Sunday, July 19, 2009

बोनसाई -- दोने में दरख्त

बोनसाई बौने वृक्ष उगाने की प्राचीन कला का नाम है। उसका उद्भव सैंकड़ों वर्ष पहले भारत में हुआ था। उसके उद्भव की कहानी काफी रोचक है। आयुर्वेद में अनेक प्रकार की औषधियों का उपयोग होता है। वैद्य लोग अधिक उपोयगी औषधियों को अपने बगीचे में उगाते थे। इन औषधियों से बार-बार पत्ते, टहनी, फूल आदि तोड़े जाने से उनकी वृद्धि कुंठित हो जाती थी और वे बौनी ही रह जाती थीं। बाद में इन बौने पेड़-पौधों के मनोहर स्वरूप को देखते हुए उन्हें केवल सजावटी उद्देश्यों के लिए भी उगाया जाने लगा। जब बौद्ध भिक्षू-भिक्षुणियां बौद्ध धर्म का प्रचार करने चीन गए, तो वे इस कला को भी अपने साथ चीन ले गए। वहां से यह कला जापान पहुंची। जापान में ही इस कला ने सर्वाधिक उन्नति की।

जापान में पारंपरिक रूप से बौने वृक्ष प्रकृति से ही प्राप्त किए जाते थे। बर्फीली चट्टानों पर या बड़े वृक्षों की घनी छाया तले उग रहे वृक्षों का विकास कई बार कुंठित हो जाता है और वे बौने रह जाते हैं। ऐसे बौने पेड़ों को सावधानीपूर्वक उखाड़कर गमलों में पुनः रोपा जाता था। आज बहुत कम बोनसाई इस तरह तैयार किए जाते हैं। बोनसाई अब बीजों से अथवा बड़े पेड़ों की कलमों से उगाए जाते हैं और उसे काट-छांटकर मूल पेड़ का सा रूप दिया जाता है।

बोनसाई जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है "दोने में दरख्त"। बोनसाई उगाने के लिए जो गमला उपयोग किया जाता है, वह थाली जैसा उथला होता है। उसके पैर होते हैं, ताकि उसका पेंदा जमीन से उठा रहे। इससे पानी गमले से रिस जाता है और जड़ों तक हवा आसानी से पहुंचती रहती है। गमले में बहुत थोड़ी ही मिट्टी रहती है।

जापानी परंपरा में बोनसाई पैतृक संपत्ति माना जाता है। परिवार की सबसे बड़ी संतान बोनसाई की देखभाल करती है। बोनसाई को घर के बाहर ही रखा जाता है। केवल खास-खास अवसरों पर, जैसे किसी के जन्मदिन पर, उसे भीतर लाया जाता है, ताकि सब उसे देखकर आनंदित हो सकें। बोनसाई परिवार की एक मूल्यवान संपत्ति मानी जाती है और उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है।

बोनसाई तीन आकार में आता है। सबसे छोटे आकार के बोनसाई को एक हाथ से उठाया जा सकता है। मझले आकार के बोनसाई को दो हाथों से उठाया जा सकता है। बड़े आकार के बोनसाई को दो व्यक्ति मिलकर ही उठा सकते हैं।

सफल बोनसाई की कसौटी यह है कि उसे हर बात में एक बड़े पेड़ जैसा दिखना चाहिए, केवल आकार में वह छोटा होता है। बड़े पेड़ के ही समान तना, शाखाएं, पत्ते, फल-फूल आदि उसमें होने चाहिए।

वास्तव में बोनसाई बनाकर एक जीती-जागती कलाकृति को रूप दिया जाता है। आज विश्व भर में यह अद्भुत कला लोकप्रिय होती जा रही है।

12 Comments:

Gyan Darpan said...

बढ़िया जानकारी

P.N. Subramanian said...

हमने भी एक पीपल के पौधे को छोटे से गमले में लगा रखा है. अभी वक्त लगेगा. अछि जानकारी. आभार.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत बढिया जानकारी दी. अगर इस को बनाने और सहेजने के बारे मे भी आगे कभी लिखें तो उपयुक्त होगा.

रामराम.

दिनेशराय द्विवेदी said...

अच्छा आलेख! मैं ने भी कोशिश की थी पर नहीं बना पाया।

स्वप्न मञ्जूषा said...

बहुत ही अच्छी जानकारी,
मैंने बनाया था, बन भी गया, काफी दिनों तक रहा, फिर पता नहीं कैसे बचा नहीं पायी, लेकिन देख भाल बहुत जरूरी है, तकनियों की कटाई, पानी की मात्र का हिसाब रखन इत्यादि...
देख-देख कर हम बहुत खुश होते थे..

Gyan Dutt Pandey said...

एक समय मेरा भी मन था आजमाने का। पर लगा कि बोंसाई तो वैसी ही क्रुयेलिटी है जैसी चीनी लड़कियों के पैर नहीं बढ़ने दिया करते थे - सौन्दर्य के प्रतिमान के आधार पर!

समयचक्र said...

बहुत ही अच्छी जानकारी...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

यह कला भारत में जन्मी, जान कर आश्चर्य हुआ। मैं तो इसे जापानी मूल का समझता था।

बोनसाई देखने में कुतूहल जगाते और सुन्दर तो होते हैं लेकिन एक बरगद या पीपल को दोनें में सीमित कर देना अत्याचार ही है। पेंड़ पौधों के मामले में मैं कुछ अधिक ही भावुक हूँ। सम्भवत: इसी से ऐसा लग रहा है।

shubhakar dubey said...

ab tak dooniya janati thi ki bonsai taknik japan ki hai kintu aaj yah jan kar accha lga ki is taknik mein bhi bharat hi vishva guru hai.

shubhakar dubey said...

मैंने कॉफ़ी के मग में पीपल नीम बरगद के पौधे लगा रखे है। तीन साल हो गए है। अब पत्तोया छोटी होने लगी हैं
क्या इन पौधों को अब कुछ बड़े आकार के पॉट में शिफ्ट कर दें

shubhakar dubey said...

मैंने कॉफ़ी के मग में पीपल नीम बरगद के पौधे लगा रखे है। तीन साल हो गए है। अब पत्तोया छोटी होने लगी हैं
क्या इन पौधों को अब कुछ बड़े आकार के पॉट में शिफ्ट कर दें

farhaan khan said...

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