसे लंबे हीराकुंड बांध की आधारशिला प्रधान मंत्री नेहरू द्वारा रखी जानेवाली थी, तब उन्होंने कटक में होनेवाली आम सभा में कुछ परिवर्तन करना चाहा। राज्य पुलिस के पत्रवाहक कबूतर ने 5 घंटे में संबलपुर से कटक तक 400 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए उनका संदेश पहुंचा दिया। इससे नेहरू काफी प्रसन्न हुए।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
Friday, May 22, 2009
चीफ सिएटल का उत्तर
सन 1854 में वाशिंगटन के "महान श्वेत प्रमुख" (अमरीका के राष्ट्रपति) ने अमरीकी इंडियनों से उनके एक बड़े क्षेत्र को अमरीकी सरकार के हवाले करने को कहा। इसके बदले में उनके लिए अलग से संरक्षित प्रदेश का प्रलोभन दिया। अमरीकी इंडियनों के प्रमुख चीफ सिएटल ने इस प्रस्ताव का जो उत्तर दिया, उसे पर्यावरण के बारे में कहा गया सबसे सुंदर एवं गहन वक्तव्य माना जाता है। यह रहा उसका हिंदी रूपांतर।
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"असीम आकाश, या धरती की गरमी को कोई खरीद या बेच कैसे सकता है? यह धारणा हमारे लिए नई है। जब हवा की ताजगी या पानी की चमक हमारी नहीं है, तो तुम उन्हें खरीद कैसे सकते हो?
इस धरती का कोना-कोना हमारे लोगों के लिए पवित्र है। चीड़ वृक्ष का प्रत्येक चमकता पत्ता, प्रत्येक गुंजन करता कीट, मेरे लोगों की स्मृति एवं अनुभव में पवित्र है। पेड़ों की जिन शिराओं में रस बहता है, उन्हीं में लाल मानवों की यादें भी बहती हैं। श्वेत मानव के मृतक तारों के सान्निध्य में स्वर्ग में विचरण करते हुए उनको जन्म देनेवाले देश को भूल जाते हैं। हमारे मृतक इस धरती को कभी नहीं भूलते क्योंकि यह लाल मानव की जननी है। हम धरती के एक अंग हैं और धरती हमारा एक अंग। सुगंधित फूल हमारी बहनें हैं; हिरण, घोड़े, गरुड़, ये हमारे भाई। शैल-शिखर, रस-लिप्त मैदान, घोड़े के शरीर की गरमी, और मनुष्य - ये सब एक ही परिवार के सदस्य हैं।
इसलिए वाशिंगटन का श्वेत प्रमुख जब कहला भेजता है कि वह हमारी जमीन खरीदेगा, तो वह हमसे बहुत कुछ मांग लेता है। श्वेत प्रमुख आश्वासन देता है कि वह हमारे लिए कुछ जगह सुरक्षित कर देगा जिससे हम आराम से जिंदगी गुजार सकें। वह हमारा पिता होगा और हम उसके बच्चे। इसलिए हम तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करेंगे। परंतु यह आसान न होगा, क्योंकि यह जमीन हमारे लिए पवित्र है। नदियों और सरिताओं में बहनेवाला स्वच्छ जल मात्र जल नहीं है, हमारे पूर्वजों का खून है।
यदि हम तुम्हें जमीन बेचते हैं, तो तुम्हें याद रखना होगा कि वह पवित्र है। तुम्हें अपने बाल-बच्चों को भी सिखाना होगा कि वह पवित्र है, और यह भी कि झीलों के साफ जल में पड़नेवाली प्रत्येक परछाईं हमारे लोगों के जीवन में घटित घटनाओं एवं स्मृतियों की तस्वीर है।
जल की कलकल ध्वनि हमारे बाप-दादाओं की आवाज है। नदियां हमारे भाई-बहन हैं; वे हमारी प्यास बुझाती हैं। नदियां हमारे बच्चों को खिलाती हैं। यदि हम हमारी जमीन को तुम्हें बेचते हैं तो तुम्हें याद रखना होगा, और तुम्हारे बच्चों को भी सिखाना होगा, कि नदियां हमारे भाई-बहन हैं, और तुम्हारे भी, और तुम्हें नदियों के प्रति वैसी ही भलाई करनी होगी जैसी तुम एक भाई या बहन के प्रति करोगे।
हम जानते हैं कि श्वेत मानव हमारी आदतों को समझता नहीं है। उसके लिए जमीन का एक टुकड़ा जमीन के किसी दूसरे टुकड़े के तुल्य है, क्योंकि वह एक अजनबी है जो एक रात आता है और जमीन से वह सब कुछ ले लेता है जो उसे चाहिए होता है। पृथ्वी उसकी बहन नहीं है, वरन शत्रु है और जब वह उस पर विजय प्राप्त कर लेता है तो आगे बढ़ चलता है। अपने पिता की कब्र, पीछे छूट जाने से वह व्यथित नहीं होता। खुद अपने बच्चों से पृथ्वी को छीनता है और ऐसा करके वह लज्जित नहीं होता।
अपने पिता की कब्र, अपने बच्चों के जन्म-सिद्ध अधिकार, सब भूल जाता है। अपनी बहन पृथ्वी और भाई आकाश को खरीदने और लूटने की वस्तु, अथवा भेड़ या सुंदर आभूषणों के समान बेचने की वस्तु समझता है।
उसकी दानव-भूख पृथ्वी को ही स्वाहा कर जाएगी, पीछे रह जाएगा शुष्क रेगिस्तान। मैं असमंजस में हूं। हमारे तौर-तरीके तुमसे भिन्न हैं। तुम्हारे नगरों के दृश्य लाल मानव की आंखों को दुख देते हैं। पर यह शायद इसलिए कि लाल मानव बर्बर है, समझता नहीं।
श्वेत मानव के शहर में कभी भी शांति नहीं है। कहीं ऐसा कोना नहीं है जहां से वसंत ऋतु में खुलते पत्तों की ध्वनि या किसी कीट के पंखों की सरसराहट को सुना जा सके। पर यह शायद इसलिए कि मैं बर्बर हूं और समझता नहीं। शहर का कोलाहल मानो कानों को अपमानित करता है। यदि मानव जलकुंड में गिरते झरने की एकांत फुसफुसाहट या रात में तालाब के पास बैठे मेढ़कों की बहस को नहीं सुन सकता तो इस जिंदगी में रखा ही क्या है? मैं लाल मानव हूं और इस बात को समझ नहीं पाता। लाल मानव को अधिक पसंद है, तालाब की झिलमिल सतह से उछलकर चेहरे से टकराती पवन की सोंधी महक, या चीड़ द्वारा सुवासित पवन का मधुर चुंभन।
लाल मानव के लिए हवा बेशकीमती है, क्योंकि वह सभी जीवों की सामान्य धरोहर है - अनेक दिनों से मृत्यु शय्या पर पड़े मानव के समान वह गंध को पहचान नहीं पाता। पर यदि हम इस जमीन को तुम्हें बेचते हैं तो तुम्हें याद रखना होगा कि हवा हमारे लिए अमूल्य है, कि हवा की ही आत्मा सभी जीवधारियों में वितरित है। जिस हवा ने हमारे पितामह को पहली सांस दी उसी में उसकी आखिरी सांस भी निकली।
यदि हम तुम्हें हमारी जमीन बेचते हैं, तो तुम्हें भी उसे अलग और पवित्र रखना होगा, ऐसी जगह के रूप में जहां श्वेत मानव भी जाकर मैदान के फूलों से सुवासित पवन का आस्वादन कर सके।
हम जमीन खरीदने के तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करेंगे। यदि हम उसे स्वीकार करते हैं तो मैं एक शर्त रखूंगा, कि श्वेत मानव को इस जमीन के सभी पशुओं के साथ अपने भाइयों के समान बर्ताव करना होगा। मैं बर्बर हूं और इससे भिन्न कोई बात समझ नहीं सकता। मैंने अपनी आंखों से हजारों मृत भैसों को सड़ते देखा है जिन्हें मैदान से गुजरती रेलगाड़ी में बैठे श्वेत मानवों ने बंदूकों से मार गिराया था। मैं बर्बर हूं और समझ नहीं पाता कि जिन भैसों को हम केवल जीवित रहने के लिए मारते हैं, उनसे धुंआ उगलता लोह-अश्व अधिक महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है।
पशुओं के अभाव में मनुष्य की क्या हस्ती है? यदि सभी पशु चले जाएं तो मनुष्य की आत्मा एक भयंकर अकेलेपन से पीड़ित होकर मर जाएगी। क्योंकि जो पशुओं के साथ होता है, वही देर-सबेर मनुष्य के साथ भी होता है। सभी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हैं। तुम्हें अपने बच्चों को सिखाना होगा कि उनके पैरों तले की जमीन उनके बाप-दादा की राख है, ताकि वे जमीन का सम्मान करें। उन्हें बताना होगा कि जमीन उसके ही पूर्वजों के जीवन से समृद्ध है। तुम्हारे बच्चों को भी वही बात सिखाओ जो हमने अपने बच्चों को सिखाया है, कि जमीन तुम्हारी मां है।
जो जमीन के साथ घटित होता है, वही उसके पुत्रों के साथ भी होता है। यदि मनुष्य जमीन पर थूकता है तो वह स्वयं अपने ऊपर थूकता है।
यह हम जानते हैं, कि जमीन मानव की संपत्ति नहीं है; मानव जमीन की संपत्ति हैं। सभी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हैं, उसी प्रकार जैसे किसी कुटुंब के सदस्य आपस में खून से जुड़े होते हैं। मनुष्य ने जीवन के जाल को नहीं बुना है; वह उसका एक धागा मात्र है। जाल के साथ वह जो कुछ करता है, स्वयं अपने ऊपर करता है।
श्वेत मानव भी, जिसका ईश्वर उसके साथ उसी प्रकार बातें करता है जैसा एक दोस्त दूसरे दोस्त से करता है, इस सामान्य विधान से बच नहीं सकता।
एक चीज हम जानते है - श्वेत मानव भी शायद इस बात को एक दिन जाए - कि उसका और हमारा ईश्वर एक ही है।
