जिन्ना पर जसवंत सिंह द्वारा लिखी गई किताब (जिन्ना – भारत विभाजन के आईने में, राजपाल एंड सन्स, रु. 599) के प्रकाशित होते ही जसवंत को भाजपा से निष्पासित कर दिया गया और गुजरात में पुस्तक पर बैन लगा दिया गया।
दोनों ही बातें हमारे वैचारिक परिपक्वता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। क्या इस देश में विभाजन जैसे महत्वपूर्ण विषय पर खुले मन से चर्चा करना अपराध है? क्या हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां इतनी असुरक्षित और कमजोर हैं कि एक किताब के प्रकाशन से ही उनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है?
विभाजन के बाद पैदा हुए भारतीयों के लिए विभाजन के समय की घटनाओं को गहराई से समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि उसके बिना उनके व्यक्तित्व को पूर्णता नहीं मिल सकती तथा देश के उद्भव की परिस्थितियों के बारे में उनके मन में अस्पष्टता बनी रहेगी।
इसलिए उन दिनों की घटनाओं पर प्रकाश डालनेवाली हर पुस्तक महत्वपूर्ण है। इस तरह की पुस्तकों पर बैन लगाकर वर्तमान पीढ़ी के लोगों को विभाजन के समय की बातों को जानने से रोका जा रहा है और इसे मैं बिलकुल ही ठीक नहीं समझता।
मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि 1947 में देश का विभाजन गलत था। इससे शायद ही किसी का फायदा हुआ है, और हुआ भी है तो भारत का अहित चाहनेवालों का, जैसे ब्रिटन, और अब चीन और अमरीका। मेरे विचार से देश का विभाजन इसलिए हुआ क्योंकि उस समय के नेता राजनीति में अकुशल थे और दीर्घदृष्टिहीन थे, और कुछ तो मौका परस्त और अंग्रेजों के हाथों के कठपुतले भी थे। जिन्ना, नेहरू आदि में भारी अहंकार भी था, जिसके चलते, वे देश हित को अपनी प्रतिष्ठा के आगे नहीं रख सके।
कोई भी ऐतिहासिक निर्णय अनिवार्य नहीं होता। यदि बाद की पीढ़ियों को लगे कि किसी निर्णय से उनका विकास अवरुद्ध हो रहा है अथवा कोई निर्णय गलत कारणों से या गलत पक्षों के फायदे के लिए लिया गया था, तो उसे पलटना जरूरी होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है प्रथम महायुद्ध के दौरान जर्मनी के गलत विभाजन के बाद पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण। इसका एक अन्य उदाहरण है समस्त यूरोप का एकीकरण, जिसकी प्रक्रिया अभी भी चल रही है। 1960-70 के वर्षों में जब सोवियत संघ शक्तिशाली था और शीत युद्ध पराकांष्ठा पर था, इन घटनाओं की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, पर 30-40 सालों में ही ये होकर रहीं।
इसी तरह भारत का विभाजन भी कोई पत्थर पर खींची गई लकीर नहीं है, जो बदल नहीं सकती। अब इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हो गए हैं कि विभाजन जिन्ना, नेहरू, पटेल, राजाजी, राजेंद्र प्रसाद आदि उन दिनों के नेताओं की राजनीतिक भूल थी। इससे न पाकिस्तान का कोई भला हुआ है न भारत का। दोनों देशों की जनता को उसके कारण अपार कष्ट ही झेलना पड़ा है और वे अब भी झेल रहे हैं। काश्मीर जैसे अनसुलझे मुद्दे, तीनों देशों में सांप्रदायिकता की बाढ़ और आतंकवाद भी उसी का परिणाम है।
देश के मूल विभाजन के चंद वर्षों बाद ही बंग्लादेश का बनना इसका अकाट्य प्रमाण है कि जिन आधारों पर देश का विभाजन किया गया था, वह खोखला था। आज पाकिस्तान में जो हो रहा है जिसके कारण वह तेजी से एक विफल राज्य बनता जा रहा है, और उसके द्वारा निरंतर आतंकवाद समर्थन देने और भारत के प्रति विद्वेषात्मक रवैया बनाए रखने से उसका भारत सहित समस्त मानव जाति के लिए एक महा खतरा बन जाना, ये सब भी इसके प्रमाण हैं कि विभाजन गलत था। भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश में सांप्रदायिक और संकीर्णतावादी ताकतों का बलवती होना भी विभाजन की विषैली विरासत है।
इसलिए हम सबको यह सोचने लगना आवश्यक है कि किस तरह विभाजन को निरस्त किया जाए। इसी में भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता की भावी खुशहाली निर्भर करती है। भारत के लिए देश का एकीकरण सामरिक दृष्टि से भी अत्यंत आवश्यक है। आज पाकिस्तान और बंग्लादेश का उपयोग करके चीन, अमरीका, ब्रिटन आदि देश भारत विरोधी कार्रवाई को अंजाम देते हैं, और भारत को कमजोर रखने का भरसक प्रयास करते हैं। इनका मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का एकीकरण आवश्यक है। भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश ऐतिहास काल से एक रहे हैं, चाहे वह चंद्रगुप्त मौर्य का समय हो या अकबर का या अंग्रेजों का। आज भी भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश की जनता में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति है और सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक भाषाई और आर्थिक स्तरों पर अनेक समानताएं हैं, जो हजारों सालों से साथ रहने और भौगोलिक निकटता का परिणाम है। इस सहानुभूति और समानताओं के आधार पर इन तीनों देशों को पूर्ववत एक किया जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, बर्मा, अफगानिस्तान आदि भी ऐतिहासिक काल में एक ही संस्कृति से परस्पर बंधे थे।
भारत के एकीकरण को सिद्ध करने के लिए विभाजन की घटनाओं पर पुनविर्चार और उनका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है। जसवंत और उनके पहले आडवानी ने जिन्ना के पुनर्मूल्यांकन का जो प्रयास किया है, वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे हमें विभाजन के बारे में, और उसके बहाने उपमहाद्वीप के देशों के एकीकरण के बारे में, पुनः सोचने का अवसर प्रदान करते हैं।
राजनीति असंभव को संभव करने की कला है। 1942 तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि पांच ही वर्षों में भारत दो टुकड़ों में और फिर तीन टुकड़ों में बंट जाएगा। पर अंग्रेजों और जिन्ना जैसे लोगों ने, नेहरू, पटेल आदि की राजनीतिक अकुशलता से मदद लेते हुए, इसे साकार करके दिखाया।
इसी तरह आज 2009 में भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश का फिर से एक होना ख्याली पुलाव लगता है, पर यदि सही दिशा में कोशिशें की जाएं, यही पुलाव 2014 में ख्याली न रहकर वास्तविक भी बन सकता है।
पर इसके लिए भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश के लोगों को इसके बारे में गंभीरता से सोचना होगा। जसवंत सिंह की किताब का महत्व इसी में है। वह लोगों को विभाजन के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। विभाजन की घटनाओं पर पुनर्विचार करने पर उसकी अनिवार्यता की धारणा कमजोर हो जाती है, और हमें विदित होने लगता है कि वह अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल थी, भारत को कमजोर रखने की। हमें समझ में आने लगता है कि भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश का असली हित एक होने में हैं। हमें समझ में आने लगता है कि आतंकवाद, कश्मीर, सांप्रदायिकता, संकीर्णतावाद, विदेशी हस्तक्षेप आदि का सही समाधान विभाजन को पलटने में है। हमें यह भी समझ में आता है कि तीन टुकड़ों में बंटे रहकर न तो भारत, न ही पाकिस्तान या बंग्लादेश ही जनता की गरीबी, भूख, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि, से ठीक से लड़ पा रहे हैं, और इनसे लड़ने के बजाए एक-दूसरे के विरुद्ध लड़कर अपनी-अपनी शक्ति को क्षीण कर रहे हैं।
जब हमारी पीढ़ी के लोगों को ये बातें समझ में आ जाएंगी, वे विभाजन को निरस्त करने के बारे में सोचने लगेंगे। और यदि हमें कोई दूर-दृष्टिवाले कुशल नेता का मार्गदर्शन भी मिल जाए, तो यह एकीकरण संभव भी हो सकता है।
जहां तक मैं समझ सका हूं, जिन्ना तथा नेहरू-पटेल में जो वैचारिक मतभेद था, वह भारत की राजनीतिक स्वरूप को लेकर था। जिन्ना भारत को अनेक राज्यों का विशृंखलित संघ के रूप में देखते थे, जबकि नेहरू-पटेल, एक दृढ़ केंद्र वाले यूरोपीय शैली के राष्ट्र के रूप में।
यदि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश को एक करना है, तो पहले यह इन तीनों के एक विशृंखलित संघ के रूप में ही संभव हो पाएगा। इस विशृंखलित संघ को साकार करने में जिन्ना के विचार उपयोगी हो सकते हैं। इस विशृंखलित राष्ट्र संघ में हमें नेपाल और श्रीलंका को, और संभव हो, तो अफगानिस्तान और बर्मा तक को भी खींच लेना चाहिए, क्योंकि ये भी भारत विरोधी प्रयासों के अड्डे बनते जा रहे हैं, और तेजी से चीन, अमरीका आदि के प्रभाव में जा रहे हैं, जो हमारे हित में नहीं है।
बाद में, तीस-पचाल वर्षों बाद, जब इस विशृंखलित संघ के रूप में रहते हुए सभी देशों के नेताओं और जनता को तसल्ली हो जाए, तो विशृंखलन को उत्तरोत्तर कम किया जा सकता है, और नेहरू-पटेल वाले अधिक दृढ़ केंद्रीकृत राष्ट्र की ओर बढ़ा जा सकता है। यूरोप का एकीकरण भी इसी तरीके से हो रहा है। पहले अनेक मामलों में यूरोपीय संघ के घटक देश स्वतंत्र थे। फिर धीरे-धीरे उनकी बहुत से विशेषाधिकार यूरोपीय संघ को स्थानांतरित किए गए, जैसे, सेना, विदेश नीति, मुद्रा, नागरिकता आदि।
इसी रास्ते हम भी चल सकते हैं। इसलिए 1947 के नेताओं में जो विचार-भेद था वह हमारे लिए अत्यंत उपयोगी और प्रासंगिक है, ये सब नेता अखंड भारत को दृष्टि में रखकर सोचते थे, क्योंकि तब भारत अविभाजित था।
विभाजन को इस तरह निरस्त करना एक प्रतीकात्मक कार्य भी होगा और इस महा अभियान के साथ हम अपनी अनेक अन्य सामयिक समस्याओं को भी जोड़ सकते हैं, जो सब ले-देकर अंग्रेजी राज की ही विरासतें हैं। जैसे राष्ट्रभाषा का विषय और आरक्षण का मुद्दा। आज आरक्षण की राजनीति देश को बांट रही है और इस देश में रह रहे सभी लोगों के भावनात्मक एकीकरण के आड़े आ रही है। इसी तरह राष्ट्रभाषा के विषय का आजादी आंदोलन कोई ठोस समाधान नहीं प्रस्तुत कर सका, जिसके परिणामस्वरूप हमारी सभी भाषाओं की बाढ़ रुक सी गई है और हम पर आज भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बना हुआ है। इससे देश कमजोर हुआ है और सत्ता-संपन्न (अंग्रेजी जाननेवाले) और सत्ता-विहीन (अंग्रेजी न जाननेवाले) में देश बंटता जा रहा है। राष्ट्र को जोड़े रखने और उसके विभिन्न भागों में विचार विनिमय को सुगम बनाने के लिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत इस जोड़नेवाली कड़ी के बिना अपना काम चला रहा है, क्योंकि शासन में अंग्रेजी का ही अधिक उपयोग होता है। इस तरह की विसंगतियों को भी विभाजन को निरस्त करने के महा अभियान के साथ जोड़कर आसानी से दूर किया जा सकता है।
इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का राजनीतिक एकीकरण 1857 की क्रांति या 1947 के आजादी आंदोलन के स्तर का महा प्रयास होगा, जो एक ही साथ कई समस्याओं का समाधन कर सकेगा। पर इतना बड़ा आंदोलना चलाना कोई आसान काम भी न होगा। इसके लिए हमें कांग्रेस की तरह का कोई उपकरण, गांधी जी जैसे कुशल विचारक और समन्वयवादी नेता, तथा भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, आदि के समान विचारशील और साहसी युवकों की आवश्यकता पड़ेगी।
1857 और 1947 में हमारे समक्ष शत्रु सुस्पष्ट था – अंग्रेज और अंग्रेजी राज। आज शत्रु उतना स्पष्ट नहीं है। इसी का लाभ उठाकर कुछ संकीर्णतावादी ताकतें, देशवासियों के ही एक हिस्से को अथवा अपने ही मूल देश के टुकड़ों को शत्रु का जामा पहनाकर जनता को संगठित करने का प्रयास कर रही हैं। यह प्रयास खंडित है, खराब राजनीति है और सामरिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। हमें असली शत्रु को पहचानना होगा। असली शत्रु है विभाजन के कारण पैदा हुई वैमनस्यपूर्ण परिस्थितियां। इन परिस्थितयों को शब्दों और विचारों में ऐसा परिभाषित और रूपायित करना होगा कि आम आदमी भी इन्हें शत्रु के रूप में पहचान सकें और इनके विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष में मर-मिटने के लिए तैयार हो जाएं, उसी तरह जैसे वे 1857 में या 1947 में तैयार हुए थे। इसमें कवियों, लेखकों, नाटकारों, फिल्मकारों, आदि की महत्वपूर्ण भूमिका है।
Monday, August 24, 2009
जिन्ना, जसवंत और भारत का भविष्य
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 11 टिप्पणियाँ
लेबल: जसवंत सिंह, जिन्ना, राजनीति
Sunday, August 23, 2009
आइए आपको सिखाता हूं दक्षिण भारतीय मोदक बनाना
आज गणेश चतुर्थी है। घर में दक्षिण भारतीय शैली में मीठे मोदक बने। मैंने आपको बताने के इरादे से बनाने की सारी विधि का फोटो ले लिया ताकि आप भी इस स्वादिष्ट व्यंजन का कभी मजा ले सकें।
क्या-क्या चाहिए होगा
तो सबसे पहले आवश्यक चीजों की सूची देख लेते हैं। आपको चाहिए होंगे –
1. एक बड़ा नारियल
2. एक कप गुड़
3. एक कप चावल का महीन पिसा आटा
इतनी सामग्री से लगभग 20 मोदक बनेंगे। यदि आपको इससे अधिक चाहिए, तो इसी अनुपात में और सामग्री ले लें।
बनाने की विधि
1. नारियल का महीन कतरन बना लें।
2. एक कड़ाई में आधा गिलास पानी डालें और उसे उबलने के लिए रख दें। जब पानी उबलने लगे, गुड़ को उसमें डाल दें। थोड़ी देर में गुड़ पानी में पूरी तरह घुल जाएगा। तब नारियल की गिरी को कड़ाई में डाल दें और हिलाते रहें ताकि गुड़ और नारियल अच्छी तरह मिल जाएं। जब कड़ाई का सारा पानी उड़ जाए और गुड़ और नारियल अच्छी तरह मिल जाएं, तो कड़ाई को आंच से उतार लें। थोड़ी देर इंतजार करें ताकि नारियल-गड़ का पूरण थोड़ा ठंडा हो जाए। तब उसके आंवले के जितने बड़े गोल पिंड बना लें, जैसा चित्र में दिखाया गया है।
3. चावल के आटे को महीन छलनी से छान लें ताकि उसके कण बहुत छोटे हों। आटा जितना महीन होगा उतने अधिक अच्छे मोदक बनेंगे।
4. अब दूसरी कड़ाई में एक गिलास पानी डालकर उबलने के लिए आंच पर रख दें। उसमें एक चुटकी नमक भी मिलाएं। जब पानी उबलने लगे, तो उसमें चावल का आटा मिला दें और करछुल से अच्छी तरह हिलाते जाएं। चावल का आटा जब सारा पानी सोख ले, और अच्छी तरह पक जाए, तो कड़ाई को आंच से उतार दें। पका हुआ चावल का आटा इस तरह दिखना चाहिए।
5. पूरण के पिंडों से थोड़े बड़े गोल पिंड, चावल के पके आटे के भी बना लें। यदि चावल का आटा हाथ से चिपके, तो उंगलियों पर थोड़ा नारियल का तेल लगा लें। चावल के आटे के उतने पिंड बनाएं जितने पूरण के पिंड हों।
6. अब चावल के प्रत्येक पिंड को दोनों हाथों में पकड़कर दोनों हाथों के अंगूठों से दबाकर चपटा कर लें।
7. उसके बीच में पूरण का एक पिंड रखकर पूरण के पिंड को चारों ओर से चावल के आटे से ढंक दें। चावल के आटे को ऊपर की तरफ इकट्ठा करके नोंक जैसा आकार दे दें, जैसा चित्र में दिखाया गया है।
8. इसी तरह सभी पिंड़ों को तैयार करें।
9. अब प्रेशर कुकर में इन पिंडों को रखकर 20 मिनट तक बिना वेट रखे भाप में पकाएं।
10. खाने से पहले गणेश जी को एक मोदक भोग लगाना न भूलें!
