बानेश्वर का मेला दक्षिण राजस्थान के बड़े मेलों में से एक है। यह वागड़ प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात के जनजातीय लोगों का मेला है। राजस्थान के दक्षिण भाग को वागड़ प्रदेश कहते हैं। यह एक सुंदर और रमणीय प्रदेश है जो राजस्थान के सांस्कृतिक विविधता और जनजातीय समुदायों के जीवन की झांखी प्रस्तुत करता है।
बानेश्वर का नाम तीन पवित्र नदियों के संगम स्थान पर आए छोटे प्रदेश पर पड़ा है। ये नदियां हैं मही, सोम और जाखम। बानेश्वर महादेव का मंदिर यहां एक भव्य ऊंचाई पर स्थित है।
बानेश्वर का मेला जनवरी-फरवरी में होता है। मेला एक सप्ताह तक चलता है और माघ पूर्णिमा के दिन पराकाष्ठा पर पहुंचता है। जनजातीय लोग यहां संगम में पवित्र स्नान करते हैं और अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। मेले में जनजातियों के विभिन्न नाच, गान तथा नजाकत से दर्शकों का मन प्रफुल्लित हो जाता है। यहां जादूगर अपना कर्तब दिखाते हैं, नर्तकियां अपनी कला से दर्शकों का मनोरंजन करती हैं, और नवयुवक और युवतियां वातावरण को आनंदमयी बनाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि राजा बाली ने अश्वमेध यज्ञ जहां किया था, उसी स्थान पर बानेश्वर का मेला भरता है। यज्ञ पूर्ण होने पर विष्णु भगवान वामन के रूप में यहां उपस्थित हुए और उन्होंने बाली से तीन डग जमीन मांगी। तीसरा डग उन्होंने बाली के सिर पर ही रख दिया और इस तरह बाली को पाताल लोक में दबा दिया। यह जगह अब्रुदा के नाम से भी मशहूर है। बानेश्वर का संबंध संत मावजी से भी है जो विष्णु के कलियुग के अवतार कल्की माने जाते हैं। मावजी ने पांच किताबें लिखी हैं। बानेश्वर मेले के दौरान इन किताबों को पढ़ा जाता है।
बानेश्वर में बाली राजा की यज्ञभूमि, वाल्मीकी का पुराना मंदिर और राधाकृष्ण का मंदिर दर्शनीय हैं।
अगला बानेश्वर मेला 26 -30 जनवरी 2010 को लगेगा इसलिए आपके पास काफी वक्त उसमें शरीक होने की योजना बनाने के लिए।
बानेश्वर कैसे पहुंचें
निकटम हवाई अड्डा उदयपुर है।
निकटतम रेलवे स्टेशन बानेश्वर है।
उदयपुर और डुंगरपुर से बानेश्वर के लिए बसें चलती हैं।
Friday, July 31, 2009
बानेश्वर का मेला
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: बानेश्वर का मेला
Thursday, July 30, 2009
इसे चोरी मानें या कुछ और?
अभी कुछ देर पहले गिरिजेश जी का एक ईमेल मिला जिसमें उन्होंने एक कड़ी दी और कहा कि उस पर क्लिक करके बताएं कि माजरा क्या है। कड़ी यह है। बताना आपको ही होगा कि माजरा क्या है, क्योंकि मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।
गिरिजेश द्वारा भेजी गई कड़ी
यदि आपको पहली बार सब कुछ जंक सा दिखे, तो अपने ब्राउसर के व्यू मेनू में जाकर कैरेक्टर एन्कोडिंग को यूटीएफ-8 पर सेट करें।
क्या आप चौंके? गिरिजेश जी का पूरा का पूरा "एक आलसी का चिट्टा" सभी विजटों और टिप्पणियों सहित आस्ट्रेलियन कैथोलिक यूनिवर्सिटी के इस जाल स्थल पर मौजूद है, हालांकि गिरिजेश ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में अपने ब्लोग पर डू नोट कोपी वाला प्रतीक लगा रखा है।
गिरिजेश जी ने यह भी बताया कि यह केवल उनके ब्लोग के साथ नहीं हुआ है बल्कि कई अन्य हिंदी ब्लोग भी वहां मौजूद है, मसलन -
विवेक सिंह का स्वप्नलोक यहां देखा जा सकता है -
स्वप्नलोक
ज्ञानदत्त जी का मानसिक हलचल यहां उपलब्ध है -
मानसिक हलचल
ज्ञानदत्त जी ने भी बड़े स्पष्ट शब्दों में अपने ब्लोग में डू नोट कोपी वाला संदेश लगा रखा है।
शास्त्री फिलिप जी का सारथी यहां देखा जा सकता है -
सारथी
पाबला साहब का प्रिंट मीडिया पर ब्लोग चर्चा भी वहां उपलब्ध है।
प्रिंट मीडिया पर ब्लोग चर्चा
जब मैंने अपने ब्लोगों के संबंध में खोज की तो मेरा कंप्यूटर प्रोग्रामिंगवाला ब्लोग प्रिंटेफ-स्कैनेफ भी वहां मिल गया -
प्रिंटेफ-स्कैनेफ
मुझे लगता है सभी प्रमुख हिंदी ब्लोग वहां मौजूद हैं। यदि आपको पता करना हो कि आपका ब्लाग इस वेब साइट में है या नहीं, तो अपना प्रोफाइल नाम और ACU अथवा अपने ब्लोग का नाम और ACU के साथ गूगल सर्चे करें, इस तरह
जयहिंदी ACU
या
बालसुब्रमण्यम ACU
सवाल यह उठता है कि क्या यह गैरकानूनी नहीं है?
क्या यह ACU किसी ब्लोग एग्रिगेटर जैसा काम करता है, जैसे चिट्ठा जगत या ब्लोगवाणी? यह कोई यूनिवर्सिटी का वेब साइट मालूम दे रहा है, इसलिए क्या वह इन हिंदी ब्लोगों का उपयोग किसी शैक्षणिक उद्देश्य के लिए कर रहा है?
जिन ब्लोगों का उपयोग इस वेब साइट में हुआ है, क्या उनके ब्लोगरों को इस पर आपत्ति उठानी चाहिए? उनके ब्लोग के इस स्थल में उपयोग किए जाने से क्या उन पर कोई कानूनी दायित्व आता है, जैसे यदि कोई ACU के वेब साइट में जाकर उनके ब्लोग पर कोई उल्टा-सीधा या अश्लील कमेंट लगा दे, तो इससे मूल ब्लोगर पर कोई दायित्व आएगा?
इस तरह के अनेक सवाल मन में उठते हैं। यदि कोई जानकार व्यक्ति पर्याप्त छानबीन करके इन सवालों का उत्तर दे सके, तो हम सबका मार्गदर्शन होगा।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 10 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
Wednesday, July 29, 2009
कहानी पोस्टकार्ड की
संचार माध्यमों और प्रौद्योगिकियों में विस्फोटक वृद्धि के इस युग में भी अपने जाने-चाहे लोगों तक संदेश पहुंचाने का सबसे सस्ता तरीका पोस्टकार्ड ही है।
पोस्टकार्ड का आविष्कार आस्ट्रिया में 1869 को हुआ था। वह इतना लोकप्रिय साबित हुआ कि एक महीने में ही 15 लाख पोस्टकार्ड बिक गए। अन्य देशों ने भी उसे अपनाने में देरी नहीं की। ब्रिटेन ने 1872 में पोस्टकार्ड जारी किया। सात ही वर्षों में, यानी 1879 को, भारत में पोस्टकार्ड जारी कर दिया गया। यहां पहले पोस्टकार्ड की कीमत तीन पैसे थी। प्रथम नौ महीने में ही भारत में 7.5 लाख रुपए के पोस्टकार्ड बिक गए।
चित्रित पोस्टकार्ड (पिक्चर पोस्टकार्ड) 1889 में प्रचलन में आए। यही वह साल था जब पेरिस में ईफिल टावर का उद्घाटन हुआ था। इस अवसर पर फ्रांसीसी सरकार ने खास तरह के पोस्टकार्ड जारी किए जिनके एक ओर ईफिल टावर का चित्र अंकित था। ईफिल टावर देखने आए सैलानी इन पोस्टकार्डों को ईफिल टावर के उच्चतम मंजिल में बनाए गए एक डाकघर में अपने मित्रों और परिचितों को पोस्ट कर सकते थे। इसके बाद दुनिया भर के अनेक देशों ने भी चित्रित पोस्टकार्ड जारी किए।
पहले पोस्टकार्ड के केवल एक ओर संदेश लिखने की अनुमति थी। दूसरी ओर केवल पता लिखा जा सकता था। सन 1902 में ब्रिटेन ने सर्वप्रथम इस असुविधाजनक नियम को खत्म किया।
महात्मा गांधी पोस्टकार्ड के अच्छे खासे प्रशंसक एवं उपयोगकर्ता थे। उन्होंने अपने सैंकड़ों पत्र पोस्टकार्डों पर लिखे। पोस्टकार्ड के इस विश्व-विख्यात उपयोगकर्ता को सम्मानित करने के लिए डाक विभाग ने 1951 और 1969 में विशेष गांधी पोस्टकार्ड जारी किए।
यद्यपि पोस्टकार्ड संदेश भेजने का सबसे सस्ता माध्यम है, लेकिन सरकार के लिए वह एक महंगा सौदा है। प्रत्येक पोस्टकार्ड पर, जो आज 25 पैसे को बिकता है, सरकार को 55 पैसे की लागत आती है। इस घाटे की पूर्ति के लिए सरकार ने पोस्टकार्ड के अनेक रोचक उपयोग खोज निकाले हैं। 21 जुलाई 1975 में जारी किए गए पोस्टकार्डों में सरकार ने एक संदेश अपनी ओर से हिंदी में छापा। वह इस प्रकार था, "अपनी फसल को चूहों और कीड़ों से बचाएं"। इसके बाद अनके प्रकार के सरकारी संदेश अनेक भाषाओं में पोस्टकार्डों पर छापे गए।
डाक टिकटों के समान लोग पोस्टकार्डों का भी संग्रह करते हैं। इस हॉबी को अंग्रेजी में डेल्टियोलजी कहा जाता है। इसमें काफी पैसा भी कमाया जाता है। सन 1984 में अमरीका के इलिनोस शहर की सूसन ब्राउन निकोलस नामक महिला ने एक दुर्लभ पोस्टकार्ड बेचा। दुनिया में इस प्रकार के केवल पांच पोस्टकार्ड अस्तित्व में थे। सूसन को उस पोस्टकार्ड के बदले 1.75 लाख रुपए मिले।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: कहानी पोस्ट कार्ड की
Tuesday, July 28, 2009
अकबर की मृत्यु
अभी कुछ दिन पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचनावली पढ़ रहा था। हिंदी का प्रारंभिक इतिहास आंखों के सामने किसी चलचित्र के समान गुजरता गया। इस रचनावली में महावीर प्रसाद की कई महत्वपूर्ण रचनाएं सम्मिलित हैं, जैसे उनका अर्थशास्त्रीय ग्रंथ "संपत्तिशास्त्र" जो संभवतः हिंदी का प्रथम अर्थशास्त्रीय ग्रंथ है। इस पुस्तक में द्विवेदी जी ने दिखाया है कि किस तरह अंग्रेजी राज भारत को खोखला कर रहा था।
रचनावली में द्विवेदी द्वारा संपादित प्रसिद्ध और ऐतिहासिक पत्रिका "सरस्वती" के लिए उनके द्वारा लिखे गए संपादकीय लेख और अन्य टिप्पणियां भी संकलित की गई हैं। इन टिप्पणियों में ज्ञान-विज्ञान और मनोरंजन की बहुत सारी बातें विद्यमान हैं। बानगी के तौर पर यहां एक छोटी टिप्पणी दे रहा हूं, जिसका संबंध अकबर की मृत्यु से है।
अकबर की मृत्यु के संबंध में एक जनशृति प्रचलित है। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वह अपने उपद्रवकारी उमरावों को विष की गोलियां दे देकर मारने लगा था। एक ही तरह की गोलियां उसके पास खाने की चीज के बहाने आती थीं। पर कुछ में विष रहता था, कुछ में नहीं। इस भेद को अकबर जानता था, और लोग नहीं। जिसे मारना होता था, उसे वह विष वाली गोली अपने हाथ से देता था और वैसी ही निर्विष गोली वह खुद उसके सामने खाता था। एक बार उसने सिंध में थत्ता नामक रियासत के गवर्नर गाजीखां को इस तरकीब से मारना चाहा। पर गलती से गोलियां बदल गईं और विषाक्त गोली खाकर अकबर ने अपने ही हाथ से अपनी हत्या कर ली। कई अंगरेज ग्रंथकारों ने यह बात लिखी है। टाड साहब ने बूंदी के इतिहास में मानसिंह के संबंध में ऐसी ही घटना का उल्लेख किया है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 15 टिप्पणियाँ
लेबल: अकबर, महावीर प्रसाद द्विवेदी
Monday, July 27, 2009
विजय का समुद्र
अरावली पर्वतमाला की गिनती विश्व के प्राचीनतम पर्वतों में होती है। दिल्ली से आरंभ होकर यह पर्वतमाला राजस्थान में से गुजरती हुई ठेठ गुजरात तक चली गई है। उसका पूर्वी छोर विंध्याचल को स्पर्श करता है और पश्चिमी छोर थार के रेतीले टीलों में विलीन होता है। उसका पश्चिमी भाग शुष्क है, जबकि पूर्वी भाग हरा-भरा। अरावली का उच्चतम भाग गुरु शिखर (1722 मीटर) है, जो माउंट आबू में है। यद्यपि बढ़ती आबादी के कारण अरावली का काफी हिस्सा उजड़ गया है, फिर भी उसमें इक्के-दुक्के ऐसे स्थल आज भी बचे हैं जहां का पुरातन प्राकृतिक वैभव बरकरार है। उनमें से एक है जयसमंद झील।
अरावली की गोद में स्थित जयसमंद झील एशिया के सबसे बड़े मानव-निर्मित जलाशयों में से एक है। उसका निर्माण मेवाड़ के महाराणा जयसिंह ने 1691 ई में कराया था। पहले वहां एक छोटा पोखर था, जिसे ढेबर झील कहा जाता था। कहते हैं कि महाराणा जयसिंह का बचपन का नाम ढेबर था और इस झील का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया था। अरावली की एक घाट को दीवार द्वारा चिनवाकर इस छोटे पोखर को विशाल झील में बदला गया। जयसमंद झील की अधिकतम चौड़ाई 14 किलोमीटर है। उसका घेराव 88 किलोमीटर और कुल क्षेत्रफल 21 वर्ग किलोमीटर है।
महाराणा जयसिंह ने इस सुरम्य झील का नाम जयसमंद (जयसमुद्र) रखा और उसके किनारे अनेक भव्य महल बनवाए। इनमें शामिल हैं उनकी सबसे छोटी रानी कोमलादेवी का "रूठी रानी का महल" और हवा महल।
हवा महल के संबंध में एक रोचक कहानी प्रचलित है। एक बार जयसमंद झील के किनारे महाराणा जय सिंह ने सेना सहित पड़ाव डाला था। तब उन्होंने पास की एक बारह हाथ चौड़ी खाई की ओर इशारा करते हुए अपने एक घुड़सवार से पूछा, "क्या तुम इस खाई को घोड़े पर छलांग लगाकर पार कर सकते हो?" घुड़सवार ने महाराणा की चुनौति स्वीकार की और एक बार नहीं तीन बार अपने घोड़े पर खाई को छलांग लगाकर पार किया। तीसरी बार, जब वह हवा में ही था, उसने घोड़े का मुंह फेर दिया जिससे वह उसी स्थान पर लौट आया जहां से उसने छलांग आरंभ किया था। यह हवाई कलाबाजी देखकर महाराणा दंग रह गए। घुड़सवार को शाबाशी देते हुए उन्होंने कहा, "जो तुम मांगो, सो तुम्हारा।" तब घुड़सवार ने महाराणा से कहा कि वे उसी स्थान पर कोई स्मारक बनवा दें, ताकि उसकी यह विस्मयकारी घुड़सवारी सदा याद की जाती रहे। महाराणा ने तुरंत वहां एक महल बनवाने का आदेश जारी किया और जब वह पूरा हुआ, उसका नाम घुड़सवार के हवाई प्रदर्शन की याद में हवा महल रखा।
किंवदंती है कि जयसामंद झील में नौ नदियां और निन्यानवे नालों का पानी आता है। यदि हम छोटे नालों को भुला दें, तो उसमें गोमती, झमरी, रूपारेल और बागार इन चार नदियों का पानी भरता है। झील के बीच तीन टापू भी हैं, जिन पर कभी मीणा और साधु समुदाय के लोग रहते थे।
आज यह विश्व-विख्यात झील जयसमंद वन्यजीव अभयारण्य का एक अंग है। झील तथा उसके टापू और पृष्ठभाग में मौजूद अरावली पर्वत-माला असंख्य जलपक्षियों को आकर्षित करते हैं। इन पक्षियों में शामिल हैं हवासिल, बुज्जे, चमचे, जलमोर, जलमखानी, कुररी, बलाक, क्रौंच, बगुले आदि।
झील 50 किलोमीटर दूर स्थित उदयपुर नगर के लिए पानी का मुख्य स्रोत भी है। उदयपुर को झील का पानी ले जानेवाली पाइपें अभयारण्य के पश्चिमी छोर से गुजरती हैं। अनेक स्थानों पर इन पाइपों से रिसता पानी अभयारण्य के पशु-पक्षियों की प्यास बुझाने का काम आता है।
जयसमंद झील के निर्माण हेतु महाराणा जयसिंह को 330 मीटर लंबा और 35 मीटर चौड़ा बांध बनवाना पड़ा, जो समुद्र की सतह से 320 मीटर ऊंचा है। जब जयसमंद झील पूरी भर जाती है, उसमें 6 करोड़ घन मीटर पानी समाता है, जो 2,000 वर्ग मील में उगी चावल की फसल को सींच सकता है। बांध पास की बखाड़ी खानों से लाए गए सफेद संगमरमर जैसे पत्थर से बना है।