आज तुम्हें लग सकता है कि तुम उस ईश्वर को उसी प्रकार प्राप्त कर सकते हो जिस प्रकार इस जमीन को प्राप्त करना चाहते हो; परंतु यह संभव नहीं है। वह मनुष्य मात्र का ईश्वर है, और लाल और श्वेत मानव दोनों का समान रूप से सहचर है। यह पृथ्वी उसको प्रिय है, और इस पृथ्वी को नुकसान पहुंचाना उस सरजनहारा का तिरस्कार करना है। श्वेत मानव भी एक दिन गुजर जाएगा, शायद अन्य कबीलों से कम समय में। अपने ही बिस्तर को गंदा करोगे तो एक रात अपनी ही गंदगी से तुम्हारा दम घुट जाएगा।
परंतु मरते हुए तुम चमक उठोगे, उस ईश्वर-प्राप्त शक्ति से जिसने तुम्हें इस पृथ्वी पर प्रकट किया और किसी विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस जमीन और लाल मानव के ऊपर अधिकार दिया।
यह विधान हमारे लिए पहेली है, क्योंकि हम जान नहीं पाते कि कब सारे भैंस मार दिए जाएंगे, कब सब जंगली घोड़ों पर लगाम लग जाएगा, कब वनों के दुर्गम-से-दुर्गम कोने भी मानव गंध से दूषित हो जाएंगे, और कब पहाड़ों के सुंदर दृश्य बोलते तारों के खंभों से कलंकित हो जाएंगे।
वृक्ष-कुंज कहां है ? कहीं नहीं ।
गरुड़ कहां है? मर-मिट गया।
"यही जीवन का अंत और उत्तरजीविता का आरंभ है।"
(चित्रों के शीर्षक: 1. वर्ष 1865 में लिया गया चीफ सिएटल का फोटो। यह उनका एकमात्र उपलब्ध फोटो है। 2. सिएटल, वाशिंगटन में 1908 में लगाया गया चीफ सिएटल की प्रतिमा। दोनों फोटो विकीपीडिया से।)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: पर्यावरण
Thursday, May 21, 2009
मेरे घर पर बोला राम सेना ने धावा
आप सोच रहे होंगे, तो क्या मुत्तालिक ने मैंगलूर से निकलकर दूरदराज अहमदाबाद में भी पांव फैला लिया है? अजी नहीं, मैं मुत्तालिक की राम सेना की नहीं, असली राम सेना की बात कह रहा हूं। जरा इन तस्वीरों को देखिए।
मई की चिलचिलाती दुपहर। मैं अपने कमरे में काम कर रहा था कि लंगूरों की हूप सुनाई दी। तुरंत काम छोड़कर बालकनी में आया। देखता क्या हूं कि पूरी राम सेना वहां डटी हुई है। एक ने पास के बंगले के बगीचे के पपीते के पेड़ से एक फल तोड़ लिया है। मैं अंदर दौड़ा मोबाइल लेने ताकि आपको भी यह दृश्य दिखा सकूं।
यह टोली नियमित रूप से हमारी सोसाइटी में आती है। हर दस-पंद्रह दिनों में उसका एक चक्कर लगता है। छोटे लंगूर बड़े ही नटखट होते हैं। एक-दूसरे के साथ खूब खेलते हैं। बहुत छोटे-बच्चों को बड़े बच्चे उसी तरह छेड़ते हैं, जैसे हमारे बच्चे, और ये वानर शिशु भी बड़ों को छकाने के लिए हमारे शिशुओं के ही समान मां की गोद में जा छिपते हैं।
एक बार मुझे याद है हम सब सो रहे थे जब राम सेना का आगमन हुआ। बालकनी का दरवाजा खुल रह गया था। सभी लंगूर अंदर रसोई में घुस आए और वहां रखे फल-सब्जी आदि खाने लगे। तभी मेरी पत्नी की नींद खुली और वे चाय बनाने रसोई में गईं। देखती क्या हैं कि सारी टोली वहीं जमी हुई है। दो तो फ्रिज पर चढ़कर बैठे हैं। पत्नी की चीख-पुकार से मेरी नींद खुली। मेरे हाथ बेटी का स्कूल का जूता आया और उसी को मैंने लंगूरों पर दे मारा। जूता उन्हें लगा तो नहीं, पर उससे डरकर वे सब जिस रास्ते आए थे, उसी रास्ते लौट गए। जूता पड़ौस के घर की छत में जा गिरा और उसे वापस पाने के लिए मुझे काफी जहमत करनी पड़ी।
मादा और बच्चे निरापद होते हैं, पर नरों से सावधान रहने की जरूरत है। ये आक्रामक होते हैं और भगाने पर जल्दी भागते नहीं है। कभी-कभी काट भी लेते हैं। यदि दो नर हों, तो वे आपस में खूब लड़ते हैं। लड़ते-लड़ते स्कूटर, साइकिल आदि को गिरा देते हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
बिस्तर गीला करना -- बच्चों की एक आम बीमारी
सुनील वह दिन कभी नहीं भुला पाएगा। यह तब की बात है जब वह लगभग १० साल का था। उसका सारा परिवार अनेक सगे-संबंधियों के साथ उसके नाना के घर इकट्ठा हुआ था। परिवार में किसी की शादी थी। सभी बच्चों को एक बड़े कमरे में जमीन पर बिस्तर बिछाकर सुला दिया गया था।
अगले दिन उठने पर सुनील ने देखा कि सभी बच्चे उसे नजरें चुरा-चुराकर देख रहे थे और एक-दूसरे को ठेलते हुए खुसर-पुसर कर रहे थे और हंस रहे थे। उसकी मां भी उस दिन उस पर कुछ ज्यादा ही नाराज लग रही थी। बाद में ही उसे पता चला कि माजरा क्या है। उसने पिछली रात बिस्तर गीला कर दिया था।
पंद्रह वर्ष तक के बच्चों में यह बीमारी काफी सामान्य होती है। इस तकलीफ से पीड़ित बच्चे नींद के दौरान अपने मूत्राशय की मांसपेशियों पर नियंत्रण खो देते हैं।
यह बीमारी कुछ-कुछ वंशानुगत होती है, यानी बच्चे की माता अथवा पिता के परिवार में किसी को बचपन में यह शिकायत रही होती है। इस बीमारी के मुख्यतः दो कारण होते हैं। पहला यह कि मूत्राशय आकार में छोटा होता है और रात में बननेवाला मूत्र उसमें समा नहीं पाता। दूसरा यह कि मूत्राशय की मांसपेशियों को नियंत्रित करनेवाली नाड़ियां पूरी विकसित नहीं हुई होती हैं। कभी-कभी मूत्राशय को पहुंची चोट अथवा कोई अन्य शारीरिक कमजोरी भी इस बीमारी के लिए जिम्मेदार हो सकती है। इसलिए इस बीमारी से पीड़ित बच्चे का डाक्टरी जांच करवाना बहुत जरूरी है।
इस बीमारी का इलाज अनेक प्रकार से हो सकता है, जिसमें दवाइयों का सेवन भी शामिल है। खान-पान पर नियंत्रण रखने से भी कुछ बच्चों को फायदा हुआ है। विशेष रूप से संतरा, नींबू आदि फलों का रस, कार्बोनेटेड पेय तथा चाकलेट बच्चे को खाने नहीं देना चाहिए। कुछ प्रकार के योगासन भी मूत्राशय की मांशपेशियों को मजबूत बनाने में मदद कर सकते हैं।
रात को सोने से पहले बच्चे को दूध आदि तरल पदार्थ पीने मत दें। यदि देना ही हो, तो बच्चे के सोने से कम-से-कम दो घंटे पहले दें और लेटने से पहले उससे पेशाब करने को कहें। रात में एक बार बच्चे को जगाएं और पेशाब कराएं।
यद्यपि यह बीमारी काफी असुविधाजनक साबित हो सकती है, लेकिन इससे पीड़ित बच्चे को डांटने-फटकारने या चिढ़ाने से उसे कुछ भी फायदा नहीं पहुंचेगा, उल्टे नुकसान ही होगा -- उसमें मानसिक ग्रंथि विकसित हो जाएगी। आवश्यकता इस बात की है कि उसकी तकलीफ को ठीक प्रकार से समझा जाए और उसे अपनी बीमारी से उभरने में मदद दी जाए। वैसे भी यह बीमारी बच्चे के बड़े हो जाने पर अपने आप ही दूर हो जाती है, जब उसके मूत्राशय की नीड़ियों का विकास पूरा हो जाता है ।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
लेबल: स्वास्थ्य
Wednesday, May 20, 2009
सबसे बड़ा नरवानार--गोरिल्ला
गोरिल्ला नरवानरों में सबसे बड़ा है। नर गोरिल्ले की ऊंचाई पांच फुट और वजन २०० किलो होता है। बहुत बड़ा सिर, संकरा माथा, छोटे कान, काला चेहरा और फूले हुए बड़े नथुने, ये उसकी अन्य विशेषताएं हैं। शरीर के रोएं काले होते हैं, परंतु उम्र के साथ-साथ वे सफेद होने लगते हैं। शरीर के विभिन्न भागों में बाल की लंबाई अलग-अलग होती है। छाती पर बाल लगभग नहीं होते हैं। गोरिल्ले के हाथ-पांव अत्यंत मजबूत होते हैं। हाथों की लंबाई पैर से अधिक होती है। गोरिल्ले में पूंछ नहीं होती।
गोरिल्लों की दो नस्लें हैं, मैदानी और पहाड़ी। पहाड़ी गोरिल्ले अधिक बड़े होते हैं। गोरिल्ले पश्चिमी और मध्य अफ्रीका में पाए जाते हैं। वे अधिकांश समय जमीन पर ही बिताते हैं। पेड़ों पर कूदना-फांदना उनके लिए संभव नहीं है क्योंकि उनका आकार बहुत बड़ा होता है। केवल रात बिताने के लिए वे पेड़ों पर चढ़ते हैं।
सभी नरवानरों के समान वे भी छोटी टोलियों में विचरते हैं, जिनमें २५-३० सदस्य होते हैं। हर टोली का एक नर सरदार होता है। टोली में वयस्क नर अधिक नहीं होते, पर दो-चार मादाएं और उनके बच्चे होते हैं। इस टोली का एक निश्चित अधिकार क्षेत्र होता है, जहां से वह आहार खोजता है।
गोरिल्ला शाकाहारी प्राणी है। वह फल, वनस्पति आदि को हाथ की उंगलियों से एकत्र करता है और फिर अपने मजबूत दांतों से इन खाद्य सामग्रियों का छिलका उतारकर खा जाता है। सामान्यतः उसे पानी पीने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि उसकी खुराक से ही उसे पर्याप्त नमी मिल जाती है।
गोरिल्ला दिवाचर प्राणी है। वह ठेठ सवेरे, जब वातारण अधिक ठंडा होता है, अधिक सक्रिय रहता है। दुपहर को आराम करके वह तीसरे पहर फिर आहार खोजने लगता है। सोने के लिए वह जमीन पर या पेड़ों पर टहनी, पत्ते आदि फैलाकर बिस्तर बनाता है।