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 14 टिप्पणियाँ
लेबल: गणेश चतुर्थी, मोदक, व्यंजन
Wednesday, August 19, 2009
एडोब इनडिजाइन सीएस4 और हिंदी
विश्व भर में डीटीपी के लिए अब अधितर एडोब इनडिजाइन का ही उपयोग हो रहा है। इसने अपने प्रतिद्वद्वी डीटीपी सोफ्टवेयरों को या तो कहीं पीछे छोड़ दिया है, या उन्हें खरीदकर अपने में मिला लिया है। पहले वर्ग में आते हैं क्वार्क एक्सप्रेस, फ्रंटपेज, और माइक्रोसोफ्ट पब्लिशर, और दूसरे वर्ग में आता है, पेजमेकर।
पर जहां तक यूनिकोड एनकोडिंग में हिंदी डीटीपी का संबंध है, माइक्रोसोफ्ट पब्लिशर को छोड़कर उपर्युक्त सभी डीटीपी सोफ्टवेयर अनुपयुक्त हैं, क्योंकि वे हिंदी के लिए यूनिकोड एनकोडिंग का समर्थन नहीं करते हैं। इससे बड़ी दिक्कतें आती हैं, क्योंकि एक ही सामग्री को वेब साइट और प्रिंट के लिए नहीं उपयोग किया जा सकता। वेब साइट के लिए यूनिकोड एनकोडिंग में, यानी मंगल, एरियल यूनिकोड एमएस आदि फोंटों में सामग्री को तैयार करना पड़ता है, और प्रिंट के लिए कृतिदेव, डीवी-टीसुरेख, युवराज आदि गैर-यूनिकोड फोंटों में, ताकि पेजमेकर, इनडिजाइन, फ्रंटपेज, आदि में अक्षर-विन्यास (लेआउट) किया जा सके। इससे डबल मेहनत तो होती ही है, आगे सामग्री को अद्यतन करते समय भी खूब परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसा विशेषकर सोफ्टेवेयर मैन्यएलों के संबंध में आता है। इनके नए संस्करणों में यहां-वहां थोड़ा-बहुत परिवर्तन रहता है और बाकी सब सामग्री पहले के जैसे ही रहती है। पर हिंदी का मुद्रित मैनुअल कृतिदेव आदि गैरयूनिकोड फोंट में होने से ट्रेडोस आदि उन्नत शब्दसाधन और अनुवाद सोफ्टवेयर का उपयोग करके तेजी से इन अंशों को ठीक करना असंभव होता है। करना यह पड़ता है कि पहले यूनिकोड-एनकोडिंग वाली फाइलों में ये सुधार करने के बाद फाइल को या तो दुबारा कृतिदेव में टाइप कर दिया जाए, या फोंट कन्वर्टरों का प्रयोग करके मंगल आदि फोंट से कृतिदेव आदि में सामग्री को बदल दिया जाए। पर अब तक ऐसे कनवर्टर नहीं बन पाए हैं जो शतप्रतिशत परिशुद्धता के साथ मंगल आदि की सामग्री को कृतिदेव आदि में बदलकर दे। इससे फोंट-परिवर्तित सामग्री का बारीकी से प्रूफ-शोधन करना आवश्यक हो जाता है, जिसेम समय, श्रम और पैसा खूब लगता है। एक अन्य समस्या यह है फोंट कन्वर्टर केवल टेक्स्ट या वर्ड फाइलों को ही संभाल पाते हैं, इंडिजाइन की जैसी अधिक जटिल फाइलों को ले नहीं पाते हैं।
परंतु खुशी की बात यह है कि अब एडोब जैसे सोफ्टवेयर निर्माता अपने सोफ्टवेयरों में यूनिकोड एनकोडिंग में हिंदी के लिए धीरे-धीरे समर्थन मुहैया कराते जा रहे हैं, जो हिंदी के तेजी से विश्व भाषा बनते जाने का ही प्रमाण है, क्योंकि यदि विश्व भर में हिंदी की पर्याप्त मांग न रहने पर, ये विदेशी सोफ्टवेयर कंपनियां, जो पूर्णतः व्यावसायिक मानदंडों और मुनाफे की संभावना पर काम करती हैं, अपने सोफ्टवेयरों में हिंदी का समर्थन शामिल करने में समय, श्रम और पैसा नहीं खर्च करतीं।
इस मामले में माइक्रोसोफ्ट सबसे आगे रहा है और उसकी लगभग सभी प्रमुख सोफ्टवेयर यूनिकोड-एनकोडिंग में हिंदी का समर्थन करते हैं। माइक्रोसोफ्ट का डीटीपी सोफ्टवेयर पब्लिशर है, जो पूर्णतः यूनिकोड हिंदी का समर्थन करता है। पर माइक्रोसोफ्ट की सिद्धहस्तता प्रचालन तंत्र (विंडोस), ब्राउसर (इंटरनेट एक्सप्लोरर) और शब्द साधन (एमस वर्ड) में है, न कि डीटीपी में। इसलिए पब्लिशर इनडिजाइन के सामने फीका है, और अधिक लोग उसका उपयोग भी नहीं करते हैं। अभी विश्वभर में डीटीपी के लिए इनडिजाइन का ही ज्यादा उपयोग होता है।
इनडिजाइन का ताजा संस्करण सीएस4 के नाम से जाना जाता है, सीएस यानी क्रिएटिव स्यूट। इससे पहले के संस्करणों का नाम सीएस3, सीएस2 आदि है। एडोब क्रिएटि सूट वास्तव में डीटीप, वेबडिजाइन, एनिमेशन आदि में उपयोगी साबित होनेवाले कई उम्दा सोफ्टवेयरों का समुच्चय है, जिसमें शामिल हैं, फोटोशोप, इलस्ट्रेटर, फ्लैश, ड्रीमवीवर, और इंडिजाइन।
आइए देखें इनडिजाइन के ये सब संस्करण यूनिकोड हिंदी का किस हद तक समर्थन करते हैं।
इनडिजाइन सीएस2 और सीएस3
सीएस2 और सीएस3 में हिंदी का समर्थन नहीं है। पर एक भारतीय कंपनी ने ऐसे प्लग-इन विकसित किए हैं, जिन्हें लगाने से सीएस2 और सीएस3 में यूनिकोड हिंदी में काम किया जा सकता है।
इस कंपनी का नाम है मेटाडिजाइन और प्लग-इन का नाम है इंडिक-टूल्स। इस प्लग-इन की कीमत है 110 डालर। इसे लगाने पर न केवल इंडिजाइन में यूनिकोड हिंदी का अक्षर-विन्यास ठीस से हो सकता है, बल्कि शब्दकोश समर्थन भी प्राप्त होता है, यानी वर्तनी की त्रुटियां भी रखांकित होती हैं।
इस कंपनी का वेब साइट यह है –
http://www.metadesignsolutions.com/IndicPlus.html
इंडिजाइन सीएस4
अब आते हैं इनडिजाइन सीएस4 पर जो इनडिजान का नवीनतम संस्करण है। खुशी की बात यह है कि इसमें यूनिकोड हिंदी के लिए पूर्ण समर्थन है, पर एडोब ने इन सुविधाओं तक पहुंचने के लिए जो इंटरफेस आवश्यक है उसे विकसित नहीं किया है। मतलब यह, कि सीएस4 में यूनिकोड हिंदी में काम करना संभव नहीं है। पर इसके लिए भी उत्कृष्ठ प्लग-इन उपलब्ध है। इस प्लग-इन का नाम है वर्ल्ड रेडी कंपोसर। उसकी कीमत 49 डालर है। उसे इस वेब साइट से डाउनलोड/खरीदा जा सकता है–
http://www.in-tools.com/plugin.php?p=8
यहां से उसका 20 दिनों का फुल-फंक्शन वाला ट्रायल वर्शन भी खरीदा जा सकता है। इसे लगाने पर इनडिजाइन सीएस4 में यूनिकोड हिंदी के साथ काम किया जा सकता है। पर इस प्लग-इन में शब्दकोश समर्थन नहीं है।
मजे की बात यह है कि उपर्युक्त वर्ल्ड रेडी कंपोसर प्लग-इन के ट्रायल संस्करण का 20 दिन का समय निकल जाने के बाद भी, उस दौरान सेव की गई इंडिजाइन सीएस4 की फाइलों में यह इंटरफेस बना रहता है, और इन फाइलों में यूनिकोड हिंदी में मजे से काम किया जा सकता है। यदि इस तरह के फाइलों को खोला रखकर इनडिजाइन की नई फाइलें बनाने पर यह इंटरफेस उन नए फाइलों में भी काम करता रहता है। यानी ट्रायल अवधि बीत जाने के बाद भी काम चलता रहता है। पर जो लोग इंडिजाइन में नियमित काम करते हों, उन्हें यह प्लग-इन खरीद लेना चाहिए।
इन प्लग-इनों के बारे में अधिक जानकारी के लिए और इनके उपयोग की रीति के बारे में और जानने के लिए, निम्नलिखित कड़ी को भी देख आएं –
http://www.thomasphinney.com/2009/01/adobe-world-ready-composer/
इंडिजाइन एमई
और अंत में इनडिजाइन की एक विशेष संस्करण के बारे में, जिसे इनडिजाइन मिडल ईस्टर्न (एमई) कहा जाता है। यह दाएं से बाएं लिखी जानेवाली अरबी आदि भाषाओं के लिए बनाया गया इनडिजाइन का विशेष संस्करण है। इस संस्करण का उपयोग करके यूनिकोड हिंदी में भी काम किया जा सकता है। पर मेरी जानकारी के अनुसार इसकी कीमत कुछ 2500 डालर है।
समाहार
इस तरह हम कह सकते हैं कि अब इंडिजाइन में यूनिकोड हिंदी का उपयोग करना संभव हो गया है –
1. यदि आप सीएस2 या सीएस3 का उपयोग करते हों, तो मेटाडिजाइन द्वारा विकसित इंडिक प्लग-इन का उपयोग करें।
2. यदि आप सीएस4 का उपयोग करते हों, तो वर्ल्ड रेडी कंपोसर का उपयोग करें।
3. या यदि आपकी जेब में खूब पैसे हों, तो इंडिजाइन एमई खरीदें।
4. या आप धीरजवाले व्यक्ति हों तो एडोब सीएस5 के आने का इंतजार करें, जिसके बारे में अफवाह है कि वह 2010 के अक्तूबर तक बाजार में आ जाएगा। इसमें यूनिकोड हिंदी के लिए पूर्ण समर्थन होने की लगभग शत-प्रतिशत संभावना है, कम-से-कम इंडिजाइन सीएस5 में तो हिंदी के लिए पूर्ण समर्थन होना चाहिए। पर फोटोशोप, इलस्ट्रेटर आदि के लिए संभवतः सीएस5 में समर्थन नहीं रहेगा, क्योंकि इनमें हिंदी समर्थन लाने के लिए एडोब को और अधिक मेहनत करने की आवश्यकता है। पर अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है, सीएस5 में फोटोशोप, इलस्ट्रेटर, फ्लैश आदि सभी में हिंदी समर्थन लाकर एडोब हमें चकित भी कर सकता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 7 टिप्पणियाँ
Tuesday, August 18, 2009
हिंदी का पहला उपन्यास
हिंदी का पहला उपन्यास होने का गौरव लाला श्रीनिवास दास (1850-1907) द्वारा लिखा गया और 25 नवंबर 1885 को प्रकाशित परीक्षा गुरु नामक उपन्यास को प्राप्त है। लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटकार थे। नाटक लेखन में वे भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे मथुरा के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। उनके नाटकों में शामिल हैं, प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर और प्रेम मोहिनी, और संयोगिता स्वयंवर।
लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। मदनमोहन एक समृद्ध वैश्व परिवार में पैदा होता है, पर बचपन में अच्छी शिक्षा और उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण और युवावस्था में गलत संगति में पड़कर अपनी सारी दौलत खो बैठता है। न ही उसे आदमी की ही परख है। वह अपने सच्चे हितैषी ब्रजकिशोर को अपने से दूर करके चुन्नीलाल, शंभूदयाल, बैजनाथ और पुरुषोत्तम दास जैसे कपटी, लालची, मौका परस्त, खुशामदी "दोस्तों" से अपने आपको घिरा रखता है। बहुत जल्द इनकी गलत सलाहों के चक्कर में मदनमोहन भारी कर्ज में भी डूब जाता है और कर्ज समय पर अदा न कर पाने से उसे अल्प समय के लिए कारावास भी हो जाता है।
इस कठिन स्थिति में उसका सच्चा मित्र ब्रजकिशोर, जो एक वकील है, उसकी मदद करता है, और उसकी खोई हुई संपत्ति उसे वापस दिलाता है। इतना ही नहीं, मदनमोहन को सही उपदेश देकर उसे अपनी गलतियों का एहसास भी कराता है।
उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेजी से आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रज भाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। काव्य के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रज भाषा चुना है।
उपन्यास की भाषा हिंदी के प्रारंभिक गद्य का अच्छा नमूना है। उसमें संस्कृत और फारसी के कठिन शब्दों से यथा संभव बचा गया है। सरल, बोलचाल की (दिल्ली के आस-पास की) भाषा में कथा सुनाई गई है। इसके बावजूद पुस्तक की भाषा गरिमायुक्त और अभिव्यंजनापूर्ण है। वर्तनी के मामले में लेखक ने बोलचाल की पद्धति अपनाई है। कई शब्दों को अनुनासिक बनाकर या मिलाकर लिखा है, जैसे, रोनें, करनें, पढ़नें, आदि, तथा, उस्समय, कित्ने, उन्की, आदि। “में” के लिए “मैं”, “से” के लिए “सैं”, जैसे प्रयोग भी इसमें मिलते हैं। कुछ अन्य वर्तनी दोष भी देखे जा सकते हैं, जैसे, समझदार के लिए समझवार, विवश के लिए बिबश। पर यह देखते हुए कि यह उपन्यास उस समय का है जब हिंदी गद्य स्थिर हो ही रहा था, उपन्यास की भाषा काफी सशक्त ही मानी जाएगी।
इस उपन्यास की भाषा का एक बानगी नीचे दे रहा हूं –
“सुख-दुःख तो बहुधा आदमी की मानसिक वृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन है। एक बात सै एक मनुष्य को अत्यन्त दःख और क्लेश होता है वही दूसरे को खेल तमाशे की-सी लगती है इसलिए सुख-दुःख होनें का कोई नियम मालूम होता” मुंशी चुन्नीलाल नें कहा।
“मेरे जान तो मनुष्य जिस बात को मन सै चाहता है उस्का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा।
“तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख में फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्का क्या कराण? असल बात यह है कि जिस्समय मनुष्य के मन मैं जो वृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशीकी सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछताबा करता है और न्याय वृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्हने अपनी भूल का अंगीकार करकै उस्के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्म सै आत्मग्लानि और उचित कर्म्म सै आत्मप्रसाद हुए बिना सर्वथा नहीं रहता” लाला ब्रजकिशोर बोले।
(सुख-दुःख, प्रकरण से)
कुल मिलाकर यह एक सफल उपन्यास है जो उपन्यास विधा की सभी विशेषताओं को दर्शाता है।