बांध के सबसे ऊंचे स्थान पर नर्मदेश्वर महादेव का मंदिर है।
बांध 2 जून 1691 को पूरा हुआ। उस पर चार साल से रुक-रुककर काम चल रहा था। बांध पूरा होने पर जो अनुष्ठान आयोजित किया गया, उसमें महाराणा ने अपनी प्रजा को स्वर्ण तुल्यदान (अपने वजन के बराबर सोने के सिक्कों का दान) देते हुए झील की पैदल परिक्रमा की।
इस बांध की डूब में 10 गांव आए। उन्हें झीले के किनारे पुनः बसाया गया। आज भी जब गर्मियों में झील का पानी उतरता है, झील में इन गांवों के खंडहर नजर आते हैं।
जयसमंद झील की पृष्ठभूमि में पलाश के वृक्षों के बड़े-छोटे झुरमुट से आच्छादित अरावली के हल्के ढलान हैं। अधिक ऊंचे ढलानों के निचले भागों पर बांस उगते हैं। खजूर, गूलर, लसोड़ा आदि शुष्क प्रदेश के पेड़ नालों के सूखे पाटों को आबाद किए हुए हैं। खुले मैदानों में बेर और खैर वृक्ष हैं। इन वृक्षाच्छादित ढलानों में असंख्य पशु-पक्षी निवास करते हैं। मांसभोजियों में तेंदुआ, लकड़बग्घा, गीदड़ और जंगली बिल्ली प्रमुख हैं। तृणभक्षियों में चीतल, सांभर, चिंकारा, खरगोश और नीलगाय का नाम लिया जा सकता है। सर्पों में नाग, करैत, दबोइया, अजगर और धामन हैं। जल-जंतुओं में मगर, ऊदबिलाव और अनेक जाति की मछलियां हैं। पक्षी तो विशेषरूप से सर्वसुलभ हैं। यह वन-श्री उदयपुर के पुराने राजा-महाराजाओं द्वारा इस क्षेत्र को दीर्घकाल तक मिली सुरक्षा का नतीजा है। यह सारा इलाका उस समय इन राजाओं का पसंदीदा शिकारगाह था। उनके द्वारा बनवाई गई अनेक शिकार की ओदियां आज भी वहां मौजूद हैं।
जयसमंद झील उदयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। पर्यटकों के लिए उदयपुर में सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
Saturday, July 25, 2009
कहानी : मगर के दांत
नदी के किनारे से धारा के भीतर तक निकल आई एक नीची चट्टान के सिरे पर बैठे राजू अपने विचारों में खोया हुआ था। वह एक अलग ही दुनिया में पहुंच गया था जहां उसे चारों ओर की गतिविधियों से कोई सरोकार नहीं था। वह उन-उन अच्छी चीजों का हिसाब लगा रहा था जो उसे जिंदगी ने दी थीं। हिसाब को आशाजनक रखने के लिए उसने जिंदगी से मिली कष्टदायक चीजों को यत्नपूर्वक भुला दिया। वह जानता था कि यदि वह दुखदायक चीजों की भी गिनती करता तो उनकी सूची हनुमान की पूंछ से भी लंबी हो जाती। यह सही था कि वह एक संपन्न परिवार का सदस्य था, लेकिन इसका उसके सुख-दुख से कोई वास्ता नहीं था। जिंदगी ने उससे एक ऐसा भयानक मजाक किया था कि वह सुख-संतुष्टि का ख्वाब देखने के भी लायक नहीं रहा था। वह एक अपंग था। दुनिया भर के डाक्टरों और उनके पीड़ादायक उपचारों से भी पोलियो से विकृत हुए उसके पैर ठीक न हो सके थे। ये विकृत एवं वीभत्स अंग उसके शरीर से किसी बूढ़े पेड़ की मुड़ी-तुड़ी जड़ों के समान निकले हुए थे। यह नहीं था कि वह अपने नाकाम पैरों से नफरत करता था, लेकिन उसे दूसरे बच्चों के तंदुरुस्त पैरों को देखकर ईर्ष्या जरूर होती थी। वह जानता था कि वह उनके खेल-कूदों में कभी भाग नहीं ले सकता। उसका हृदय एक सामान्य बच्चे की जिंदगी के लिए मचल-मचल उठता था, लेकिन वह जानता था कि यह कभी संभव नहीं हो सकता।
बारह साल की अपनी छोटी सी जिंदगी में उसने कई बार अपनी दयनीय परिस्थिति पर विचार किया था। हर बार उसका मन विषाद और निराशा से ही भर उठा था। अब उसने एक तरह से अपने भाग्य से समझौता कर लिया था। उसने निश्चय कर लिया था कि वह किस्मत की इस मार के सामने चूं तक नहीं बोलेगा और सब कुछ झेल जाएगा। न वह अपने ऊपर तरस खाएगा, न दूसरों के भाग्य से ईर्ष्या करेगा। परंतु उसे एक बात कभी समझ नहीं आती थी। जब कोई उससे हमदर्दी दिखाता या उसकी मदद करने की कोशिश करता तो उसे लगता कि यह सब अनावश्यक ही नहीं, बल्कि उसका अपमान भी है। वह यही सोचता कि कैसे मैं लोगों को समझाऊं कि मुझे उनकी हमदर्दी नहीं, बल्कि प्रोत्साहन चाहिए, और वह भी पर्याप्त मात्रा में, ताकि मैं इस बेबसी से उभर सकूं।
वह दूसरे बच्चों के खेल को कभी नहीं देखता था। वह जानता था कि इससे उसे अपनी विकलांगता का बारबार एहसास होगा। वह अपनी शारीरिक खामी की बात को हमेशा-हमेशा के लिए भुला देना चाहता था। वह जानता था कि दूसरे बच्चों को खुशी-खुशी दौड़ते-कूदते देखकर उसका मन दुख एवं विषाद से भर जाएगा और वह हताश और दुखी हो जाएगा।
उसने मन बहलाने का एक अन्य जरिया खोज लिया था, जो उसकी स्थिति के अधिक अनुकूल था। यह उन खेलों से कहीं अच्छा था जिन्हें वह देख तो सकता था, पर जिनमें वह कभी शरीक नहीं हो सकता था। मन बहलाने का उसका यह तरीका अत्यंत स्वाभाविक और सरल था, यानी नदी के किनारे जाकर प्रकृति के सौंदर्य को देखना और वहां के वातावरण की रम्यता एवं शांति में अपने दुखों को भुलाना। नदी की कल-कल करती धारा, उस में उछलती मछलियां, वहां के अवर्णनीय सौंदर्य से परिपूर्ण प्राकृतिक दृश्य, विभिन्न आकार-प्रकार के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और कीट-पतंग, नदी किनारे लोगों की चहल-पहल और उनके क्रियाकलापों से उठती कर्णमधुर ध्वनियां, ये सभी राजू के मन को मोह लेते थे। नदी की धारा के लगभग मध्य तक निकली हुई एक चट्टान थी। सूरज की गरमी से तप उठी इस चट्टान पर शाम की शीतलता में बैठना काफी आरामदायक रहता था। राजू अक्सर उस पर बैठकर सूरज को डूबते हुए देखा करता था।
राजू को दूर पुल की आकृति दिखाई दे रही थी, जिस पर माचिस के डिब्बे के आकार के वाहन आ-जा रहे थे। बहुत जल्द इतना अंधेरा हो जाएगा कि उसे इन वाहनों की मात्र हिलती रोशनी ही दिखाई देगी। सूरज उसकी चट्टान के साथ 60 डिग्री का कोण बनाए हुए था और तेजी से क्षितिज की ओर गिर रहा था। सूरज के चमकीले चेहरे पर लालिमा छा रही थी, और वह एक विशाल संतरे की तरह लग रहा था। उसकी रक्तिम किरणों की आभा से नदी का जल खून के समान लाल हो उठा था। सूरज राजू को इतना निकट और आत्मीय लगा कि वह सोचने लगा कि क्या वह सचमुच हमसे 15 करोड़ किलोमीटर दूर है जैसा कि किताबों में लिखा है।
पुल पर एक साथ कई रोशनियां चमक उठीं और राजू समझ गया कि बिजली की लाइटें चालू हो गई हैं। शाम का धुंधलका छाने लगा था और लोग अपने-अपने कामों को समेटकर घर की राह लेने लगे थे। नदी किनारे की अनेक झोंपड़ियों से धुआं उठने लगा था और तरह-तरह के व्यंजनों के पकने की महक राजू के नथुनों में पहुंचकर उसकी भूख को बढ़ा रही थीं। राजू जानता था कि कुछ ही समय में नदी पर सन्नाटा छा जाएगा पर वह फिर भी चट्टान पर बैठा रहा। उस प्रिय स्थल को छोड़ने का उसका मन ही नहीं कर रहा था।
राजू अपने खयालों में यों खोया रहा कि जलधारा में उठी एक रहस्यमय हलचल की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया। न ही उसने कांच के गोले के समान लगने वाली मगर की आंखों और उसके थूथन के सिरे को देखा, जो पानी के ऊपर दिखाई दे रहे थे और तेजी से उस चट्टान की ओर बढ़ रहे थे जिस पर राजू बैठा था। राजू इस भयानक खतरे को तभी ताड़ सका जब बहुत देर हो चुकी थी। बिना आहट या चेतावनी के उस दैत्याकार प्राणी ने हमला कर दिया। राजू से गज भर की दूरी पर मगर का सिर बिजली की तेजी से पानी के बाहर आया। उसके खुले जबड़ों पर लगे आरी के समान धारवाले पीले दांत चांदनी में हत्यारे के कटार के समान चमक उठे। मगर के जबड़े अभागे राजू के दोनों पैरों पर कचकच की ध्वनि करते हुए बंद हुए। अपनी मांसपेशियों में तीक्ष्ण दांतों के गढ़ने से राजू को असह्य पीड़ा हुई। अनायास ही उसने दोनों हाथों से चट्टान को जकड़ लिया और मगर द्वारा भयंकर बल से उसे पानी में खींचने का विरोध करने लगा। परंतु उस नन्हे बालक में उस विशाल सरीसृप का मुकाबला करने की ताकत कहां से आती? राजू ने देखा कि वह धीरे-धीरे जल की ओर खिंच रहा है। तब कहीं जाकर उसे मदद के लिए पुकारने की सूझी।
"बचाओ, बचाओ, कोई मुझे इस मगर से बचा लो" वह पूरी शक्ति से चीख उठा। मृत्यु का भय उस पर इतना छा गया कि वह लगभग बेहोश ही हो गया।
उधर लोग अपनी झोंपड़ियों के आगे बैठे बतिया रहे थे और भोजन तैयार होने की राह देख रहे थे। राजू की पुकारें रात के सन्नाटे को चीरकर उनकी बस्ती पर गूंज उठी। पल भर के लिए ये पुकारें उन्हें हतप्रभ छोड़ गईं। पर जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि माजरा क्या है। वे तुरंत हाथ में आया हथियार उठाकर मदद के लिए दौड़े। कोई कुल्हाड़ी ले आया, कोई लाठी, कोई चाकू, कोई दरांती। अधिकांश तो निहत्थे ही चल पड़े। जब वे नदी किनारे पहुंचे तो मगर ने राजू को लगभग पूरा-पूरा पानी के नीचे खींच लिया था।
केवल उसका सिर और चट्टान को पकड़े हुए हाथ पानी के बाहर थे। उन लोगों में से कुछ ने राजू को पकड़कर पानी से ऊपर खींचने की चेष्टा की। बाकी नदी में कूदकर मगर से युद्ध करने लगे। इस सामूहिक प्रयास से मगर घबरा उठा। राजू पर अपनी पकड़ छोड़कर वह चुपके से पानी में विलीन हो गया।
राजू के दोनों पैर मगर के दांतों से बुरी तरह घायल हो गए थे। पर वह जीवित था। उसे बचानेवाले लोगों ने उसे उठाकर उसके घर पहुंचाया। तुरंत डाक्टर बुलाया गया पर राजू के पैरों की हालत देखकर उसने चिंता से सिर हिला दिया। राजू के पोलियो-पीड़ित कमजोर पैरों को हड्डी तक गहरी चोट आई थी। कई जगह मगर के दांतों ने हड्डी को कोर तक भेद दिया था।
डाक्टर ने मलहम लगाकर पट्टी बांध दी और दर्द निवारक दवा खाने को दे दी। घाव को सेप्टिक होने से बचाने एक इंजेक्शन भी लगा दिया। महीने भर के लिए पैरों को आराम देने की सलाह देकर डाक्टर चला गया।
घाव को भरने में बहुत समय लगा। यह समय राजू के लिए एक दुःस्वप्न के समान गुजरा। पैरों के दर्द से वह बारबार कराह उठता। उसे तेज बुखार भी हो गया था। पर यह कुछ दिनों में उतर गया। घावों को भरने में डाक्टर के अंदाजे से भी अधिक समय लगा। पूरे तीन महीने बाद ही डाक्टर ने पट्टी खोलना उचित समझा। राजू को लकड़ी के एक बेंच पर लिटाया गया और डाक्टर कैंची से पट्टियों को काटने लगा। पट्टियों के खुलने की बात सोचकर राजू उदास हो गया।
पट्टियों के कारण उसके कुरूप और निस्सहाय पैर उसकी दृष्टि से ओझल रहे थे और वह प्रसन्न था। अब उसे उन्हें फिर देखते रहना पड़ेगा। नदी किनारे की दुर्घटना के बाद वह इन पैरों से घृणा करने लगा था। यदि वे ठीक होते तो क्या वह इस प्रकार मगर की चपेट में आता? वह जरूर अपनी रक्षा कर लेता। ये टांगें न तो उसे चलने-फिरने देती थीं, न सम्मान की जिंदगी जीने। क्या ही अच्छा होता यदि डाक्टर उन्हें काट ही डालता, राजू ने सोचा।
उसकी इन निराशापूर्ण विचारों की शृंखला डाक्टर के उद्गारों को सुनकर टूटी। डाक्टर कह रहा था, "अरे! यह कैसा चमत्कार मैं देख रहा हूं! राजू तुम बिलकुल ठीक हो गए हो। अब तुम अपंग नहीं रहे।" उसकी वाणी आश्चर्य एवं अविश्वास झलका रही थी।
राजू ने डाक्टर को घूरकर देखा। जरूर वह उस पर हमदर्दी दिखा रहा था। परंतु उसने नजरें झुकाकर अपनी टांगों को देख ही लिया। क्या उसकी आंखें उसे धोखा दे रही थीं? वहां उसके मुड़े-तुड़े पोलियो-ग्रस्त पैर नहीं बल्कि एकदम स्वस्थ-दुरुस्त अंग थे। राजू ने पागलों की तरह एक-साथ रोते और हंसते हुए अपनी इन नई पिंडलियों को बार-बार छूकर देखा।
सबसे अधिक अचंभित तो स्वयं डाक्टर ही था। तीस साल के उसके अनुभव में इस तरह का एक भी किस्सा नहीं हुआ था। थोड़ा विचारने पर उसे विदित हुआ कि इसमें कुछ भी अप्राकृतिक नहीं था। मगर के दांतों के घाव ने राजू के पैरों की हड्डियों की मृतप्राय कोशिकाओं को उत्तेजित किया था और वे पुनः बढ़ने लगे थे। यह शरीर की अद्भुत पुनर्वर्धन क्षमता का ही चमत्कार था।
राजू के लिए यह वह तोहफा था जो उसे सपनों में भी नहीं मिला था। उसे लगा कि उसे नई टांगें नहीं, पूरी नई जिंदगी मिली है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: कहानी
Friday, July 24, 2009
पैदा हुआ तो काला था...
यह कविता किसकी लिखी हुई है, पता नहीं, पर अमरीकी नस्लवाद के बारे में एक काले बच्चे द्वारा उठाए गए ये सवाल दिलचस्प हैं। मूल कविता अंग्रेजी में है, उसका हिंदी अनुवाद पढ़िए:
पैदा हुआ तो मैं काला था
बड़ा होने पर भी काला ही रहूंगा
धूप में जाऊं तो भी काला रहूंगा
डर जाने पर भी काला ही रहूंगा
बीमार होने पर भी काला ही रहूंगा
और तुम श्वेत?
पैदा हुए, तो गुलाबी थे
बड़ा होने पर सफेद हो गए
धूप लगने पर लाल हो जाते हो
डर जाने पर पीला
ठंड लगने पर नीला
बीमारी में हरा
और मरने पर धूसर
और तुम मुझे कलर्ड कहते हो?
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 13 टिप्पणियाँ
Thursday, July 23, 2009
अब तो नाइजीरिया के फरेबी भी हिंदी बोल रहे हैं
मैं कितना खुशनसीब हूं इसकी याद दिलानेवाले ईमेल मुझे नाइजीरिया से हर दिन आते रहते हैं, जिनमें यह जानकारी होती है कि मेरा ईमेल पता किसी लोटरी में विजयी रहा है और मुझे 1000,000 डालर ईनाम मिल गया है जिसे क्लेम करने के लिए मुझे किसी नंबर पर फोन भर करना है या किसी ईमेल पते पर पत्र भर भेजना है।
आप भी शायद मुझ जितने ही खुशनसीब होंगे, और आपको भी इस तरह के ईमेल आते होंगे।
पर आज एक अनोखी बात हुई। अब तक इस तरह के ईमले “विश्व भाषा” अंग्रेजी में ही आते थे। लेकिन आज मुझे ऐसा एक ईमेल हिंदी में मिला, आप भी देखिए।
प्रिय लकी विजेता,
अपने ईमेल पते $ 500,000.00 की कुल राशि का दावा करने के लिए अनुमोदित किया गया है. अपनी जीत से संपर्क करें हमारे एजेंट में दावा करने के लिए
लागोस, नाइजीरिया.
संपर्क: Rev. क्रिश्चियन Evra
ई मेल: rev.christianevra@y7mail.com
फोन: +2347035027309
बधाई.