गोरिल्ला तरह-तरह की आवाजें निकालता है। उसकी एक भाषा भी होती है जिसके सहारे वह आपस में खतरे, भोजन आदि की सूचना प्रेषित करता है। नकल करने में भी वह उस्ताद है। शत्रु को डराने के लिए वह अपनी मुट्ठी से छाती को पीटता है और दहाड़ता है।
उसका गर्भाधान काल लगभग २९० दिन का होता है। चार साल में एक बार एक शिशु पैदा होता है। शिशु अपने जीवन-काल के प्रथम छह महीने तक पूर्णरूप से अपनी मां पर निर्भर होता है और एक साल तक स्तनपान करता है।
गोरिल्ला वास्तव में एक सरल एवं शांतिप्रिय जीव है, परंतु मनुष्य की उर्वर कल्पना ने उसे खूंखार एवं असीम शक्ति से संपन्न दैत्य में बदल दिया है। इसका एक उदाहरण किंग-कांग जैसी लोकप्रिय चलचित्र हैं। आज वासस्थलों के नष्ट होने, अनियंत्रित शिकार और चिड़ियाघरों के लिए पकड़े जाने से इस मासूम वानर की स्थिति अत्यंत शोचनीय हो गई है। गोरिल्ले को एक संकटग्रस्त प्राणी माना गया है और उसका कायमी अस्तित्व संदिग्ध लगता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: जीव-जंतु
तड़ित झंझा
अप्रैल और मई के मानसून-पूर्व के महीनों में भारत के कुछ हिस्सों में, विशेषकर पश्चिम बंगाल और असम में, भीषण तड़ित झंझा उत्पन्न होती है। बंगाल में ये उत्तर-पश्चिम दिशा से आती हुई मालूम पड़ती हैं और काल बैसाखी कहलाती हैं। इस तरह की तड़ित झंझा बिजली की चमक और कर्ण-विदारी मेघ-गर्जन के साथ प्रकट होती है जो मेघों के भीतर हो रही भीषण वैद्युतीय प्रक्रियाओं की ओर संकेत करते हैं। इन तूफानों से संबंधित वर्षा क्षणभंगुर होते हुए भी भारी होती है। वर्षा के साथ-साथ ओले भी कभी-कभी गिरते हैं। औसतन भारत का कोई भी भाग साल में तीन-चार तड़ित झंझा अनुभव करता है। केरल और बंगाल प्रति वर्ष पचास से भी अधिक तड़ित झंझा अनुभव कर सकते हैं। ये सामान्यतः तीसरे पहर को या दिन के अधिकतम तापमान के पहुंचने के तुरंत बाद प्रकट होते हैं।
तड़ित झंझा वायुमंडल में हो रही प्रबल संवहनी हलचलों का उत्तम उदाहरण है। सामान्यतः यह एक विशाल कपासी-वर्षामेघ के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार का मेघ जब कई किलोमीटर व्यास तक बढ़ जाता है तो उसमें वैद्युतीय प्रक्रियाएं आरंभ हो जाती हैं। मेघ के भीतर वायु ऊपर और नीचे दोनों दिशा में संचरित होती है।
भारत में कपासी-वर्षामेघ समुद्र की सतह से सत्रह-अठारह किलोमीटर की ऊंचाई तक फैल सकता है। ऊपर को उठता हुआ यह मेघ एक ऐसी प्रणाली होता है जिसके निचले भाग से नम हवा प्रवेश करती है और ऊपर उठते समय उसकी अधिकांश नमी संघनित हो जाती है। जब यह हवा मेघ के ऊपर से प्रकट होती है तो अपेक्षाकृत नमीहीन होती है। इस प्रकार कई टन वजन की हवा इस प्राकृतिक चिमनी से होकर गुजरती है और नमी खो बैठती है।
मेघ के ऊपरी हिस्से का तापमान -40 अंश सेल्सियस से भी कम हो सकता है और बर्फ के कण स्वतः ही पैदा हो जाते हैं। इसका परिणाम होता है ओला वृष्टि। वर्षा की बूंदें भी मेघ के विशाल आकार के कारण काफी बड़ी बन जाती हैं। इस कारण संबंधित वर्षा भारी होती है। बारिश के पानी का कुछ भाग वाष्पीकृत होकर वातावरण को मेघ के आसपास की हवा की तुलना में ठंडा कर देता है। यह ठंडी हवा निरंतर बढ़ती गति से नीचे बैठने लगती है, और जब यह उतरती हवा जमीन के ऊपर की हवा से टकराती है तो एक प्रबल पवन बनकर आगे की ओर बह उठती है। यही इन तड़ित झंझाओं से संबंधित आंधी है, जो काफी विनाशकारी हो सकती है।
मेघ के भीतर मौजूद हवा की ऊर्ध्व धाराएं वर्षा की बड़ी बूंदों को छोटी बूंदों में छिटक देती हैं जिससे मेघ के अंदर विद्युत उत्पन्न हो जाता है। हवा की इन धाराओं के कारण वैद्युत आवेशों का पृथक्कीकरण हो जाता है और मेघ का ऊपरी और निचला भाग विपरीत आवेशवाले हो जाते हैं। इसके कारण उनके बीच विभवांतर पैदा हो जाता है जो कई करोड़ वोल्ट का हो सकता है। जब यह विभवांतर अत्यधिक हो जाता है तो आंखों को चौंधिया देनेवाली बिजली की कड़क मेघ के विभिन्न भागों के बीच पैदा होती है। इससे उत्पन्न गरमी हवा को चीर डालती है जिससे मेघ गर्जन होता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
लेबल: मौसम
Tuesday, May 19, 2009
खून की कमी और उसका इलाज
स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में हर साल एक लाख महिलाएं ऐनीमिया (खून की कमी) के कारण मरती हैं। भारत में महिलाओं का पोषण स्तर अत्यंत शोचनीय है और लगभग 83 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की बीमारी से पीड़ित हैं। खून की कमी का मुख्य कारण शरीर में लौह तत्वों की कमी है। लोहा खून के हैमोग्लोबिन नामक पदार्थ के बनने के लिए आवश्यक है। यही हैमोग्लोबिन आक्सीजन का वाहक होता है और खून को लाल रंग देता है। हैमोग्लोबिन कम होने से शरीर को आक्सीजन कम मिलती है और आक्सीजन के अभाव में शरीर शर्करा और वसा का दहन करके ऊर्जा नहीं बना पाता। इसीलिए खून की कमी से पीड़ित महिलाएं अत्यधिक थकान महसूस करती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि कम खून वाली महिलाएं 7-8 मिनट से अधिक समय के लिए निरंतर श्रम नहीं कर पातीं।
एक स्वस्थ व्यक्ति के खून के हर 100 मिलीलिटर में 15 ग्राम हैमोग्लोबिन होता है। चूंकि यही हैमोग्लोबिन शरीर में आक्सीजन का वाहक है, वह श्वसन और पाचन की क्रियाओं को ठीक प्रकार से अंजाम देने के लिए बहुत आवश्यक होता है। हैमोग्लोबिन कम होने से चेहरा मुरझाया-मुरझाया सा रहता है और असमय ही शरीर पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। कम हैमोग्लोबिन का एक अन्य लक्षण है, खून का धीमी गति से जमना। घाव भी हैमोग्लोबिन के अभाव में अधिक धीरे भरते हैं। कमजोर दृष्टि और याददाश्त, सांस फूलना, सिर-दर्द और मायूसी का एहसास (डिप्रेशन) ऐनीमिया की कुछ अन्य निशानियां हैं।
शरीर में लोहा कम होने का मुख्य कारण कुपोषण है। समृद्ध वर्गों में यह अत्यधिक संसाधित भोजनों के उपोयग से या डायटिंग के कारण होता है। निर्धन वर्गों में इसका मुख्य कारण है कम भोजन खाना। यद्यपि लोहा स्वयं शरीर को ऊर्जा नहीं देता, पर वह ऊर्जा पैदा करनेवाली प्रक्रियाओं को संचालित करता है और ऊर्जा पैदा करने के लिए आवश्यक पदार्थों के अवशोषण को सुगम बनाता है। शरीर के लिए लोहे को आत्मसात करना अत्यंत कठिन होता है। एक दिन में औसत स्वास्थ्य का व्यक्ति केवल 2 मिलीग्राम लोहा ही आत्मसात कर सकता है। सौभाग्य से शरीर से लोहा उतनी आसानी से छीजता भी नहीं है। शरीर में लोहे की कमी एक लंबे समय तक उचित या पर्याप्त भोजन न मिलने से अथवा चोट, शल्य-क्रिया आदि के कारण शरीर से बहुत अधिक खून बह जाने से होता है।
खून और लोहे की कमी वयस्क महिलाओं और बड़ी लड़कियों में अधिक देखी जाती है क्योंकि उनमें मासिक स्राव के समय शरीर से नियमित रूप से बहुत अधिक खून निकल जाता है। इस खून की भरपाई यदि पौष्टिक भोजन से न हो, तो शरीर में लोहे का अकाल पड़ जाता है। गर्भस्थ शिशु भी अपनी माता के शरीर से बहुत अधिक मात्रा में लोहा खींच लेता है। इसी प्रकार स्तनपान करानेवाली महिलाएं, यदि पौष्टिक भोजन न करें, तो खून की कमी की चपेट में आ जाती हैं। आजकल की फैशन-परस्त महिलाएं टीवी और पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापनों की दुबली-पतली माडलों की देखा-देखी डायटिंग में कुछ अति कर बैठती हैं, जिससे भी वे कुपोषण के घेरे में आ जाती हैं। भारत में अधिकांश लोग अंडरवेट हैं, खासकरके महिलाएं, यानी वे मोटापे की नहीं, दुबलेपन की शिकार हैं। उन्हें डायटिंग की नहीं बल्कि अच्छे पौष्टिक भोजन की जरूरत है। परंतु विदेशी विज्ञापनों की नकल पर बने देशी विज्ञापन दुबली-पतली माडलों का इस्तेमाल करके जाने-अनजाने भारतीय दर्शकों को गुमराह करते हैं। विदेशों के समृद्ध समाजों में लोग आवश्यकता से अधिक भोजन करके मुटापे की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। वहां दुबलेपन का गुण गानेवाले विज्ञापन शायद प्रासंगिक हो सकते हैं, पर यहां नहीं।