माना जाता है कि दुनिया का सबसे पहला उपन्यास जापानी भाषा में 1007 ई. में लिखा गया था। यह था “जेन्जी की कहानी” नामक उपन्यास। इसे मुरासाकी शिकिबु नामक एक महिला ने लिखा था। इसमें 54 अध्याय और करीब 1000 पृष्ठ हैं। इसमें प्रेम और विवेक की खोज में निकले एक राजकुमार की कहानी है।
यूरोप का प्रथम उपन्यास सेर्वैन्टिस का “डोन क्विक्सोट” माना जाता है जो स्पेनी भाषा का उपन्यास है। इसे 1605 में लिखा गया था।
अंग्रेजी का प्रथम उपन्यास होने के दावेदार कई हैं। बहुत से विद्वान 1678 में जोन बुन्यान द्वारा लिखे गए “द पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस” को पहला अंग्रेजी उपन्यास मानते हैं।
भारतीय भाषाओं में लिखे गए प्रथम उपन्यासों का ब्योरा इस प्रकार है -
मलयालम
इंदुलेखा। रचनाकाल, 1889, लेखक चंदु मेनोन।
तमिल
प्रताप मुदलियार। रचनाकाल 1879, लेखक, मयूरम वेदनायगम पिल्लै।
बंगाली
दुर्गेशनंदिनी। रचनाकाल, 1865, लेखक, बंकिम चंद्र चैटर्जी।
मराठी
यमुना पर्यटन। रचनाकाल, 1857, लेखक, बाबा पद्मजी। इसे भारतीय भाषाओं में लिखा गया प्रथम उपन्यास माना जाता है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत की लगभग सभी भाषाओं में उपन्यास विधा का उद्भव लगभग एक ही समय दस-बीस वर्षों के अंतराल में हुआ।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
लेबल: उपन्यास, परीक्षा गुरु, लाला श्रीनिवास दास, साहित्य, हिंदी
Monday, August 17, 2009
जुए बीनना और बतियाना
मानव निरीक्षण - 5
क्या आप बता सकते हैं, बंदरों की सबसे प्रिय आदत क्या है? वह है एक दूसरे के शरीर से जुए बीनना। जुए बीनने की यह आदत उनकी सामाजिक व्यवस्था में काफी महत्व रखती है। मनुष्यों में भी जुए बीनने की बंदरों की आदत का समतुल्य व्यवहार होता है? वह है, बतियाना, जी हां, बातचीत करना। आगे पढ़िए, सब स्पष्ट हो जाएगा।
टोलियों में रहनेवाले सदस्यों में एक वरीयता क्रम (पेकिंग आर्डर) होता है, जो यह तय करता है कि मैथुन, भोजन, सुरक्षा और अन्य सुविधाओं पर पहला अधिकार किसका हो। यह वरीयता क्रम टोली के सदस्यों में इन सब सुविधाओं के लिए नित्य के झगड़ों से बचने के लिए बहुत आवश्यक है। टोलियों के सदस्य शुरुआत में हल्के-फुल्के शक्ति परीक्षण से इस क्रम को निश्चित कर लेते हैं, और उसके बाद टोली में अपेक्षाकृत शांति बनी रहती है। लड़ाई की नौबत तभी आती है जब इस क्रम का कोई उल्लंघन करे। ऐसा होने पर जिस सदस्य की हैसियत को चुनौती मिली हो, वह या तो अपनी हैसियत की लाज रखने के लिए नियम भंग करनेवाले से भिड़ जाता है, या उसके लिए अपना स्थान सदा के लिए छोड़ देता है।
वरीयता क्रम निश्चित हो जाने के बाद भी सदस्यों में परस्पर सौहार्द बनाए रखने के लिए बहुत से छोटे-मोटे व्यवहार होते रहते हैं। इनमें से एक प्रमुख व्यवहार एक-दूसरों के शरीर से जुए बीनना है। हमें लग सकता है कि यह बिना किसी निहितार्थ के किया जाता होगा, पर जिन वैज्ञानिकों ने इन बातों का अध्ययन किया है, वे बताते हैं कि जुए बीनने जैसे सामान्य व्यवहार के पीछे भी काफी राजनीति होती है।
आमतौर पर जुए बीनना अपने से अधिक सत्तावान सदस्य के प्रति समर्पण भाव दिखाने का एक तरीका होता है। सामान्यतः कम शक्तिमान सदस्य ही अपने से अधिक शक्तिमान सदस्य के शरीर से जुए बीनता है। ऐसा करके वह यही दर्शाता है कि मैं तुम्हारी वरीयता स्वीकार करता हूं और इसके सबूत के रूप में मैं तुम्हें कष्ट पहुंचा रहे इन कीड़ों से छुटकारा दिलाऊंगा। और अधिक सत्तावान सदस्य अपने से कम सत्तावान सदस्य द्वारा अपने शरीर के जुए बिनवाकर उसे यही आश्वासन देता है कि मैं तुम्हारे समर्पण को स्वीकार करता हूं और तुम्हें अपने संरक्षण में लेता हूं और तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा। इससे दोनों को मनोवैज्ञानिक सकून मिलता है। सत्तावान सदस्य उस दूसरे सदस्य के प्रति निश्चिंत हो जाता है कि यह मेरे विरुद्ध उत्पात नहीं करेगा, और कम सत्तावान सदस्य को यह आश्वासन मिलता है कि मुझसे अधिक शक्तिशाली यह सदस्य अब मेरा उत्पीड़न नहीं करेगा।
मित्रों में, अर्थात लगभग समान सामाजिक हैसियत वाले सदस्यों में, जुए बीनने की क्रिया उनके परस्पर संबंधों को और प्रगाढ़ बनाती है।
इसलिए बंदरों में जुए बीनने की क्रिया समूह के अंदर के सबंधों को बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अब आते हैं मनुष्यों के विषय पर। मनुष्य भी वानर कुल का ही सदस्य है, और वह भी समूहों में रहनेवाला प्राणी है। उसमें भी जुए बीनने की क्रिया से मिलता-जुलता व्यवहार है, जो है बतियाना।
मनुष्यों में समस्या यह है कि उसके शरीर में बाल नहीं हैं, इसलिए उसे जुए, पिस्सू आदि जीव कम परेशान करते हैं। इसलिए जुए बीनने की क्रिया उसके संबंध में अर्थहीन है। पर हम सब जानते हैं कि हमारे समुदाय में भी एक सुस्पष्ट वरीयता क्रम देखी जाती है। चाहे आप परिवार को लें, या किसी दफ्तर के सदस्यों को, हमें वहां सब एक वरीयता क्रम दिखाई देगा। सबसे ज्यादा अधिकार परिवार के वरिष्ठ पुरुष सदस्य का, फिर उसकी पत्नी का, उसके बाद उनके सबसे वरिष्ठ पुत्र का, सबसे नीचे बच्चों और नौकर-चाकरों का। बच्चों में भी वरीयकता क्रम होता है, चाहे वह घर के बच्चे हों या मोहल्ले या स्कूल के बच्चे। नौकरों में भी यही बात है। दफ्तर में सबसे अधिक रसूख वाला व्यक्ति सीईओ होता है, उसके नीचे वरिष्ठ प्रबंधक, फिर कनिष्ठ प्रबंधक, फिर उनके सचिव आदि और सबसे कम रसूख वाला कर्मचारी चपरासी होता है जिस पर सब रौब जमाते हैं। सेना में तो यह बहुत ही औपचारितापूर्ण ढंग से लागू होता है।
अनौपचारिक रूप से भी, जहां भी चार मनुष्य एकत्र हों, उनके बीच यह वरीयता क्रम निश्चित हो जाता है। लोग एक-दूसरे को नाप-तौलकर अपने बीच तय कर लेते हैं कि कौन किससे आगे है और इस क्रम का सभी व्यवहारों में पालन करते हैं। यह अल्प समय के लिए बने मानव समूहों में भी देखा जाता है, जैसे किसी रेल के डिब्बे में चंद घंटों के लिए एकत्र मुसाफिरों में।
डेसमंड मोरिस (मैन वाचिंग, द नेकड एप, ह्यूमन ज़ू आदि पुस्तकों के लेखक) का कहना है कि इस वरीयता क्रम को बिना अनावश्यक लड़ाई-झगड़े के बनाए रखने के लिए मनुष्यों में जो तरीका है, वह है बतियाना। मनुष्य निरंतर बितियाता रहता है। दो मनुष्य मिले नहीं कि कोई न कोई बहाना ढूंढ़कर वे बातचीत शुरू कर देते हैं। डेसमंड मोरिस का कहना है कि यह वास्तव में दोनों में एक दूसरे को तौलने और वरीयता क्रम निश्चित करने की प्रक्रिया है। पुराने परिचित भी खूब बातचीत करते हैं। इनमें बातचीत का महत्व वरीयता क्रम निश्चित करने में नहीं है, क्योंकि वह पहले ही निश्चित हो चुका होता है, बल्कि उसे पुष्ट करने में होता है।
बातचीत में संलग्न दोनों सदस्य एक दूसरे के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं, दोनों के बीच तनाव कम हो जाता है और समाज में सामरस्य बना रहता है।
आम प्रवृत्ति अधिक बातचीत को हतोत्साहित करने की है। स्कूलों में, दफ्तरों में, सभी जगह यही कहा जाता है कि बातें कम करो, और काम करो, बातों में समय नष्ट मत करो, इत्यादि। पर यदि हम डेसमंड मोरिस की बात मानें, तो बातें करना तनाव मुक्ति और अनावश्यक रगड़-झगड़ घटाने का एक साधन है और यदि हमें मनुष्य समाज में शांति बनाए रखनी हो, तो हमें परस्पर खूब बातचीत करनी चाहिए।
यदि हम हमारे व्यवहार पर थोड़ा गौर करें तो डेसमंड मोरिस की बात समझ में आती है। जब दो लोगों में मन-मुटाव होता है, तो इसका एक प्रमुख संकेत होता है उनमें बातचीत बंद हो जाना। दोनों मुंह फुलाएं एक दूसरे से कट्टी कर लेते हैं। बच्चों में तो यह खास तौर से देखा जाता है। और दोनों में मैत्री भाव की पुनर्स्थापना का पहला संकेत भी यही होता है कि वे दोनों बातें करने लग गए हैं। दोनों में मेल-मिलाप करानेवाले व्यक्ति भी सबसे पहले दोनों के बीच बातचीत शुरू कराने की ही कोशिश करते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि बातचीत हमारे समुदाय में तनाव घटाने का और मैत्री भाव जताने का एक महत्वपूर्ण जरिया होता है। यदि दो लोगों में मनमुटाव हो तो उनमें बातचीत करा दीजिए और देखिए वे कैसे तुरंत फिर से मित्र बन जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति तनाव, मायूसी या चिंता से ग्रस्त हो, तो उससे खूब बातचीत कीजिए उसे तुरंत आराम मिल जाएगा। यदि आप स्वयं तनाव, मायूसी या चिंता से परेशान हों, तो अपने परिवार के जनों, मित्रों, पड़ोसियों और अन्य व्यक्तियों से खूब बात कीजिए, और देखिए आप कितनी जल्दी बेहतर महसूस करते हैं।
मजे की बात यह है कि यह दो व्यक्तियों पर ही लागू नहीं होता, दो राष्ट्रों में भी यही बात देखी जाती है। विवाद की स्थिति में दोनों औपचारिक कूटनीतिक संबंधों को तोड़ लेते हैं। एक-दूसरे के देश से अपने राजदूतों को वापस बुला लेते हैं, और यदि इससे भी बात नहीं बनी तो, अपने दूतावासों को ही बंद कर लेते हैं। उसके बाद तो खुले युद्ध का ही रास्ता बचा रहता है।
दूसरे देश जो इस लड़ाई से दुनिया को बचाना चाहते हैं, वे यही कोशिश करते हैं कि दोनों देशों में फिर से बातचीत शुरू हो जाए। भारत और पाकिस्तान, ईरान और अमरीका, रूस और अमरीका, चीन और जापान आदि के संदर्भ में यह बात और स्पष्ट हो जाएगी। मुंबई हत्याकांड के बाद भारत ने पाकिस्तान से सभी वर्ताएं बंद कर दी थीं और अमरीका निरंतर हम दोनों पर दबाव डाल रहा है कि ये वार्ताएं पुनः शुरू हो जाएं, ताकि युद्ध की नौबत न आए। जब दो व्यक्तियों या राष्ट्रों में बातचीत ही बंद हो जाए तो इसका मतलब यह होता है कि दोनों के बीच जो वरीयता क्रम पहले निश्चित था, वह अब मान्य नहीं रहा और उसे नए सिरे से निश्चित करना पड़ेगा। यह बातचीत से या युद्ध से हो सकता है। चूंकि युद्ध के भीषण परिणाम निकल सकते हैं, दूसरे देश युद्ध टालने के लिए दोनों के बीच बातचीत बहाल करने की ही कोशिश करते हैं।
अब तो राष्ट्रों के बीच औपचारिक बातचीत को सुगम बनाने के लिए स्थायी व्यवस्थाएं भी बना दी गई हैं, यथा, लीग ओफ नेशेन्स (प्रथम महायुद्ध के बाद), संयुक्त राष्ट्र संघ (दूसरे महायुद्ध के बाद)। ये ऐसे मंच हैं जो कट्टी किए बैठे राष्ट्रों के बीच बातचीत पुनः शुरू कराने के अवसर देते हैं।
इसी तरह संसद, विधान सभा, अदालत, आदि सब औपचारिक बातचीत द्वारा मैत्री स्थापित करने के तरीके हैं, जो सब बंदरों के जुए बीनने की गतिविधि के ही विकसित रूप हैं।
दफ्तरों में जोइंट कंसलटेटिव मेकेनिज़म (जेसीएम) जिसमें प्रबंधक और कर्मचारी बातचीत के माध्यम से अपनी समस्याएं सुलटा लेते हैं, और हड़ताल, तोड़-फोड़, पुलिस कार्रावाई आदि की नौबत नहीं आने देते, भी ऐसी ही एक व्यवस्था।
सामाजिक स्तर पर सत्संग, सामूहिक उपासना, प्रवचन आदि भी बातचीत द्वारा समाज में व्यवस्था स्थापित करने के विभिन्न उपाय हैं।
सभी कलाओं की मूल प्रेरणा भी बातचीत करने की इस मूलभूत आवश्यकता ही है। मनुष्य केवल बोलकर ही नहीं बातचीत करता। वह इशारे से (नृत्य कला), लिखकर (साहित्य), गाकर (संगीत), चित्र बनाकर (चित्रकला), मूर्तियां बनाकर (मूर्तिकला), इमारतें बनाकर (स्थापत्यकला) भी अपने मन की बात व्यक्त करता है। ये सब कलाएं बातचीत करने की क्रिया के ही परिष्कृत रूप हैं, और उन सबका मूल मक्सद तनाव घटाना और मैत्रीभाव बढ़ाना है।
अक्सर हम देखते हैं कि अत्यंत विषाद या दुख की स्थिति में हमारे मुंह से अपने आप ही गीत फूट निकलते हैं। वाल्मीकि ने रामयाण ऐसे ही लिखा था, जब सारस जोड़ी में से एक के बहेलिए द्वारा मार दिए जाने से उनका मन विषाद से भर गया था। वाल्मीकि ही नहीं, हम भी दुख की स्थिति में कोई न कोई गाना गुनगुनाते हैं। अक्सर लेखक, चित्रकार, कवि आदि भी अत्यंत दुख की स्थिति में ही अपनी कला का उच्चतम प्रदर्शन करते हैं। यह इसलिए क्योंकि यह उनके लिए दुख से मुक्ति पाने का एक जरिया होता है। कोई रचना करने के बाद वे दुख या तनाव से मुक्त हो जाते हैं।
तो है न मानव निरीक्षण एक रोचक चीज। क्या आपने इससे पहले सोचा भी था कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युद्ध, साहित्य, चित्रकारी आदि गंभीर क्रियाकलापों का बंदरों द्वारा जुए बीनने की क्रिया से घनिष्ट संबंध है?