जस्टिन होल्म्स
अब जब फरेबी भी हिंदी अपना रहे हैं, हिंदी का भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल है। जस्टिन का यह ईमेल दो बातों का प्रमाण दे रहा है
1. हिंदी का दर्जा अब अंग्रेजी के स्तर का हो गया है और वह विश्व भाषा बन चुकी है और
2. लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए हिंदी भी अंग्रेजी जितनी उपयोगी हो गई है।
अब कोई नहीं कह सकेगा कि हिंदी से रोजगार के द्वार नहीं खुलते। कम से कम जस्टिन जी के लिए तो यह आमदनी का प्रमुख स्रोत मालूम दे रहा है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 7 टिप्पणियाँ
Wednesday, July 22, 2009
अहमदाबाद में भुखमरी
कुछ दिन पहले यहां के अखबारों के अंदरूनी पृष्ठों में एक खबर देखने को मिली – गुजरात के प्रमुख व्यावसायिक महानगरी अहमदाबाद की सड़कों में संभावित भुखमरी की खबर।
पुलिस को सड़क के किनारे दो लाशें शहर के अलग-अलग स्थानों में पड़ी हुई मिलीं। इनमें से एक लाश मुकेश ओझा नाम के किसी 52 वर्षीय व्यक्ति की थी और दूसरी शिवाजी ठाकोर की थी जिनकी उम्र 60 वर्ष बताया जा रहा है। वे अहमदाबाद के औद्योगिक क्षेत्र वटवा के रहनेवाले थे। ओझा कालूपुर के निकट अकेले सड़कों में ही रहते थे, और कचरे के ढेरों से खाने की चीजें बीनकर जीवन निर्वाह करते थे।
दोनों लाशों को स्थानीय लोगों ने देखा और उनके बारे में पुलिस को सूचना दी। पुलिस ने इन्हें भुखमरी या बीमारी से हुई मौत के रूप में अपने दस्तावेजों में दर्ज किया है।
ये मौतें अनेक सवाल खड़े करते हैं। अहमदाबाद एक समृद्ध शहर है और गुजरात एक अपेक्षाकृत सुशासित, समृद्ध राज्य है। आमदनी में अहमदाबाद का नंबर पश्चिमी क्षेत्र में मुंबई के बाद दूसरा है। फिर भी यहां लोग भूख से मर रहे हैं। सरकार उनके लिए कुछ नहीं कर रही है। अभी हाल में कई महीनों से महंगाई आसमान छू रही है, जिसकी मार गरीबों पर ही सबसे अधिक पड़ रही है। गरीबों में इतनी क्रय शक्ति नहीं रह गई है कि वे बाजार से खाने की सामग्री खरीदकर अपना पेट भर सकें। भीख और कचरा ही उनका आसरा रह गया है। ऐसे में सरकार को इन निस्सहायों के लिए कोई व्यवस्था करनी चाहिए थी। इसका सामर्थ्य भी उसके पास है। अहमदाबाद जैसे पैसे वाले शहर के लिए अपने बजट का थोड़ा हिस्सा निस्सहायों के लिए भोजनालय स्थापित करने में लगाना कोई मुश्किल बात नहीं है। पर सत्ताधीन लोग गरीबों के प्रति इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि शायद उनके मन में यह बात आई ही नहीं। ऐसे में इसमें कितनी सचाई है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं? देश की प्राथमिकताएं कितनी विकृत हो गई हैं। देश के पास आदमी को चांद पर उतारने के लिए पैसा है, पर हमारे शहरों की सड़कों में भूख से मर रहे लोगों को दो जून की रोटी दिलाने के लिए पैसा नहीं है। क्या किसी लोकतंत्र में ऐसा हो सकता है?
और ऐसा भी नहीं है कि इसमें केवल अहमाबाद के शासकों की ही असंवेदनशीलता है। अहमदाबाद के नागरिक भी उतने ही असंवेदनशील हैं। यहां जैन धर्म और वैष्णव धर्म का बहुत प्रभाव है। अधिकांश लोग शाकाहारी हैं। यहां नियमित रूप से कबूतरों, गायों, कुत्तों आदि जानवरों को भोजन खिलाने का रिवाज है। पर मनुष्य उनकी दानशीलता के दायरे में नहीं आ पाए हैं। इसलिए इन धार्मिक मान्यताओं और धारणाओं में भी कहीं तो भारी खोट है। गायों, कुत्तों और कबूतरों को भोजन देना पुण्य का काम है, तो मनुष्यों को भोजन देना क्यों पुण्य का काम नहीं माना गया है? और धार्मिक संस्थानों ने संगठित रूप से मनुष्यों को भोजन खिलाने की व्यवस्था क्यों नहीं की है?
अहमदाबाद में बीसियों गैरसरकारी संगठन भी काम कर रहे हैं, उनका कार्य क्षेत्र ही गरीबों की मदद करना है। वे भी गरीबों की भूख को समय रहते भांप नहीं पाए और उसके निवारण के लिए सरकार पर या समुदाय पर पर्याप्त दबाव नहीं डाल पाए। इसलिए इसमें उनकी भी असंवेदनशीलता और विफलता है।
और ऐसा भी नहीं है कि भुखमरी केवल अहमदाबाद की सड़कों में ही हो रही है। हमारे देश के हर शहर में हो रही है। गांवों में तो हो ही रही है। वहां तो लोग भुखमरी से पहले ही आत्म-हत्या करके जल्दी छुट्टी पा ले रहे हैं।
यह सब हमारे समाज के लिए और हमारे लोकतंत्र के लिए और हममें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए शर्म की बात है। बाकी सब काम परे रखकर इसका तुरंत समाधान होना चाहिए। मुकेश ओझा और शिवाजी ठाकोर की भुखमरी व्यर्थ नहीं जानी चाहिए।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 8 टिप्पणियाँ
Tuesday, July 21, 2009
क्या बोनसाई रखना भारतीय दृष्टि में उचित है?
बोनसाई वाले लेखों पर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं, जो कुछ-कुछ इस प्रकार की है –
जानकारी तो बहुत अच्छी प्रदान की आपने। किंतु मन में एक शंका है कि कहीं बोनसाई बनाने के चक्कर में हम लोग वृक्ष के विकास को बाधित करके कुछ गलत तो नहीं करते। मेरे विचार से तो यह वृक्ष और प्रकृति दोनों के साथ ही अन्याय होगा। क्यों कि प्रकृति ने तो सबको फलने फूलने एवं विकास का एक समान अधिकार दिया है। इस विषय में आपके क्या विचार हैं?
पं. डी.के शर्मा वत्स
अन्य लोगों ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं (गिरिजेश जी और ज्ञानदत्त जी)।
बात ठीक भी लगती है। किसी जीवित वस्तु को तोड़-मरोड़कर अपना मन बहलाना उचित नहीं लगता।
पर क्या हम हर वक्त ऐसा नहीं करते? बाग-बगीचों के पौधों को कहां कुदरती रूप से बढ़ने दिया जाता है? सड़क किनारे लगे पेड़ों और शहरी परिवेश में उग रहे अधिकांश पेड़ों का भी हम नियमित रूप से अंग-भंग करते रहते हैं। उनकी डालियों को काटकर हम अपनी धारणा के अनुसार उन्हें सुंदर बनाने की कोशिश करते हैं।
ऐसा हम पौधों के साथ ही नहीं, जिन जानवरों को हमने पालतू बनाया है, उनके साथ भी करते हैं। कुत्तों की जो इतनी नस्लें हमने विकसित की हैं, वह इसका उदाहरण है।
भारतीय दृष्टि से देखा जाए, तो हर जीवधारी में आत्मा होती है। इसलिए बोनसाई में भी होगी। पर आत्मा के संबंध में यह भी कहा गया है कि उसे न आग जला सकती है न पानी डुबो सकता है न अस्त्र घायल कर सकते हैं। यदि ऐसा हो, तो पीपल आदि को बोनसाई में विरूपित करके हम उसकी आत्मा को कोई नुकसान नहीं पहुचा रहे होते हैं।
हां यह जरूर है कि पीपल या किसी भी बोनसाई पौधे की यही इच्छा होगी (यदि पौधों में भी हमारी जैसी इच्छाएं होती हों) कि वह खुले वातावरण में जंगल में उन्मुक्त रूप से उग सके।
पर क्या पौधों में इस तरह की विचारणा प्रक्रिया होती है? सोचने के लिए मस्तिष्क की आवश्यकता होती है, और दर्द महसूस करने के लिए शिरा-तंत्र की। ये दोनों पौधों में नदारद होते हैं। कुदरती व्यवस्था में पौधे प्राथमिक उत्पादक की श्रेणी में आते हैं, यानी केवल ये अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, और बाकी तमाम जीवधारी पौधों को खाकर ही जिंदा रह सकते हैं। इसलिए पौधों के लिए यह आम बात है कि दूसरे जीव उन्हें चरें, उन्हें खाएं। इसके बावजूद अपनी वजूद बनाए रखने की उनमें क्षमता होती है। कई पौधों में कांटे होते हैं, कई विषैले होते हैं, कई उनकी डालियां, पत्ते आदि के काटे जाने पर भी नई डालियां, पत्ते आदि विकसित कर लेते हैं।
पौधों की एक अन्य क्षमता यह होती है कि वे लाखों की संख्या में बीज पैदा करते हैं, इनमें से अधिकांश नष्ट हो जाते हैं या जानवरों द्वारा खा लिए जाते हैं, पर एक-आध बचे रहते हैं और नए पौधों में उगते हैं।
इसलिए यद्यपि बोनसाई जैसी कला में पौधे की कुदरती बाढ़ को अवरुद्ध अवश्य किया जाता है, पर यह कहना कि इससे पौधों को उसी तरह का कष्ट होता है जिस तरह किसी मनुष्य की बाढ़ को रोकने से उसे होगा, मैं समझता हूं सही नहीं है। पौधों में इस तरह की संवेदना नहीं होती।
इसी कारण हम शाकाहार को मांसाहार से बेहतर समझते हैं। जीवित रहने के लिए हमें आहार तो ग्रहण करना ही होता है। इसलिए ऐसे स्रोतों से आहार ग्रहण करना बेहतर माना गया है जिनसे जीवधारियों को कम कष्ट हो। नहीं तो हमारे रसोईघरों में बैंगन, भिंडी, मूंग, राजमा आदि जीवित पदार्थों के साथ कितना बेरहम बर्ताव होता है - चाकू से काटा जाना, खौलते पानी में उबालना, नमक-मिर्च मिलाना, मिक्सर में पीसाना, इत्यादि। यदि हम मानें कि इससे उन्हें पीड़ा होती है, तो हमें तो भूखा ही रह जाना पड़े।
जैन धर्म में, जो अहिंसा पर आधारित है, प्राणियों को उनमें मौजूद इंद्रियों के अनुसार एकेंद्रिय, द्विइंद्रिय, पंचेंद्रिय आदि में बांटा गया है। उत्तरोत्तर अधिक इंद्रियों वाले जीवों में पीड़ा महसूस करने की अधिक क्षमता होती है और उन्हें मारने पर अधिक पाप बताया गया है। पौधे सबसे निचले स्तर में रखे गए हैं।
अब बोनसाई पर क्रूरता वाले दृष्टिकोण से हटकर एक अन्य दृष्टिकोण से विचार करते हैं। बोनसाई के साथ व्यक्ति का ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जाता है कि वह उसका अजीज लगने लगता है। बोनसाई-पीपल को देख-देखकर उस व्यक्ति में समस्त पीपल जीति के साथ और समस्त वृक्ष जाति के साथ या समस्त वनस्पति जाति के साथ सहानुभूति पैदा हो सकती है और वह उनके रक्षण के प्रति अधिक संवेदनशील बन सकता है। इसलिए बोनसाई, बाग-बगीचे, पालतू जानवर आदि हमारी संवेदनाओं का परिष्कार कर सकते हैं।
इसके विपरीत उस व्यक्ति पर विचार करें जिसने पौधे नहीं रखे हैं। उसके लिए पेड़-पौधे, वनस्पति, वन आदि विस्मृत रहते हैं, उतने परिचित नहीं रहते जितने बोनसाई पालक के लिए, और इसलिए वृक्षों का काटा जाना, पर्यावरण को दूषित करना आदि उसके लिए उतने व्यक्तिगत मामले नहीं होंगे, जितने बोनसाई पालक के लिए।
पीपल आदि वृक्ष इतनी विशाल संख्या में बीज उत्पादन करते हैं कि यदि उनमें से एक दो बीजों से बोनसाई बना लिया जाए, तो इससे पीपल जाति का कोई खास नुकसान नहीं होता। ये बीज तो वैसे भी मरने ही वाले हैं। पौधों की संतान-वृद्धि का तरीका ही इस तरह का होता है। उनमें कई बीजों में से कुछ बीज जीवित रहकर नस्ल को आगे बढ़ाते हैं।
इसलिए एक बीज से बने बोनसाई आपके बैठक में विराजमान रहकर आपको, आपके परिवार जनों को और मित्रों को विशाल पीपल जाति की, उन वनों की जहां वह कुदरती रूप से उगता है, तथा उन पारिस्थितिकीय सेवाओं की जो यह वृक्ष हमें प्रदान करता है, यदि निरंतर याद दिलाता रहे, और हममें वृक्षों, वनस्पतियों और वनों के प्रति जागरूकता लाता रहे, तो उसके जीवन को और उसके द्वारा सहे गए कष्टों को सार्थक माना जा सकता है।
उस पीपल-बोनसाई को हम समस्त वनस्पति-वर्ग और वनों का दधीचि ऋषि मान सकते हैं, जो स्वयं कष्ट सहकर अपनी जात वालों को (यानी समस्त वनों को और प्रकृति को) हमारे हाथों नष्ट-भ्रष्ट किए जाने से बचाता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 7 टिप्पणियाँ
लेबल: बोनसाई
Monday, July 20, 2009
क्या सगुनिए सचमुच भूमिगत जल खोज पाते हैं?
गांवों में किसानों की एक आम समस्या यह होती है कि कुंआ या तालाब खोदने के लिए सही स्थान क्या हो जहां खोदने से पानी मिले और वह मीठा हो। कुंआ या तालाब खोदने का काम श्रम और व्यय साध्य होता है और यदि वह विफल हो जाए या खारा पानी मिले, तो किसान तबाह हो सकते हैं।
इन दोनों बातों की सटीक जानकारी पाने के लिए अब भी हमारे गांवों में सगुनियों का ही सहारा लिया जाता है। विज्ञान इस मामले में गांवों तक नहीं पहुंचा है।
पानी खोजने वाले सगुनिए भारत में ही नहीं विश्व भर में पाए जाते हैं, और आजकल से नहीं, बल्कि हजारों सालों से। उनकी विद्या, चाहे वह पाखंड हो या सच, बड़े काम की है और लाखों लोगों को उसकी आवश्यकता रहती है। कई प्रयोगों से स्पष्ट हुआ है कि पानी खोजने में सगुनियों की सफलता प्रशिक्षित जल-वैज्ञानिकों से कम नहीं होती। आस्ट्रेलिया में तो 1970 के दशक तक वहां की सरकार कुंए आदि खोदने हेतु उपयुक्त स्थल का चयन करने के लिए नियमित रूप से सगुनियों का उपयोग करती थी।
सगुनिए नीम की टहनी, धातु की मुड़ी हुई छड़, दोलक आदि का उपयोग करके पानी की उपस्थिति की जानकारी देते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि वे कई मामलों में सही साबित होते हैं, और प्रशिक्षित भूवैज्ञानिकों को भी मात दे देते हैं। सगुनियों का कहना है कि नीचे मौजूद पानी के कारण होनेवाले सूक्ष्म कंपनों या पानी के कारण पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में होनेवाले परिवर्तनों को वे भांप लेते हैं। कुछ सगुनिए यह भी दावा करते हैं कि वे बता पाते हैं कि पानी खारा है या मीठा या वह बह रहा है या स्थिर है।
तो क्या सगुनियों में ऐसी कोई विलक्षण शक्ति होती है जो साधारण मनुष्यों में नहीं होती, या फिर क्या यह सब मात्र ढकोसला है? यदि ढकोसला है तो सगुनिए अनेक मामलों में सही कैसे साबित होते हैं?
