Tuesday, August 11, 2009

मनुष्य बाल से वंचित क्यों हुआ

मानव निरीक्षण - 1

पिछले पोस्ट में मैंने डेसमंड मोरिस नामक वैज्ञानिक की मानव-व्यवहार संबंधी दो पुस्तकों का जिक्र किया था, मैन वाचिंग और द नेकड एप। इनमें मनुष्य-व्यवहार के बारे में ढेरों जानकारी है। इस लेख से शूरू करके आगे के कुछ लेखों में इसी पुस्तक के कुछ रोचक अंशों की चर्चा रहेगी।

शुरू करते हैं इस सवाल से कि मनुष्य के शरीर पर इतने कम बाल क्यों हैं, जब कि अधिकांश अन्य स्तनधारियों में, और खास करके हमारे पूर्वजों के निकट समझे जानेवाले नरवानरों में, यानी गोरिल्ला, चिंपैंजी और ओरांगुटान में, बाल का घना आवरण होता है?

वैज्ञानिकों ने इस गुत्थी पर विचार किया है। मनुष्य में बाल न होने को समझानेवाला एक सिद्धांत मैक्स वेस्टनहोफर ने 1942 में प्रस्तुत किया। एलिस्टर हार्डी नामक समुद्र-वैज्ञानिक ने 1960 में उसे और विस्तार दिया। इस विचित्र सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के विकास-क्रम में एक लंबी अवधि वह भी थी जब उसने जल-जीवन को अपनाया था, और इस दौरान उसके शरीर में अनेक परिवर्तन आए ताकि जल-जीवन सुगम हो जाए। इन परिवर्तनों में से एक बाल का चला जाना भी है, जिससे पानी में तैरना आसान हो जाता है। अन्य परिवर्तनों में शामिल हैं, पिछले पैरों का खूब लंबा और बलिष्ठ होना, क्योंकि उनका उपयोग तैरने के अवयव के रूप में किया जाता था, और त्वचा के नीचे चर्बी की परत विकसित होना, ताकि शरीर का ऊष्मारोधन हो। ये सब व्वस्थाएं अन्य समुद्री स्तनियों में भी पाई जाती हैं, जैसे सील, ह्वेल, आदि। इन स्तनधारियों में भी बाल नहीं होते, और पिछले पैर तैरने के अवयव में बदल गए हैं। उनके शरीर में भी त्वचा के नीचे चर्बी की परत होती है।

1970 के दशक मे यह सिद्धांत काफी लोकप्रिय हुआ था, पर इसे न मानने के अनेक कारण हैं। मनुष्य नैसर्गिक रूप से तैरना नहीं जानता है, और उसे तैरने की कला सीखनी पड़ती है। यदि मनुष्य पहले जलीय जीवन बिताता आया हो, तो उसे तैरना कुदरती रूप से आना चाहिए। दूसरी आपत्ति यह है कि मनुष्य में समुद्री परभक्षी जीवों से बचाव के उपाय नदारद हैं। यदि वह जल जीवन में एक समय माहिर रहा हो, तो उसमें ऐसा कोई बचाव साधन विकसित हो गया होना चाहिए था। तीसरी आपत्ति यह है कि अब तक ऐसे कोई मानव जीवश्म समुद्रों से नहीं मिले हैं जो यह सूचित करें कि पहले मनुष्य समुद्रों में रहता था। आजकल के वैज्ञानिक जल जीवन वाले इस सिद्धांत को कम ही तरजीह देते हैं।