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: मानव निरीक्षण
Sunday, August 16, 2009
नए मंगल फोंट की त्रुटियां
विंडोस प्रचालन तंत्र में हिंदी के लिए डिफोल्ट फोंट मंगल है। इस कारण यह फोंट हिंदी के लिए सर्वाधिक उपयोग किए जानेवाले फोंटों में से एक है।
एस्थेटिक्स (सुंदरता) की दृष्टि से देखें, तो मंगल फोंट कुछ कहने लायक नहीं है। उसके बारे में बस इतना ही कहा जा सकता है कि वह स्क्रीन पर पढ़ने के लिए ठीक-ठीक है (ठीक-ठाक नहीं)। मंगल फोंट में मुद्रित पाठ बहुत इंप्रेस नहीं करता है। उसे बारबार देखने से उसकी आदत सी हो जाती है, तभी उसकी सामान्यता अखरती नहीं है।
पर इस फोंट में कुछ गंभीर त्रुटियां भी हैं, जिससे उच्च कोटि के हिंदी काम के लिए वह अनुपयुक्त है। इनमें से सबसे ज्यादा अखरनेवाली त्रुटि उसमें ड और ढ के नीचे नुक्ता सही जगह पर नहीं लगना है। नुक्ता इन अक्षरों के बाईं ओर चला जाता है।
इसलिए जब रविरतलामी के छींटे और बौंछारे ब्लोग के माध्यम से मालूम हुआ कि मंगल फोंट का नया संस्करण विंडोस 7 के साथ उपलब्ध हो रहा है, तो सबसे पहले यही देखने की जिज्ञासा हुई कि क्या मंगल फोंट के नए संस्करण में यह नुक्ता वाली समस्या ठीक कर दी गई है या नहीं। इसलिए मैंने रवि जी से मंगल फोंट का नया संस्करण तुरंत ही मंगा लिया।
मुझे यह देखकर खुशी हुई कि ड और ढ के नुक्ता वाली समस्या नए मंगल फोंट में ठीक कर दी गई है। मैं इसे लेकर खुशियां मना ही रहा था कि मंगल फोंट के इस नए संस्करण में मुझे एक त्रुटि दिख गई, जो प्रसंगवश, पुराने मंगल फोंट में नहीं है।
यह है द से संबंधित कुछ संयुक्ताक्षरों का इसमें ठीक से न बनना। पुराने मंगल फोंट में द्व, द्ग, द्य आदि ठीक से संयुक्त होकर एक अक्षर के रूप में दिख जाते थे, पर मंगल के इस नए फोंट में वे टाइपराइटर शैली में हलंत के साथ तीन अक्षरों के रूप में दिखते हैं। कहना न होगा कि यह बहुत ही भद्दा लगता है। मजे की बात यह है कि नए मंगल में द के अन्य कई संयुक्ताक्षर जैसे द्र, द्ध, द्भ, द्म, द्द आदि ठीक से बनते हैं। ऐसा लगता है कि फोंट में सुधार करनेवाले लोगों के ध्यान से ये दे के संयुक्ताक्षर छूट गए थे।
नए मंगल फोंट में ल अक्षर का रूप भी त्रुटिपूर्ण लगता है, कम से कम स्क्रीन पर 12 पोइंट पर देखने पर। ल का अंदर का हिस्सा शिरोरेखा को छूता सा लगता है। पुराने मंगल में यह समस्या नहीं थी।
तो नए मंगल फोंट के साथ स्थिति दो कदम आगे, चार कदम पीछे वाली लगती है! लगता है कि इन त्रुटियों के ठीक होने के लिए विंडोस के अलगे संस्करण (विंडोस 8?) के आने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। वह पता नहीं कब आए। अब माइक्रोसोफ्ट को गूगल के प्रचालन तंत्र से कांटे की चुनौती मिल रही है। ऐसा भी हो सकता है कि विंडोस 8 की नौबत ही न आए!
हिंदी में यूनिकोड एनकोडिंगवाले फोंटों की बड़ी कमी है। इस ओर जानकार लोगों को ध्यान देना होगा। खेद की बात है कि बहुत खोजबीन करने के बाद भी मुझे यूनिकोड वाला सब दृष्टि से त्रुटि रहित एक भी हिंदी फोंट नहीं मिल सका है। कुछ प्रमुख यूनिकोड हिंदी फोंटो की संक्षिप्त चर्चा से इस बात को स्पष्ट करता हूं –
सीडैक द्वारा विकसित फोंट
पुणे स्थित सरकारी उद्यम सीडैक ने अनेक यूनिकोड आधारित फोंट जारी किए हैं, जैसे सुरेख, योगेश, भीम, ध्रुव, ऐश्वर्या आदि, आदि। इस खेप में लगभग 50 फोंट हैं। पर सबमें कोई न कोई त्रुटि है।
सुरेख फोंट
सीडैक के सुरेख फोंट का यूनीकोड संस्करण मुद्रण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है, पर उसमें भी कई त्रुटियां हैं, जैसे –
1. उसमें य अक्षर प अक्षर के समान दिखता है।
2. अनुस्वार चिह्न इ की मात्रा के पीछे छिप जाता है, यथा, शांति शब्द को सुरेख में लिखने पर अनुस्वार की बिंदु को इ की मात्रा छिपा जाती है।
योगेश फोंट
सीडैक द्वारा विकसित एक अन्य फोंट योगेश है। इसमें अनुस्वार चिह्न और इ की मात्रा वाली समस्या नहीं है, पर इसके कोड संख्याओं में त्रुटि है। उदाहरण के लिए एम डैश टाइप करने पर एकल उद्धरण चिह्न आता है।
यानी कोड स्थिति यू+2014 (एम डैश) और यू+2018 (सिंगल कोटेशन मार्क) में घपला हो गया है। यह त्रुटि सुरेख को छोड़कर सीडैक द्वारा विकसित सभी यूनिकोड फोंटों में है, यथा भीम, ध्रुव, योगेश, ऐश्वर्य, अजय, देवेंद्र, आदि, आदि।
विंडोस के फोंट
विंडोस ने हिंदी के लिए कई यूनिकोड फोंट जारी किए हैं, जैसे एरियल यूनिकोड एमएस, मंगल, कोकिला और अपराजिता। पर इन सबमें कोई न कोई त्रुटि है। मंगल फोंट की कमियों की चर्चा ऊपर हो चुकी है, इसलिए यहां अन्य फोंटों की चर्चा करते हैं
एरियल यूनिकोड एमएस
यह एक अच्छा फोंट है, पर इसमें भी ड और ढ के नुक्ते के सही जगह पर न पड़ने की समस्या है। क्या विंडोस 7 में एरियल यूनिकोड एमएस का भी नया संस्करण आया है, जिसमें यह त्रुटि न हो?
कोकिला
एक अन्य विंडोस फोंट कोकिला है। इसमें ड और ढ के नीचे नुक्ता की स्थिति ठीक है, पर इसमें हिंदी विराम चिह्न ठीक नहीं है वह पाइप वर्ण जैसा बहुत लंबा दिखता है और वाक्य के अंतिम अक्षर के बहुत नजदीक पड़ता है।
अपराजिता
विंडोस का एक दूसरा फोंट अपराजिता है, पर यह अलंकृत फोंट है और सामान्य उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं है। इसमें ड और ढ के नुक्ते की समस्या नहीं है।
लिनक्स के फोंट
लिनक्स के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है। मैंने सुना है कि उसमें हिंदी के कई अच्छे यूनिकोड फोंट हैं। रवि जी ने लोहित नाम के एक फोंट का ध्यान दिलाया था, पर यह भी त्रुटि रहित नहीं है। नुक्ता इसमें भी ड पर ठीक से नहीं पड़ता है। वह ड के निचले भाग को छूता हुआ सा प्रतीत होता है, कम से कम स्क्रीन पर 12 पोइंट साइस पर। दूसरी समस्या इसमें यह है कि ए की मात्रा े शिरोरेखा को छूती नहीं है और अलग सी खड़ी लगती है।
कुल-मिलाकर कहें, तो यूनिकोड हिंदी फोंटों की स्थिति अत्यंत असंतोषजनक ही है। इस दिशा में बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है। कृतिदेव, कृतिपैड, युवराज आदि गैर-यूनिकोड फोंटों का यूनिकोड संस्करण जल्द तैयार करवाना चाहिए। ये अच्छे फोंट हैं, कम से कम ऐस्थेटिक्स की दृष्टि से। यदि ये यूनिकोड एनकोडिंग के साथ उपलब्ध हो जाएं, तो इन्हें वेब साइटों आदि के लिए भी उपयोग किया जा सकेगा। अभी इनका मूल्य केवल मुद्रण के लिए है। मुद्रण में भी उनका महत्व कम होता जा रहा है, क्योंकि वे यूनिकोड एनकोडिंग में नहीं है।
सवाल यही है कि क्या कोई इस ओर काम कर रहा है? यदि कर रहा हो, तो उन्हें प्रोत्साहन और समर्थन देने की आवश्यकता है। संस्थाओं को भी आगे आना होगा। केंद्र सरकार के इलेक्ट्रोनिक्स और आईटी विभाग, केंद्रीय हिंदी संस्थान, विभिन्न राज्यों के हिंदी संस्थान, सीडैक, भारतीय प्रौद्योकिकी संस्थान आदि को इस ओर पहल करनी होगी क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है।
टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो आदि बड़ी-बड़ी आईटी कंपनियों को भी इस कार्य में योगदान देना चाहिए। अब तक वे केवल पैसे बनाने में अपनी कुशलता दिखा पाए हैं, और देश के हित का कोई सोफ्टवेयर देने में नितांत असफल रहे हैं। अब समय आ गया है कि वे देश के लिए हितकारी कुछ काम करने की ओर भी ध्यान दें। क्या यह उनके लिए शर्म की बात नहीं है कि उनके पास इतना साधन और कुशलता होने के बाद भी हिंदी में ढंग के फोंट, सोफ्टवेयर आदि अब भी नहीं हैं, और जो हैं, वे सब माइक्रोसोफ्ट, एडोब आदि विदेशी कंपनियों द्वारा विकसित हैं?