इन प्रश्नों का वैज्ञानिक कई रीति से उत्तर देते हैं। वे कहते हैं कि सगुनिए कंपनों को भांप कर पानी का पता नहीं लगाते बल्कि अन्य बाह्य चिह्नों का सूक्ष्म निरीक्षण करके, जैसे मिट्टी का प्रकार, जमीन पर उग रही वनस्पति का प्रकार, जमीन की ढलान, आदि। अक्सर सगुनिए स्थानीय लोग होते हैं और वे भूमि की विशेषताओं की बारीक जानकारी रखते हैं। जबकि बाहर से आए जल-वैज्ञानिक केवल कुछ दिनों के सर्वेक्षण के आधार पर कुंआ या तालाब खोदने की जगह का चयन करते हैं। इससे कई बार उनका अनुमान गलत साबित होता है जबकि अपनी स्थानीय जानकारी का उपयोग करके सगुनिए अधिक सही अनुमान कर पाते हैं।
सगुनियों की सफलता का एक अन्य कारण यह भी है कि कई प्रदेशों में भूमि के नीचे पानी बहुत ही व्यापक रूप में विद्यमान रहता है, और लगभग कहीं भी खोदने से पानी मिल ही जाता है।
लेकिन अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों में सगुनिए पानी की उपस्थिति को ठीक से भांप नहीं पाए हैं। एक प्रयोग में एक सगुनिए की आंखों पर पट्टी बांधकर उस जगह पर ले जाया गया जहां पानी की उपस्थिति का पता लगाना था। उसने जो स्थान बताया उसे नोट कर लिया गया। उसके बाद उसकी आंखों की पट्टी खोल दी गई और दुबारा पानी वाली जगह पहचानने को कहा गया। इस बार उसने दूसरी कोई जगह बताई।
इसी तरह के एक अन्य प्रयोग में कुछ सगुनियों को ऐसे स्थल ले जाया गया जहां पानी ले जानेवाली भूमिगत पाइपें बिछी थीं और उनसे कहा गया कि वे बताएं कि पाइपें ठीक कहां हैं। कोई भी सगुनी यह नहीं बता पाया। एक और प्रयोग में सगुनियों को बताया गया कि जमीन के नीचे पानी की पाइपें हैं, और उनसे पूछा गया कि क्या इन पाइपों में पानी बह रहा है या नहीं। सुगुनिए यह भी ठीक से नहीं बता पाए।
जर्मनी में किए गए एक प्रयोग में एक बहुमंजिली ईमारत के निचले तल्ले में एक बड़ी टंकी में पानी रखा गया और सगुनियों को ऊपरी तल्ले में ले जाकर पूछा गया कि टंकी की स्थीति ठीक कहां है। टंकी की जगह को बारबार बदलकर उनसे टंकी की नई स्थिति का पता लगाने को कहा गया। सुगुनियों को उतनी ही सफलता मिल पाई जितनी तुक्का लगानेवाले किसी व्यक्ति को मिलती।
इस संबंध में एक रोचक जानकारी आस्ट्रेलिया से। वहां किसानों ने सरकारी जल-वैज्ञानिकों द्वारा बताए गए स्थानों में अनेक बार पानी न मिलने से नाराज होकर मांग की कि सगुनियों को यह काम दिया जाए और सरकार ने ऐसा किया भी। कुछ सालों में इनकी सफलता-विफलता के संबंध में अच्छे आंकड़े इकट्ठे हो गए। इन आंकड़ों से पता चला कि जहां सगुनिए हर 3 अनुमानों में से 1 में गलत सिद्ध हुए, भूवैज्ञानिक हर 12 अनुमानों में से 1 में ही गलत सिद्ध हुए।
भारत में अब भी विज्ञान जन-जन तक नहीं पहुंचा है। अधिकांश प्रयोगशालाएं, अनुसंधान संस्थाएं आदि अब भी उद्योगों, व्यवसायों और शहरों की जरूरतों पर ही ज्यादा ध्यान देती हैं। आम आदमी की जरूरतों की ओर विज्ञान कम जागरूक है। और गांवों के खस्ता हाल के चलते पढ़े-लिखे वैज्ञानिक गांवों में रहना पसंद भी नहीं करते। अधिकांश चोटी के वैज्ञानिकों की मंशा यही रहती है कि उन्हें अमरीका-कानाडा आदि समृद्ध देश में नौकरी मिले और वे वहां बस जाएं, या यदि यह संभव न हो तो किसी बड़े व्यवसाय में या शहरों के किसी प्रयोगशाला में वे रख लिए जाएं। इसलिए किसानों की वैज्ञानिक जानकारी की आवश्यकता भारत की विज्ञान और अनुसंधान संस्थाओं द्वारा पूरी नहीं हो पा रही हैं। किसानों को मजबूर होकर सगुनिए, ज्योतिषी, नीम-हकीम आदि के भरोसे जैसे-तैसे अपना काम चलाना पड़ रहा है।
एक दूसरी समस्या यह है कि हमारे यहां उच्च शिक्षा संस्थानों में अंग्रेजी का बोलबाला है। इससे इन संस्थाओं से जो लोग पढ़कर आते हैं और इन संस्थाओं में जो लोग पढ़ाते हैं वे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से अधिक परिचित नहीं हैं। इस कारण से उनका ज्ञान हिंदी आदि के माध्यम से जन-जन तक नहीं पहुंच रहा है। हमारे देश में अंधविश्वासों का इतने व्यापक स्तर पर फैला होने के पीछे एक कारण यह भी है।
यदि हम इस वस्तुस्थिति को समझे बगैर सगुनियों का पर्दाफाश करें, तो इससे गरीबों का नुकसान ही ज्यादा होगा, क्योंकि तब गरीबों के लिए न वैज्ञानिकों का सहारा रहेगा न सगुनियों का, जो कम से कम थोड़े मामले में तो सफल हो ही जाते थे।
सगुनियों का धंधा बंद कराने के साथ-साथ हमें गांवों में हिंदी आदि जाननेवाले डाक्टर, इंजीनयर, भूवैज्ञनिक, कृषि वैज्ञानिक आदि को भी पहुंचाना होगा, और गांव में शिक्षा का प्रसार करना होगा। इसके साथ ही उच्च शिक्षा संस्थानों, प्रोयगशालाओं, शोध संस्थाओं को भी हिंदी में काम करना शुरू करना होगा।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 15 टिप्पणियाँ
Sunday, July 19, 2009
बोनसाई बनाने की विधि
बोनसाई पर पिछले पोस्ट के पाठकों ने बोनसाई बनाने की विधि के बारे में जानना चाहा है। इसलिए इस पोस्ट में इसके बारे में कुछ सामान्य जानकारी दे रहा हूं।
बोनसाई, अर्थात बौने आकार के वृक्ष, उगाने का शौक आपका और आपके परिवार का कई पीढ़ियों तक मन बहला सकता है, जी हां, कई पीढ़ियों तक, क्योंकि ठीक से देखभाल किए जाने पर बोनसाई आराम से सौ सवा सौ साल तक जीवित रह सकते हैं।
पर बोनसाई का शौक तभी पालें जब आपमें द्रुत परिणाम की आकांक्षा न हो और आपके पास खूब सारा समय हो।
बोनसाई बनाने के दो तरीके हैं, पौधशाला से उपयुक्त वृक्ष-शिशु खरीद लाना, और बीज से ही शुरू करना। इनमें से पहला जल्दी परिणाम देगा, पर यदि आप पौधे के विकास को शुरू से ही नियंत्रित करना चाहें, तो बीज से उगाने का कोई विकल्प नहीं है, पर इसमें बोनसाई बनने में बहुत समय लग सकता है।
पीपल, बरगद, गूलर, अंजीर, नीम, बांस, महुआ, गुलाब, बोगेनविला, देवदार, चीड़, आदि के अच्छे बोनसाई बन सकते हैं।
बोनसाई बनाने से पहले बाग-बगीचों, जंगलों आदि में जाकर इन वृक्षों को देख आएं और अनेक कोणों से उनके फोटो निकाल लें, ताकि आपको अंदाजा हो जाए कि एक पूर्ण विकसित वृक्ष किस आकृति का होता है। इससे आपको बोनसाई को सही रूप देने में मदद मिलेगी। वही बोनसाई सफल माना जाता है जिसकी आकृति मूल वृक्ष जैसी ही हो।
उसके बाद मूल पात्र और मिट्टी में पौधे को रहने देते हुए (यदि आप पौधशाला से लाए गए वृक्ष-शिशु से शुरू कर रहे हों तो) उसकी शाखाओं, टहनियों और पत्तों को बड़ी सावधानी से पौधा काटने की कैंची से इस तरह से काटें कि पौधा विकसित वृक्ष की आकृति का दिखे। काटते वक्त इस बात का ध्यान रखें कि एक बार काट देने के बाद पौधे के उस अंग को वापस पौधे में जोड़ा नहीं जा सकता है। हर बोनसाई का एक सामने का भाग होता है, जहां से उसे दिखाया जाता है, और जहां से देखने पर वह मूल वृक्ष जैसा लगता है। काटते वक्त इस बात पर विचार कर लें कि बोनसाई का सामनेवाला भाग कौन सा रहेगा। इस ओर से दर्शक की तरफ कोई शाखा निकली हुई नहीं होनी चाहिए, ताकि पूरा बोनसाई दिखे। इस ओर के पीछे की तरफ और दोनों बगलों से शाखाएं सही अनुपात में निकली हुई होनी चाहिए ताकि बोनसाई देखने में असली वृक्ष की आकृति का लगे।
अब पौधे को बड़ी सावधानी से मिट्टी से अलग करें और उसे पानी से भरी बाल्टी में रखकर जड़ों से लगी मिट्टी हटाएं और कैंची से जड़ों को उनकी मूल लंबाई के लगभग दो तिहाई तक कतर दें, या उतना कतर दें जितने से पौधे को बोनसाई रखने के गमले में रखा जा सके। तने के ठीक नीचे आपको जड़ों का एक गुच्छा मिलेगा। जड़ों को लगभग इस गुच्छे तक कतर देना चाहिए। लेकिन काटते वक्त गमले के व्यास का भी ध्यान रखें। गमले में पौधे को रखते समय गमले के किनारे से लगभग एक दो इंच की मिट्टी जड़ों से मुक्त होनी चाहिए।
बोनसई के लिए गमला सावधानी से चुनें। वह मजबूत और सुंदर होना चाहिए और बहुत गहरा नहीं होना चाहिए। उसके पेंदे में अनेक छोटे छेद होने चाहिए ताकि अतिरिक्त पानी उनसे बह निकल सके और जड़ों को हवा मिल सके। इन छेदों के ऊपर महीन नेटिंग (चाय की छानी जितनी महीन) लगाएं ताकि मिट्टी अतिरिक्त पानी के साथ बह न जाए और चींटियां आदि गमले के अंदर घुस न सकें। अब इस जाली के ऊपर मिट्टी फैलाएं। मिट्टी पौष्टिक एवं मजबूत होनी चाहिए ताकि बोनसाई उसमें आसानी से जम सके। मिट्टी की परत जब दो-तीन इंच मोटी हो जाए, तो ऊपर बताई गई विधि से तैयार किए गए पौधे को उसमें रखें और जड़ों के चारों ओर मिट्टी फैलाकर धीमे से दबा दें। अब मिट्टी के ऊपर बजरी और कंकरी फैलाएं ताकि सब कुछ साफ-सुथरा लगे।
बोनसाई के संबंध में एक गलत धारणा यह है कि उसे कम भोजन देना चाहिए ताकि उसका विकास अवरुद्ध रहे। दरअसल बोनसाई को खूब पोष्टिक भोजन बारबार देते रहना चाहिए, और पौधे के आकार को काट-छांट करके छोटा रखना चाहिए।
कुछ दिनों में जब पौधा गमले में जम जाए, उसकी टहनियों पर धातु के तार लपेटकर उसे मूल वृक्ष के जैसी आकृति दें। कुछ लोग टहनियों को नीचे की ओर झुकाने के लिए उनके साथ वजन भी बांधते हैं।
बोनसाई को खाद युक्त पानी बारबार देते रहना चाहिए। उसे ऐसी जगह रखें जहां उसे पर्याप्त धूप मिले।
कुछ साल बाद आपको गमले की मिट्टी बदलनी चाहिए क्योंकि उसमें पौष्टिकता कम हो गई होगी। इस अवसर का लाभ उठाकर आपको जड़ों के अनावश्यक फैलाव को भी कतरकर कम कर देना चाहिए।
जैसे-जैसे बोनसाई में आपकी रुचि बढ़ती जाएगी आप इस शौक के अन्य दीवानों के साथ भी मिलना-जुलना चाहेंगे और अपने बोनसाई को उन्हें दिखाकर वाहवाही लूटना चाहेंगे। इसलिए आपको इंडियन बोनसाई एसोसिएशन, दिल्ली का समदस्य बन जाना चाहिए। यहां से आपको बोनसाई के संबंध में उपयोगी जानकारी और सलाह भी मिल सकती है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 47 टिप्पणियाँ
लेबल: बोनसाई
बोनसाई -- दोने में दरख्त
बोनसाई बौने वृक्ष उगाने की प्राचीन कला का नाम है। उसका उद्भव सैंकड़ों वर्ष पहले भारत में हुआ था। उसके उद्भव की कहानी काफी रोचक है। आयुर्वेद में अनेक प्रकार की औषधियों का उपयोग होता है। वैद्य लोग अधिक उपोयगी औषधियों को अपने बगीचे में उगाते थे। इन औषधियों से बार-बार पत्ते, टहनी, फूल आदि तोड़े जाने से उनकी वृद्धि कुंठित हो जाती थी और वे बौनी ही रह जाती थीं। बाद में इन बौने पेड़-पौधों के मनोहर स्वरूप को देखते हुए उन्हें केवल सजावटी उद्देश्यों के लिए भी उगाया जाने लगा। जब बौद्ध भिक्षू-भिक्षुणियां बौद्ध धर्म का प्रचार करने चीन गए, तो वे इस कला को भी अपने साथ चीन ले गए। वहां से यह कला जापान पहुंची। जापान में ही इस कला ने सर्वाधिक उन्नति की।
जापान में पारंपरिक रूप से बौने वृक्ष प्रकृति से ही प्राप्त किए जाते थे। बर्फीली चट्टानों पर या बड़े वृक्षों की घनी छाया तले उग रहे वृक्षों का विकास कई बार कुंठित हो जाता है और वे बौने रह जाते हैं। ऐसे बौने पेड़ों को सावधानीपूर्वक उखाड़कर गमलों में पुनः रोपा जाता था। आज बहुत कम बोनसाई इस तरह तैयार किए जाते हैं। बोनसाई अब बीजों से अथवा बड़े पेड़ों की कलमों से उगाए जाते हैं और उसे काट-छांटकर मूल पेड़ का सा रूप दिया जाता है।
बोनसाई जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है "दोने में दरख्त"। बोनसाई उगाने के लिए जो गमला उपयोग किया जाता है, वह थाली जैसा उथला होता है। उसके पैर होते हैं, ताकि उसका पेंदा जमीन से उठा रहे। इससे पानी गमले से रिस जाता है और जड़ों तक हवा आसानी से पहुंचती रहती है। गमले में बहुत थोड़ी ही मिट्टी रहती है।
जापानी परंपरा में बोनसाई पैतृक संपत्ति माना जाता है। परिवार की सबसे बड़ी संतान बोनसाई की देखभाल करती है। बोनसाई को घर के बाहर ही रखा जाता है। केवल खास-खास अवसरों पर, जैसे किसी के जन्मदिन पर, उसे भीतर लाया जाता है, ताकि सब उसे देखकर आनंदित हो सकें। बोनसाई परिवार की एक मूल्यवान संपत्ति मानी जाती है और उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है।
बोनसाई तीन आकार में आता है। सबसे छोटे आकार के बोनसाई को एक हाथ से उठाया जा सकता है। मझले आकार के बोनसाई को दो हाथों से उठाया जा सकता है। बड़े आकार के बोनसाई को दो व्यक्ति मिलकर ही उठा सकते हैं।
सफल बोनसाई की कसौटी यह है कि उसे हर बात में एक बड़े पेड़ जैसा दिखना चाहिए, केवल आकार में वह छोटा होता है। बड़े पेड़ के ही समान तना, शाखाएं, पत्ते, फल-फूल आदि उसमें होने चाहिए।
वास्तव में बोनसाई बनाकर एक जीती-जागती कलाकृति को रूप दिया जाता है। आज विश्व भर में यह अद्भुत कला लोकप्रिय होती जा रही है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 12 टिप्पणियाँ
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Saturday, July 18, 2009
कल हमने देखी हैरी पोटर की नई फिल्म
कल मैं अपनी दोनों बेटियों के साथ हैरी पोटर एंड द हाफ ब्लड प्रिंस देख आया। मेरी पत्नी आने को राजी नहीं हुईं, उन्हें हैरी पोटर में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसके लिए हम उन्हें मगल कहकर चिढ़ाते हैं। (मगल क्या है यह वे ही जानेंगे, जो हैरी पोटर और उसकी दुनिया के बारे में कुछ जानते हों)।
मैं और मेरी बड़ी बेटी हैरी पोटर के बड़े फैन हैं, और हमने इस शृंखला की हर किताब खरीदकर पढ़ी है। हमारा नियम रहा है पुस्तक रिलीज़ होने के प्रथम दिन ही उसे खरीदकर पढ़ना। घर में बेटी और मुझमें इस बात को लेकर रौर मचता है कि कौन उसे पहले पढ़ेगा। अंत में हम दोनों में समझौता हो जाता है कि जब बेटी स्कूल में हो, मैं पढ़ूंगा और उसके स्कूल से लौट आने पर मुझे किताब उसके हवाले कर देना होगा। मुझे याद है, कभी-कभी इस किताब को पूरा करने के लिए मैंने आफिस से छुट्टी रखी है और रात भर जागकर अगली सुबह तक उसे पढ़कर पूरा किया है। यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है, क्योंकि इस शृंखला की बाद की किताबें 1000 पृष्ठ जितनी बड़ी हैं।
इसी तरह हैरी पोटर फिल्मों के रिलीज़ होने के पहले दिन ही उन्हें देख लेना हमारे लिए अनिवार्य है, नहीं तो ऐसा लगता है कि कुछ बहुत गलत हो गया। इसलिए हमारे लिए यह लाजिमी था कि अहमदाबाद में शुक्रवार को लंबी प्रतीक्षा के बाद जब हैरी पोटर एंड द हाफ ब्लड प्रिंस (जो इस शृंखला की छठी फ्लिम है) रिलीज़ हुई तो उसे तुरंत देख लिया जाए। टिकट आदि मिलने में कोई दिक्कत नहीं आई क्योंकि अहमदाबद मॉलों की राजधानी है और लगभग हर गली-मोहल्ले में एक मॉल है। हम एड लैब्स के थिएटर में गए, जो घर के निकट ही है। फिल्म अंग्रेजी और हिंदी दोनों में ही रिलीज़ हुई है, पर हमने अंग्रेजी में ही उसे देखा।
यह फिल्म भी अन्य हैरी पोटर फिल्मों की ही तरह भव्य थी। शुरू से ही एक्शन का धमाका शुरू हो जाता है। डेथ ईटर जिस तरह थेम्स नदी पर बने पुल को तोड़ते हैं, उसका फिल्मांकन लाजवाब है। फिल्म बड़ी तेजी से आगे बढ़ती है। कई अंशों में वह पुस्तक से भिन्न मार्ग अपनाती है, पर रोचकता अंत तक बनाए रखती है। अन्य हैरी पोटर फिल्मों में ड्रैगन, हिप्पोग्रिफ, दानव आदि कृत्रिम जानवरों का एनिमेशन सीक्वेन्स भी रहता था, पर इसमें वह सब नहीं है। केवल हैग्रिड द्वारा एक मरी हुई मकड़ी को दफनाने का छोटा सा दृश्य है। इसमें मकड़ी कोई पराक्रम नहीं करती, मरी जो है!