खून की कमी का एक अन्य कारण मानसिक तनाव और चिंता है। तनाव-ग्रस्त व्यक्ति में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल कम बनता है। यह अम्ल पाचन में तथा लोहे और अन्य जरूरी तत्वों के अवशोषण में सहायक होता है। कुछ प्रकार की दवाइयां आंतों में मौजूद उपयोगी जीवाणुओं को मार देती हैं। ये जीवाणु पाचन में तथा विटामिन, लोहे तथा अन्य खनिजों के अवशोषण में मदद करते हैं। सभी विटामिनों में विटामिन ई का अवशोषण कुछ प्रकार के दवाओं के सेवन से सर्वाधिक प्रभावित होता है। विटामिन ई की कमी भी खून की गुणवत्ता को घटा देती है।
सिगरेट-बीड़ी और तंबाकू के सेवन से और शराब पीने से भी ऐनीमिया बढ़ती है।
खून की कमी का एक ही इलाज है, बेहतर भोजन और लोहा-युक्त दवाइयों का सेवन। गेहूं और पूर्ण चावल में लोहे की मात्रा अधिक होती है। सब्जियों में बंध गोभी, गाजर, लाल शलजम, टमाटर और पालक में लोहे का तत्व अधिक होता है। सेब, केला, खजूर और आड़ू जैसे फल भी अच्छी मात्रा में लोहा उपलब्ध कराते हैं। इन सब पदार्थों के सेवन के अलावा लोहे के बर्तनों में खाना पकाने से भी खाने में लोहांश आता है। इसलिए लोहे के तवे, करछुल, कड़ाही, कटोरे, चम्मच, खरल और मूसल का अधिक उपयोग करें। आजकल स्टेनलेस स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों का चलन हो जाने से अधिकांश लोग लोहे के एक महत्वपूर्ण स्रोत से वंचित हो रहे हैं।
हैमोग्लोबिन के निर्माण के लिए थो़ड़ी मात्रा में तांबा भी आवश्यक होता है। यह तांबा अखरोट और बादाम में काफी मात्रा में पाया जाता है। तांबा शरीर द्वारा लोहे के अवशोषण में भी मदद करता है। हैमोग्लोबिन के निर्माण के लिए विटामिन बी-12 और फोलिक अम्ल भी आवश्यक हैं।
अन्य उपयोगी भोज्य पदार्थों में शामिल हैं आम, किशमिश, अंकुरित मूंग, तिल के दाने, चना, राजमा, गन्ने और अनार का रस, गुड़, दही, पनीर, लहसुन आदि। रोज सुबह एक कटोरा अंकुरित मूंग खाया जाए तो शरीर में खून के निर्माण में तेजी आ सकती है। इसी प्रकार काले तिल, गुड़ और दूध को एक साथ पीसकर आधा कप रोज सेवन करने से काफी लाभ मिलता है। रोज सुबह खाली पेट पर दो कप गाजर और पालक का रस पीने से ऐनीमिया के मरीजों को राहत हो सकती है।
आयुर्वेद में खून की कमी के निराकरण के अनेक प्रभावशाली उपचार हैं। लाभकारी आयुर्वेदिक दवाओं में शामिल हैं, च्यवनप्राश, शतवारी और अश्वगंधा। ये दवाएं हजारों सालों से हमारे समाज में प्रचलित रही हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 1 टिप्पणियाँ
लेबल: स्वास्थ्य
गर्मियों में घर को ठंडा रखें
जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे घर को शीतल रखने की आपकी चिंता भी बढ़ रही होगी। आइए आपको इसके कुछ सरल उपाय बताएं।
घर के अंदर घुसनेवाली गर्मी का 50 प्रतिशत से अधिक गर्मी छत के माध्यम से आती है। इसलिए छत के ऊपर खाली बोरे फैलाकर उन पर पानी छिड़कते रहने से घर के भीतर आनेवाली गर्मी को कम किया जा सकता है। इसके दो फायदे हैं। पानी के वाष्पीकरण से घर ठंडा होगा, और दूसरे, बोरों के कारण छत धूप के सीधे आघात से बची रहेगी। यदि गर्मियों में आप छत का अधिक उपयोग नहीं करते हों तो उसकी फर्श और दीवारों पर चूना लगवा दें। इससे छत सफेद हो जाएगी और वह सूर्य किरणों को परावर्तित कर देगी।
आधुनिक भवनों में खिड़की-दरवाजों के लिए कांच का उपयोग बढ़ता जा रहा है। वास्तव में ये घर को गरम करने में सहायक होते हैं। ईंट की दीवारों की तुलना में कांच की सतहों से 20 गुना अधिक गर्मी घर के अंदर घुसती है। आजकल के घरों में आने वाली कुल गरमी का आधा उनके कांचवाले हिस्सों से आता है। इसलिए मकान बनाते समय ही कांचवाले हिस्सों को सीमित करने और उन्हें सही स्थानों पर लगाने की ओर विशेष ध्यान दें। कांचवाले हिस्से मकान के उत्तर और दक्षिण भागों में ही होने चाहिए जहां सीधी धूप नहीं लगती। पूर्व और पश्चिम दिशा की दीवारों पर कम से कम खिड़की-दरवाजे रखें। यदि इन दिशाओं में खिड़िकी-दरवाजे रखने हों, तो उनमें कांच का कम से कम प्रयोग करें।
खिड़कियों के माध्यम से धूप और गर्मी घर के अंदर न आए, इसके लिए भी आप अनेक उपाय कर सकते हैं। थोड़ा अधिक खर्च करके आप खिड़कियों में कांच की दुहरी परत लगवा सकते हैं। इससे बहुत कम गर्मी घर के अंदर आएगी और रोशनी की कमी भी नहीं होगी। सर्दियों में इस तरह की खिड़कियां घर की गर्मी को बाहर बहने नहीं देतीं। आजकल रोशनी को परावर्तित करनेवाला विशेष प्रकार का कांच बाजार में उपलब्ध है। अपने घर की खिड़कियों में इस तरह का कांच लगवाएं। इससे धूप की लगभग 80 प्रतिशत गरमी घर के बाहर रखी जा सकेगी।
खिड़कियों पर मोटे कपड़े के पर्दे टांग देने से भी लाभ मिल सकता है। ये पर्दे गहरे रंगों के महीन बुनावटवाले, भारी, अपारदर्शी कपड़ों के हों। पर्दों में अस्तर लगाने से पर्दे गर्मी रोकने में अधिक सफल होंगे। ये पर्दे चारों और से खिड़कियों के बाहर निकले रहने चाहिए ताकि खिड़कियों के किनारों से गर्मी कमरे में घुस न सके। पर्दों के अलावा खिड़कियों के बाहर खस-खस की टट्टियां लटकाने और उन्हें नम रखने से भी घर की शीतलता बढ़ेगी और साथ ही घर सुवासित रहेगा।
यदि आपके घर पर बहुत अधिक धूप लगती हो, तो घर के चारों ओर पेड़ लगाने पर विचार करें। पेड़ों का चुनाव करते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि आप गर्मियों की तेज हवाओं से बचने के लिए पेड़ लगाना चाहते हैं या छाया के लिए।
कुछ अन्य सरल उपायों से भी आप गर्मी से निजात पा सकते हैं। दिन में गर्मी बढ़ने से पहले घर के खिड़की-दरवाजे बंद करके उनके पर्दे आदि खींच दें। इससे बाहर की गरम हवा घर के अंदर नहीं घुस पाएगी। चूंकि गरम हवा ऊपर उठती है, यदि आपके घर में वेंटिलेटर (रोशनदान) हों, तो उन्हें दिन में खुला छोड़ दें। इसी प्रकार रात की ठंडी हवा को घर में लाने के लिए शाम होते ही खिड़की दरवाजे खोल दीजिए। यदि आपका मकान ईंट का बना हो, तो यह विधि आधिक कारगर साबित होगी, क्योंकि ईंट की दीवारें रात की ठंडक को अपने भीतर समाए रहती हैं। रसोईघर, गुसलखाने आदि में लगे एक्सहोस्ट पंखे का उपयोग घर के भीतर की गरम हवा को बाहर फेंकने के लिए किया जा सकता है। शाम के वक्त खिड़की दरवाजे खोलकर एक्सहोस्ट पंखों को कुछ देर के लिए चला दें।
शुष्क मौसम में पानी वाले कूलर, जिन्हें डेसर्ट कूलर कहा जाता है, पंखों से अधिक ठंडक देंगे और वे वातानुकूलकों से सस्ते भी रहेंगे। घर के भीतर रहते समय आप किस तरह के कपड़े पहनते हैं, यह भी महत्वपूर्ण है। अधिक आराम के लिए हल्के रंगों के सूती वस्त्र पहनिए। ये कपड़े अधिक तंग न हों और कम-से-कम परतों वाले हों। कपड़ों के नीचे से हवा का बहाव संभव होना चाहिए। इस लिहाज से पुरुषों के लिए लुंगी और टी-शर्ट और स्त्रियों के लिए स्कर्ट या साड़ी सबसे आरामदायक वस्त्र हैं।
गर्मीयों में चाय-काफी जैसे गरम पेयों से दूर रहिए और ठंडी चीजें खाइए जैसे दही, नींबू पानी, आइसक्रीम, कुल्फी, शरबत, हरी सब्जियां, तरबूज, खरबूज, नारियल और अन्य मौसमी फल। पानी भी खूब पीते रहिए।
इन सब घरेलू नुस्खों को आजमाकर देखिए, इस बार की गर्मी आपके लिए निश्चय ही कम कष्टदायक साबित होगी।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: मौसम
Monday, May 18, 2009
आम की हजार जातियां
गर्मियों का मौसम गहराने लगा है और उसके साथ-साथ आम का मौसम भी शुरू हो गया है। भीषण गरमी के त्रास को आम की मिठास कुछ-कुछ कम कर जाती है। और आम के मामले में भारत का नसीब कुछ बेहतर है।
विश्व में आम की 1,200 जातियां ज्ञात हैं, जिनमें से 1,000 जातियां भारत में पाई जाती हैं। भारत में हर साल 1.1 करोड़ टन आम पैदा होता है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 6 टन से अधिक है। आम पैदा करनेवाले मुख्य क्षेत्र हैं उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु, कर्णाटक और पश्चिम बंगाल।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 1 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
क्या आप सांस की दुर्गंध से परेशान हैं?