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 9 टिप्पणियाँ
लेबल: प्रौद्योगिकी, फोंट, मंगल, हिंदी
Saturday, August 15, 2009
शहीद खुदीराम बोस
आज यदि हम स्वतंत्र हवा में सांस ले पा रहे हैं, तो यह उन अनेक वीर भारतवासियों की बदौलत है जिन्होंने अपने वतन को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने के लिए अपनी जान तक की बाजी लगा दी थी। उनमें से एक अमर शहीद खुदीराम बोस थे। आइए आज, 15 अगस्त के दिन उन्हें याद कर लेते हैं। आज से 4 दिन पहले, यानी 11 अगस्त को, 1908 में अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर लटका दिया था, पर वे हमेशा भारतवासियों के हृदयों में बने रहेंगे।
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खुदीराम बोस को भारत की स्वतंत्रता के लिए संगठित क्रांतिकारी आंदोलन का प्रथम शहीद माना जाता है। अपनी निर्भीकता और मृत्यु तक को सोत्साह वरण करने के लिए वे घर-घर में श्रद्धापूर्वक याद किए जाते हैं।
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। जब वे बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। उनकी बड़ी बहन ने उनका लालन-पालन किया था। 1905 में बंगाल का विभाजन होने के बाद वे देश के मुक्ति आंदोलन में कूद पड़े थे। उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया था।
1906 में वे पहली बार गिरफ्तार हुए लेकिन पुलिस-हिरासत से बच निकले थे। इसके बाद 1907 में उन्होंने अपने साथियों के साथ हाटागाछा में डाक थैलों को लूटा और दिसंबर 1907 में गवर्नर की विशेष रेलगाड़ी पर बम फेंका। मिदनापुर के क्रांतिकारियों के बीच वह एक साहसी और सक्षम संगठनकर्ता के रूप में जाने जाते थे।
उन दिनों किंग्सफोर्ड कलक्ता का चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट था। वह अपनी कठोर दमनकारी कार्रवाइयों से राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए कुख्यात था। क्रांतिकारियों ने उसे वहां से भगाने या खत्म करने का निर्णय किया और यह काम खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी को सौंपा गया। 13 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस ने प्रफुल्ल चाकी के साथ एक ऐसे वाहन पर बम फेंका जिसमें किंग्सफोर्ड के होने की संभावना थी। दुर्भाग्य से उस बम कांड में किंग्सफोर्ड के स्थान पर दो अंग्रेज महिलाएं मारी गईं जो उस वाहन में सफर कर रही थीं। प्रफुल्ल चाकी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था लेकिन उन्होंने खुद को गोली मार ली। खुदीराम को अगले दिन गिरफ्तार किया गया। उन्होंने निर्भीक होकर पुलिक को बताया कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को दंड देने के लिए बम फेंका था। उन्हें मौत की सजा दी गई और 11 अगस्त, 1908 को फांसी पर चढ़ा दिया गया। मुजफ्फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस "एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी के तख्ते की ओर बढ़ा था"। जब खुदीराम शहीद हुए थे तब उनकी आयु 19 वर्ष थी। उनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए गीत रचे गए और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। उनके सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के लोक गायक आज भी गाते हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
Friday, August 14, 2009
मनुष्य रंगों को क्यों पहचान पाता है?
मानव निरीक्षण - 4
मनुष्य उन प्राणियों में से है जिनमें रंगों की पहचान की क्षमता काफी विकसित होती है। रंगों की पहचान करने के लिए हमारी आंखों में तीन प्रकार के प्रकाश-संवेदी शंकु कोशिकाएं हैं, जो क्रमशः लाल, हरे और नीले रंगों के प्रति संवेदनशील होती हैं। ये तीनों प्राथमिक रंग हैं और इनके मिश्रण से ही अन्य रंग उत्पन्न होते हैं।
इसके विपरीत, कुत्ते, शेर, हिरण, घोड़े आदि में दो शंकु कोशिकाएं ही होती हैं, जो केवल दो रंगों को ही पकड़ पाती हैं। इसलिए ये जानवर उतने रंगों को पहचान नहीं सकते जितने मनुष्य।
समुद्र की कुछ मछलियों और पक्षियों की आंखों में चार तक शंकु कोशिकाएं होती हैं, जो अलग-अलग चार रंगों को पहचानने में सक्षम होती हैं। इसलिए इन मछलियों और पक्षियों में रंगों की पहचान क्षमता मनुष्य से कहीं अधिक परिष्कृत होती है।
इस तरह हम देखते हैं कि रंगों की पहचान की क्षमता सभी जीवों में एक समान नहीं है, कुछ जीव कम रंगों को ही पहचान पाते हैं, जब कि कुछ अधिक। मनुष्य उन जीवों में गिना जाता है जिसमें रंगों की पहचान की अपेक्षाकृत अधिक क्षमता है। सवाल यह है कि मनुष्य में रंगों की पहचान की क्षमता क्यों है।
आम तौर पर ऐसे जानवरों में रंगों की पहचान की क्षमता अधिक पाई जाती है जिनके लिए यह क्षमता उपयोगी है। मनुष्य अपने विकास क्रम के प्रारंभिक दिनों में वृक्षों में काफी समय बिताता था और मुख्यतः वानस्पतिक पदार्थ खाता था, जैसे पत्ते, फूल, फल, टहनी आदि। अनेक पौधों में पत्ते आदि कुछ खास अवस्था में ही खाने योग्य होते हैं। उसके बाद उनमें जहरीले तत्व जमा हो जाते हैं और उन्हें खाना हानिकारक होता है। अथवा एक खास अवसथा में ही उनमें पौष्टिक सामग्री रहती है, बाद में वे कम पौष्टिक रह जाते हैं। उदाहरण के लिए जब पत्ते, डंठल, टहनी आदि कोमल होते हैं उनमें पोषक सामग्री ज्यादा होती है। जब पत्ते आदि पुराने हो जाते हैं, उनमें से पोषक सामग्री भी निकल जाती है। इसी प्रकार कई फल कच्ची अवस्था में खाने योग्य नहीं होते, पकने पर ही खाने योग्य होते हैं। इन सब अवस्थाओं में इनका रंग अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए टमाटर को ही लीजिए। शुरू-शुरू में वह गहरे हरे रंग का होता है, फिर इस हरे में गुलाबी रंग घुलने लगता है, जो गहराता जाता है और जब टमाटर पूरा पक जाता है, तो वह खून की तरह लाल रंग का हो जाता है। इसी तरह पत्ते प्रारंभ में तांबई रंग के होते हैं, फिर गहरे हरे हो जाते हैं। जब वे मुरझाने लगते हैं, तो पीले हो जाते हैं। इस तरह खाने की इन चीजों के रंग में निरंतर सूक्ष्म परिवर्तन होता रहता है, जो उनकी पौष्टिकता की ओर भी संकेत करता है। इन्हें खानेवाले जीवों में इन परिवर्तनों को पहचानने की क्षमता होनी चाहिए, और वह विकास-क्रम के दौरान अपने आप ही विकसित भी हो जाती है।
आदि मानव के लिए रंगों की पहचान इसीलिए बहुत आवश्यक था। इसके बिना उसके लिए पौधों द्वारा दर्शाए गए इन सूक्ष्म रंग-संकेतों को पढ़कर यह तय कर पाना मुश्किल होता कि कौन सा पत्ता, फल, फूल या टहनी कब खाने योग्य है। इसीलिए मनुष्य में रंगों को पहचानने की क्षमता ऊंचे दर्जे की पाई जाती है।
आम तौर पर वृक्षों में रहनेवाले और फल-फूल आदि वानस्पतिक सामग्री अधिक खानेवाले दिवाचर प्राणियों में रंगों को पहचानने की ऊंचे दर्जे की क्षमता पाई जाती है।
इसलिए मनुष्यों में विद्यमान ऊंचे दर्जे की रंगों की पहचान करने की क्षमता यह भी सूचित करती है कि वह मूलतः फल-फूल-पत्ते खानेवाला दिवाचार प्राणी है। उसके शरीर के अन्य अवयवों से भी इसकी पुष्टि होती है, उदाहरण के लिए उसका पाचन तंत्र, दंत-पक्ति, जबड़े आदि यही दर्शाते हैं कि वह वानस्पतिक भोजन खाने के लिए बना है। मनुष्य में अन्य जानवरों को मारने के अवयवों का अभाव, जैसे तीक्ष्ण दांत या नाखून भी यही सूचित करता है कि मनुष्य मांसाहारी जीव नहीं है। लेकिन विकास-क्रम के दौरान उसे मांस-भक्षण भी अपनाना पड़ा है। यह उसकी सफलता का एक कारण भी बना। मांस-भक्षण से उसकी आहार-सूची में एक नया, सभी जगह विद्यमान भोजन-स्रोत जुड़ गया। जो प्राणी विभिन्न प्रकार के भोजन पचा सकता हो, उसकी उत्तरजीविता भी बढ़ जाती है। इसी कारण मनुष्य, चूहे, तिलचट्टे आदि प्राणी अधिक सफल हो पाए हैं, क्योंकि ये सब लगभग सभी कुछ खाकर जीवित रह सकते हैं और इसलिए पृथ्वी के हर कोने में फैल सके हैं। इसके विपरीत सीमत भोजन-स्रोतों पर निर्भर प्राणी सीमित क्षेत्रों में और सीमित संख्याओं में ही रह पाते हैं जहां उनके अनुकूल भोजन-स्रोत उपलब्ध हों। उदाहरण के लिए पांडा नामक जीव केवल बांस के कोमल डंठलों को खाता है। वह वहीं रह सकता है जहां बांस के जंगल हों। एक अन्य उदाहरण आस्ट्रेलिया का कोला नामक जीव है, जो केवल यूकालिप्टस वृक्ष के पत्ते ही खाता है। वह भी उन्हीं जंगलों में रह सकता है जहां यूकालिप्टस के वृक्ष बहुतायत में हों।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: मानव निरीक्षण
Thursday, August 13, 2009
ईश्वर की उत्पत्ति
मानव निरीक्षण - 3
धर्म और दर्शन की चिरंतन गुत्थी है यह प्रश्न कि ईश्वर है या नहीं। ईश्वर को मानने का मुख्य कारण यह है कि बिना ईश्वर की कल्पना किए इस असीम ब्रह्मांड की उपस्थिति को समझना कठिन है। यही कारण है कि बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी अपनी खोजों से इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऐसी कोई शक्ति जरूर है जिसने सूरज, चांद, तारे और पृथ्वी को रचा होगा।
खैर, हमारा आज का विषय इससे थोड़ा सा हटकर है। दरअसल मनुष्य के लिए एक अन्य कारण से भी ईश्वर की कल्पना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आवश्यक है। आइए देखते हैं, कैसे।
जैसा कि अब सर्वविदित है, मनुष्य का अन्य वानरों से, और विशेषकर नरवानरों (गोरिल्ला, चिंपैंजी, ओरांग उटान) से निकट का संबंध है। वानरों में जो सामाजिक व्यवस्था पाई जाती है, उसकी कई विशेषताएं मनुष्य समाज में भी देखी जाती है।
वानर समुदाय टोलियों में बंटा होता है। हर टोली में एक ही पिता की संतानें और उसकी पत्नियां रहती हैं। इसे आदिम मानव के गणों या कबीलों के तुल्य माना जा सकता है। प्रत्येक टोली का एक नर शासक होता है। वह टोली का सबसे बलवान नर होता है। वह अन्य सभी नरों को टोली से खदेड़ देता है। ये नर उसी के बच्चे होते हैं या भाई। गोरिल्ला में इस प्रमुख नर को अल्फा मेल या सिल्वरबैक कहा जाता है, क्योंकि इसकी पीठ के बाल चांदी के जैसे चमकीले होते हैं। यह टीली के अन्य सदस्यों की तुलना में असीम बलशाली, अधिक उम्र का और अनुभव वाला होता है। वही टोली को भोजन-पानी की निरंतर तलाश में नेतृत्व करता है, और शत्रुओं से बचाता है। वह एक तनाशाह होता है। टोली के सदस्यों की जरा सी भी अनुशासन-हीनता वह बर्दाश्त नहीं करता। टोली के अन्य सदस्य उससे डरते रहते हैं, पर उसका कृपापात्र बना रहना भी उनके हित में होता है, क्योंकि उसकी छत्रछाया में वे सुरक्षित जीवन बिता सकते हैं।
आदि मानव की उस अवस्था में जब वह मुख्यतः पेड़ों पर रहता था, इससे मिलती-जुलती सामाजिक व्यवस्था होती थी। पेड़ों में रहते हुए मनुष्य की टोलियों के लिए परस्पर सहयोग की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भोजन फल-फूल-पत्ती के रूप में खूब उपलब्ध था और हाथ बढ़ाते ही मिल जाता था। भोजन के लिए कोई विशेष संगठित प्रयत्न की आवश्यकता नहीं थी। इसी तरह पेड़ों की ऊंचाई के कारण मनुष्य काफी हद तक हिंस्र पशुओं से सुरक्षित था, और बचाव के लिए भी संगठित प्रयास कम ही अपेक्षित था। इस लिए तानाशाह सरदार के लिए अपनी टोली पर नियंत्रण रखना और उसे भोजन और सुरक्षा प्रदान करना आसान और संभव था।
उसके बाद मनुष्य मैदानों में रहने लगा। इससे उसकी आदतें बदल गईं। अब भोजन का मुख्य स्रोत अन्य जानवरों का मांस हो गया। मनुष्य भैंसा, हाथी, हिरण आदि बड़े-बड़े जानवरों का शिकार करने लगा। इन्हें मारना किसी एक मनुष्य के बस की बात नहीं थी। संगठित प्रयत्न अपेक्षित था। जब बहुत सारे मनुष्य ऊंचे दर्जे के परस्पर तालमेल से काम करते थे, तभी इतने बड़े शिकारों को मार पाते थे। इसी प्रकार मैदानों में अनेक हिंस्र पशु भी थे। इनसे बचने के लिए भी एक-दूसरे की मदद अपेक्षित थी। ताल-मेल के साथ काम करने के लिए यह आवश्यक है कि गुट के सदस्यों में ऊंच-नीच की भावना न हो, और सभी को समान महत्व प्राप्त हो, अन्यथा परस्पर-वैमनम्य से गुट बिखर जाता।
इसका मतलब यह हुआ कि एक तानाशाह नेता और अनेक अधिकार-शून्य सदस्योंवाली सामाजिक व्यवस्था अब अपर्याप्त साबित होने लगी। नए मानव समाज में सभी सदस्यों का महत्व और दर्जा लगभग समान ही था। शिकार करते या हिंस्र पशुओं से बचाव करते समय जितने अधिक सदस्य साथ मिलकर काम करें, काम उतना ही आसान होता था। इसलिए सभी को समान महत्व भी मिलने लगा। टोली में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं रह गया जिसका दर्जा तनाशाह सरदार के जैसा सर्वोपरि हो।
पर मनुष्य के लिए यह एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता हो गई थी कि वह ऐसे किसी सर्वशक्तिमान, सभी अधिकारों से संपन्न सरदार के अधीन रहे, जिसके मात्र आज्ञापालन से उसकी सारी समस्याएं सुलझ जाए। नया जीवन अनेक जोखिमों, भयों और अनिश्चितताओं से भरा था। आदि मनुष्य को बारबार अपना वृक्षों वाला अधिक सरल जीवन याद हो आता था और उस सर्वशक्तिमान तानशाह नेता का भी जो उसे सुरक्षा प्रदान करता था, और जो उसकी ओर से हर निर्णय ले लेता था।
इसी कमी को पूरा करने के लिए मनुष्य ने ऐसी किसी सत्ता की कल्पना कर ली जो उसकी टोली से अलग था, और जो उसकी टोली के किसी भी सदस्य से कहीं ज्यादा शक्तिशाली और अधिकार संपन्न था, और जिसके आज्ञापालन को उसने स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया।
यही ईश्वर है। मनुष्य को ईश्वर की कल्पना करना इसलिए आवश्यक हुआ क्योंकि मैदानों में सामाजिक जीवन शुरू करने पर परस्पर सहयोग आवश्यक हो गया। सभी मनुष्य समान रूप से महत्पवूर्ण और शक्तिशाली हो गए। किसी एक मनुष्य को अन्य मनुष्यों से इतना ऊंचा स्थान देना और उसे जीवन के हर निर्णय लेने का अधिकार देना अब संभव नहीं रह गया। किसी मनुष्य के लिए ऐसा तानाशाह, सर्वशक्ति-संपन्न सरदार बनना अब मुश्किल भी था क्योंकि मानव जीवन तब तक इतना जटिल हो चुका था कि कोई एक मनुष्य समाज की सभी क्रियाकलापों को नियंत्रित नहीं कर सकता था।
पर मनुष्य को वे पुराने दिन उसकी अंतःचेतना (सबकोन्श्यस माइंड) में याद थे जब वह पेड़ों पर रहता था, जब जिंदगी अधिक सरल थी, और जब तानाशाह सरदार उसके लिए हर निर्णय ले लेता था और उसकी रक्षा करता था। उसे केवल उसका आज्ञापालन करना होता था।
इसी पुरानी परिस्थिति को मनोवैज्ञानिक धरातल पर बहाल करने के लिए मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना कर ली और उसे सर्वशक्तिमान, सर्वाधिकार-संपन्न तानाशाह सरदार की भूमिका में उतार दिया।
जैसे-जैसे मानव समाज अधिक जटिल होता गया, ईश्वर की कल्पना भी विकसित होती गई और सारे ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में ईश्वर को देखा जाने लगा। ईश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं था, उसमें सभी शक्तियां थीं, वह सब जगह था। ईश्वर की शक्ति के बढ़ने का रहस्य भी आप समझ गए होंगे। दरअसल बढ़ी थी स्वयं मनुष्य की शक्ति। मनुष्य प्रकृति पर अधिकाधिक विजय पाता जा रहा था, और प्रकृति की शक्ति को नाथने की कला सीखता जा रहा था। और जैसे-जैसे वह अधिक शक्तिमान बनता गया, और सब जगह फैलता गया, वह ईश्वर को भी अपने से कहीं अधिक शक्ति प्रदान करता गया, ताकि ईश्वर हमेशा उससे अधिक शक्तिशाली और अधिकार-संपन्न बना रहे, सब जगह व्याप्त रहे।
और इस तरह आजकल के सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, असीम शक्तिवाले ईश्वर का आविर्भाव हुआ।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: मानव निरीक्षण
Wednesday, August 12, 2009
मनुष्य को गरम खाना क्यों पसंद है?