पुस्तक विधा का फिल्म विधा में रूपांतरण हमेशा एक कौतूहल का विषय होता है। होलीवुड इस काम में माहिर है। हैरी पोटर की किताबों में इतनी कल्पनाशील बातें हैं, कि पहली नजर में ऐसा ही लगता है कि इन्हें फिल्म माध्यम से व्यक्त करना असंभव होगा, पर अब तक आई सभी हैरी पोटर फिल्मों में इसे बखूबी कर दिखाया गया है।
हैरी पोटर की किताबें उन इने-गिने विश्व साहित्य की किताबों में से हैं जिनका हिंदी अनुवाद मूल अंग्रेजी किताब के प्रकाशित होते ही प्रस्तुत किया जा सका है। हैरी पोटर किताबों के हिंदी संस्करण को भोपाल के मंजुल प्रकाशन ने सुंदर रूप से प्रकाशित किया है। इन किताबों के अनुवादक हैं सुधीर दीक्षित। उन्होंने इन पुस्तकों का बहुत ही सफल अनुवाद किया है। मैंने प्रथम दो किताबों का हिंदी संस्करण खरीदा है और अंग्रेजी संस्करण से उनकी तुलना करके देखा है। अनुवाद मूल के बहुत निकट है और उतना ही रोचक। अनुवादक ने मूल पुस्तक के कई अंशों का देशीकरण सुंदर रीति से किया है। इससे पुस्तक की स्वाभाविकता बढ़ी है। उदाहरण के लिए मूल अंग्रेजी पुस्तक में जादुई सूत्रों के लिए लैटिन के पदों का उपयोग किया गया है। इनके लिए अनुवादक ने संस्कृत के वाक्य रखे हैं।
पुस्तक प्रकाशन के इतिहास में हैरी पोटर शृंखला एक अजीब सा फेनोमेनन है। ये पुस्तकें मुख्य रूप से बच्चों के लिए लिखी गई थीं, पर वे वयस्कों में भी उतनी ही लोकप्रिय हुईं। इन किताबों की मूल कथा भी हमारे रामायण, महाभारत आदि के समान अच्छे और बुरे की लड़ाई को लेकर चलती है। इन किताबों में हालांकि जादू की दृष्टि से सब कुछ देखा गया है, पर ये आधुनिक समाज की समस्याओं और दिशाओं का सुंदर चित्रण करती हैं और प्रगतिशील तत्वों का समर्थन करती हैं। उदाहरण के लिए इन किताबों में नशीली दवाओं के सेवन की निंदा, पारिवारिक मूल्यों का समर्थन, नस्लवाद की निंदा, अभिजातवाद की निंदी, मैत्री भावना की प्रशंसा, ऊंचे आदर्शों के लिए सब कुछ दांव पर लगाकर लड़ना, हमेशा सही बात का पक्ष लेना और विजयी होना, बुरे के साथ कभी समझौता न करना, इत्यादि सकारात्म विचारों को पोषित किया गया है, जिससे ये किताबें बच्चों पर अच्छा प्रभाव डाल सकती हैं।
हालांकि इन किताबों को लिखा है यूके की एक महिला ने (जे के रोलिंग) पर इसमें ईसाई धर्म या यूरोपीय सभ्यता के प्रति कहीं पक्षपात नहीं दिखाई देता। इस दृष्टि से इसे एनिड ब्लाइटन, विलयम, हार्डी बोइस, नेन्सी ड्रू आदि अन्य अंग्रेजी बाल साहित्य की तुलना में हमारे बच्चों के लिए अधिक उपयुक्त माना जा सकता है क्योंकि हमारे बच्चे इस किताब से आसानी से रिलेट कर सकते हैं। इन किताबों में एक दो गौण भारतीय पात्र भी हैं, जैसे होग्वर्ट्स स्कूल में पढ़नेवाली जुड़वा बहनें पद्मा और पार्वती। इन किताबों में लोगों की वेश भूषा, भोजन-पान आदि भी किसी समुदाय, वर्ग, या संस्कृति से निरपेक्ष हैं। इसलिए भी हमारे बच्चे इसे आसानी से पढ़ और समझ सकते हैं। और हमारे बच्चों को इन किताबों को अंग्रेजी में पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं है, ये किताबें हिंदी में भी उपलब्ध हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि हैरी पोटर की हिंदी किताबें भारत में हैरी पोटर के अंग्रेजी संस्करण से कई गुना ज्यादा बिकी हैं।
विदेशों में इन किताबों को लेकर इतना पागलपन है कि वहां हैरी पोटर के फैन जे के रोलिंग द्वारा पुस्तक पूरा करने से पहले ही अपनी ओर से अगला संस्करण लिखकर इंटरनेट पर डाल देते थे। मैंने हैरी पोटर के इस तरह के कई जाली संस्करण पढ़े हैं और कुछ तो इतने अच्छे हैं कि मूल जैसे ही लगते हैं। रूस के एक लेखक ने तो रूसी भाषा में हैरी पोटर पात्र को लेकर एक नई शृंखला ही शुरू कर दी है।
ऐसा हमारे यहां केवल रामायण को लेकर हुआ है। तुलसीदास, कंबन आदि की रामायण मूल वाल्मीकि रामायण जितनी ही लोकप्रिय और अच्छी बन पड़ी हैं। पर आधुनिक समय की किताबों को लेकर ऐसा देखने को नहीं मिलता। प्रेमचंद, अमृतनाल नागर, वृंदावनलाल वर्मा, निराला आदि के उपन्यासों के पात्रों को लेकर अन्य लेखकों द्वारा उपन्यास लिखा गया हो, ऐसा मैंने नहीं सुना है।
हां, एक उदाहरण मुझे याद आ रहा है। यह है भगवतीशरण वर्मा द्वारा लिखा गया उपन्यास, टेढ़े मेढ़े रास्ते। इस उपन्यास में वर्मा जी ने एक जमींदार और उसके बेटों की कहानी सुनाई है। एक बेटा गांधीवादी बनता है, एक क्रांतिकारी और एक कम्यूनिस्ट। लेखक ने इन तीनों का पतन दिखाकर यह साबित करने की कोशिश की है ये तीनों ही रास्तें वरण करने लायक नहीं हैं। इस उपन्यास को लेकर काफी बवाल मचा था और डा. रामविलास शर्मा ने उस पर एक बहुत ही तीखी आलोचना लिखी, जो इतनी व्यंग्यपूर्ण और उत्तम है कि मूल उपन्यास से भी ज्यादा रोचक है। उसमें डा. शर्मा ने उपन्यास लेखक पर आरोप लगाया है कि उन्होंने यह उपन्यास अमरीकी हितों को बढ़ावा देने और देश के विघटन को तेज करने के उद्देश्य से लिखा है।
इस उपन्यास के जवाब में रांगेय राघव ने एक उपन्यास लिखा, सीधे सच्चे रास्ते, जिसमें उन्होंने वे ही कथा-पात्र लिए जो टेढ़े मेढ़े रास्ते में हैं और उन तीनों बेटों द्वारा अपनाए गए मार्गों की अधिक सकारात्मक परिणति दिखाई। इस पुस्तक की भूमिका के रूप में उन्होंने डा. शर्मा द्वारा लिखी टेढ़े मेढ़े रास्ते की समालोचना को जोड़ दिया। इन तीनों को, यानी, टेढ़े मेढ़े रास्ते, डा. शर्मा द्वारा लिखी गई इस उपन्यास की समालोचना, और सीधी सच्चे रास्ते को, यदि कोई इसी क्रम में पढ़े, तो उसे सबसे अधिक मजा आएगा।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 11 टिप्पणियाँ
लेबल: भगवतीशरण वर्मा, रांगेय राघव, रामविलास शर्मा, हैरी पोटर
रोने का लाभ
अमरीका के मिनेसोटा नामक स्थान के वैज्ञानिकों के अनुसंधानों से पता चला है कि मनुष्य शायद तनाव की अवस्था में शरीर में बने हानिकारक रसायनों से पीछा छुड़ाने के लिए रोता है।
इन वैज्ञानिकों ने तनावग्रस्त अवस्था में आंखों से बहे आंसू और आंखों में धूल, हवा आदि घुसने पर बने आंसू का अलग से रासायनिक परीक्षण किया। उन्हें तनाव में बहे आंसुओं में अधिक मात्रा में हानिकारक रसायन मिले।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
Friday, July 17, 2009
जुकाम के जलवे
बारिश के मौसम के साथ ही बीमारियों का मौसम भी शुरू हो जाता है। एक आम बीमारी जुकाम है। उसके बारे में जानिए कुछ रोचक तथ्य।
औसतन एक व्यक्ति को हर साल 3-4 बार जुकाम हो जाता है। जुकाम की बीमारी एक विषाणु (वाइरस) के कारण होती है। जुकाम लाने के लिए केवल 10 विषाणुओं की जरूरत होती है। जुकाम पीड़ित व्यक्ति के छींकने पर थूक की छींटे उसके मुंह से 102 मील प्रति घंटे की रफ्तार से 12 फुट तक की दूरी तय कर सकती हैं।
जुकाम होने पर ऐंटीबयोटिक (जीवाणुनाशी) दवाइयां लेने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि जुकाम जीवाणुओं के कारण नहीं होता। ऐंटीबयोटिक जीवाणुओं के विरुद्ध ही असरकारक होते हैं। जुकाम होने पर आमतौर पर बुखार नहीं आता। यह आम धारणा कि जुकाम ठंड लगने से होती है, विज्ञानसिद्ध नहीं है। यदि व्यक्ति थका हुआ और तनावग्रस्त हो, तो वह अधिक आसानी से जुकाम की चपेट में आ सकता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
Thursday, July 16, 2009
सब खुश हैं बादलों के शासन में
अब बरसात का मौसम अच्छी तरह जम गया है और पिछले तीन-चार दिनों से हर दिन दो-तीन घंटे तेज बारिश हो रही है। अब 42 डिग्री वाली गरमी के वे त्रस्त कर देनेवाले दिन भूल से गए हैं और दिल-दिमाग पर नई ऋतु के आगमन की फिजा छा गई है। मौसम का हम पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है! शायद इसलिए बड़े कवियों ने बादल, वर्षा, गर्मी, बसंत आदि पर खूब कलम चलाई है। निराला के बादल गीत तो प्रसिद्ध ही हैं। उन्हीं में से एक यहां दे रहा हूं, देखिए वह कैसे हम सबके मन की बात व्यक्त कर रहा है –
बादल-राग
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।
राग-अमर! अंबर में भर निजर रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु तरु-ममर्र, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव-घोर कठोर-
राग-अमर! अंबर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष।
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!
उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल, -
मेरे पागल बादल!
धंसता दलदल,
हंसता है नद खल-खल
बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल-बेकल,
इस मरोर से-इसी शोर से-
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
राज अमर! अंबर में भर निज रोर!
- निराला
वर्षा के आगमन से हमारा ही नहीं पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों का भी हृदय नाच रहा है। हमारी बालकनी के नीचे, सोसाइटी की परिधि की दीवार के किनारे पीपल का एक पौध उग आया है। अब तक वह बेचरा कुम्हलाया, मरियल सा ही था। कंकरीट स्लैबों से पटी सोसाइटी के आंगन में उसे कहां पानी और पोषण मिल पाता होगा। पर इन कुछ दिनों की बारिश से उसमें नई जान आ गई है। उसके खूब कोपलें फूट रही हैं, और देखते ही देखते उसने अपना कद दो-चार इंच बढ़ा लिया है। वह अधिक दिनों का मेहमान नहीं है, क्योंकि जैसे ही वह थोड़ा और बड़ा हो जाएगा, सोसाइटी का रखरखाव करनेवालों की नजर उस पर पढ़ेगी और वे उसे जरूर उखाड़ डालेंगे। कौन पीपल जैसा विशाल पड़े अपने आंगन में चाहेगा। पीपल जंगलों, गांवों, बगीचों और खुले प्रदेशों में ही फबता है। कंकरीट जंगल में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। पर फिर भी जब तक वह जिए खुशी से जिए। मैं रोज सुबह बालकनी से झांककर उसे देख लेता हूं और उसे अब भी जीवित पाकर मुझे अच्छा लगता है।
घर की बालकनी में पक्षियों के लिए रखा बचा-खुचा भोजन खाने और पानी पीने आनेवाले पक्षी भी पहले जैसे प्यास और गरमी से परेशान नहीं लगते हैं। लंगूर जो गर्मियों में लगभग रोज ही सोसाइटी का चक्कर लगा जाते थे, अब कम दिखने लगे हैं। अब पानी और भोजन उन्हें बाग-बगीचों और खुले स्थानों के पेड़-पौधों में बारिश के बाद आई नई वृद्धि से मिलने लगे हैं।
सब कुछ बढ़िया चल रहा है, एक ही चिंता है, आज मौसम विभाग ने अगले दो दिनों में घनघोर बारिश की भविष्यवाणी की है, जिससे लगता है अगले दो दिन शुष्क रहेंगे!
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
Wednesday, July 15, 2009
राहुल सांकृत्यायन चर्चा : सहमति
इस लेख माला का संदर्भ जानने के लिए पहले का यह लेख देखें - राहुल सांकृत्यायन और डा. रामविलास शर्मा
पहले सोचा था कि डा. रामविलास शर्मा ने राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं की समालोचना करते हुए राहुल जी की निराधार धारणाओं के उदाहरणों का जो ढेर लगाया है, उसका विस्तार से चर्चा करूं, पर अब सोचता हूं कि इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। आपको ही इतिहास दर्शन में इन्हें पढ़ लेना होगा। मेरा उद्देश्य डा. रामविलास शर्मा की इस महत्वपूर्ण पुस्तक की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना भर है।
प्रसंगवश कह दूं कि इस पुस्तक में ऋग्वेद चर्चा (प्रथम अध्याय) और राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं की समालोचना (अंतिम अध्याय) के अलावा यूनानी दार्शनिक परंपरा के अंतर्विरोधों का भी सांगोपांग विवेचन हुआ है और डा. शर्मा ने प्लैटो, अरस्तू, सुकरात, देमोस्थेनेस आदि के दर्शनों पर भी इसी तरह आलोचनात्मक दृष्टि डाली है। इसके साथ-साथ सिकंदर का भारत से पलायन, यूनान और यूरोप के दार्शनिक संबंध, भारत-यूनान-यूरोप के संबंध आदि पर भी नई दृष्टि से विचार किया है।
अंत में मैं इतिहास दर्शन के राहुल संबंधी अध्याय के "उपसंहार" से कुछ अंश यहां उद्धृत करता हूं, जिसमें डा. शर्मा ने राहुल सांकृत्यायन की उपयोगी धारणाओं को रेखांकित किया है। उन्हीं के शब्दों में –
उनके (यानी राहुल जी के) लेखन में पूर्वाग्रहों और निराधार कल्पनाओं की ऐसी भरमार है कि उनमें उनकी थोड़ी-सी सही धारणाएं भी खो जाती हैं। पर वे महत्वपूर्ण हैं और उनमें से कुछ को मैं यहां दुहरा रहा हूं।
“वैदिक ऋषि यथार्थवादी थे। वे दुनिया को जैसा देखते थे, वैसा मानते थे और उसमें अधिक से अधिक आनंद उठाना चाहते थे।” – मानव समाज
“उपनिषदकार स्वयं, यज्ञों के व्यर्थ के लंबे-चौड़े विधि-विधान के विरुद्ध एक नई धारा निकालने वाले थे।” – दर्शन दिग्दर्शन
“पुनर्जन्म के दार्शनिक पहलू को और मजबूत करते हुए बुद्ध ने पुनर्जन्म का पुनर्जन्म प्रतिसंधि के रूप में किया... बुद्ध ने कर्म के सिद्धांत को और मजबूत किया” – वहीं
“प्रतीत्य समुत्पाद कार्यकारण को अविच्छिन्न नहीं विच्छिन्न प्रवाह मानता है। प्रतीत्य समुत्पाद के इसी विच्छिन्न प्रवाह को लेकर आगे नागार्जुन ने अपने शून्यवाद को विकसित किया।” - वहीं
“नागार्जुन का दर्शन – शून्यवाद – वास्तविकता का अपलाप करता है। दुनिया को शून्य मानकर उसकी समस्याओं के अस्तित्व से इन्कार करने के लिए इससे बढ़कर दर्शन नहीं मिलेगा।” – वहीं
“वादरायण ने कहीं भी जगत को माया या काल्पनिक नहीं माना है और न उनके दर्शन से इसकी गंध भी मिलती है कि ‘ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है’।” – वहीं
“शंकर के ब्रह्म अद्वैतवाद और सूफियों के अद्वैतवाद में कोई अंतर नहीं है।” – वहीं
“छोटे-छोटे सामंत राज्यों को विशाल राज्यों में परिवर्तित करने में बनियों का हाथ भी रहा है। हम छठी-सातवीं ई.पू., में मगध (दक्षिण बिहार) के सौदागरों को रावलपिंडी, भड़ौच, तक्षशिला, ताम्रलिप्ति अपना सार्थ लेकर क्रय-विक्रय करते देखते हैं।” – मानव समाज
“व्यापारवाद का जोर भारत तथा दूसरे एशियाई देशों में बहुत पहले से चला आता था। जावा, चीन, अरब और अफ्रीका (मिस्र) के साथ सीधा व्यापार-संबंध भारतीय व्यापारियों ने उस वक्त स्थापित किया था, जब कि अभी अरबों और आज की यूरोपीय जातियों का नाम तक सुना नहीं जाता था।” – वहीं
“सारे संघ की राष्ट्रभाषा के अतिरिक्त हिंदी का अपना विशाल क्षेत्र है। हरियाणा, राजपूताना, मेवाड़, मालवा, मध्य प्रदेश, युक्त प्रांत और बिहार हिंदी की अपनी भूमि है। यही वह भूमि है जिसने हिंदी के आदिम कवियों सरह, स्वयंभू आदि को जन्म दिया। यही भूमि है, जहां अश्वघोष, कालिदास, भवभूति और बाण पैदा हुए। यही वह भूमि है जहां कुरु (मेरठ-अंबाला) और पांचाल (आगरा, रुहेलखंड) की भूमि में वसिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज ने ऋग्वेद के मंत्र रचे, और प्रवाहण, उद्दालक और याज्ञवल्क्य ने अपनी दार्शनिक उड़ानें कीं।” – हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयास का अध्यक्षीय भाषण
इन स्थापनाओं से भारत का सांस्कृतिक इतिहास लिखने में सहायता ली जा सकती है।
डा. शर्मा ने अपने अनेक पुस्तकों में इतनी सारी उपयोगी विचार दिए हैं कि यदि उन्हें ईमानदारी से कार्यान्वित किया गया होता तो आज की बहुत सी समस्याओं का निराकरण हो जाता। इनमें शामिल हैं, सांप्रदायिकता, जातियतावाद, अंग्रेजी का प्रभुत्व, देश का विदेशी पूंजी के अधीन हो जाना, हिंदी-उर्दू का विवाद, भारत का विखंडन और उससे जुड़ी विकट राजनीतिक मसले (जैसे आजकल का आतंकवाद), इत्यादि।
उनकी अपनी पीढ़ी से तो यह न किया जा सका, अब आशाएं युवा पीढ़ी से है कि वह उनकी पुस्तकों का वाचन करके उनके विचारों को आत्मसात करेगी और उन्हें क्रियान्वित करेगी।
इतिहास दर्शन, डा. रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, www.vaniprakashan.com ने प्रकाशित की है। मूल्य है रु. 495 और प्रकाशन वर्ष है 2007.