सांस से बदबू आना एक ऐसी असुविधाजनक बीमारी है जिसके बड़े ही अटपटे सामाजिक परिणाम होते हैं। उसके कारण व्यक्ति को काफी मानसिक क्लेश भी सहना पड़ता है और उसमें हीन ग्रंथि भी पनप सकती है। कई बार यह बीमारी सामाजिक सफलता में बाधक भी बन सकती है।
हमारा मुंह वास्तव में अनेक प्रकार के जीवाणुओं का जंगल होता है। ये जीवाणु दांतों के पोरों में और जीभ, मसूढ़े आदि में अटके हुए भोजन के कणों पर जीवित रहते हैं। इनमें से बहुत से जीवाणुओं के क्रियाकलापों से ऐसी गैसें प्रकट होती हैं, जो दुर्गंधयुक्त होती हैं। इन्हीं गैसों के कारण हमारी सांस बदबूदार हो जाती है। तब फिर हर व्यक्ति के मुंह से दुर्गंध क्यों नहीं आती, और हम कभी-कभार ही इस बीमारी का शिकार क्यों बनते हैं, हर समय क्यों नहीं? इसका उत्तर सरल है। हमारे मुंह में जो लार निरंतर बनती रहती है, उसमें जीवाणुनाशी शक्ति होती है। लेकिन जब किसी कारण से मुंह में कम लार बनती है या लार सूख जाती है, तब ये जीवाणु बेकाबू हो जाते हैं, और तब सांस दुर्गंधयुक्त हो जाती है। मसलन जब हम सोते हैं, तो लार का प्रवाह धीमा पड़ जाता है और जीवाणु इसका लाभ उठाकर पनपने लगते हैं। सुबह उठने पर मुंह से बदबू आने का यही कारण है। भूख-प्यास, सिगरेट-शराब पीना, अत्यधिक बात करना, बंद नाक के दौरान मुंह से सांस लेना -- इन सबके कारण मुंह सूख जाता है और सांस दूषित हो जाती है। तनाव भी मुंह सूखने का एक कारण है।
उम्र के साथ शरीर के अधिकांश अंगों की कार्यक्षमता घटने लगती है। लार पैदा करने वाली ग्रंथियां भी इसका अपवाद नहीं हैं। यही वजह है कि युवाओं की तुलना में बुजुर्ग कहीं अधिक दुर्गंधयुक्त सांस की समस्या से पीड़ित होते हैं। शिशुओं में लार की प्रचुरता रहती है, इसलिए उनकी सांस एक विशिष्ट भीनी मीठी गंध लिए रहती है।
मुंह सूखने से उठी सांस की दुर्गंध आसानी से दूर की जा सकती है। आपको बस इतना करना है जिससे आपके मुंह की लार-ग्रंथियां पुनः सक्रिय हो उठें। इसके लिए आप मिसरी चूसें या पान खाएं या एक गिलास पानी ही पी लें, तुरंत आपके मुंह की दुर्गंध चली जाएगी। खाना खाने से भी मुंह की दुर्गंध दूर हो जाती है, क्योंकि खाते समय मुंह में बहुत अधिक लार बनती है, जो मुंह के अधिकांश जीवाणुओं को नष्ट कर देती है या उन्हें भोजन के साथ पेट के अंदर बहा ले जाती है।
दांतों को मांजने से भी सांस की दुर्गंध से निजात मिल जाती है क्योंकि यह अनेक दुर्गंधजनक जीवाणुओं को साफ कर डालता है, विशेषकर तब जब जीभ, तालू और गालों के भीतरी भाग और मसूढ़ों को भी साफ किया जाए क्योंकि इन जगहों में भी बहुत से जीवाणु छिपे रहते हैं।
मुंह की दुर्गंध से पीड़ित लोगों को माउथवाश से मुंह धोने की सलाह दी जाती है, पर अनेक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि इससे कुछ भी लाभ नहीं होता। माउथवाश बस इतना फायदा करता है कि वह सांस की दुर्गंध पर अपनी सुगंध का मुलम्मा चढ़ा देता है, पर यह प्रभाव भी एक घंटे से ज्यादा नहीं रहता। कुछ माउथवाशों के बारे में यह दावा किया जाता है कि उनमें जीवाणुओं को मारने की क्षमता होती है, पर उनसे उल्टा प्रभाव ही पड़ता है क्योंकि उनमें जो जीवाणुनाशी पदार्थ होता है, वह अलकहोल होता है, जो मुंह को और अधिक सुखा देता है।
मुंह से दुर्गंध आने का एक अन्य कारण आपके द्वारा खाई गई कुछ चीजें होती हैं, जैसे लहसुन। लहसुन खाने के बाद उसके गंध-यौगिक खून के साथ फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं, जहां से निःश्वास की हवा को दूषित करते हैं।
आहार संबंधी दूषित सांस का कोई पक्का उपचार नहीं है। बस आपको गंध के अपने आप खत्म होने की प्रतीक्षा करनी है। खाने के साथ खूब पानी पीने से कुछ मदद मिल सकती है। कुछ लोगों में पाचन की गड़बड़ी के कारण भी सांस की दुर्गंध हो सकती है। हमारे पेट में ऐसे जीवाणु होते हैं जो पाचन के दौरान पैदा हुई दुर्गंधयुक्त वायु को नष्ट करते हैं। कुछ लोगों में ये जीवाणु नहीं होते, जिससे उनकी डकार में यह दुर्गंधयुक्त वायु बाहर निकलती रहती है।
सांस की दुर्गंध कुछ बीमारियों का संकेत भी हो सकती है। उदाहरण के लिए जब साइनस की बीमारी होती है, तो सांस से दुर्गंध आने लगती है। साइनस के कारण व्यक्ति की नाक अवरुद्ध हो जाती है और वह मुंह से सांस लेने लगता है। इससे मुंह सूख जाता है और जीवाणुओं को पनपने का अवसर मिल जाता है।
कुछ प्रकार की दवाइयां खाने से भी सांस की दुर्गंध बढ़ जाती है। इन दवाइयों में शामिल हैं प्रशांतक, मूत्रवर्धक एवं रक्तचापहारी दवाएं। ये लार के प्रवाह को भी कम कर देती हैं, जिससे जीवाणुओं को बढ़ने का मौका मिल जाता है।
यद्यपि सांस की बदबू हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को काफी नुक्सान पहुंचा सकती है, उसका उपचार आसान है, यानी मुंह की स्वच्छता बरतना और मुंह को सूखने से बचाना। अतः यदि आपकी सांस से बदबू आती हो, तो दिन में दो-तीन बार दांतों, जीभ एवं मसूढ़ों को साफ करें। यदि मुंह सूख रहा हो तो तुरंत पानी पी लें या कोई खाने की चीज मुंह में डाल कर चबाने लग जाएं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 7 टिप्पणियाँ
लेबल: स्वास्थ्य
Sunday, May 17, 2009
एक चरवाहा जो वन प्रबंधक भी है
वृक्ष विहीन चट्टानों में धूप और प्यास से तड़पते पशुओं को पेड़ की छांव खोजते देखकर किसी चरवाहे द्वारा हरा-भरा जंगल बनाने की बात अक्सर लोक कथाओं में सुनने को मिलती है। परंतु अलमोड़ा जिले के असों नामक गांव में इस लोक कथा को जैसे अर्थ मिल गया है। वहां एक गरीब गड़रिया गुसाईं सिंह के वर्षों की मेहनत से पत्थरीले पहाड़ी ढलानों में हरियाली लहलहाने लगी है। 40 से अधिक प्रजातियों के करीब 30,000 वृक्षोंवाले इस सात एकड़ के जंगल से आज आसपास के ग्रामीण परिवारों को प्रत्यक्ष लाभ तो मिल ही रहा है, ग्रामीण आबादी के लिए वह वन संरक्षण का प्रेरक उदाहरण भी बन गया है।
शुरू-शुरू में गुसाईं सिंह के जंगल बनाने के प्रयत्नों को चरागाह पर अतिक्रमण ही समझा जाता रहा, यहां तक कि 15 वर्ष पहले उनकी तीसरी पत्नी की मृत्यु पर संबंधियों ने उन्हें वन का मोह छोड़कर भगवद-भजन की सलाह तक दे डाली थी। लेकिन गुसाईं सिंह इन सब विरोधों से थोड़ा भी विचलित नहीं हुए। घोर गरीबी के कारण उन्हें अपनी पत्नी की अंतिम निशानी के रूप में मौजूद कुछ आभूषण भी बेच देने पड़े। कुछ वर्ष पूर्व इसी जंगल में उनकी आठ बकरियों को बाघ ने एक साथ मार डाला था, जिससे आय का अंतिम जरिया भी जाता रहा। उनकी इस विपत्ति का फायदा उठाने के लिए कुछ लोगों ने तब उन्हें एक पेड़ के लिए 2000 रुपए तक देने का प्रलोभन दिया। पर वे पेड़ बेचने को राजी नहीं हुए। अब इस तरह के कष्टों के दिन बीत चुके हैं। आज उनकी मेहनत और दृढ़ संकल्प हरियाली बनकर फलने-फूलने लगा है।