मानव निरीक्षण - 2
जब आप किसी होटल में जाते हैं और खाना मंगाते हैं, तो आप वेटर को कई बार यह हिदायत देना नहीं भूलते कि गरमा गरम खाना ले आओ।
क्या आपने सोचा है कि हमें गरम खाना ज्यादा पसंद क्यों आता है? आखिर गरम और ठंडे खाने में पौष्टिकता की दृष्टि से कोई फर्क नहीं होता। उल्टे, कुछ प्रकार के भोजन के पौष्टिक गुण गरम करने पर नष्ट ही होते हैं, जैसे विटामिन। फिर भी हमें गरम भोजन ही पसंद आता है। क्यों?
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह उस समय की लगी आदत है जब मनुष्य ने मांस-भक्षण शुरू किया था। पहले मनुष्य गोरिल्ला, ओरांग गुटान आदि नरवानरों के समान मुख्यतः फल-फूल और अन्य वानस्पतिक पदार्थ ही खाता था। उस समय वह वृक्षों पर ही निवास भी करता था। बाद में पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन हुआ और वन कम होने लगे, और मैदान और खुले प्रदेश अधिक हो गए। मनुष्य को इनमें जीना सीखना पड़ा। इससे उसके शरीर में और आदतों में अनेक परिवर्तन हुए। वह दो पैरों में चलने लगा, उसका शरीर बालहीन हो गया और वह मांस खाने लगा। मैदान में उसे फल-फूल मिलने से रहे, वहां हिरण, मृग, खरगोश आदि तृणभक्षी की ही अधिकता थी। मनुष्य की पाचन व्यवस्था ऐसी नहीं थी कि वह सीधे घास खा सके। उसे वह पचा नहीं पाता। इसलिए उसे इन जानवरों को ही पकड़कर उनका मांस खाना पड़ा। पर यह नया भोजन उसे बिलकुल भी रास नहीं आया। कच्चे मांस में कोई स्वाद नहीं होता है, जब कि फल-फूल आदि में नमक, मिठास, खटास, सुगंध आदि भरपूर मात्रा में होते हैं। इनके कारण ये पदार्थ खाने में अधिक स्वादिष्ट होते हैं। मांस को अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए मनुष्य ने उसे आग में भूनना शुरू किया इससे मांस न केवल नरम हो जाता है, बल्कि जलकर और पककर वह सुगंधित भी हो उठता है। इससे मनुष्य को वह अधिक जायकेदार लगता है।
इसी कारण से आज भी हम गरम खाना खाना पसंद करते हैं। खाने को गरम करने पर होता यह है कि उसके गंध युक्त अंश खूब सक्रिय हो जाते हैं और वे हमारे नथुनों में पहुंचकर हमें खूब उत्तेजित करने लगते हैं। इससे हमारे मस्तिष्क को वह भोजन अधिक स्वादिष्ट प्रतीत होने लगता है।
पर वैज्ञानिक थियोरियों को थोड़ा नमक-मिर्च मिलाकर ही स्वीकारना चाहिए, क्योंकि स्वयं वैज्ञानिक अपनी थियोरियों को बदलते रहते हैं। वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ धार्मिक कट्टरपन से चिपके रहने से अपनी ही फजीहत होगी। अब इसी थ्योरी को लिजिए। इसे धराशायी करने के लिए रोजमर्रा के जीवन की बस एक छोटी सी चीज पर विचार करना पर्याप्त होगा। आज कोई भी इन्कार नहीं करेगा कि सबसे स्वादिष्ट जंक फुड़ों में आइसक्रीम शामिल है। अब आप ही बताइए आईसक्रीम को गरमागरम परोसा जाए तो उसके स्वाद में इजाफा होगा या स्वाद बिलकुल बिगड़ जाएगा!
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: मानव निरीक्षण
Tuesday, August 11, 2009
मनुष्य बाल से वंचित क्यों हुआ
मानव निरीक्षण - 1
पिछले पोस्ट में मैंने डेसमंड मोरिस नामक वैज्ञानिक की मानव-व्यवहार संबंधी दो पुस्तकों का जिक्र किया था, मैन वाचिंग और द नेकड एप। इनमें मनुष्य-व्यवहार के बारे में ढेरों जानकारी है। इस लेख से शूरू करके आगे के कुछ लेखों में इसी पुस्तक के कुछ रोचक अंशों की चर्चा रहेगी।
शुरू करते हैं इस सवाल से कि मनुष्य के शरीर पर इतने कम बाल क्यों हैं, जब कि अधिकांश अन्य स्तनधारियों में, और खास करके हमारे पूर्वजों के निकट समझे जानेवाले नरवानरों में, यानी गोरिल्ला, चिंपैंजी और ओरांगुटान में, बाल का घना आवरण होता है?
वैज्ञानिकों ने इस गुत्थी पर विचार किया है। मनुष्य में बाल न होने को समझानेवाला एक सिद्धांत मैक्स वेस्टनहोफर ने 1942 में प्रस्तुत किया। एलिस्टर हार्डी नामक समुद्र-वैज्ञानिक ने 1960 में उसे और विस्तार दिया। इस विचित्र सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के विकास-क्रम में एक लंबी अवधि वह भी थी जब उसने जल-जीवन को अपनाया था, और इस दौरान उसके शरीर में अनेक परिवर्तन आए ताकि जल-जीवन सुगम हो जाए। इन परिवर्तनों में से एक बाल का चला जाना भी है, जिससे पानी में तैरना आसान हो जाता है। अन्य परिवर्तनों में शामिल हैं, पिछले पैरों का खूब लंबा और बलिष्ठ होना, क्योंकि उनका उपयोग तैरने के अवयव के रूप में किया जाता था, और त्वचा के नीचे चर्बी की परत विकसित होना, ताकि शरीर का ऊष्मारोधन हो। ये सब व्वस्थाएं अन्य समुद्री स्तनियों में भी पाई जाती हैं, जैसे सील, ह्वेल, आदि। इन स्तनधारियों में भी बाल नहीं होते, और पिछले पैर तैरने के अवयव में बदल गए हैं। उनके शरीर में भी त्वचा के नीचे चर्बी की परत होती है।
1970 के दशक मे यह सिद्धांत काफी लोकप्रिय हुआ था, पर इसे न मानने के अनेक कारण हैं। मनुष्य नैसर्गिक रूप से तैरना नहीं जानता है, और उसे तैरने की कला सीखनी पड़ती है। यदि मनुष्य पहले जलीय जीवन बिताता आया हो, तो उसे तैरना कुदरती रूप से आना चाहिए। दूसरी आपत्ति यह है कि मनुष्य में समुद्री परभक्षी जीवों से बचाव के उपाय नदारद हैं। यदि वह जल जीवन में एक समय माहिर रहा हो, तो उसमें ऐसा कोई बचाव साधन विकसित हो गया होना चाहिए था। तीसरी आपत्ति यह है कि अब तक ऐसे कोई मानव जीवश्म समुद्रों से नहीं मिले हैं जो यह सूचित करें कि पहले मनुष्य समुद्रों में रहता था। आजकल के वैज्ञानिक जल जीवन वाले इस सिद्धांत को कम ही तरजीह देते हैं।
मनुष्य में बाल के न होने के लिए कुछ अन्य सिद्धांत भी प्रचलित हैं।
एक सिद्धांत के अनुसार यह तब हुआ जब मनुष्य ने पेड़ों पर रहना छोड़कर खुले मैदानों में रहना शुरू किया। पहले मनुष्य चिंपैजी आदि नरवानरों के समान पेड़ों पर ही अधिक समय बिताता था और फल-फूल-पत्तियां खाकर ही जीवित रहता था। उस समय पृथ्वी में विशाल, घने वन भी बहुतयत में थे। फिर पृथ्वी की जलवायु बदल गई, वर्षा कम होने लगी और वन नष्ट होने लगे और उनकी जगह ले ली बड़े-बड़े घास के मैदानों ने। मनुष्य के पूर्वजों को भी इस परिवर्तन के साथ समझौता करना पड़ा। अब उन्हें पेड़ों से पर्याप्त भोजन नहीं मिल सकता था। उन्हें पेड़ों की सुरक्षा छोड़कर खुले मैदानों में उग रहे घास-पात खानेवालेजीव-जंतुओं से भोजन प्राप्त करने की आवश्यकता पड़ी। जमीन में उतर आने से मनुष्य के शरीर में अनेक परिवर्तन हुए, जैसे वह दो टांगों पर सीधे खड़े होकर चलने लगा। दूसरे, उसे मांस-भक्षी होना पड़ा क्योंकि मैदानों में वही प्रचुर मात्रा में उपलब्ध भोजन-स्रोत था। मांस हेतु अन्य जानवरों का शिकार करने के लिए उसे तेज दौड़ना पड़ता था। इससे उसका शरीर बहुत गरम हो जाता था। वैसे भी उन दिनों पृथ्वी का तापमान पहले से अधिक गरम हो गया था। इन दोनों के कारण बालयुक्त शरीर उसके लिए असुविधाजनक था, क्योंकि बाल के कारण दौड़ने के समय शरीर में बनी ऊष्मा जल्दी शरीर से बाहर नहीं निकल पाती थी। इसलिए उसने धीरे-धीरे अपने शरीर से बाल खो दिए।
वैज्ञानिकों में एक अन्य सिद्धांत भी प्रचलित है, जिसका भी संबंध मनुष्य के वृक्षों में रहना छोड़कर जमीन पर रहने लगने से संबंधित है। जब मनुष्य जमीन पर रहने लगा, तो उसे हिंस्र पशुओं से बचने के लिए गुफा-कंदराओं में शरण लेनी पड़ी। यहां रहते हुए मनुष्य के आसपास अवशिष्ट भोजन, मल-मूत्र और अन्य गंदगी खूब इकट्ठी होने लगी। इन गंदगियों में खूब परजीवी कीड़े भी पनपने लगे, जैसे पिस्सू, खटमल, जुए, आदि। ये मनुष्य को बहुत सताने लगे। इन पीड़क जीवों से छुटकारा पाने के लिए ही मनुष्य रोमहीन हो गया, क्योंकि ये परजीवी रोमयक्त त्वचा में ही पनप सकते थे।
जो भी हो, बालों का न होना मनुष्य को अन्य स्तनधारियों से विलक्षण जरूर बनाता है। बाल स्तनधारियों की खास पहचान है। दरअसल बाल केवल स्तनधारियों में ही पाया जाता है। यदि किसी प्राणी में बाल हो, तो उसे असंदिग्ध रूप से स्तनधारी माना जा सकता है। पर मनुष्य में प्रवृत्ति बाल से मुक्त होते जाने की दिख रही है। आजकल के मनुष्यों में बाल निरंतर कम होता जा रहा है।
वैसे भी विकास-क्रम का एक उसूल यह भी होता है कि जो अवयव आवश्यक नहीं होते हैं, वे बचते नहीं है। नरवानरों की पूछ इसका उदाहरण है। मनुष्यों में बाल का भी बहुत कम प्रयोजन रह गया है। इसलिए यदि विकास-क्रम में वह नष्ट हो जाए, तो वह आश्चर्य की बात नहीं होगी। भौंहें, पलकें, नाक, आदि में ही बाल रह जाएगा, क्योंकि वहां वह उपयोगी भूमिका निभाता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 5 टिप्पणियाँ
लेबल: मानव निरीक्षण
Monday, August 10, 2009
घर की चाहरदीवारी और राष्ट्रों की सरहदें
बिना बोले बातचीत - 7
हममें से प्रत्येक को हमारे चारों ओर कुछ न्यूनतम जगह की आवश्यकता होती है। इस जगह के भीतर कोई अन्य व्यक्ति घुस आए तो हम घबराहट महसूस करने लगते हैं। किसी के निजी क्षेत्र में घुसना उस पर आक्रमण करने के बराबर है। साधारणतः यह निजी क्षेत्र हमारे शरीर के चारों ओर लगभग एक मीटर तक फैला होता है। अधिक आक्रामक स्वभाववाले लोगों में यह अधिक होता है, सरल स्वभाववाले लोगों में कम। रेलवे स्टेशन में टिकट की खिड़की के सामने पंक्ति में खड़े लोगों का निरीक्षण करने पर इस निजी क्षेत्र का हमें एहसास हो जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति उसके आगे या पीछे खड़े व्यक्ति से कुछ सेंटीमीटर की दूरी पर खड़ा रहता है। उसके आगे-पीछे खड़े व्यक्ति को इससे अधिक निकट आने नहीं देता। यदि निकट आता है तो वह या तो उसे पीछे ढकेल देगा या नाराज हो जाएगा या विचिलित होने लगेगा।
भीड़-भरे बाजार में चलते वक्त भी हमें इसी निजी क्षेत्र का एहसास होता है। हम भरसक प्रयत्न करते हैं कि हमारा शरीर किसी अन्य व्यक्ति से टकरा न जाए। यदि टकरा जाता है तो हम माफी मांग लेते हैं। रेल के डिब्बे या बस में बैठते वक्त हम सीट के कुछ हिस्से को अपना मान लेते हैं। इस हिस्से पर कोई अधिक्रमण करने लगे तो हम लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।
यह निजी क्षेत्र व्यक्तियों में ही नहीं पाया जाता, वरन परिवारों, कबीलों और राष्ट्रों में भी दृष्टिगोचर होता है। घरों के चारों ओर दीवार बनवाकर और खेतों के चारों ओर मेड़ या बाड़ा खड़ा करके हम अपने अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करते हैं। इसी प्रकार सभी राष्ट्र अपनी सीमाओं को बड़े यत्न से निर्धारित करते हैं और उसकी बड़ी कड़ाई से रक्षा करते हैं। रोचक बात तो यह है कि यह आदत हम मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है। प्राणी जगत में भी इसके चिह्न दिखाई पड़ते हैं। हमारा अत्यंत परिचित प्राणी कुत्ते को ही लीजिए। वह भी अपने अधिकार क्षेत्र को बड़े यत्न से गंध द्वारा निर्धारित करता है और उसकी रक्षा सभी अन्य कुत्तों से करता है।
मनुष्य तथा अनेक अन्य प्राणियों में आंख से आंख मिलाकर देखना आक्रामक भाव व्यक्त करता है। दैनंदिन के जीवन के अनुभवों से हम इस तथ्य को जान सकते हैं। गुस्सा होने पर हम अपने प्रतिद्वंद्वी को घूरते हैं। किसी अन्य मनुष्य को सड़क में मिलने पर हम आंखें झुका लेते हैं। उससे आंखें तभी मिलाते हैं जब वह हमारा परिचित होता है। अपरिचित व्यक्ति से गलती से आंखें मिल भी जाएं तो हम तुरंत आंखें नीची कर लेते हैं या मुसकुरा देते हैं। मुसकुराने का अर्थ होता है कि हमारे इरादे मित्रतापूर्ण हैं।