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन
Tuesday, July 14, 2009
बताइए अस्त-व्यस्त वस्त्र नियंत्रक क्या है
आज ईमेल में यह मिला। शायद आपने इनके बारे में पहले भी पढ़ा होगा, फिर भी यादें ताजा कर लीजिए। यदि नहीं पढ़ा हो तो ये आपको बहुत मजेदार लेगेंगी। वैसे भी इन्हीं के वंशज, डिसिप्लिनाचार्य और साइबरित्य ब्लोग जगत में आजकल धूम मचाए हुए हैं। अतः उनके पूर्वजों को याद कर लेना उचित होगा –
लाइट बल्ब – विद्युत प्रकाशक कांच गोलक
टेबल टेनिस – लकड़ी के फलक क्षेत्र पर ले टकाटक दे टकाटक
क्रिकेट – गोल गुट्टम लकड़ बट्टम दे दनादन प्रतियोगिता
ट्रैफिक सिग्नल – आवत जावत सूचक झंडा
मैच बोक्स – रगड़मपट्टी अग्नि उत्पादन पेटी
टाई – कंठ लंगोठी
सिगरेट – श्वेत पत्र मंडित धूम्र शलाखा प्रवीण
मोस्किटो – गुंजनहारी मानव रक्त पिपासु जीव
बटन – अस्त-व्यस्त वस्त्र नियंत्रक
रेलवे स्टेशन – भकभक अड्डा
रेलवे सिगनल – लौह पथ गामिनी आवागमन सूचक यंत्र
ओल रूट पास – यत्र-तत्र सर्वत्र गमन आज्ञापत्र
ट्रेन – सहस्र चक्र लौह पथ गामिनी
टी – दुग्ध जल मिश्रित शर्करा युक्त पर्वतीय बूटी
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 13 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध
राहुल सांकृत्यायन चर्चा : ऋग्वेद के दार्शनिक महत्व का अवमूल्यन
इस लेख माला का संदर्भ जानने के लिए पहले का यह लेख देखें - राहुल सांकृत्यायन और डा. रामविलास शर्मा
राहुल जी में जो अनेक अंतर्विरोध हैं, उनमें से एक ऋग्वेद के दार्शनिक महत्व को लेकर है। वे ऋग्वेद को दार्शनिक दृष्टि से महत्वहीन मानते हैं, पर उनके ही विवेचन से ऋग्वेद का असाधारण दार्शनिक महत्व स्पष्ट होता है। पढ़िए डा. शर्मा के ही शब्दों में –
दर्शन-दिग्दर्शन में जो बात सबसे पहले उभरकर सामने आती है, वह यह है कि बौद्ध धर्म के उद्भव से पहले यहां एक शानदार दार्शनिक परंपरा थी और उसे हम धर्मनिरपेक्ष कह सकते हैं। उसमें उपासना का अभाव नहीं है किंतु स्वतंत्र चिंतन उसकी विशेषता है। वह दर्शन रूढ़िबद्ध नहीं है। उसमें अनेक धाराएं हैं। विशेष बात यह कि वह संसार को सत्य मानता है। उसे हम यथार्थवादी दर्शन कह सकते हैं। राहुल जी ने ‘बुद्ध के पहले के दार्शनिक’ शीर्षक देकर सबसे पहले चर्वाक का नाम लिया है। उनकी विचारधारा का सारांश यह बताया है : “ईश्वर नहीं, आत्मा नहीं, पुनर्जन्म और परलोक नहीं जीवन के भोग त्याज्य नहीं ग्राह्य हैं। अनुभव और बुद्धि को हमें सत्य के अन्वेषण के लिए अपना मार्गदर्शन बनाना चाहिए।“ यहां कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका विरोध किसी यथार्थवादी दार्शनिक से हो। यह भौतिकवादी दर्शन है और इसकी बुनियाद, राहुल जी के अनुसार, बुद्ध से पहले डाली जा चुकी है। चर्वाक से और पहले भी यहां दार्शनिक परंपराएं थीं। सबसे पहले यहां ऋग्वेद की दार्शनिक परंपरा है। देखना चाहिए राहुल जी ऋग्वेद के दर्शन के बारे में क्या कहते हैं।
कहते हैं, “जिसे हम दर्शन कहते हैं, वह वैदिक काल में दिखलाई नहीं पड़ता।” इस तरह ऋग्वेद में यदि कोई दर्शन था, तो उसका सफाया हो गया। किंतु उसी पृष्ठ पर वह ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त से लंबा उद्धरण देते हैं। और उद्धरण के बाद कहते हैं, “यहां हम उन प्रश्नों को उठते हुए देखते हैं, जिनके उत्तर आगे चलकर दर्शन की बुनियाद कायम करते हैं। विश्व पहले क्या था? इसका उत्तर किसी ने सत अर्थात वह सदा से ऐसा ही मौजूद रहा – दिया। किसी ने कहा कि वह असत, नहीं मौजूद, अर्थात सृष्टि से पहले कुछ नहीं था। इस सूक्त के ऋषि ने पहले वाद के प्रतिवाद का प्रतिवाद (प्रतिषेध) करके – ‘नहीं सत था नहीं असत -’ द्वारा अपने संवाद को पेश किया।" यदि ऋग्वेद में वे बुनियादी प्रश्न प्रस्तुत किए गए हैं, जिनसे आगे का दर्शन विकसित होता है, तो यह भी ऋग्वेद का दार्शनिक महत्व है। यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें दर्शन का नितांत अभाव है। इसके सिवा तर्क पद्धति में यह बात ध्यान देने की है कि पहले स्थापना है, फिर प्रतिस्थापना है; दोनों के बाद एक नई संस्थापना है। राहुल जी ने इसी को प्रतिवाद का प्रतिवाद कहा है और अंत में जो निष्कर्ष निकलता है, उसे संवाद कहा है। इसका अर्थ यह है कि जिसे डायलेक्टिक्स या द्वंद्ववाद कहते हैं, उसकी शुरुआत ऋग्वेद में हो चुकी है। यह ऋग्वेद का असाधारण महत्व है।
डा. रामविलास शर्मा ने ऋग्वेद का गहन अध्ययन किया है। ऋग्वेद को वे हिंदी जाति का आदि ग्रंथ मानते हैं और उसके अध्ययन में उन्होंने दस वर्ष बिताए। इसके आधार पर उन्होंने कई ग्रंथ रचे, जिनमें से एक इतिहास दर्शन भी है। भाषा और समाज और भारत के भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंड) में भी ऋग्वेद की खूब चर्चा है। इतिहास दर्शन के प्रथम अध्याय में उन्होंने ऋग्वेद और उसे रचनेवाले ऋषियों पर अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है। इस अध्याय में उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों द्वारा ऋग्वेद के संबंध में फैलाई गई भ्रांत धारणाओं का खंडन किया है। वे ऋग्वेद को सिंधु घाटी सभ्यता से पहले की चीज मानते हैं, और उसे 5 से 10 हजार साल पहले का साहित्य मानते हैं। विदेशी विद्वान उसे ईसा पूर्व 1500 के आसपास बताते हैं, यानी 3-3.5 हजार साल पुराना।
ऋग्वेद के संबंध में डा. शर्मा की कुछ महत्वपूर्ण मान्यताएं ये हैं –
- ऋग्वेद वर्णाश्रम धर्म के प्रकट होने से पहले रचा गया है। उसमें ब्राह्मण, शूद्र के विभाजन का कोई संकेत नहीं है।
- ऋग्वेद मात्र धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि उसमें हमारे पूर्वजों का इतिहास और स्मृतियां भी हैं।
- ऋग्वेद रचने वाले ऋषि कहीं बाहर से नहीं आए थे, बल्कि यहीं के लोग थे।
- सिंधु घाटी सभ्यता ऋग्वेदिक आर्यों के बाद की चीज है और दोनों में घनिष्ट संबंध है।
- ऋग्वेदिक आर्यों की संस्कृति के अंश व्यापार, दिग्विजय आदि के कारण ईरान, यूनान, जर्मनी, मध्य एशिया आदि में फैले, जिसके प्रमाण हैं इन जब जगहों में पाई जानेवाली भाषाओं में संस्कृत के शब्दों का मिलना। पाश्चात्य विद्वानों ने गंगा की धारा को उल्टा बहाकर यह प्रमाद फैलाया कि आर्य मध्य एशिया से भारत आए। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे अंग्रेजों द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण को सही ठहराना चाहते थे और यहां के जन-समुदाय में फूट डालना चाहते थे। राहुल सांकृत्यायन जैसे कुछ देशी विद्वानों ने भी पाश्चात्य विद्वानों के इस द्वेषपूर्ण प्रचार को बिना सोचे-समझे अपना लिया। डा. शर्मा कहते हैं कि यह धारणा देश की एकता के लिए काफी घातक है क्योंकि इससे यह अर्थ भी निकलता है कि आर्य लोगों ने यहां के लोगों को मारकर दक्षिण की ओर खड़ेद दिया और उन्हें शूद्र बनाया। इस गलत धारणा को दक्षिण की द्रविड पार्टियों ने अपना लिया था और वे दक्षिण में इसी के आधार पर अलग देश की मांग भी करने लगी थीं। हिंदी विरोध में भी इस धाराणा का उपयोग किया जाता है। इसलिए आर्यों के बाहर से आने की भ्रांत धारणा को खारिज करना देश की एकता के लिए बहुत जरूरी है। हमारा सौभाग्य है कि डा. शर्मा जैसे विद्वानों के प्रयास से अब बहुत कम लोग ऐसे रह गए हैं जो इस बात को मानते हैं कि आर्य बाहर से आए थे।
- आर्यों के बाहर से आने की धारणा को सबसे अधिक पाश्चात्य भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में माना गया है। भारत के विश्वविद्यालयों में भाषा विज्ञान के विभागों में भी इस गलत धारणा का बहुत अधिक प्रभाव है। दरअसल यहां जो भी भाषा वैज्ञानिक शोध होता है, वह पाश्चत्य विश्वविद्यालयों द्वारा नियत मानदंडों के अनुसार होता है, जो हमारे देश के हित में नहीं है। डा. शर्मा ने अपनी पुस्तकों के जरिए भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिए नई राहें काटकर दी हैं। उन्होंने किशोरीदास वाजपेयी जैसे देशी वैयाकरणों के काम को आगे बढ़ाया है। दुख की बात यही है कि देशी विश्वविद्यालयों ने उनके इस पथ-प्रशस्तक कार्य को अब भी महत्व नहीं दिया है। हिंदी जाति की उन्नति के लिए डा. शर्मा की इन मान्यताओं के महत्व को देखते हुए, जनता को ही अपने-अपने स्तर पर उनका अध्ययन करना चाहिए और उसे आगे बढ़ाना चाहिए।
इतिहास दर्शन, डा. रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, www.vaniprakashan.com ने प्रकाशित की है। मूल्य है रु. 495 और प्रकाशन वर्ष है 2007.
(... जारी)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
लेबल: रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन
Monday, July 13, 2009
क्या ब्लोग साहित्य है? - शिवकुमार मिश्र जी को उत्तर
मेरे क्या ब्लोग साहित्य है? लेख पर शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पांडेय का ब्लोग में मिश्र जी ने एक पोस्ट लिखा है जिस पर काफी प्रतिक्रियाएं आई हैं। मैं इस पोस्ट पर देर से पहुंचा इसलिए इस बहस में वहां भाग न ले पाया, पर सब टिप्पणियों के अंत में मैंने अपनी टिप्पणी लगा दी है। इसके पढ़े जाने की कम संभावना है क्यों यह पोस्ट कुछ दिन पहले का है, इसलिए मेरी इस टिप्पणी को जयहिंदी में भी दुहरा रहा हूं -
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इस चर्चा में मैं देर से पहुंचा, पर यह एक तरह से अच्छा ही हुआ क्योंकि सबकी बातें पढ़कर जवाब दे सकता हूं। वैसे कहने को कुछ ज्यादा है नहीं, बाकी लोग काफी कह गए हैं।
पहली बात, शिव जी, कि आप साहित्य और ज्ञान को एक नहीं मान सकते। ज्ञान पल-पल बदलता है, पर साहित्य अधिक स्थायी चीज है, वरना हम आज भी क्यों रामायण-महाभारत का रस ले पाते हैं उन्हें पढ़ते हैं? या आज प्रकाशित उपन्यासों की तुलना में एक शताब्दी से भी पहले प्रकाशित प्रेमचंद, निराला, अमृतलाल नागर या वृंदावनलाल वर्मा की उपन्यास-कहानियों में ज्यादा रस ले पाते हैं?
इसलिए कि ये सब किताबें समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। इन्हें कई पीढ़ियों ने पढ़ा है और अनुभव किया है कि ये काम की चीजें हैं, और उन्हें दुबारा-तिबारा पढ़ना समय का अपव्यय नहीं है। साहित्य हमें यह आश्वासन देता है।
क्या ब्लोगों में लिखी चीजों के बारे में यह कहा जा सकता है? निश्चय ही कुछ पोस्ट कालजयी हैं, और आगे चलकर साहित्य बनेंगे। यह तो मैंने भी कहां नकारा है? पर अधिकांश पोस्ट?
दूसरी बात जो कहने को रहती है, वह यह कि साहित्य को कौन सहेजकर रखता है? आपने तथा टिप्पणीकारों ने किताब, प्रकाश्क, पुस्तकालय, विश्वविद्यालय आदि का नाम लिया है, पर यह काम करनेवाले सबसे महत्वपूर्ण तबके को आप सब भूल गए - जनता। अच्छे साहित्य को जनता जीवित रखती है। नहीं तो रामचरितमानस, कबीर, सूर आदि का साहित्य जो शूरू में लिखे ही नहीं गए थे मौखिक रूप में ही उनका अस्तित्व था, आज हमारे आस्वादन के लिए उपलब्ध ही नहीं रहते।
ब्लोगरों को अच्छा न लगना स्वाभाविक है कि उनका लिखा अधिकांश साहित्य नहीं है। इतनी तीखी प्रतिक्रिया जो आई है, वही साबित करता है कि मन ही मन वे यह चाहते हैं कि उनके लिखे को साहित्य माना जाए। यह अच्छी बात भी है। पर साहित्य क्या है यह समझना भी जरूरी है। मैंने इसे परिभाषित करने की अपनी क्षमता के अनुसार कोशिश की है। जो लेखन कल्याणकारी हो, जो किसी वर्ग-विशेष मात्र का पोषक न हो, वह लेखन साहित्य है। इसके साथ ही उसमें सौंदर्य, संप्रेषेणीयता, गरिमा, आदि अन्य गुण भी होने चाहिए। मैं सब ब्लोगों को नहीं पढ़ता हूं, संभव भी नहीं है, कुछ 10,000 ब्लोग हैं हिंदी के, पर निश्चय ही इनमें ऐसा काफी कुछ लिखा जाता होगा, जो साहित्य है, उसे बाहर लाना चाहिए, पहचानना चाहिए, और जनता के सम्मुख रखना चाहिए, यदि वह उनके काम की चीज हो, क्योंकि जनता अभी ब्लोगों तक पहुंचने की स्थिति में नहीं है, और जनता ही साहित्य का असली पोषक होती है।
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लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 12 टिप्पणियाँ
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राहुल सांकृत्यायन चर्चा : दर्शन और धर्म का घालमेल
इस लेख माला का संदर्भ जानने के लिए पहले का यह लेख देखें - राहुल सांकृत्यायन और डा. रामविलास शर्मा
डा. शर्मा ने राहुल जी के विचारों के विवेचन के लिए उनके जिन ग्रंथों को चुना है, वे ये हैं –
- अकबर
- ऋग्वेदिक आर्य
- जय यौधेय
- दर्शन दिग्दर्शन
- दिमागी गुलामी
- दिवोदास
- मानव समाज
- विविध प्रसंग
- वैज्ञानिक भौतिकवाद
- वोल्गा से गंगा
- संस्कृत काव्यधारा
- साम्यवाद क्यों?
- सिंह सेनापति
इस लेख माला को ठीक से समझने के लिए आपको पहले इन किताबों को पढ़ लेना चाहिए।
राहुल जी की सबसे महत्वपूर्ण दर्शन ग्रंथ दर्शन-दिग्दर्शन है। डां. शर्मा ने उसका बारीकी से अध्ययन करके उनमें विद्यमान अंतर्विरोधों को उजागर किया है। वे कहते हैं कि इस ग्रंथ में राहुल जी ने बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की है, और इसके लिए उन्होंने भारत की बौद्धेतर दार्शनिक परंपराओं का मूल्य कम आंका है। इतना ही नहीं राहुल जी पर पाश्चात्य विद्वानों का अत्यधिक प्रभाव है और उन्होंने इन विद्वानों की अनेक भ्रांत और द्वेषपूर्ण धारणाओं को बिना विचारे अपना ही नहीं लिया है, अपनी उर्वर कल्पनाशीलता से काम लेते हुए उन्हें और पुष्ट भी किया है, विशेषकर अपने उपन्यासों और कहानियों में।
अपनी पुस्तक दर्शन-दिग्दर्शन में राहुल जी भारतीय दर्शन परंपरा की चर्चा केवल आठवीं-नौवीं सदी तक ही करते हैं पर पाश्चात्य दर्शन परंपरा को प्लेटो के समय से लेकर ठेठ आधुनिक समय तक खींच लाते हैं। इससे भारतीय दर्शन शास्त्र अपनी पूरी भव्यता के साथ इस किताब में नजर नहीं आता। इतना ही नहीं भारत में दर्शन हमेशा से धर्म-निरपेक्ष रहा है, पर राहुल जी धर्म और दर्शन का घाल मेल कर देते हैं, और भारतीय दर्शन परंपरा को हिंदू परंपरा, बौद्ध परंपरा, जैन परंपरा, मुसलमान परंपरा आदि में बांटकर उसके वैभव को नष्ट कर देते हैं। पर यही नीति वे पाश्चात्य दर्शन के संबंध में नहीं करते, जिनके कई प्रवर्तक खुलेआम धर्माचार्य भी थे। इससे पाश्चात्य दर्शन उनकी किताब में धर्म-निरपेक्ष के रूप में दिखाई देता है, जब भारतीय दर्शन धर्म से बंधा हुआ। यह भी राहुल जी पर पाश्चात्य चिंतन के अत्यधिक प्रभाव का एक उदाहरण है।
दर्शन दिग्दर्शन की भूमिका के आरंभ में राहुल जी ने राधाकृष्णन का यह वाक्य उद्धृत किया है –
“प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न हो, सदा एक संवतंत्र स्थान रखता रहा है।”
इस पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं -
“भारतीय साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो किंतु धर्म का लग्गू-भग्गू तो वह सदा से चला आता है और धर्म की गुलामी से बदतर गुलामी और क्या हो सकती है?”