मनुष्य में बाल के न होने के लिए कुछ अन्य सिद्धांत भी प्रचलित हैं।

एक सिद्धांत के अनुसार यह तब हुआ जब मनुष्य ने पेड़ों पर रहना छोड़कर खुले मैदानों में रहना शुरू किया। पहले मनुष्य चिंपैजी आदि नरवानरों के समान पेड़ों पर ही अधिक समय बिताता था और फल-फूल-पत्तियां खाकर ही जीवित रहता था। उस समय पृथ्वी में विशाल, घने वन भी बहुतयत में थे। फिर पृथ्वी की जलवायु बदल गई, वर्षा कम होने लगी और वन नष्ट होने लगे और उनकी जगह ले ली बड़े-बड़े घास के मैदानों ने। मनुष्य के पूर्वजों को भी इस परिवर्तन के साथ समझौता करना पड़ा। अब उन्हें पेड़ों से पर्याप्त भोजन नहीं मिल सकता था। उन्हें पेड़ों की सुरक्षा छोड़कर खुले मैदानों में उग रहे घास-पात खानेवालेजीव-जंतुओं से भोजन प्राप्त करने की आवश्यकता पड़ी। जमीन में उतर आने से मनुष्य के शरीर में अनेक परिवर्तन हुए, जैसे वह दो टांगों पर सीधे खड़े होकर चलने लगा। दूसरे, उसे मांस-भक्षी होना पड़ा क्योंकि मैदानों में वही प्रचुर मात्रा में उपलब्ध भोजन-स्रोत था। मांस हेतु अन्य जानवरों का शिकार करने के लिए उसे तेज दौड़ना पड़ता था। इससे उसका शरीर बहुत गरम हो जाता था। वैसे भी उन दिनों पृथ्वी का तापमान पहले से अधिक गरम हो गया था। इन दोनों के कारण बालयुक्त शरीर उसके लिए असुविधाजनक था, क्योंकि बाल के कारण दौड़ने के समय शरीर में बनी ऊष्मा जल्दी शरीर से बाहर नहीं निकल पाती थी। इसलिए उसने धीरे-धीरे अपने शरीर से बाल खो दिए।

वैज्ञानिकों में एक अन्य सिद्धांत भी प्रचलित है, जिसका भी संबंध मनुष्य के वृक्षों में रहना छोड़कर जमीन पर रहने लगने से संबंधित है। जब मनुष्य जमीन पर रहने लगा, तो उसे हिंस्र पशुओं से बचने के लिए गुफा-कंदराओं में शरण लेनी पड़ी। यहां रहते हुए मनुष्य के आसपास अवशिष्ट भोजन, मल-मूत्र और अन्य गंदगी खूब इकट्ठी होने लगी। इन गंदगियों में खूब परजीवी कीड़े भी पनपने लगे, जैसे पिस्सू, खटमल, जुए, आदि। ये मनुष्य को बहुत सताने लगे। इन पीड़क जीवों से छुटकारा पाने के लिए ही मनुष्य रोमहीन हो गया, क्योंकि ये परजीवी रोमयक्त त्वचा में ही पनप सकते थे।

जो भी हो, बालों का न होना मनुष्य को अन्य स्तनधारियों से विलक्षण जरूर बनाता है। बाल स्तनधारियों की खास पहचान है। दरअसल बाल केवल स्तनधारियों में ही पाया जाता है। यदि किसी प्राणी में बाल हो, तो उसे असंदिग्ध रूप से स्तनधारी माना जा सकता है। पर मनुष्य में प्रवृत्ति बाल से मुक्त होते जाने की दिख रही है। आजकल के मनुष्यों में बाल निरंतर कम होता जा रहा है।

वैसे भी विकास-क्रम का एक उसूल यह भी होता है कि जो अवयव आवश्यक नहीं होते हैं, वे बचते नहीं है। नरवानरों की पूछ इसका उदाहरण है। मनुष्यों में बाल का भी बहुत कम प्रयोजन रह गया है। इसलिए यदि विकास-क्रम में वह नष्ट हो जाए, तो वह आश्चर्य की बात नहीं होगी। भौंहें, पलकें, नाक, आदि में ही बाल रह जाएगा, क्योंकि वहां वह उपयोगी भूमिका निभाता है।

5 Comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

अन्ना, डराओ मत।
सिर के बालों पर ये भविष्यवाणी सुन कर तो बहुत नर नारी दु:खी हो जाएँगे।

बंगाल और बिहार में सिर के बालों को संस्कृत शब्द 'केश' कहा समझा जाता है। 'बाल' गुप्त स्थानों की .... समझ गए। यहाँ तक कि 'बाल' गाली के रूप में भी प्रयुक्त होता है।

P.N. Subramanian said...

ज्ञानवर्धक आलेख. आभार

दिनेशराय द्विवेदी said...

आलेख ने जानकारी में वृद्धि की।

Arvind Mishra said...

लेकिन ये तो फिर भी नहीं बताया आपने की अंततः मानव एक नंगा कपि आखिर क्योंकर हुआ ?
इस पर क्लिक कीजिए

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

जानकारीपरक आलेख!!
आभार्!

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