घास, पानी और लकड़ी की समस्या से त्रस्त धूराफाट क्षेत्र के असों, मल्लाकोट, तल्लाकोट आदि गांवों के लोग इस जंगल से प्रेरणा लेने लगे हैं। इन ग्रामीणों को अब इस जंगल से वह सब मिल रहा है जिसकी उन्होंने पहले कल्पना तक नहीं की थी। तल्लाकोट गांव के भूतपूर्व सैनिक गोपाल सिंह कहते हैं, "इस जंगल ने गांव की फिजा ही बदल दी है। ग्रामीणों की घास, चारा, छाजन, बिछावन आदि की जरूरतें तो पूरी हो ही रही हैं, भूमि-कटाव और भूस्खलनों के घाव भी भर गए हैं।" इतना ही नहीं, जल स्रोतों में पानी बढ़ रहा है और कृषि की पैदावार में भी इजाफा हुआ है। पहले जंगली जानवर और पक्षी फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते थे। अब इस वन में प्रत्येक मौसम में फल-फूल, घास-पत्ती और कंद-मूल इतने उपलब्ध रहते हैं कि पशु-पक्षियों को खेत लूटने का जोखिम उठाना ही नहीं पड़ता। इससे वनों के उपयोग के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। मल्लाकोट गांव के पर्यावरण शिक्षक के. एस. मनकोटी कहते हैं, "यह जंगलों के टिकाऊ प्रबंध का प्रेरक उदाहरण बन गया है। इस वन ने सिद्ध कर दिया है कि वनाधारित जरूरतों की सतत पूर्ति और वनों का संवर्धन साथ-साथ हो सकता है।"
बिना किसी सरकारी सहायता के बनाए गए इस जंगल का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि समुद्र तट से 2900 फुट की ऊंचाई पर निम्न और मध्यम ऊंचाई में पाई जाने वाली लगभग सभी वृक्ष-प्रजातियों को गुसाईं सिंह ने स्वयं पौध तैयार करके अपने वन में सफलता से उगाया है। इस तरह इस वन ने कई लुप्त होती जातियों को भी बचा लिया है। उनके वन में आम, अमरूद, नींबू, आदि फलदार वृक्षों की अधिकता है। सानड़ जैसी कीमती लकड़ी और हरड़ जैसे औषधीय पौधे भी उसमें हैं, पर उनका व्यावसायिक उपयोग पर आंशिक रोक है। चारा-पत्ती के लिए छोटी-छोटी शाखाएं निर्धारित पेड़ों से काटी जाती हैं। कृषि-उपकरण आदि बनाने के लिए पूर्ण विकसित पेड़ों की कुछ शाखाएं काटी जाती हैं। इन नियमों का पालन न करने वालों को इस वन से वन-उत्पाद प्राप्त करने नहीं दिया जाता। गुसाईं सिंह कहते हैं, "इस जंगल से बड़े-बड़े गांवों की जरूरतें पूरी नहीं हो सकतीं। यह तो मात्र नमूना है, जो लोगों को सार्थक पहल करने की प्रेरणा दे सकता है।"
अब धीरे-धीरे इस निरक्षर लोक-प्रबंधक की यह मंशा भी साकार होने लगी है। असों के ग्राम प्रधान श्रीमती आशा असवाल कहती हैं, "गुसाईं सिंह की प्रेरणा से आस-पास के फरसोली, बीरखम आदि अनेक गांवों के किसानों ने अपनी बंजर जमीन पर छोटे-छोटे जंगल उगा लिए हैं। यदि सब लोग ऐसा प्रयास करने लगें तो गांव में किसी चीज की कमी नहीं रहेगी और लोगों को गांव छोड़कर शहर नहीं जाना पड़ेगा।"
उत्तराखंड क्षेत्र के सभी गांवों में पानी, चारा और ईंधन की विकट कमी है। यह सारा इलाका भूक्षरण और भूस्खलनों से भी बुरी तरह पीड़ित है। गुसाईं सिंह ने इन समस्याओं के समाधान का जो आत्मनिर्भर रास्ता दिखलया है, उससे आसपास के ग्रामीण तो प्रेरणा ले ही रहे हैं, सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनों तथा नीतिनिर्धारकों और नियोजकों को भी सीख लेनी चाहिए।
(सूझ-बूझ पत्रिका से)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
Saturday, May 16, 2009
फलों की रानी पद के लिए एक उम्मीदवार
हिमांशू जी की भतीजी ने एक बहुत ही अहम सवाल पूछा है। आम फलों का राजा है, तो फलों की रानी कौन है? एक उम्मीदवार लीची हो सकती है। लीजिए फलों की रानी पद के इस उम्मीदवार के बारे में कुछ जानकारी। उसे पढ़कर तय कीजिए कि क्या आम (मैंगीफेरा इंडिका) और लीची (लीची काइनेन्सिस) की जोड़ी जमेगी?
मीठी, स्वादिष्ट, सुगंधित लीची एशिया भर में बड़े चाव से खाई जाती है। वैसे उसका मूल देश चीन है।
लीची स्वादिष्ट ही नहीं है, उसमें अनेक औषधीय गुण भी पाए जाते हैं। पौष्टिकता की दृष्टि से भी वह अव्वल है।
भारत में लीची की खेती नकदी फसल के रूप होती है। लीची की अनेक किस्में हैं और वह अलग-अलग आकारों, रंगों और स्वादों में आती है। कुछ नस्लों में बीज नहीं होते।
लीची की अधिक खेती बिहार के उत्तरी भागों में विशेषकर मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिलों में और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, देहरादून और मुजफ्फरनगर में होती है। फल मई से लेकर जून के मध्य तक तोड़े जाते हैं।
लीची में विटामिन, शक्कर, प्रोटीन, वसा और खनिज पदार्थ भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। उससे आइसक्रीम, जैम, ठंडा पेय आदि बनाया जाता है। ताजा फल खाने से शरीर में स्फूर्ती और ताजगी आती है। लीची आसानी से पचती है और बुखार से कमजोर हुए मरीजों को वह खाने को दिया जाता है। उसे कब्ज, दस्त, सिरदर्द और गुर्दे, जिगर आदि के रोगों में लाभकारी माना गया है।
तो क्या तय किया आपने? आम और लीची का ब्याह ब्लोगजगत में धूम-धाम से कराया जाए?
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 11 टिप्पणियाँ
समुद्र में सा रे गा मा
यदि आप सागर के मध्य किसी ह्वेल के पास पहुंच जाएं तो आपको उसके गीत सुनने को मिल सकते हैं। वैज्ञानिकों ने ह्वेलों के गीतों को टेप करके उनका बारीकी से अध्ययन किया है। ठीक हमारे गीतों की ही तरह ह्वेलों के गीत भी पद, पदबंध, पंक्ति और गीत के रूप में होते हैं। मान लीजिए कि सा, रे, गा, मा, ये चार पद हैं। इन्हें अलग-अलग प्रकार से मिलाकर अलग-अलग पदबंध बनाए जा सकते हैं, जैसे सा-रे, रे-सा, गा-मा, मा-गा, आदि। अनेक पदबंध मिलकर एक पंक्ति बनती है। अनेक पंक्तियों से एक गीत तैयार होता है। यही प्रक्रिया ह्वेलों में भी देखी जाती है।
समुद्र के अलग-अलग क्षेत्रों की ह्वेलों के अलग-अलग गीत होते हैं। बर्मुदा की ह्वेलें पांच पंक्तियों वाले गीत गाती हैं, जबकि हवाई द्वीप समूह के पास रहनेवाली ह्वेलें आठ पंक्तियों के गीत गाती हैं। कुछ गीत पांच मिनट में खत्म हो जाते हैं, जबकि कुछ आधे घंटे चलते हैं। एक बार कैरिबियन के पास एक ह्वेल 22 घंटे तक लगातार गाती रही। उसके गीत को टेप करनेवाले शोधकर्ता तो थककर चले गए, पर वह उनके जाने के बाद भी गाती रही।
ह्वेलों की दुनिया की सबसे अच्छी गायिकाएं कुबड़ी ह्वेल (हंपबैक) होती है। उसके पास विभिन्न प्रकार के जटिल-सरल गीतों का भंडार है। जब आप पूरे जोर-शोर से गा रही कुबड़ी ह्वेल के पास जाएं तो विस्मित हुए बिना नहीं रह सकते। आप उसके गीत को सुनेंगे कम और महसूस करेंगे अधिक। उसकी आवाज इतनी बुलंद होती है कि आपके फेंफड़े थर्रा उठेंगे। ध्वनि तरंगें आपके हर अंग को अभीभूत कर लेंगी। कुबड़ी ह्वेल हमेशा अकेले ही गाती है, इसलिए जुगल बंदी की नौबत नहीं आती। गाते-गाते ह्वेल धीमे-धीमे तैरती भी जाती है।
ह्वेल उम्र भर एक ही गीत को बार-बार गाती नहीं जाती। जब ह्वेल तैरते-तैरते दूसरी ह्वेलों के क्षेत्र में जाती है, तो वहां की ह्वेलों को अपने गीत सिखा देती है और उनके गीत स्वयं सीख लेती है। इस तरह हिंद महासागर की ह्वेलें प्रशांत महासागर की ह्वेलों के गीत सीख जाती हैं और प्रशांत महासागर की ह्वेलें हिंद महासागर की ह्वेलों के गीत। और तो और, ह्वेलों के गीत सात-आठ साल में पूरे के पूरे बदल जाते हैं। इस तरह का परिवर्तन क्यों होता है, और कौन करता है? क्या ह्वेलों की दुनिया में भी संगीतकार होते हैं, जो गीतों को बदलते रहते हैं? क्या ह्वेलों के गीत इसलिए बदलते हैं क्योंकि उन्हें कोई नई बात कहने को होती है? या फिर यह वैसा ही है जैसे स्वयं हमारी भाषाएं समय के साथ-साथ बदल जाती हैं? ह्वेल ठीक-ठीक किस प्रकार गाती हैं, क्योंकि गाते समय उन्हें मुंह खोलते तो नहीं देखा गया है?