प्रत्येक समुदाय की अपनी विशिष्ट शारीरिक चेष्टाएं होती हैं जिनका सही अर्थ केवल उस समुदाय के सदस्य ठीक प्रकार से समझ सकते हैं। उस समुदाय में पैदा होनेवाला प्रत्येक शिशु इन शारीरिक चेष्टाओं को भी बड़ों की नकल करके उसी प्रकार सीखता है जैसे वह भाषा सीखता है। इसी कारण जब भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के लोग मिलते हैं तो उन्हें एक-दूसरे को समझने में कठिनाई होती है क्योंकि उनकी अनेक शारीरिक चेष्टाएं भिन्न-भिन्न होती हैं और वे उनका सही अर्थ समझ नहीं पाते।
मनुष्य केवल शब्दों के उच्चारण से ही अपने मन की बात को व्यक्त नहीं करता। शरीर के प्रत्येक अंग की चेष्टाओं से वह अपने मनोभावों को प्रकट करता है। आंख, भौंह, कान, सिर, दांत, जीभ तथा मुख की मांस-पेशियां अत्यंत वाचाल होती हैं। चेहरे की बहुत-सी मुद्राएं अत्यंत आदिम हैं, और उनसे मिलती-जुलती मुद्राएं अन्य जानवरों, विशेषकर नरवानरों (गोरिल्ला, चिंपैंजी, वनमानुष आदि) में, विद्यमान हैं। इन मुद्राओं में हंसना, रोना और मुसकुराना प्रधान हैं।
ऐसे उदाहरणों से यही बात स्पष्ट होती है कि हममें और अन्य प्राणियों में बहुत-सी बातें समान हैं। यह अलग है कि हम इन सामान्य आदतों को पहचानने की कम कोशिश करते हैं। इसीलिए जब डारविन ने यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य का विकास बंदरों से हुआ है तो अनेक ईसाई पादरियों को बुरा लगा था क्योंकि उनके धर्म-ग्रंथों के अनुसार सभी जीवों को ईश्वर ने एक सप्ताह में बना डाला था और वे सब अपरिवर्तनीय थे। जो भी हो अब विज्ञान ने यह निर्विवाद रूप से साबित कर दिया है कि मनुष्य तथा सभी जीवधारियों का वर्तमान रूप लाखों वर्षों के विकास क्रम का परिणाम है। यह भी सिद्ध हो गया है कि मनुष्य तथा अन्य जीवों में उतना अंतर नहीं है जितना धर्मावलंबी पंडे बतलाना चाहते हैं।
इस लेख के साथ ही यह लेख-माला एक तरह से समाप्त जाती है। इसमें हमने देखा कि कैसे हम शब्दों के जरिए ही नहीं बोलते, बल्कि संपूर्ण शरीर से अपने विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं। इस लेखमाला की सामग्री इस विषय पर डेसमंड मोरिस नामक अंग्रेज वैज्ञानिक ने जो दो-एक अच्छी किताबें लिखी हैं, उससे ली है। जो पाठक अंग्रेजी पढ़ लेते हों वे इन दो पुस्तकों को पढ़ें –
द नेकेड एप
अर्थात, नंगा नरवानर, जिसमें मनुष्य व्यवहार का अच्छा विश्लेषण है। पुस्तक का नाम नंगा नरवानर इसलिए रखा गया है क्योंकि नरवानरों में (गोरिल्ला, चिंपैंजी, उरांगउटान और मनुष्य) केवल मनुष्य ऐसा नरवानर है जिसके शरीर पर बाल नदारद है। पुस्तक में यह भी बताया गया है कि ऐसा क्यों हुआ है।
मैन-वाचिंग
इस पुस्तक का नामकरण बर्ड-वाचिंग (पक्षी निरीक्षण) की तर्ज पर किया गया है, और इसमें मनुष्यों पर वैज्ञानिक सूक्ष्म दृष्टि वैसे ही डाली गई है जैसे पक्षी-निरीक्षण में पक्षियों पर डाली जाती है, यानी, इस पुस्तक में मनुष्य को कुतूहल का विषय मानकर उसकी हर छोटी-बड़ी गतिविधियों और आदतों का बारीक अध्ययन और विश्लेषण का अत्यंत रोचक रिपोर्ट है। पुस्तक पढ़ते हुए, अपने को वैज्ञानिक वीक्षण के केंद्र में पाकर बड़ा अजीब लगता है, पर हमारी अनेक आदतों और व्यवहारों का रहस्य भी खुलता जाता है। इसलिए यह पुस्तक बहुत ही रोचक है।
अगले कुछ लेखों में इन पुस्तकों के कुछ ऐसे अंशों की चर्चा करेंगे, जो मनुष्य-व्यवहार पर प्रकाश डालते हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: बिना बोले बातचीत
Sunday, August 09, 2009
ईश्वर को नमन क्यों?
बिना बोले बातचीत - 6
ईश्वर या हमसे बड़े एवं शक्तिशाली व्यक्ति के प्रति आदर प्रकट करने के लिए हम उनके सामने घुटने टेकते हैं (ईसाई), शरीर को झुकाते हैं (मुसलमान), या साष्टांग प्रणाम करते हैं (हिंदू)। इन सब चेष्टाओं में जो सामान्य बात है वह यह है कि हम अधिक शक्तिशाली व्यक्ति से (यानी ईश्वर से) हमारी ऊंचाई कम कर लेते हैं। कभी-कभी किसी व्यक्ति के प्रति आदर दिखाने के लिए हम अपने सिर से टोपी अथवा पगड़ी उतार देते हैं। इससे भी हमारी ऊंचाई उस व्यक्ति से कम हो जाती है। दिलचस्प बात यह है कि सैनिकों की सलूट मारने की क्रिया भी टोपी अथवा पगड़ी उतारने की क्रिया का ही सांकेतिक रूप है।
इसके ठीक विपरीत यदि हमें किसी व्यक्ति के प्रति अनादर दिखाना हो, तो हम अपनी ऊंचाई को उससे अधिक करने की कोशिश करते हैं। यह विशेषकर तब स्पष्ट होता है जब दो व्यक्ति झगड़ रहे होते हैं। दोनों सीना तानकर और पंजों के बल खड़े होकर अपने प्रतिद्वंद्वी से ऊंचा होने की चेष्टा करते हैं।
हम पगड़ी, टोप, हैट, मुकुट, किरीट, मोर-पंख आदि का धारण भी इसीलिए करते हैं। इससे हमारी ऊंचाई अधिक प्रतीत होती है, जिससे दूसरे लोग रौब में आ जाते हैं। पगड़ी उतारना, बेइज्जत करने के बराबर है। किसी के पैरों में अपनी पगड़ी रख देना, उसके आसमने आत्म-समर्पण करने का संकेत देता है।
इस सामान्य नियम का शायद एक ही अपवाद है। वह है दरबार जहां राजा तो बैठा होता है, जब कि उसके दरबारी खड़े होते हैं। परंतु यहां भी राजा का आसान ऊंचाई पर होता है जिससे बैठे होने पर भी वह सामने खड़े दरबारियों से अधिक ऊंचाई पर रहता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: बिना बोले बातचीत
Saturday, August 08, 2009
हाथ मिलाने का असली अर्थ
बिना बोले बातचीत - 5
शारीरिक चेष्टाएं कुछ विशिष्ट संदर्भों में विशिष्ट अर्थ भी ग्रहण कर लेती हैं। उदाहरण के लिए नृत्य की मुद्राओं को लिया जा सकता है। प्रत्येक मुद्रा का अर्थ हमारी संस्कृति द्वारा निर्धारित होता है। एक अन्य उदाहरण परिवहन पुलिस द्वारा उपयोग में लाते शारीरिक संकेत हैं, जिनके भी अत्यंत विशिष्ट अर्थ होते हैं। इसी प्रकार गूंगे-बहरों के लिए विकसित संकेतों की भाषा लगभग उतनी ही व्यंजक होती है जितनी हमारी सामान्य भाषा, बशर्ते कि हम उन संकेतों का सही अर्थ जान जाएं। क्रिकेट के मैदान में भी अंपायर द्वारा सांकेतिक भाषा का प्रयोग होता है।
इतना ही नहीं, प्रत्येक समुदाय की सांकेतिक भाषा अपने-आप में विशिष्ट होती है। उदाहरण के लिए भारत में किसी व्यक्ति से मिलने पर हाथ जोड़कर नमस्ते किया जाता है। यूरोप आदि प्रदेशों में उससे हाथ मिलाया जाता है। जापान आदि देशों में उसके सामने झुककर उसका स्वागत किया जाता है।
प्रसंगवश हाथ मिलाने की प्रथा कैसे आरंभ हुई यह जानना रोचक रहेगा। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इसकी शुरुआत यूरोप में मध्य युग में हुई थी। तब संपूर्ण यूरोप में बख्तरबंद घुड़सवार योद्धा हथियारों से लैस होकर घूमा करते थे। जब एक योद्धा दूसरे से मिलता था जिससे वह युद्ध नहीं करना चाहता, तो वह अपने दाएं हाथ की हथेली को उसकी ओर बढ़ाता था जिसका अर्थ था, "देखो, मेरे हाथ में हथियार नहीं है। मैं मित्रता चाहता हूं". यही प्रथा विकसित होकर हाथ मिलाने की प्रथा में बदल गई।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
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Friday, August 07, 2009
सायास शारीरिक चेष्टाओं से बातचीत
बिना बोले बातचीत - 4
पिछले लेख में हमने देखा कि हमारे मनोभावों को अनेक शारीरक चेष्टाएं भी व्यक्त करती है। मन में किसी प्रकार के भाव आने पर उस भाव से जुड़ी शारीरिक चेष्टाएं भी दिखाई देने लगती हैं। इन्हें देखकर कोई समझ सकता है कि हमारे मन में किस तरह के भाव हैं।
इन अनायास चेष्टाओं के अलावा हम अनेक सायास चेष्टाएं भी करते हैं जो अनेक सूचनाएं देती हैं। उदाहरण के लिए हाथ की सभी उंगलियों के सिरों को मिलाकर मुंह की ओर ले जाने का अर्थ है, "मुझे खाना दो". इसी समय दूसरे हाथ से पेट को सहलाना और शरीर को थोड़ा झुका लेने का अर्थ है, "मुझे भूख लगी है, खाना दो". सिर को ऊपर-नीचे हिलाकर हम सहमति व्यक्त करते हैं और दाएं-बाएं हिलाकर असहमति। हाथों को जोड़कर किसी को नमस्ते करना तथा किसी की ओर अंगूठा दिखाना, ये दोनों सायास की गई चेष्टाएं हैं जो बहुत अर्थगर्भित हैं। इसी प्रकार आंख दबाना एक ऐसी चेष्टा है जो अनेक बातों को व्यक्त कर सकती हैं, जैसे गोपनीयता, अश्लीलता, मित्रता आदि।
हाथ हिलाकर या केवल तर्जनी को हिलाकर हम असहमति और नाराजगी व्यक्त करते हैं। खुली हथेली को खड़ाकर दिखाकर हम रुकने का संकेत करते हैं, और हथेली की एक खास प्रकार की चेष्टा करके हम किसी को आगे बढ़ जाने का संकेत दे सकते हैं। हाथ कितने वाचाल हो सकते हैं, इसे समझने के लिए ट्रैफिक पुलिसमैन द्वारा हाथों से की जानेवाली चेष्टाओं को देखना काफी है। क्रिकेट का अंपायर भी हाथ की चेष्टाओं का खूब उपयोग करते हैं।
दोनों भौंहों को ऊपर उठाकर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। एक भौंह को ऊपर उठाकर हम विनोद या कुतूहल दर्शाते हैं। भौंहों को मिलाकर हम गुस्सा जतलाते हैं।
इन सब चेष्टाओं का अत्यंत कलात्मक और परिष्कृत उपयोग नृत्य में होता है। कथकली आदि नृत्यकलाओं में इन चेष्टाओं को अधिक असरकारक बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के मुखौटे और मेकअप भी धारण किए जाते हैं।
भाषा के साथ-साथ ये सायास शारीरिक चेष्टाएं भी हमें अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने में सहायक होती हैं। कई बार ये भाषा के पूरक भी होती हैं। उदाहरण के लिए उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब आपको कोई किसी जगह तक पहुचने के मार्ग के बारे में बता रहा है। वह शब्दों से अधिक हाथ अथवा उंगलियों द्वारा दिशा-निर्देश करता है।
(... जारी)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
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Thursday, August 06, 2009
मुहावरे और शारीरिक चेष्टाएं
बिना बोले बातचीत - 3
बिक्री कर्मचारी अपने ग्राहक को कोई चीज बेच पाता है या नहीं, यह ग्राहक पर उसके अच्छा प्रभाव डालने पर निर्भर करता है। चूंकि उसे ग्राहक से काम निकालना होता है, इसलिए उसमें उसके प्रति दैन्य भाव जागाना फायदेमंद हो सकता है। इसके लिए वह ग्राहक से झुक-झुककर बोल सकता है, बार-बार हाथ-जोड़ सकता है और ऐसा अभिनय कर सकता है कि वह हर बात में ग्राहक से निम्न दर्जे का है। इससे ग्राहक में दया भाव जग जाएगा और वह बेची जा रही वस्तु आवश्यक न होने पर भी खरीद लेगा।
यदि बिक्री कर्मचारी ग्राहक की शारीरिक चेष्टाओं के अध्ययन से यह समझ सके कि उसके मनोभाव, स्वभाव आदि कैसे हैं, तो उसी के अनुरूप बातचीत करके उसे बहका कर उसे सामान बेच सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे शरीर की अनेक चेष्टाओं से हमारे मन की बात स्पष्ट होती है। उदाहरण के लिए व्याकुल अवस्था में हम पैरों को निरंतर हिलाते हैं, माथे से पसीना बारबार पोंछते हैं, बारबार कमीज का कालर ठीक करते हैं अथवा हाथ मलते रहते हैं। खुशी में हम अपनी मुट्ठियां हवा में उछालते हैं। निराशा जाहिर करते हुए हम एक हाथ की मुट्ठी को दूसरे हाथ की हथेली में मारते हैं। गुस्से में हम बहुधा दांतों को उभाड़कर पीसने लगते हैं। हमारी आंखें लाल हो जाती हैं तथा मुट्ठियां भींच जाती हैं। पैरों को जोर से पटकर हम गरज पड़ते हैं। ये सब चेष्टाएं हम अनायास ही करते हैं। हमारी भाषाओं के अनेक मुहावरों में इन चेष्टाओं को चित्रित किया गया है, जैसे, आंखें लाल होना, आंखे तरेरना, हाथ पर हाथ धरकर बैठना, नाक-भौं सिकोड़ना, आदि।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