इस पर डा. शर्मा अपनी पुस्तक इतिहास दर्शन में यह टिप्पणी करते हैं –
पाश्चात्य लेखक अक्सर भारत में दर्शन का अस्तित्व अस्वीकार करते हैं। उनका तर्क होता है भारत में धर्म तो है लेकिन विवेकसम्मत दर्शन नहीं है। राहुल जी ने उन्हीं की बात अपने शब्दों में दुहराई है। यदि भारतीय दर्शन धर्म का पिछलग्गू बना रहा तो इसमें बौद्ध दर्शन भी शामिल होगा। यदि धर्म की गुलामी से बतदर और कोई गुलामी नहीं है, तो इस गुलामी के शिकार स्वयं राहुल सांकृत्यायन भी थे। इसलिए कि वे बौद्ध धर्म और बौद्ध दर्शन में सदा फर्क नहीं करते। बोद्ध दर्शन ही नहीं, बौद्ध धर्म के प्रति उनका आग्रह कभी-कभी विवेक की सीमा पार कर जाता है। राहुल जी में अनेक अंतर्विरोध हैं। इन अंतर्विरोधों को ध्यान में रखते हुए उनका मूल्यांकन करना चाहिए।
इतिहास दर्शन, डा. रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, www.vaniprakashan.com ने प्रकाशित की है। मूल्य है रु. 495 और प्रकाशन वर्ष है 2007.
(...जारी)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन
Sunday, July 12, 2009
राहुल सांकृत्यायन और डा. रामविलास शर्मा
पिछले एक पोस्ट, क्या ब्लोग साहित्य है? में मैंने राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं के बारे में डा. रामविलास शर्मा के मत का जिक्र किया था, जो उन्होंने अपनी पुस्तक इतिहास दर्शन के "इतिहास दर्शन और राहुल सांकृत्यायन" वाले अध्याय में व्यक्त किए हैं।
यह पुस्तक वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, www.vaniprakashan.com ने प्रकाशित की है। मूल्य है रु. 495 और प्रकाशन वर्ष है 2007.
इस लेख पर जो टिप्पणियां प्राप्त हुईं उनमें से दो टिप्पणियों में इस उल्लेख के बारे में क्षोभ व्यक्त किया है। एक टिप्पणी स्मार्ट इंडियन की है और दूसरी अजित वडनेरकर की।
इस मामले में मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है ताकि यह धारणा न बने कि मैं राहुल सांकृत्यायन जैसे वरिष्ठ और महत्वपूर्ण हिंदी साहित्यकार के प्रति अवज्ञा या अनादर रखता हूं। बात ऐसी नहीं है। मेरे लिए सभी हिंदी साहित्यकार आदरणीय और पूज्य हैं, पर मैं उन्हें और उनके साहित्य को अलग-अलग समझता हूं। साहित्यकारों की हिंदी सेवा के सामने नत-मस्तक होते हुए भी मैं उनके साहित्य को स्वतंत्र दृष्टि से देखने-परखने का पक्षधर हूं। साहित्य समय-सापेक्ष होता है और उसमें साहित्यकार के पूर्वाग्रह, उसके समय के ज्ञान की सीमाएं, उसकी परिस्थितियां आदि का अनिवार्य प्रभाव पड़ता है। इन सब प्रभावों से नियंत्रित होकर वह जो साहित्य रचता है, उसके कुछ या अधिक अंश ऐसे भी हो सकते हैं जो बाद की पीढ़ियों के लिए अनिष्टकारी हों। इसलिए किसी साहित्य को ग्रहण करने से पहले उसे भली-प्रकार ठोंक-बजा लेना बुद्धिमानी है। साहित्य का हम पर काफी गहरा असर पड़ता है और वह हमारे सोचने-जीने के नजरिए को बदलने की ताकत रखता है। इसलिए किसी साहित्य को अपनाते समय यह जान लेना जरूरी है कि वह हम पर किस तरह का प्रभाव डाल सकता है।
हमारे यहां एक दुखद प्रवृत्ति देखी जाती है कि हम “बड़े” लोगों को, चाहे वे साहित्यकार हों या नेता, पूजनीय बनाकर किसी चबूतरे पर बिठा देते हैं और उनके साहित्य को पढ़ना या उनके उपदेशों पर आचरण करना जरूरी नहीं समझते। राहुल सांकृत्यायन जैसे साहित्यकारों की रचनाओं पर आलोचनात्मक दृष्टि डालकर इस प्रवृत्ति को कमजोर किया जा सकता है। मैं चाहता हूं कि लोग राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं को पढ़ें और पढ़ते वक्त अपनी क्षीर-नीर बुद्धि को भी साथ में रखें।
स्मार्ट इंडियन और अजित वडनेरकर की टिप्पणियों का स्पष्टीकरण मुझे डा. शर्मा की उक्त पुस्तक के अंश देकर करना होगा। यह काम अनेक पोस्टों में करना पड़ेगा अन्यथा बात बहुत नीरस हो जाएगी।
डा. शर्मा बड़े ही गंभीर समालोचक हैं और उनकी लेखनी को चंद पस्टों में समेटना खतरे से खाली नहीं है। उससे अतिसरलीकरण हो सकता है और उनकी मूल भावना विकृत हो सकती है। इसलिए पाठकों से मेरा निवेदन है कि इस लेख माला को एक संकेत मात्र मानकर उनकी किताब इतिहास दर्शन को ही पढ़ने की कोशिश करें, और उसी के आधार पर अपना मत बनाएं, न कि मेरे इन लेखों के आधार पर।
एक दूसरी बात भी कहना आवश्यक है। डा. शर्मा के विचार उनके अनेक पुस्तकों में बिखरे पड़े हैं। जो विचार बीज रूप में एक किताब में आए हैं, उन्हें उनकी किसी अन्य किताब में और उन्मीलित किया गया है। इसलिए उनकी विचारधारा को समझने के लिए आपको उनकी संपूर्ण रचनावली को पढ़ना पड़ेगा। यह काम आपके लिए आसान नहीं होगा क्योंकि डा. शर्मा ने अपने लंबे और अत्यंत अनुशासित एवं कर्मठ जीवनकाल में लगभग 100 किताबें लिखी हैं, हिंदी साहित्य, हिंदी जाति, हिंदी साहित्यकार, राजनीति, इतिहास, कूटनीति आदि पर। अब तक किसी प्रकाशक ने इन सबको संकलित करके एक रचनावली के रूप में प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं दिखाई है, हालांकि उनकी अधिकांश किताबें राजकलम प्रकाशन, दिल्ली और वाणी प्रकाशन, दिल्ली से निकली हैं। ये हिंदी के चोटी के प्रकाशन-गृह हैं और सभी बड़े हिंदी पुस्तक विक्रय केंद्रों में इनकी किताबें मिलनी चाहिए। आप डाक से भी किताबें मंगा सकते हैं। इसलिए आपको उनकी किताबों को प्राप्त करने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
पर डा. शर्मा की पुस्तकों को अवश्य पढ़ें, आपका पूरा नजिरया ही बदल जाएगा कई मामलों के बारे में और आजकल की राजनीति, सामाजिक जीवन, साहित्य आदि से जुड़ी अनेक गुत्थियां आपके लिए खुल जाएंगी।
तो शुरू करते हैं, राहुल सांकृत्यायन की पुस्तकों पर डा. शर्मा की समालोचना से परिचय प्राप्त करना।
डा. शर्मा इतिहास दर्शन की भूमिका में लिखते हैं –
राहुल जी हिंदी के माध्यम से जनता में ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करना चाहते थे, हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध करना चाहते थे। पर हिंदी भाषियों के जातीय विकास की रूपरेखा उनके सामने अस्पष्ट थी, इस विकास में जनपदों और संप्रदायों की भूमिका अस्पष्ट थी। साहित्यिक हिंदी का विकास अधिकतर पूर्वी जनपदों में हुआ था पर इन्हें एक ही जातीय प्रदेश के अंतर्गत न मानकर वह उन्हें स्वतंत्र जातीय क्षेत्रों के रूप में पुनर्गठित करना चाहते थे। उनका यह प्रयास बौद्धकालीन भारत के मानचित्र से प्रेरित था। जातीय संस्कृति की रूपरेखा स्पष्ट न होने से राहुलजी हिंदू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति की बात करते थे, हिंदी का संबंध हिंदुओं से उर्दू का संबंध मुसलमानों से जोड़ते थे। अंग्रेजी राज कायम होने से पहले दरबारी साहित्य में और दरबारों के बाहर रचे जाने वाले साहित्य में हिंदू और मुसलमान एक साथ हैं। राहुलजी की दृष्टि से यह इतिहास ओझल रहता है। उर्दू और हिंदी दो भाषाएं नहीं हैं, उनमें क्रियापदों, सर्वनामों आदि की बुनियादी एकता है, काफी परिमाण में राष्ट्रीय और जनवादी साहित्य उर्दू में भी लिखा गया है, हिंदी के अनेक लेखक उर्दू के लेखक भी थे - इन तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है। राहुलजी की मान्यताएं समाजसंबंधी हमारी आज की धारणाओं को प्रभावित करती हैं, इसलिए उनका विवेचन प्रासंगिक है।
इसके बाद डा. शर्मा ने राहुल जी की साहित्यिक यात्रा का संक्षिप्त परिचय देकर उसके दो पहलुओं का विशद विवेचन किया है, जो हैं, इतिहास और दर्शन।
आगे के पोस्टों में मैं उनके विवेचन के केवल कुछ चुने हुए अंशों को प्रस्तुत करूंगा। बाकी आपको वहीं पढ़ना पड़ेगा।
(...जारी)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
लेबल: रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन
Saturday, July 11, 2009
साहित्य का मूल्य
क्यों इस पचड़े में पड़ें कि साहित्य क्या है? और ब्लोग क्या है.. क्या साहित्य की कोई परिभाषा हो सकती है या क्या इसे परिभाषा में बांधा जा सकता है... कतई नहीं जो आपके लिए साहित्य है वह मेरे लिए कुड़ा हो सकता है और जो आपके लिए कुड़ा हो वह मेरे लिए साहित्य.. किसी को साहित्य कहने न कहने का कोई सर्वमान्य आधार नहीं.. क्यों हम छड़ी लेकर नापते हैं और किसी को तय खानों में फिट करने की कोशिश करते हैं.. जो है वो है.. जो जैसा है उसे वैसा रहने दें..
रंजन
रंजन जी की उपर्युक्त टिप्पणी से जो विचार आए, उन्हें नीचे दे रहा हूं।
साहित्य किसी जाति की स्मृति, आकांक्षा और अभिरुचि का आधान है। यहां मैं जाति शब्द को नेशनैलिटी के अर्थ में प्रयुक्त कर रहा हूं। उस जाति की उन्नति होती है जिसका साहित्य स्पष्ट हो, लोकतांत्रिक हो और समावेशी हो। साहित्य में क्रांतिकारी ताकत होती है। वह लोकतंत्र और न्याय का पोषण कर सकता है। वह मानव जाति को ऊंचाइयों की ओर ले जा सकता है।
साहित्य क्या है यह अधिकांश लोगों को मोटे तौर पर पता होगा, उसमें कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि शामिल हैं। इन सबमें क्या लिखा गया है, किस नजरिए से लिखा गया है और क्यों लिखा गया है, यह साहित्य का अहम हिस्सा है।
साहित्य की इस मौलिक एवं असीम ताकत को समझकर समाज के सुधारवादी, यथास्थितिवादी और शोषक उसे अपने पक्ष में परिवर्तित करने की कोशिश करते रहते हैं। हमारे यहां के अधिकांश पुराने साहित्यिक कृतियों में सुधारवादियों ने कुछ-कुछ अंश जोड़कर इन कृतियों की मूल प्रवृत्ति को अपनी विचारधारा के अनुकूल बनाने की कोशिश की है। वाल्मीकि रामायण, महाभारत, रामचरितमानस, आदि अनेक रचनाएं इस तरह विरूपित हुई हैं। यहां तक कहा जाता है कि महाभारत में गीता भी बाद में जोड़ी गई है और खास मकसद से। इस पर और कभी चर्चा करेंगे। इस प्रवृत्ति से सतर्क होने की बहुत जरूरत है, अन्यथा साहित्य दूषित हो सकता है, और किसी वर्ग विशेष का होकर रह सकता है, और उसका क्रांतिकारित्व नष्ट हो सकता है। हमारे कई साहित्यिक कृतियों के साथ ऐसा हुआ है।
फिर भी काफी कुछ साहित्य अब भी बचा हुआ है जो दूषण-मुक्त है और हमारे लिए बेशकीमती है।
साहित्य को दूषित करने की प्रवृत्ति हर समाज में पाई जाती है और उसे बड़े ही सूक्ष्म और संगठित तरीके से किया जाता है। कई बार तो स्वयं साहित्यकार को पता नहीं होता है कि जो वह लिख रहा है, वह किसी वर्ग विशेष का हित साधक है, और संपूर्ण समाज का नहीं। मैंने अपने पहले लेख क्या ब्लोग साहित्य है? में इसके उदाहरण स्वरूप रुड्यार्ड किपलिंग और राहुल सांकृत्यायन का नाम लिया था।
कई बार जन-हितकारी साहित्य को जानबूझकर हानिकारक, पुराना या अप्रासंगिक बता दिया जाता है, ताकि लोग उनके क्रांतिकारी स्वरूप को न पहचान सकें, यथा रामचरितमानस। इसका उल्टा भी देखने में आता है, किसी वर्ग विशेष के साहित्य को सर्वहितकारी करार दिया जा सकता है। अंग्रेजों के जमाने में लोड मकोले ने एक बार कहा था अलमारी भर यूरोपीय साहित्य शताब्दियों के समूचे पूर्वी साहित्य से श्रेष्ठ है!
इसलिए हर समाज को अपने साहित्य की रक्षा करनी होती है। उसके उन अंशों को पहचानना होता है जो सर्वहितकारी हो, क्रांतिकारी हो, और उन अंशों को त्यागना होता है, जो अनिष्टकारी हो, प्रोपेगैंडा हो। इसे स्पष्ट करने के लिए हम भारतेंदु युग पर विचार कर सकते हैं। भारतेंदु युग से पहले हिंदी साहित्य पर रीतिकालीन (शृंगारिक) रचनाएं हावी हो गई थीं। पर एक परतंत्र राष्ट्र के लिए जो गुलामी से लड़ रहा हो और जिसके लोग घोर गरीबी में जी रहे हों, ये विलासिता के काव्य अप्रासंगिक ही नहीं, क्रूरता और मजाक के भी परिचायक थे। इसलिए उसे बदलने की आवश्यकता थी। इसे भारतेंदु तथा उनके सहयगियों ने किया। उन्होंने साहित्य के कथ्य को ही नहीं भाषा को भी बदल दिया। रीति काव्य ब्रज भाषा में लिखे जाते थे, उन्होंने नए साहित्य के लिए खड़ी बोली को चुना।
लोकतंत्र को पुष्पित-पल्लवित करने में साहित्य की एक अहम भूमिका होती है। वह संसद, न्याय-तंत्र, नौकरशाही, अखबार आदि के समान समाज का एक शक्ति-केंद्र है। उसकी खासियत यह है कि उसे किसी वर्ग विशेष के समर्थन के लिए भ्रष्ट करना उतना आसान नहीं होता है। सांसदों को खरीदा जा सकता है, न्याय को मखौल बनाया जा सकता है या अमीरों के हाथों का खिलौना, नौकरशाही तंत्र को व्यवसाय की चेरी बनाया जा सकता है, अखबारों को स्वयं व्यवसाय में बदला जा सकता है, पर इसी तरह साहित्य को खोखला करना आसान नहीं होता। कारण यह है कि साहित्य अन्य सभी तंत्रों की तुलना में अधिक दीर्घजीवी है। उसमें मिलावट करना कठिन ही नहीं होता, किया गया मिलावट तुरंत पकड़ में भी आ जाता है। साहित्य जनता का स्पष्ट पक्षधर होता है। वह उस पक्ष में खड़ा होता है जहां अधिकतम या सभी का हित सधता हो।
इसलिए साहित्य बेशकीमती है। उसे प्रोपगेंडा से बचाए रखना बहुत जरूरी है। साहित्यकारों की भी बड़ी जिम्मेदारी है कि वे साहित्य की पावनता में दाग न लगने दें और सभी मनुष्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए साहित्य रचें।
ब्लोग में लोग जो चाहे लिखते हैं, पर वह सब साहित्य नहीं बन सकता। लोग साहित्य बनाने के इरादे से ब्लोग लिखते भी नहीं हैं। पर ब्लोग एक लचीला माध्यम है, उसमें साहित्य भी लिखा जा सकता है। यह ब्लोगर के ऊपर है कि वह साहित्य लिखना चाहता है या साधारण चीज।
और समालोचक का काम यह है कि वह ब्लोगों में लिखे गए हजारों लेखों में से उन मोतियों को चुनकर प्रकाश में लाए जो श्रेष्ठ हो। जहां तक मैं जानता हूं, कोई भी समालोचक या ब्लोगर यह काम नहीं कर रहा है। पर आगे चलकर इसकी भी आवश्यकता होगी। समालोचक के काम को आसान बनाने के लिए ब्लोग विधा के कुछ सामान्य लक्षणों को पहचाना जाना चाहिए और उस पर सहमति लानी चाहिए। कहानी, एकांकी, संस्मरण आदि के समान ब्लोग पोस्ट भी लेखन की एक विधा है। इस पर काफी विचार हुआ है कि कहानी मतलब क्या, या उपन्यास मतलब क्या या संस्मरण मतलब क्या। लेकिन इस पर न के बराबर विचार हुआ है कि एक ब्लोग पोस्ट मने क्या। यदि समालोचक अच्छे ब्लोग पोस्टों का अध्ययन करके यह बता सकें कि वे क्या चीजें हैं जो किसी ब्लोग पोस्ट को अच्छा बनाती हैं, तो ब्लोग लेखकों को ही नहीं, पाठकों को भी सुविधा होगी, हजारों पोस्टों में से उन उपयोगी पोस्टों को छांटने में जो स्थायी महत्व के हैं।
इसी तरह अखबारों और पुस्तक प्रकाशकों का भी ब्लोगों के स्थायी महत्व के अंशों को पहचानने और उन्हें प्रचारित करने में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। हमारे देश में साधनों के असमान वितरण के कारण सर्वसाधारण तक ब्लोगों की पहुंच नहीं है। वे केवल उन लोगों तक पहुंचते हैं जिनके पास घर है, घर में बिजली है और इंटरनेट तक पहुंच है, और कंप्यूटर है। इन सब आवश्यकताओं को पूरा करने वाले पूरी आबादी का 1 -2 प्रतिशत ही होंगे। ऐसे में ब्लोगों में रची जा रही श्रेष्ठ सामग्री को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ब्लोगों को अन्य माध्यमों के साथ नाथना होगा, विशेषकर अखबारों के साथ और पुस्तकों के साथ।
अखबार पहले ही यह काम कर रहे हैं। अधिकांश हिंदी अखबार अब ब्लोगों की भी चर्चा करते हैं। पर इसे अधिक व्यवस्थित तरीके से और सूझबूझ के साथ करने की आवश्यकता है। अभी तो बस खानापूरी ही हो रहा है। ब्लोगों के जो पोस्ट अखबारी लेखनों के निकट के हैं, उन्हें ही अखबारों में स्थान मिल रहा है। जो लंबे पोस्ट हैं या जो अधिक जटिल पोस्ट हैं उन्हें अखबार नजरंदाज कर रहे हैं। उन्हें अलग रीति से अखबारों में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, पर अखबार अभी इतनी मेहनत नहीं कर रहे हैं।
इसी तरह पुस्तक प्रकाशकों को भी ब्लोगों की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। ब्लोगों में स्थायी महत्व की जो चीजें लिखी गई हैं, उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित करने के लिए सामने आना चाहिए।
मैं एक उदाहरण दूंगा। जब मुंबई नरसंहार हुआ था, तो ब्लोग जगत में इस विषय पर लिखे गए पोस्टों की बाढ़ सी आई थी। लगभग सभी ब्लोगरों ने एक दो पोस्ट इस विषय पर लिखा। इनमें से कई बड़े ही मार्मिक, सुंदर और स्थायी महत्व के हैं। ब्लोगों के जरिए वे बहुत कम लोगों तक पहुंचे। यदि कोई प्रकाशक इन पोस्टों को संकलित करता और पुस्तक रूप में प्रकाशित करता, तो वह पुस्तक मुंबई नरसंहार का एक संग्रहणीय ऐतिहासिक अभिलेख बन जाता। पर जहां तक मैं जानता हूं, किसी भी हिंदी प्रकाशक ने इस ओर कोई कदम नहीं उठाया।
इसी तरह ब्लोग जगत में महिला उन्नति पर बहुत ही अच्छे पोस्ट आ रहे हैं, उनका भी एक संकलन बन सकता है। पर प्रकाशक इस ओर उदासीन हैं।
आशा की जानी चाहिए कि आनेवाले दिनों में इन दोनों दिशाओं में सुधार देखने को मिलेगा।
इस तरह के प्रयासों से ब्लोगों में जो स्थायी महत्व की चीजें आ रही हैं, उन्हें पहचाना जा सकेगा और ये ही आगे चलकर साहित्य भी बनेंगे।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: साहित्य
Friday, July 10, 2009
क्या ब्लोग साहित्य है?