इन सब सवालों का हमारे पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं है। हम इतना ही जानते हैं कि जैसे कुत्ता भौंकता है और गाय रंभाती है, उसी तरह ह्वेल भी गाती है।
कुबड़ी ह्वेल के गीत सुनने के लिए इस कड़ी पर जाएं:-
http://www.youtube.com/watch?v=vPPjS4uMwtw
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: जीव-जंतु
Friday, May 15, 2009
हमारी भाषाओं का दबदबा
सुप्रसिद्ध चुनाव आयुक्त श्री टी एन शेषन ने एक किताब अंग्रेजी में लिखी है, जिसका नाम है, डीजेनेरेशन ओफ इंडिया। इसकी 3,000 से भी कम प्रतियां ही बिकीं।
लेकिन इसी पुस्तक के मलयालम अनुवाद की 20,000 प्रतियां बिकीं। (स्रोत:- लिमका बुक ओफ रिकोर्ड्स, 2001)
इससे पता चलता है कि हमारी भाषाओं के जरिए जनसमुदाय तक पहुंचना कितना आसान है।
इसी से जुड़ी एक और खबर।
JuxtConsult नाम की एक चोटी की शोध कंपनी ने अभी अभी "इंडिया ओनलाइन 2009" नाम की अपनी रिपोर्ट पेश की है। यह रिपोर्ट हर वर्ष प्रकाशित होती है। इस रोपोर्ट के अनुसार, भारत में इंटरनेट का उपयोग करनेवाले केवल 13 प्रतिशत लोग इंटरनेट पर अंग्रेजी में लिखी हुई विषयवस्तु पढ़ना पसंद करते हैं।
इस रिपोर्ट में कुछ अन्य रोचक जानकारी भी प्रकाशित हुई है:-
- भारत में कुल 4.7 करोड़ लोग इंटनेट का उपयोग करते हैं (3.9 करोड़ शहरी और 80 लाख ग्रामीण)।
- इंटरनेट का उपयोग करनेवाले लोगों में से एक अच्छा खासा प्रतिशत छोटे शहरों और गांवों में रहता है, जो इस तालिका से स्पष्ट है:-
महानगर - 29%
टायर 2 शहर - 24%
टायर 3 शहर और गांव - 47%
- साइबर कफे जाकर इंटरनेट का उपयोग करनेवाले लोगों की प्रतिशत 2009 में पिछले वर्ष की तुलना में 5% घटी, जिसका मतलब है कि अधिकाधिक लोग अब घरों में इंटरनेट कनेक्शन ले रहे हैं।
- यद्यपि अधिकांश लोग (68%) अपने दफ्तरों से इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं, 37% लोगों ने कहा कि उन्हें अपने घर से इंटरनेट का उपयोग करना ज्यादा पसंद है।
हमारी भाषाएं अब हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं। अखबार के क्षेत्र में हिंदी अखबारों ने अंग्रेजी अखबारों को कहीं पीछे छोड़ दिया है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका आदि के पाठकों की संख्या अंग्रेजी अखबारों के पाठकों से दुगुनी-तिगुनी है। दैनिक जागरण तो अब विश्व में सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले अखबारों में गिना जाता है। यह तब की स्थिति है जब बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश आदि में साक्षरता दर 40-50% से अधिक नहीं है। जब यहां भी देश के अन्य भागों के समान शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त कर ली जाएगी, हिंदी अखबार दौड़ में और भी आगे निकल जाएंगे। मलयालम, तमिल और बंगाली के कई अखबारों के पाठकों की संख्या भी अंग्रेजी अखबारों के पाठकों की संख्या से कहीं ज्यादा है। टीवी चैनलों में तो हिंदी चैनलों का वर्चस्व असंदिग्ध है ही। अब इंटरनेट पर भी हमारी भाषाएं अपना उचित स्थान प्राप्त कर रही हैं।
पुस्तक प्रकाशन, अखबार, टीवी, और अब इंटरनेट पर भी हमारी भाषाओं का डंका बज रहा है। यह अत्यंत ही शुभ समाचार है। क्या कहेंगे आप?
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 1 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
दुर्योधन का मंदिर
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में दुरगांव में कौरवों के ज्येष्ठ भ्राता दुर्योधन को समर्पित एक मंदिर है। हेमदपंथी शैली में निर्मित यह मंदिर दुर्योधन का एकमात्र मंदिर है। उसकी दीवारों में तेरहवीं और चौदहवीं सदी के लेख खुदे हुए हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 0 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
जंगल कथा - भालू का बदला
पहाड़ की तेज ढलानों पर पसरी उस ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर रामसागर यत्नपूर्वक आगे बढ़ रहा था। उसकी प्रगति धीमी थी क्योंकि सड़क पहाड़ के चेहरे पर लगभग सीधी ऊपर गई थी और रामसागर की कमर भारी बोझ तले झुकी हुई थी। उसके दाहिने कंधे पर खून से सना एक बड़ा बोरा था, जिसमें उसके द्वारा उस दिन मारे गए जंगली जानवरों की लाशें ठूंस-ठूंसकर भरी थीं। बाएं कंधे पर एक पुरानी, जंग लगी देहाती बंदूक थी, जिससे उसने उन सब की हत्या की थी। उसकी कमर पर कारतूसों की पट्टी बंधी थी।
रामसागर एक पेशेवर शिकारी था--चोर शिकारी कहना अधिक सही होगा क्योंकि उसके पास अपनी बंदूक के लिए न तो लाइसेंस था, न उस संरक्षित वन में शिकार करने की अनुमति ही। वह बस एक कत्ल-प्रिय व्यक्ति था जो किसी भी प्राणि पर गोली चला देता था, चाहे वह खूबसूरत चीतल हों या धार्मिक महत्व रखनेवाले हनुमान लंगूर या वन विभाग द्वारा कड़ाई से संरक्षित राष्ट्रीय पक्षी मोर।
आज रामसागर प्रसन्नचित्त था। उसका शिकार अभियान काफी सफल रहा था और उसका बोरा छोटे-बड़े जानवरों की लाशों से भरा था। इससे भोजन की चिंता से उसे मुक्ति मिल गई थी और मांस, चर्बी, खाल आदि की बिक्री से उसे अच्छी आमदनी होने की भी संभावना थी। इस प्रकार पैसे और भोजन दोनों से निश्चिंत होकर वह खुशी-खुशी एक गीत गुनगुनाता हुआ जा रहा था।
उसके चारों ओर घना, खूबसूरत वन विशाल हरे समुद्र के समान लहरा रहा था। दुपहर का सूरज आकाश पर छाया हुआ था, पर गरमी असह्य नहीं थी क्योंकि पहाड़ी इलाके की खुनक भी हवा में थी। पगडंडी के दोनों ओर सुगंधित, रंग-बिरंगे फूलों वाली झाड़ियां थीं। जगह-जगह पर ये पगडंडी पर ही फैल गई थीं, मानो जंगल पगडंडी को अपने क्षेत्र पर अधिक्रमण मानकर उसे मिटाना चाह रहा हो। हवा फूलों की महक से सराबोर थी। खूबसूरत तितलियां, पतंगें, टिड्डे, झिंगुर व अन्य कीट इधर-उधर मंडरा रहे थे। रह-रहकर आती जंगली प्राणियों की पुकारों और पक्षियों की अनवरत चहचहाहट से सारा वातावरण खुशनुमा हो रहा था।
इस शांतिमय वातावरण का आनंद लेते हुए रामसागर अपनी धीमी चाल से बढ़ा जा रहा था। वह अपनी शिकारी नजरों से चारों ओर की हर छोटी-बड़ी चीज को ध्यानपूर्वक देखता जा रहा था क्योंकि उनमें से किसी के भी पीछे कोई पक्षी या प्राणी दुबका हो सकता था, जिसे वह अपनी बंदूक का निशाना बना सकता था।
अचानक रामसागर ठिठका और एक झाड़ी की आड़ में हो गया। जिस चीज ने उसके ध्यान को आकर्षित किया था वह पगडंडी के किनारे ही थी। पहली नजर में वह उसे किसी काली, खुरदुरी वस्तु के ढेर के समान लगी। ऐसी विचित्र चीज उसने पहले नहीं देखी थी। वह न तो कोई शिला थी न दीमकों की बांबी न ही कोई झाड़ी। काफी देर उसे विस्मय से देखते रहने के बाद रामसागर धीरे-धीरे खामोशी से उसकी ओर बढ़ा। बहुत पास जाने पर ही वह उसे पहचान सका। वह एक मादा भालू थी जो एक पेड़ की छाया में अपने झबरे पैरों से अपनी गीली और काली नाक को ढके आराम से सो रही थी। उसके साथ उसका नन्हा शावक भी था। वह भी अपनी मां के शरीर से चिपटकर सो रहा था। उन्हें सड़क के इतना निकट पाकर रामसागर को थोड़ा आश्चर्य हुआ। जब उसने देखा कि वे दोनों गहरी नींद में हैं, उसके जान में जान आई। खामोशी से उसने कंधे से बंदूक उतारी और उसमें एक कारतूस ठूंसकर निशाना साधा।
उसके बंदूक की घोड़ी दबाते ही जोर का धमाका हुआ और बंदूक के चारों ओर कारतूस के जलने से निकले घने काले धुंए का बादल छा गया। जब धुंआ छंटा तो रामसागर को बड़ी निराशा हुई। उसने रीछनी की छाती का निशाना बांधा था, परंतु बंदूक की नली की कुछ खराबी के कारण गोली उसके नियत पथ से दो चार इंच खिसककर शावक के सिर को बेध गई थी और वह बिना आवाज किए वहीं ढेर हो गया था। इसके साथ ही उस बच्चे को किसी मदारी को बेचकर मोटी रकम कमाने के रामसागर के सारे मनसूबे मिट्टी में मिल गए।
बंदूक की आवाज से रीछनी जाग गई। पर नींद के कारण वह ठीक प्रकार से समझ नहीं पाई कि आवाज कहां से आई और वह किसकी आवाज थी। तब तक रामसागर भी एक झाड़ी के पीछे छिप गया था। रीछनी को अनिश्चित सा वहीं खड़ी देखकर उसने चुपके से बंदूक में एक कारतूस और भरा और दोबारा फायर कर दिया। इस बार कारतूस ठीक तरह से नहीं फटा। बंदूक के हथोड़े के कारतूस के ढक्कन से टकराने और कारतूस के बिना फटे ही फुंस होकर जल उठने की आवाज रीछनी ने सुन ली और उस ओर घूमकर गुस्से से गुर्राने लगी।
यह देख कर रामसागर के होश उड़ गए। वह कोई बहुत बहादुर आदमी नहीं था। आमतौर पर वह जंगली मुर्गी, लंगूर, चीतल, खरगोश आदि निरापद जानवरों का ही शिकार करता था। ये सब किसी भी प्रकार से उसका नुकसान नहीं कर सकते थे। परंतु इस क्रुद्ध भालू की बात ही कुछ और थी। वह उसे एक ही तमाचे में तरबूज के समान फोड़कर रख सकती थी। रामसागर अब सोचने लगा कि उसने इतने खतरनाक जानवर पर गोली चलाकर नाहक खतरा मोल लिया।