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Wednesday, August 05, 2009
साक्षात्करों में सफलता
बिना बोले बातचीत - 2
मान लीजिए, दो उद्योगों के प्रतिनिधि व्यावसायिक समझौता करने हेतु एकत्र हुए हैं। दोनों अपनी-अपनी कंपनी के उच्च पदाधिकारी हैं और उनका ही निर्णय अंतिम होगा। इसलिए समझौते की शर्तों पर सहमति होती है या नहीं, यह इन दोनों प्रतिनिधियों पर पूरा-पूरा निर्भर करता है। पर दोनों ही प्रतिनिधि एक-दूसरे को नहीं जानते। वे पहली ही बार एक-दूसरे से मिलनेवाले हैं। समझौते का रुख एवं परिणाम बहुत कुछ दोनों प्रतिनिधियों के स्वभावों, चारित्रिक विशेषताओं, उनके आत्मविश्वास, अनुभव आदि पर निर्भर होगा। यदि इनमें से कोई भी प्रतिनिधि दूसरे के बारे में उपर्युक्त विषयों में कुछ जान सके, तो वह इस जानकारी का लाभ उठाते हुए समझौते के दौरान अपनी शर्तों को अपने प्रतिद्वंद्वी से मनवा सकता है, या उसके कठिन शर्तों से सहमत होने से बच सकता है।
इसी संदर्भ में उसकी शारीरिक चेष्टाओं का बारीकी से अवलोकन अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि केवल उनकी सहायता से यह जाना जा सकता है कि वह व्यक्ति अनुभवी है या नौसिखिया, मानसिक दृष्टि से उत्तेजित अवस्था में है या सधा हुआ, आसानी से दबाव में आनेवाला है अथवा दूसरों पर दबाव डालनेवाला।
यदि उनमें से एक प्रतिनिधि बार-बार माथे का पसीना पोंछता रहता हो, अपनी शर्ट का कालर ठीक करता रहता हो या हाथ मलता रहता हो, तो स्पष्ट ही इन सबसे यही जाहिर होता है कि वह सहमा हुआ है, कम अनुभवी है और समझौते के परिणामों से आशंकित है। यदि उसकी इन सब चेष्टाओं को देखकर दूसरा प्रतिनिधि समझ जाए कि वह किस मनस्थिति में है, तो वह आसानी से इसका फायदा उठा सकता है। इसलिए उद्योगों, राष्ट्रों आदि के उच्च प्रतिनिधियों को खास प्रशिक्षण दिया जाता है कि वे अपनी ऐसी शारीरिक चेष्टाओं पर पूर्ण नियंत्रण रखें जिनसे दूसरा व्यक्ति उनके मनोभावों को समझ सकता हो। कुछ अनुभवी लोग इससे आगे बढ़कर जानबूझकर ऐसी शारीरिक चेष्टाएं करते हैं जिससे कि दूसरों पर एक खास प्रकार का असर पड़े। उदाहरण के लिए वास्तव में डरा हुआ एवं आशंकित होने के बावजूद यदि कोई ऊंची आवाज में, सीना तानकर, मुट्ठियों को बार-बार हवा में उछालते हुए बोले, तो सामनेवाला इस गलतफहमी में आ सकता है कि यह तो काफी रौबीला व्यक्ति है, जबकि असलियत इसके ठीक विपरीत होगी। उसकी इस गलतफहमी का वह लाभ उठा सकता है और दूसरों को स्वयं अपनी कमजोरियों का लाभ उठाने से रोक सकता है।
अब आते हैं अधिक रोजमर्रा की एक वस्तुस्थिति में, यानी नौकरियों के साक्षात्कार। साक्षात्कारों के दौरान अधिकांश आवेदक घबराए हुए और आशंकित अवस्था में होते हैं। उन्हें यह चिंता रहती है कि क्या उन्हें नौकरी मिलेगी या नहीं, साक्षात्कार लेने वाले उनसे किस प्रकार के प्रश्न पूछेंगे, क्या वे उनका ठीक प्रकार से जवाब दे पाएंगे या नहीं। उनकी घबरहाट उनकी शारीरिक चेष्टाओं से प्रकट होती है। इसे देखकर साक्षात्कार लेने वाले समझ जाते हैं कि वे तनाव की स्थिति में हैं और उन्हें अधिक तंग करते हैं। परंतु यदि वे अपनी इन चेष्टाओं को नियंत्रण में रख सकें, तो घबराया हुआ होने पर भी अपनी घबराहट के बारे में साक्षात्कार लेने वाले जान नहीं पाएंगे, और वे इस गलतफहमी में हो जाएंगे कि यह आवेदक अधिक संतुलित एवं आत्मविश्वासी लगता है। उनकी यह धारणा उस आवेदक को नौकरी दिलाने में काफी मदद कर सकती है।
इस प्रकार शारीरिक चेष्टाओं तथा उनके द्वारा व्यक्त मनोभावों की जानकारी लाभदायक हो सकती है।
(... जारी)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
लेबल: बिना बोले बातचीत
Tuesday, August 04, 2009
बिना बोले बातचीत -1
राजनीतिकों, अभिनेताओं, कूटनीतिज्ञों, बिक्री कर्मचारियों व अन्य अनेक व्यवसायी लोगों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वे अपने प्रतिद्वंद्वियों के हावभावों, उनके अव्यक्त विचारों व मनस्थिति का कितना सटीक आंकलन कर पाते हैं। इसके लिए इन सभी लोगों को मनुष्य की शारीरिक चेष्टाओं, खास करके उनके चेहरे के हावभावों, पर विशेष ध्यान देना पड़ता है, क्योंकि ये अनायास ही मन के विचारों का खुलासा करते हैं। आजकल प्रबंधकों, कूटनीतिज्ञों, बिक्री कर्मचारियों आदि को तैयार करते समय उन्हें यह भी सिखाया जाता है कि वे किस प्रकार मनुष्यों की शारीरिक चेष्टाओं के आधार पर उनके मन के अव्यक्त भावों को समझ सकते हैं। मनोविज्ञान की एक पूरी शाखा इस विषय को लेकर चलती है और उसका मुख्य उद्देश्य है मनुष्य की हर शारीरिक चेष्टा का वैज्ञानिक अध्ययन करके उसके द्वारा व्यक्त विचार, स्वभाव, हाव-भाव, मनस्थिति आदि के बारे में अधिकाधिक जानना।
यों तो यह कोई नई विद्या नहीं है। साहित्य से परिचित व्यक्ति भाव और अनुभाव के सिद्धांत से अनभिज्ञ नहीं होंगे। भाव यानी मनस्थिति, जैसे, क्रोध, लज्जा, भय, विस्मय, जुगुप्सा, आदि, और अनुभाव यानी ऐसी शारीरिक चेष्टाएं जो मन पर किसी भाव के हावी हो जाने पर प्रकट होती हैं। उदाहरण के लिए क्रोधित होने पर भुजाएं फड़क उठती हैं, आंखें लाल हो जाती हैं, छाती फूल जाती है, मुट्टियां भींच जाती हैं, आदि। इसी प्रकार लज्जा अनुभव होने पर आंखें झुक जाती हैं, चेहरा लाल हो जाता है और हाथों की उंगलियां मली जाती हैं। इन सब चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं। कवि एवं साहित्यकार भाव-अनुभाव का काफी बारीकी से अध्ययन करते हैं क्योंकि इनकी अच्छी जानकारी के बिना नायक-नायिका आदि के मनोभावों को ठीक प्रकार से प्रकट नहीं किया जा सकता।
परंतु आजकल इस विद्या की उपयोगिता केवल कवि और सहृदय तक सीमित नहीं रह गई है। कोई भी व्यक्ति जिसे दूसरे मनुष्यों से काम पड़ता हो, चाहे वह खरीदारी पर निकली गृहणी हो या राष्ट्र का नायक, इस विद्या का लाभ उठाकर अपने कामों को अधिक कारगर ढंग से सिद्ध कर सकता है।
आइए इस लेख माला में इस अनोखे विज्ञान पर कुछ अधिक चर्चा करें।
(... जारी)
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 4 टिप्पणियाँ
लेबल: बिना बोले बातचीत
Monday, August 03, 2009
महाभारत किसने लिखा?
आप सोच रहे होंगे, यह भी कैसा सवाल है। कौन नहीं जानता कि महाभारत को व्यास ऋषि ने लिखा है। पर आपका यह उत्तर गलत है। विश्वास नहीं होता? तो पढ़िए आगे।
जब भगवान व्यास ने महाभारत की कहानी मन में रच ली थी तो उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई। व्यास जी महाभारत को काव्य रूप देना चाहते थे और चूंकि महाभारत बहुत लंबा और जटिल था, यह बहुत जरूरी था कि कोई विद्वान उसे जैसे-जैसे वे बोलते जाते, लिखता जाए। विद्वान भी ऐसा हो कि लिखते वक्त कोई गलती न करे।
यह सचमुच एक विकट समस्या थी जिसे सुलझाने में व्यास जी असमर्थ थे। इसलिए उन्होंने ब्रह्माजी का ध्यान किया। जब ब्रह्मा प्रत्यक्ष हुए तो व्यास ने अपनी समस्या उनके सामने रखी।
ब्रह्मा यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि व्यास ने इतने महान काव्य की रचना कर ली है। उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, गणेश की सहायता लें।
व्यास जी गणेश के पास पहुंचे। उनकी परेशानी सुनकर गणेश महाभारत को लिखने को राजी तो हुए, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी, कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक मुझे बीच में न रुकना पड़े।
व्यास जी समझ गए कि यदि वे इस शर्त को मान लेते हैं, तो आगे चलकर कठिनाइयां उत्पन्न होंगी। इसलिए उन्होंने भी एक शर्त रखी। वह यह कि लिखने से पहले गणेश को हर श्लोक का अर्थ समझना होगा।
बीच-बीच में व्यासजी कुछ कठिन श्लोक रच देते और जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते, तो कुछ और श्लोक वे रच देते और इस तरह महाभारत लिखा गया, रचयिता व्यास द्वारा नहीं, बल्कि गणेश जी द्वारा।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 16 टिप्पणियाँ
लेबल: महाभारत
Sunday, August 02, 2009
हिंदी का पहला समांतर कोष
हिंदी का पहला समांतर कोष (थिसोरस) अरविंद कुमार और उनकी धर्म पत्नी कुसुम कुमार ने तैयार किया है। अरविंद कुमार माधुरी नामक फिल्म पत्रिका के संपादक रह चुके हैं। इस कोष को पूरा करने में उन्हें 25 साल लगे। कोष को दिल्ली स्थित नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। इसमें 160,855 शब्दों के समांतर शब्द दिए गए हैं।
शब्द कोष और समांतर कोष का अंतर समझाते हुए अरविंद कुमार कहते हैं कि जहां शब्द कोष शब्दों को परिभाषा देते हैं, समांतर कोष भाषा को शब्द देता है। श्री कुमार ने समांतर कोष पर 1952 में काम शुरू किया था, जिससे ठीक एक सदी पहले, यानी 1852 को, अंगरेजी भाषा का पहला समांतर कोष रोजर ने प्रकाशित करवाया। श्री कुमार बताते हैं कि संस्कृत भाषा में सबसे पहले समांतर कोष बने।
कोष पर काम करने के अनुभवों को सुनाते हुए श्री कुमार कहते हैं कि उनका पहला प्रशंसक एक बिल्ली थी जो उनके कमरे में एक कोने पर लेटी-लेटी उनके काम को देखती रहती थी। कभी-कभी वह उनकी गोदी पर भी आकर बैठ जाती थी। जिस काम को पूरा करने में पूरे ढाई दशक लगे उसके बारे में श्री अरविंद का सोचना था कि वह बस दो-ढाई सालों की बात है। सौभाग्य से 1980 के दशक में कानपुर स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के एक छात्र श्री मोहन तांबे ने जिस्ट कार्ड का आविष्कार किया जिससे कंप्यूटर पर हिंदी के तथ्य कोष संकलित करना संभव हुआ। इससे कोष का काम काफी सरल हुआ।
भविष्य के लिए उनकी अनेक महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं, जैसे हिंदी-अंगरेजी का समांतर कोष और समस्त भारतीय भाषाओं का एक साझा समांतर कोष का निर्माण। श्री कुमार बच्चों के लिए कहानियां भी लिखना चाहते हैं।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: समांतर कोष, हिंदी
Saturday, August 01, 2009
तिलक का महत्व
शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है। यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है, और तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।
मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है, जहां सबकी नजर अटकती है। उसके मध्य में तिलक लगाकर, विशेषकर स्त्रियों में, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।
स्त्रियां लाल कुंकुम का तिलक लगाती हैं। यह भी बिना प्रयोजन नहीं है। लाल रंग ऊर्जा एवं स्फूर्ति का प्रतीक होता है। तिलक स्त्रियों के सौंदर्य में अभिवृद्धि करता है। तिलक लगाना देवी की आराधना से भी जुड़ा है। देवी की पूजा करने के बाद माथे पर तिलक लगाया जाता है। तिलक देवी के आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 6 टिप्पणियाँ
लेबल: विविध