आजकल ब्लोगजगत में एक बहस खूब उफान ला रहा है - क्या ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है?
कुछ लोग साहित्य और ब्लोग की तुलना को हंस और कौए को एक पांत में बिठाना कह रहे हैं, तो कोई पलटवार करके साहित्य को ही कागज में छपा बासी ब्लोग बता रहे हैं।
ब्लोगजगत को यह विषय इतना गंभीर लग रहा है कि उस पर एक बकायदा संगोष्ठि ही की जा रही है आज रायपुर में। अध्यक्ष हैं, छींटें और बौछारें के सुपरिचित ब्लोगर श्री रविशंकर श्रीवास्तव (रविरतलामी)।
तो सच क्या है, ब्लोग साहित्य है या नहीं? जानिए जयहिंदी का दृष्टिकोण।
साहित्य वह चीज है जिसमें किसी जाति (जाति शब्द को अंग्रेजी के नेशनैलिटी के समतुल्य के रूप में यहां प्रयोग किया गया है) के लोग अपनी आकांक्षाओं, सपनों, इच्छाओं, भावों और आहों की झलक पाते हैं। उसका लिखित होना जरूरी नहीं है, वेद सहित अधिकांश साहित्य मौखिक ही रहे हैं, और यही स्थिति अब भी बनी हुई है, लोक साहित्य को देखिए।
साहित्य जनता की आवाज होता है। वह जनता को प्रेरणा देता है, सही दिशा दिखाता है, सांत्वना देता है, उसका उत्साह बढ़ाता है, उसका मनोरंजन करता है और उसकी अभिरुचियों का परिष्कार करता है। थोड़े शब्दों में कहें, तो साहित्य जन-कल्याणकारी होता है। स्वांतः सुखाय जो लिखा जाता है वह अधिकांश में श्रेष्ठ साहित्य की कोटि में नहीं आता। इसी तरह जो किसी छिपे एजेंडा को लेकर लिखा जाता है, वह प्रोपेगैंडा है, साहित्य नहीं, और उसका उद्देश्य किसी खास वर्ग के हितों को बढ़ावा देना होता है, न कि समस्त जन-समूह का। इसके उदाहरण के स्वरूप हम रुड्यार्ड किप्लिंग को ले सकते हैं। उन्होंने खूब लिखा है और वे अंग्रेजी के प्रख्यात साहित्याकार भी माने जाते हैं। उन्हें नोबल पुरस्कार भी मिला है। पर उनका सारा साहित्य अंग्रेजों के साम्राज्यवाद को सही ठहराने के उद्देश्य से लिखा गया है, और वह उपनिवेशी समुदायों को दोयम दर्जे का सिद्ध करने का प्रयास मात्र है।
रुड्यार्ड किप्लिंग का उदाहरण महत्वपूर्ण है। उनके समय में उन्हें एक बहुत भारी साहित्यकार माना जाता था, पर जब बाद में उनके लिखे का बारीक विश्लेषण किया गया, तो उनमें निहित द्वेषात्मक अंश बाहर आने लगे और अब वे पूर्णतः डिसक्रेडिट हो चुके हैं।
यदि हींदी का ही उदाहरण लेना हो, तो हम राहुल सांकृत्यायन को ले सकते हैं। रुड्यार्ड किप्लिंग के ही समान उन्होंने भी खूब लिखा है, और उन्हें अपने समय में एक बहुत बड़ा साहित्यकार माना जाता था। पर बाद में जब उनके साहित्य का विश्लेषण किया गया, तो पाया गया कि उसके कई अंश घोर नस्लवादी हैं। उनमें गलत और अहितकारी जानकारी की भरमार है - उदाहरण के लिए, वे यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि आर्य यूरोप से भारत आए थे, बौद्ध धर्म सबसे श्रेष्ठ धर्म है, बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद मार्क्सवाद ही है, इत्यादि। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास दर्शन’ में राहुल सांकृत्यायन की संपूर्ण रचनावली का सूक्ष्म विश्लेषण करके दिखाया है कि इस लेखक की मान्यताएं भारतीय राष्ट्र की उन्नति के लिए कितनी घातक साबित हो सकती हैं।
इससे एक महत्वपूर्ण सीख हमें मिलती है। कोई लेखन श्रेष्ठ साहित्य तभी बनता है, जब उसमें जन-कल्याणकारी प्रवृत्ति हो, और जो समय की कसौटी पर खरा उतरे। रुड्यार्ड किप्लिंग या राहुल सांकृत्यायन की रचनाएं दोनों कसौटियों पर फेल हो जाती हैं।
इससे एक और बात स्पष्ट होती है। सब सुंदर लेखन श्रेष्ठ साहित्य हो, यह जरूरी नहीं है। रुड्यार्ड किप्लिंग या राहुल सांस्कृत्यायन की रचनाएं बहुत सुंदर कला कृतियां हैं, पर मात्र इससे वे श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाएं नहीं बन जातीं, क्योंकि उनमें सौदर्य के साथ-साथ अकल्याणकारी विष की बूंदें भी मौजूद हैं। हां, यह जरूर है कि सब श्रेष्ठ साहित्य सुंदर भी होता ही है, रामचरितमानस को ही ले लीजिए। सुंदर होना साहित्य का आवश्यक गुण है, पर वह पर्याप्त नहीं है। श्रेष्ठ साहित्य होने के लिए किसी रचना को सुंदर होने के साथ-साथ जन-कल्याणकारी भी होना चाहिए। इसे हम आचार्य रामचंद्र शुल्क के शब्दों में यों कह सकते हैं, श्रेष्ठ साहित्य वह है जिससे लोक-मंगल की साधना हो।
इस कठिन कसौटी पर कसा जाए, तो बहुत कुछ जो लिखा जा रहा है, चाहे वह ब्लोगों में हो, या पुस्तकों में या पत्र-पत्रिकाओं में, अंग्रेजी में, या हिंदी में, वह श्रेष्ठ साहित्य कहलाने के लायक नहीं है।
बात शुरू हुई थी, इस सवाल से कि क्या ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है?
यदि ऊपर के विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह सवाल जरा प्रिमेचर लगता है। आखिर हिंदी ब्लोग हैं ही कितने पुराने, यही चार-छह साल। इतने कम समय में उनमें कोई स्थायी महत्व की सामग्री आई भी है यह कहना मुश्किल है। यदि आज ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह बीस-पच्चीस साल बाद भी पढ़ा जाता रहे, तब इस पर विचार किया जा सकता है कि वह साहित्य कहलाने लायक है या नहीं। और तब भी कसौटी वही रहेगी, क्या वह लेखन जन कल्याणकारी है? क्या उसमें लोक-मंगल की साधना है? क्या उसमें प्रोपेगैंडा या किसी विशेष वर्ग के हित-साधन का प्रयास तो नहीं है? क्या वह स्वांतः सुखाय लिखा गया है?
इसलिए ब्लोग में जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य है या नहीं, इसकी चिंता अभी न करके, ब्लोगों में श्रेष्ठ सामग्री भरने की ओर हमें ध्यान देना चाहिए। साहित्य बहुत ऊंची चीज है, और हर ठेले हुए लेखन को उसके स्तर पर उठाया नहीं जा सकता। पर हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि हम अच्छा लिखें, सुंदर लिखें, कल्याणकारी चीजें लिखें। ऐसे लेखन के साहित्य के स्तर के बनने की संभावना अधिक है। और यह ब्लोगों पर ही नहीं, अन्य प्रकार के लेखनों पर भी समान रूप से लागू होता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 18 टिप्पणियाँ
लेबल: रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन, रुड्यार्ड किपलिंग, साहित्य
Thursday, July 09, 2009
आखिर आ पहुंची मेघ राजा की सवारी अहमदाबाद
इन पंक्तियों को लिखते समय बाहर जोरों के झपाटे पड़ रहे हैं, मेघ गर्जन हो रहा है और बिजली चमक रही है। ट्यूब लाइट भी टिमटिमा रहा है, बिजली गुल होने की चेतावनी देते हुए। कोई चिंता नहीं, इनवर्टर है, बीस मिनट तक कंप्यूटर को खींच लेगा, तब तक तो यह पोस्ट पूरा हो जाएगा।
लिख रहा हूं तो खिड़की से ठंडी बयार पर सवार महीन फुहार पीठ पर लग रही है और मिट्टी पर प्रथम बारिश की बूंदों की सोंधी महक नथुनों को छेड़ रही है। बहुत अच्छा लग रहा है।
दो महीने से 42 डिग्री पर पक रहे थे। उमस इतनी कि शरीर पर वस्त्र भी कटार सा घाव कर रहे थे। कोई राहत नहीं थी।
हम यही सोच रहे थे कि क्या इस बार मेघ राजा ने अहमदाबाद को भुला ही दिया है? सूरत तक आकर लौट गए।
पर उनके दरबार में देर सही अंधेर नहीं है। आज 9 जुलाई की रात पौने बारह बजे मौसम की पहली तेज बारिश शुरु हुई है अहमदाबाद में, और जोरों से हो रही है।
अब ज्यादा लिखना संभवन नहीं है, यह बारिश देखने का समय है, कंप्यूटर पर झुके रहने का नहीं, यह चेहरे पर ठंडी-ठंडी बूंदों के आघात का मजा लेने का समय है। तो अलविदा, कल बताऊंगा यह बारिश कब तक रही।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 8 टिप्पणियाँ
मुहम्मद मुबीन शेख
कल अचानक मुबीन साहब से गपशप (चैट) करने का अवसर मिल गया। जब उनका हैलो वाला मेसेज गूगलटोक पर आया तो पहले तो मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। कई महीने पहले उनसे ईमेल के जरिए बातचीत हुई थी। उन्होंने ही मुझसे संपर्क किया था। उन्होंने बच्चों के लिए विज्ञान कथाओं की एक किताब लिखी थी, स्टार वार। उस पर वे मेरी राय जानना चाहते थे।
उस समय ये कथाएं पुस्तक रूप में प्रकाशित नहीं हुई थीं। उन्होंने इन कथाओं को एक वेब साइट पर अपलोड कर रखा था। वहीं मैंने उन्हें पढ़ा भी। मुझे ये सरल कहानियां बच्चों के लिए बहुत ही उपयुक्त लगीं। वैसे भी विज्ञान कथा लेखन का क्षेत्र हिंदी में अधिक विकसित नहीं हुआ है, खासकर बच्चों के लिए विज्ञान कथाओं का क्षेत्र। इसलिए मुबीन साहब की कहानियां एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। आप भी पढ़िए उन्हें, इस कड़ी पर –
http://ghazlein.bizhat.com/Hindi%20Starwar/index.htm
अब ये कथाएं पुस्तक रूप में भी छप चुकी हैं। मुबीन साहब ने इनके अलावा बच्चों के लिए एक अन्य पुस्तक भी लिखी है, जंबो के कारनामे, जिसे आप यहां से पढ़ सकते हैं –
http://jumbohathi.ifastnet.com/
मुबीन साहब ने इन सब कहानियों को मेरे ब्लोग बाल जयहिंदी में प्रकाशित करने की अनुमति दे दी है, इसलिए वहां भी आप इन्हें अगले कुछ दिनों में पढ़ सकेंगे। उनके उपर्युक्त वेब साइटों में ये कहानियां हिंदी के अलावा नौ अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं।
श्री मुबीन ब्लोग जगत में भी काफी सक्रिय हैं और उनके कई ब्लोग हैं। इन सबकी विशेषता यह है कि इनके जरिए वे उर्दू साहित्य को देवनागरी लिपि में हिंदी पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। अब तक मिर्जा गालिब और साहिर लुधियानवी से संबंधित उनके ब्लोगों में अच्छी सामग्री इकट्ठी हो गई है। फैस, मीर, इंशा, मंटो आदि अन्य उर्दू लेखकों की रचनाओं को भी देवनागरी लिपि में ब्लोग के माध्यम से उपलब्ध कराने का उनका विचार है।
मेरी दृष्टि में यह अत्यंत स्तुत्य प्रयास है। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तकों में कहा है कि यदि कोई हिंदी ठीक से लिखना सीखना चाहता है, तो उसे गालिब आदि उर्दू लेखकों की रचनाओं का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि उनमें हमें मिलते हैं हिंदी के सबसे परिमार्जित और श्रेष्ठ नमूने। दुर्भाग्य से अधिकांश हिंदी भाषी अब उर्दू लिपि से दूर होते जा रहे हैं, और उनके लिए उर्दू लिपि में गालिब आदि रचनाकारों को पढ़ना संभव नहीं रह गया है। इसलिए मुबीन साहब का यह प्रयास बुहत ही उपयोगी है। अन्य लोगों को भी आगे आकर उर्दू के विपुल साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित करने के अत्यंत महत्वपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य को हाथ में लेना चाहिए। इसका काफी कुछ ब्लोगों के जरिए भी हो सकता है, जैसे मुबीन साहब कर रहे हैं।
श्री मुबीन उर्दू के पाठों को देवनागरी लिपि में परिवर्तित करने के लिए एक सोफ्टवेयर से काम लेते हैं। यह बहुत परिष्कृत परिणाम नहीं देता है, और उनके ब्लोग में वर्तनी आदि की बहुत सी त्रुटियां हैं, फिर भी शुरुआती प्रयास के रूप में वे महत्वपूर्ण हैं। यदि किसी के पास समय हो, तो वह उनके साथ सहयोग करके इन ब्लोगों को अधिक त्रुटिरहित बनाने में उनकी मदद कर सकता है।
इक्बाल और साहिर लुधियानवी के उनके ब्लोगों की कड़ियां ये हैं –
http://kalameghalib.blogspot.com/
http://sahirludhianvi01.blogspot.com/
श्री मुबीन भिवंडी के रहनेवाले हैं। वे उर्दू साहित्य के बारे में जानकारी देने वाले दो पोर्टेल, अदाब नामा और वर्लड ओफ उर्दू लिटरेचर के संपादक हैं।
वे उर्दू में कहानियां लिखते हैं और उनकी कहानियों के संकलन, यत्न का एक दिन, को 2000-2001 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। उनके दो अन्य कहानी संग्रह इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। इनके नाम हैं, टूटी छत का मकान, और, नई सदी का अजब। उनकी कहानियां उर्दू लिपि में यहां पढ़ी जा सकती हैं –
http://mmubin.ifastnet.com/
उन्हें हिंदी निदेशालय की ओर से गैर-हिंदी प्रदेशों के लेखकों का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। उन्हें मिले अन्य पुरस्कारों में शामिल हैं, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का बाल साहित्य पुरस्कार। लिखने के अलावा उनके शौकों में वेब डिजाइनिंग शामिल है।
मुबीन साहब का ब्लोगर प्रोफाइल उनकी बेटी ईफा के नाम से है। प्रोफाइल की कड़ी यह है -
http://www.blogger.com/profile/00779737290163317300
उनके बारे में अधिक विस्तृत जानकारी यहां पर उपलब्ध है –
http://www.mubinnama.150m.com/
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
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