वह इतना भयभीत हो उठा कि उसके दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया। कभी उसे लगा कि पहाड़ी पगडंडी पर तुरंत भाग चलना चाहिए। पर तभी वह सोचने लगा कि उसे भागते देखकर रीछनी तुरंत उसका पीछा करने लगेगी। उस पहाड़ी रास्ते पर तेज दौड़ना कठिन होगा और रीछनी उसे पकड़ लेगी। अंत में उसने यही तय किया कि उसका वहीं बिलकुल शांत बने रहना सबसे सुरक्षित उपाय है। यदि वह बिना हिले-ढुले, बिना आवाज किए खड़ा रहा तो शायद रीछनी उसे देख नहीं पाएगी। वह जानता था कि भालुओं की दृष्टि कमजोर होती है।
इस निर्णय पर पहुंचकर वह बुत सा निश्चल खड़ा हो गया, यहां तक कि उसने सांस लेना भी रोक दिया। उसकी किसमत अच्छी थी। हवा का बहाव रीछनी से उसकी ओर था और रीछनी उसे सूंघ नहीं पाई। थोड़ी देर गुस्से से उसकी झाड़ी को घूर-घूरकर देखकर वह पलटकर जंगल की ओर जाने लगी।
यह देखकर रामसागर का खोया हुआ साहस फिर लौट आया। उसने जल्दी से अपनी बंदूक में एक दूसरा कारतूस भरा और जब रीछनी कुछ दूर निकल गई तो उसने उस पर गोली चला दी। गोली रीछनी को लगी तो, पर वह प्राणांतक नहीं साबित हुई। बंदूक की आवाज और गोली के लगने की पीड़ा ने रीछनी की रफ्तार बढ़ा दी और वह झाड़ियों और छोटे पेड़ों से टकराती हुई तेज चाल से जंगल में विलीन हो गई। दस-पांच मिनट रुककर रामसागर भी भालू-शावक की लाश को अपने बोरे में डालकर अपने रास्ते चल दिया।
जब रीछनी जंगल की ओर भागी थी तो उसने अपनी सहजवृत्ति का ही अनुसरण किया था। उसके पास दो ही विकल्प थे--हमला करना या पीठ दिखाना। पहला विकल्प संभव नहीं था, क्योंकि वह रामसागर को देख ही नहीं पाई थी, हमला किस पर करती? इसलिए उसने भागना ही मुनासिब समझा। जब उसे गोली लगी तो उसके सारे शरीर में आग सी सुलग गई। उसकी मांसपेशियों में धंसी गोली के कारण चलते समय उसे असह्य पीड़ा होने लगी। उसे यह समझ में नहीं आया कि इस पीड़ा को कैसे दूर करें। आखिर उसके पैर उसे स्वयमेव जंगल के एक तालाब की ओर ले गए। वहां पहुंचकर रीछनी तालाब के शीतल जल में खड़ी हो गई। पानी के ठंडे स्पर्श से उसके घाव के जलन को राहत मिली। वह पानी में खड़ी-खड़ी घाव को चाटती और अपने दांतों से उसके शरीर में धंसे लोहे के टुकड़े को निकालने की कोशिश करने लगी।
इस सारे दौरान उसने अपने शावक के बारे में कुछ भी नहीं सोचा था। वह स्वयं विपत्ति में यों फंस गई थी कि उसका दिमाग किसी और की चिंता करने की स्थिति में नहीं था। पानी में कुछ देर खड़े रहने से उसकी पीड़ा थोड़ी कम हुई और उसे अचानक अपने बच्चे की याद आ गई। जब वह बंदूक की गोली खाकर हड़बड़ाकर जंगल में भाग निकली थी, तब उसने यही सोचा था कि उसका शावक भी उसके पीछे चल पड़ा होगा। एकदम से उसे उसकी अनुपस्थिति का ऐहसास हुआ। उसका नटखट, गेंद-सा गोलमटोल, गुदगुदा, ऊधम मचाता, उसके पैरों के बीच में से इधर-उधर भागता, उसे लंगड़ी फंसाता, अपने पोपले, दंतहीन मुंह से उसे काटने की चेष्टा करता और बनावटी गुस्से में गुर्राता शावक उसके पास नहीं था। पहले तो वह उसकी अनुशासनहीनता पर क्रुद्ध हुई और एक आदेशात्मक गुर्राहट में उसे पुकारा। यदि वह पास कहीं होता, तो इसे सुनकर तुरंत उसके पास भाग आता। पर उसे उसके शावक से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
उसने सोचा कि शायद वह बंदूक की आवाज से डर कर आनन-फानन जंगल में भाग गया होगा और अब रास्ता भूलकर इधर-उधर भटक रहा होगा। रीछिनी चिंतित हो उठी। उसे पता था कि जंगल अनेक खतरों से भरा है और यदि उसका शावक सचमुच भटक गया है तो उसकी जिंदगी खतरे में थी। रीछनी जल्दी से पानी से बाहर निकल आई और अपने शावक को खोजने चल पड़ी। अपने घाव के कारण उसे हर कदम पर पीड़ा हुई, पर शावक की चिंता में वह इस पीड़ा को भूल सी गई। वह तेज कदमों से उस स्थान की ओर भागी जहां कुछ देर पहले वे दोनों पेड़ की छाया में लेटे थे। इस स्थल के निकट पहुंचने पर उसके नथुनों में खून की गंध आने लगी। घबराहट में वह लगभग दौड़ने लगी। जल्द ही उसे ज्ञात हुआ कि यह उसके ही शावक के खून की गंध है। उस जगह पहुंचकर वह जमीन पर पड़े खून के धब्बों को तेज-तेज सूंघने लगी। उसे तुरंत पता चल गया कि उसके शावक को क्या हो गया है। क्रोध और संताप से उसकी आंखें सुर्ख हो गईं। दहाड़ मारकर वह उस दिशा में चल पड़ी जिस दिशा में रामसागर बढ़ा था।
उधर रामसागर पगडंडी पर चला जा रहा था। अचानक उसे एक बैलगाड़ी की आवाज सुनाई दी। यह सोचकर कि उसमें बैठकर गांव तक आराम से पहुंचा जा सकता है, वह गाड़ीवान को पुकारते हुए बेलगाड़ी की ओर दौड़ने लगा। उसके भाग्य अच्छे थे कि वह रीछनी के उस तक पहुंचने से पहले ही गाड़ी में चढ़कर बैठ गया।
यदि बैलगाड़ी वहां नहीं आती तो रीछनी रामसागर को वहीं फाड़कर रख देती। लेकिन बैलगाड़ी की उपस्थिति ने उसे निरुत्साहित कर दिया। वह झाड़ियों में छिपकर अपने बच्चे के हथियारे को बच निकलते हुए देखती रही। बैलगाड़ी पर पटके गए बोरे में उसे अपने नन्हे शिशु की मौत में खुली आंखें धुंधली सी दिखाई दे रही थीं। बैलगाड़ी के आंखों से ओझल होने तक वह उदास मन से अपने शावक को देखती रही।
इस घटना के बाद कई महीने गुजर गए। एक शाम रामसागर दोबारा इसी पगडंडी से जा रहा था। इस बार उसकी वेशभूषा एकदम बदली हुई थी। न तो उसके कंधों पर कोई खून से सना बोरा या बंदूक लटक रहा था, न ही वह शिकारियों की लिबास में था। वह एक साफ-सुथरी धोती और कुर्ता पहना हुआ था। उसके सिर पर लाल रंग का साफा बंधा था। उसके पीछे उसकी स्त्री और आठ साल का लड़का भी चल रहे थे। शाम ढलने लगी थी। रामसागर रात होने से पहले घर पहुंचना चाहता था। वह जानता था कि जंगल में अंधेरा बड़ी जल्दी घिर आता है। अभी उसे कुछ मील का रास्ता तय करना बाकी था। रात होते ही जंगल के खूंखार जानवर अपनी मांदों से शिकार की टोह में निकल आएंगे। वह उनसे कोई मुठभेड़ नहीं चाहता था। उसने अपनी पत्नी और लड़के को तेज चलने की हिदायत दी और वे तीनों लगभग भागते हुए उस पगडंडी पर बढ़ने लगे।
जैसे ही वे उस मोड़ पर पहुंचे जहां कुछ माह पहले रामसागर ने भालू के बच्चे का कत्ल किया था, एक काली परछाई उनके साथ हो गई। वह एक भालू था। भालू चुपचाप उन तीनों के पीछे चलने लगा और हर कदम पर उनके निकट आता गया। तब तक जंगल में अंधेरा लगभग पूरा-पूरा छा गया था, चेहरे के आगे बढ़ाए गए हाथ को देखना भी मुश्किल था।
अचानक भालू ने हमला कर दिया। अंधेरे के कारण रामसागर उसे तभी देख पाया जब वह उसकी चपेट में आ गया था। भालू अपने पिछले पैरों पर खड़ा हो गया और रामसागर को अपने दोनों हाथों में भींचकर उसके सिर को अपने विशाल जबड़ों में दबाकर कुचल दिया। रामसागर को इस प्रकार मार कर रीछ क्रोध से चीखता हुआ रामसागर के बेटे पर झपटा। वह बेचारा रामसागर की चीखों और भालू के दहाड़ों से घबराकर अपनी मां से लिपट गया था। रीछ ने उसे अपने जबड़ों में पकड़ कर खींचा और उसे चबा डाला। रामसागर की पत्नी इतनी भयभीत हो गई थी कि वह मूर्तिवत खड़ी होकर विस्फारित नजरों से इन सब वीभत्स दृश्यों को देखती रही। रीछ बारी-बारी से रामसागर और उसके अभागे पुत्र की लाशों की ओर बढ़-बढ़कर उन्हें चबाने और उन्हें पंजों से नोचने लगा। कुछ ही समय में सारी पगडंडी उन दोनों के मांस और खून से पुत गई। इसके बाद भालू पुनः अंधेरे में गायब हो गया। भालू के जाते ही रामसागर की विधवा को होश आया। न जाने भालू ने क्यों उसका बाल भी बांका नहीं किया था। वह पागलों की तरह चीखती-रोती हुई गांव की तरफ भागी।
एक बड़ी भीड़ मशालों और हथियारों से लैस होकर भालू की खोज में निकल पड़ी। भालू के उग्र तेवर को जानकर वे सब सहमे हुए थे। मामूली सी खोजबीन करके वे गांव लौट आए। अपने साथ रामसागर और उसके पुत्र के अवशेषों को भी दाह संस्कार के निमित्त सफेद चादरों में लपेट कर ले आए। इसके बाद कई शिकारी दलों ने कई दिनों तक भालू की खोज की, पर किसी को भी उसका कोई अता पता नहीं मिल सका।
अब तो गांववालों में उस भालू को लेकर अनेक मनगढ़ंत कहानियां चल पड़ी हैं। कोई कहता है कि यह वही रीछनी थी जिसे रामसागर ने उस दिन इतनी बेदर्दी से घायल कर दिया था। बदले की भावना उसके दिल में तभी से सुलग रही थी और रामसागर को जंगल में निहत्था पाकर उसने महीनों से अपने जेहन में दबाए हुए आक्रोश को निकाल लिया था। दूसरे कुछ लोग कहते हैं कि वह रीछनी तो उसी दिन अपने घाव और अपने शावक की मौत के दुख से मर गई थी। जिस भालू ने रामसागर पर हमला किया था, वह उसी रीछनी का प्रेत था। इस मत के समर्थक ठीक ही पूछते हैं कि यदि ऐसा नहीं है तो उसने रामसागर पर हमला करने वही स्थान क्यों चुना जहां वह कुछ महीने पहले रामसागर के हाथों घायल हुई थी और उसने रामसागर की स्त्री को क्यों बख्शा?
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 0 टिप्पणियाँ
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